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द्वितीय अधिकार आचारांग आदि बारह अंग, उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्व और सामायिकादि चौदह प्रकीर्णक स्वरूप द्रव्यश्रुत है और इनके सुनने से जो उत्पन्न हुआ ज्ञान है वह भावश्रुत है। अथवा पुद्गल द्रव्य स्वरूप अक्षर पदादिक रूप से द्रव्यश्रुत है। और उन द्रव्यश्रुत के सुनने से उत्पन्न अर्थज्ञान है वह भावश्रुत है। इस ग्रन्थ में लोकोत्तर द्रव्य और भावश्रुत से प्रयोजन है।
पज्जायक्खरपदसंघायं पडिवत्तियाणियोगं च । पाहुड पाहुडपाहुड वत्थू पुव्वं समासेहिं ॥६६॥
पर्यायाक्षरपदसंघातं प्रतिपत्ति अनुयोगं च ।
प्राभूतं प्राभूतप्राभृतं वस्तु पूर्व समासैः॥ शब्दलिंगज श्रुतज्ञान के बीस भेद निम्न प्रकार हैं। पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपनि समास, अनुयोग, अनुयोग समास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभूत समास, प्राभूत, प्राभृत समास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व और पूर्व समास ।। ६६ ॥
विशेषार्थ इन श्रुतज्ञान के बीस भेदों का संक्षेप में कथन
श्रुतज्ञान के अनेक विकल्पों में एक विकल्प ह्रस्व अक्षर रूप भी है। इस विकल्प में द्रव्य की अपेक्षा अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं से निष्पन्न स्कन्ध का संचय होता है। इस एक ह्रस्वाक्षर विकल्प के अनेक बार अनन्तानन्त भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नाम का श्रुतज्ञान होता है। वह पर्याय ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के होता है और श्रुतज्ञानावरण के आवरण से रहित है। सभी जीवों के उतने ज्ञान ऊपर कभो आवरण नहीं पड़ता। यदि उस पर आवरण पड़ जाये तो ज्ञानोपयोग का सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोग के अभाव होने से जीव का अभाव हो जायेगा। वह निश्चय सिद्ध है कि जीव की उपयोग शक्ति का कभी विनाश नहीं होता। जब पर्यायज्ञान के अनन्तवें भाग के साथ मिल जाता है तब पर्याय समास ज्ञान का प्रारम्भ होता है। पर्याय समास के ज्ञान में अनन्तभाग वृद्धि आदि षट हानि वृद्धि होने पर अक्षर ज्ञान होता है अक्षर ज्ञान के पूर्व और पर्याय ज्ञान के ऊपर जितने भेद हैं वे सब पर्याय समास ज्ञान कहलाते हैं। यह पर्याय समास ज्ञान