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द्वितीय अधिकार
९७ अवधिज्ञान का कथन भवगुणपच्चयविहियं ओहोणाणं तु अवहिगं समये । सीमाणाणं रूवीपदत्थसंघादपच्चक्खं ॥६९॥
भवगुणप्रत्ययविहितं अवधिज्ञानं तु अवधिगं समये।
सीमाज्ञानं रूपिपदार्थसंघातप्रत्यक्षं ॥ जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमा से युक्त अपने विषयभूत रूपी पदार्थों के समूह को प्रत्यक्ष जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। सीमा ( मर्यादा) से पुक्त जानने के कारण परमागम में इसे सीमा ज्ञान भी कहा है । अधिकतर नोचे के विषय को जानने वाला होने से या परिमित विषय वाला होने से यह अवधिज्ञान कहलाता है। भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय के भेद से अवधिज्ञान दो प्रकार का है ।। ६९ ॥
विशेषार्थ जिस अवधिज्ञान के होने में भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है।
आयु नामकर्म के उदय से प्राप्त पर्याय को भव कहते हैं आत्मा की जो पर्याय आयु नामकर्म के उदय विशेष तथा शेष कारणों ( अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम) की अपेक्षा से उत्पन्न होती है। तथापि इसमें साधा. रण कारण भव है अर्थात् इस ज्ञान में अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होते हुए भी भव की मुख्यता होने से यह भवप्रत्ययअवधिज्ञान कहलाता है। यदि इस ज्ञान में अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, भव ही कारण होता तो सभी देव नारकियों के अविशेष रूप से समान अवधिज्ञान होता, परन्तु देव नारकियों में अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार अवधिज्ञान में आगम में तारतम्य स्वीकार किया है, अतः भवप्रत्ययअवधिज्ञान में भी अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है। जैसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में अहिंसादिक व्रत कारण हैं वैसे भवप्रत्ययअवधिज्ञान में अहिंसादि व्रत कारण नहीं है।
देसोही परमोही सव्वोहि होदि तत्थ तिविहं तु । गुणपच्चयगो णियमा देसोही गरतिरक्खाणं ॥७॥
देशावधिः परमावधिः सर्वावधिर्भवति तत्र त्रिविधस्तु। गुणप्रत्ययको नियमात देशावषिः नरतिरश्चां ॥