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अंगपण्णत्ति इस प्रकार उत्पाद पूर्व श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते हुए अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप सकल श्रुतज्ञान के सब अक्षरों की वृद्धि होने तक पूर्व समास ज्ञान होता है।
इस प्रकार पूर्वानुपूर्वी के अनुसार श्रुतज्ञान की बोस प्रकार की प्ररूपणा की है।
इसमें प्रतिसारी बुद्धि के द्वारा कथन किया जाता है तो लोक बिन्दुसार पूर्व से खण्ड करते-करते पर्याय ज्ञान तक कथन करना चाहिए।
इसमें पर्याय, अक्षर आदि ज्ञान एक प्रकार के होते हैं और पर्याय समास आदि असंख्यात प्रकार के होते हैं।
इस प्रकार आवरणीय (श्रुतज्ञान के ऊपर आवरण करने वाले कर्म ( शक्ति के ) भेद से बीस प्रकार के श्रुतज्ञान का वर्णन किया है।
वीसवीहं तं तेसि आवरणविभेयतो हि णियमेण । सुहमणिगोदस्स हवे अपुणस्स पढमसमयम्हि ॥६७॥ विशतिविधं तत्तेसां आवरणविभेदतो हि नियमेन ।
सूक्ष्मनिगोदस्य भवेत् अपूर्णस्य प्रथमसमये ॥ लद्धक्खरपज्जायं णिच्चुग्घाडं लहुं गिरावरणं । उवरूवरिवढिजुत्त वीसवियप्पं हु सुदणाणं ॥६८॥
लब्ध्यक्षरपर्यायं नित्योद्घाटं लघु निरावरणं । उपर्युपरिवृद्धियुक्तं विंशतिविकल्पं हि श्रुतज्ञानं ॥
___ इदि सुदणाणं-इति श्रुतज्ञानं । अर्थात् श्रुतज्ञान पर आवरण करने वाले कर्म बीस प्रकार के हैं अतः श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के भेद से श्रुतज्ञान बीस प्रकार का कहा है । इस बीस प्रकार के श्रुतज्ञान में लब्ध्यक्षर पर्याय श्रुतज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त के उत्पन्न होने के प्रथम समय में होता है। यह सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक का जो लब्ध्यक्षर पर्याय ज्ञान है वह निरावरण है इतना ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है। पर्याय ज्ञान पर आवरण करने वाला पर्याय ज्ञानावरणीय है। इसी प्रकार पर्याय समास ज्ञानावरणीय आदि श्रुतज्ञान आवरण के बीस भेद हैं। पर्याय ज्ञान के ऊपर वृद्धि करने से पर्याय समास आदि ऊपर-ऊपर वृद्धि युक्त श्रुतज्ञान के पूर्व कथित बीस विकल्प होते हैं ।। ६७-६८ ॥
॥ इस प्रकार श्रुतज्ञान का कथन समाप्त हुआ ।।