Book Title: Angpanntti
Author(s): Shubhachandra Acharya, Suparshvamati Mataji
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 223
________________ अंगपण्णत्त धर्मात्माओं के दोषों को प्रगट नहीं करना उपगूहन अंग है । १९८ सन्मार्ग से च्युत होते हुए निज और पर के उपदेश देकर या तत्त्व चिन्तन कर परिणामों को करण अंग है । परिणामों को तत्त्व का स्थिर करना स्थिति जनप्रति धर्मात्मा में और धर्मात्माओं के प्रति नित्य अनुराग रखना वात्सल्य है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा अपनी आत्मा को उज्ज्वल करना तथा दान, तप, पूजा, विद्याओं के अतिशय आदि के द्वारा जिनधर्म का उद्योत करना, प्रभावना अंग है । इन सम्यग्दर्शन के आठ अंगों (गुणों ) को धारण करना तथा सामायिक आदि से लेकर लोकबिन्दुसार पर्यन्त शास्त्ररूपी समुद्र में जैसा उपदेश दिया है उसका उसी रूप श्रद्धान करना, जिनेन्द्र के वचनों में संशय नहीं करना, दर्शन विनय है अथवा जिनधर्म के अवर्णवाद को दूर करना जिनधर्म की आसादना नहीं करना दर्शन विनय है । सम्यग्ज्ञानी और सम्यग्दृष्टि पुरुषों के पाँच प्रकार के दुश्चर चारित्रों का वर्णन सुनकर रोमाञ्च आदि के द्वारा अन्तर्भक्ति प्रगट करना, मस्तक पर अंजुलि रखकर प्रणाम करना आदि क्रियाओं के द्वारा चारित्रवन्तों का आदर करना और भावपूर्वक सम्यक्चारित्र का निर्दोष अनुष्ठान करना चारित्र विनय है । तप का तथा तपस्वियों का आदर करना, तपोऽनुष्ठान में अनुराग रखना, तपस्वियों की अवहेलना नहीं करना तपो विनय है । जिस प्रकार सेवक राजा की आज्ञानुसार चलता है उसी प्रकार गुरु की आज्ञानुसार चलना उपचार विनय है । उपचार विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है । कायिक, वाचनिक और मानसिक के भेद से वह तीन प्रकार का है। आचार्य गुरु आदि के समक्ष आने पर उठकर खड़े होना, उनके पीछेपीछे चलना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अंजुलि जोड़ना, उनके उपकरण आदि रखना, उनके हाथ-पैर दबाना आदि प्रत्यक्ष कायिक उपचार विनय है । परोक्ष में उनको हाथ जोड़कर नमस्कार करना परोक्ष कायिक उपचार विनय है । प्रत्यक्ष में वचन से उनकी स्तुति करना, नम्र भाव से मधुर

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