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द्वितीय अधिकार अप्रत्याख्यान-इसमें 'अ' का अर्थ है 'ईषत्' अर्थात् इस कोटि की कषायों के उदय में रहने से जीव थोड़ा सा भी प्रत्याख्यान (व्रत, संयम, त्याग) नहीं कर पाता, श्रावक के अणुव्रतों को भी धारण कर नहीं सकता। ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारित्र मोहनोर कर्म को अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं।
प्रत्याख्यान-जिन क्रोधादि चार कषायों के उदय से प्रत्याख्यान अर्थात् पूर्ण व्रतों (महाव्रतों) का आवरण हो, जिसके कारण धर्म मार्ग में आरूढ़ श्रावक-साधु के महाव्रतों का धारण नहीं कर सके, इसमें बाधा उत्पन्न हो, उन कषायों को प्रत्याख्यानावरण कहते हैं।
संज्वलन-जिन क्रोधादि कषायों के उदय से संयम 'स' (कषायों) से एक रूप होकर 'ज्वलित' हो, प्रकाश करे, अर्थात् कषाय-अंश से मिला हुआ संयम रहे, कषाय रहित निर्मल यथाख्यात संयम न हो सके, उन्हें संज्वलन कषाय कहते हैं। ___नो-कषाय-कषायों को उत्तेजित करने वाली भी मनोवृत्तियाँ हैं जिन्हें नो-कषाय कहते हैं। यहाँ नो का अर्थ है 'ईषत्' या अल्प । इन्हें नोकषाय इसलिए कहा गया है कि जीवों की स्वाभाविक, जन्मजात, प्राकृतिक वृत्तियाँ, जो स्वभावतः ही जीवों में उत्पन्न होती रहती हैं । ये स्वयं में कषाय रूप नहीं हैं, परन्तु इन वृत्तियों के उत्तेजित होने पर मनुष्य इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए रागादि से प्रेरित होकर क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों से मलिन (विकार युक्त) नाना प्रकार के उद्यम (चेष्टाएँ) करता है, कषाय भावों से युक्त होता है, इसलिए उन्हें कषाय नहीं, नो-कषाय कहा गया है । नो-कषाय इस प्रकार है
हास्य-जिससे हँसी आवे उसे हास्य कहते हैं।
रति-जिससे अनुरक्ति, स्नेह, राग या किसी से विशेष प्रेम हो उसे रति कहते हैं, जैसे-देश, धन, पत्नी, माता-पिता पुत्रादि के प्रति प्रीति । ___ अरति-जिसके उदय से किसी वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ के प्रति द्वेष या अरुचि उत्पन्न होती हो, ग्लानि का भाव आता हो, उस वस्तु से मन हट जाता हो, उसे अरति कहते हैं। __शोक-जिसके उदय से किसी इष्ट या प्रिय वस्तु का वियोग होने पर मन में अस्थिरता, क्लेश उत्पन्न होता हो, उसे शोक कहते हैं।
भय-जिसके उदय से भीति उत्पन्न हो, अर्थात् किसी से चित्त में घबराहट या उद्वेग उत्पन्न हो, उसका नाम भय है।