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अंगपण्णत्ति .........
धारणा ज्ञान, बारह-बारह प्रकार का है। उसी प्रकार स्पर्शन आदि इन्द्रियों के भेद भी जानना चाहिये । ।। मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेदों का प्रकरण समाप्त हुआ।
श्रुतज्ञान का कथन सुदणाणं अत्थादो अत्यंतरगहणमेव मदिपुव्वं । दवसुदं भावसुदं णियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥६५॥
श्रुतज्ञानमर्थात् अर्थान्तरग्रहणमेव मतिपूर्व ।
द्रव्यश्रतं भावश्रुतं नियमेनेह शब्दजं प्रमुखं ॥ मतिज्ञान से जाने हए पदार्थों के अवलम्बन से तत्सम्बन्धि दूसरे पदार्थ का ग्रहण होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है । वह द्रव्यश्रुत और भावश्रुत के भेद से दो प्रकार का है। वा वह श्रुतज्ञान, शब्द लिंगज
और अर्थलिंगज के भेद से दो प्रकार का है। इस ग्रन्थ में नियम से शब्दज (शब्द लिंगज) श्रुत की मुख्यता है ॥६५॥
विशेषार्थ जिस ज्ञान में मतिज्ञान कारण पड़ता है, जो मतिज्ञान से ग्रहण किये गये पदार्थों को छोड़कर तत्सम्बन्धित दूसरे पदार्थ में व्यापार करता है और श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। वह श्रुतज्ञान शब्द लिंगज और अर्थ-लिंगज के भेद से दो प्रकार का है।
शब्द (अक्षर) को सुनकर उत्पन्न होने वाला ज्ञान शब्दलिंगज ज्ञान कहलाता है। धूमादि लिंग (हेतु) को देखकर अग्नि आदि (लिंगि) का ज्ञान होता है वह अलिंगज श्रुतज्ञान कहलाता है । इसका दूसरा नाम अनुमान ज्ञान भी है। ___ शब्दलिंगज श्रुतज्ञान लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो प्रकार का है। सामान्य पुरुष के मुख से निकले हुए वचन समुदाय से जो ज्ञान उत्पन्न ह ता है वह लौकिक शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है। वीतराग प्रभु के मुख से निर्गत तथा गणधर देव के द्वारा रचित वचन समुदाय से जो श्रुतज्ञान होता है वह लोकोत्तर शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है। यहाँ लोकोत्तर श्रुतज्ञान से प्रयोजन है। इस लोकोत्तर श्रुतज्ञान के द्रव्य और भावश्रुत रूप से दो भेद हैं।