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द्वितीय अधिकार
सव्वत्थकपणीयं णाणमदीदं अणागदं कालं । सिद्धिमुवज्जं वंदे चउदहवत्थूणि विदियस्स ॥ ४३ ॥
सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानामतीतमनागतं कालः । सिद्धि प्राप्तं वन्दे चतुर्दश वस्तूनि द्वितियस्य ॥
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यह अंग सम्पूर्ण पदार्थों के भेद और उनके लक्षणों का छ्यानवे लाख पदों के द्वारा वर्णन करता है । हे भव्य मनुष्यों उस तत्त्वार्थ को तुम शुभ भावों से नमस्कार करो ॥ ४१ ॥
विशेष यह पूर्व चौदह वस्तु गत दो सौ अस्सी प्राभृतों के छ्यानवे लाख पदों के द्वारा अंगों के अर्थात् प्रधानभूत पदार्थों का वर्णन ( कथन ) करता है ।
आग्रायणीयपूर्व के अर्थाधिकार चौदह प्रकार के हैं वे इस प्रकार हैंपूर्वान्त, अपरान्त, ध्रुव, अध्रुव, चयनलब्धि, अध्रुवं संप्रधि (प्रणधिकल्प) अर्थ, भोमा, व्रतादिक, सर्वार्थ, कल्पनीय, ज्ञान, अतीत, अनागत काल में सिद्धि को प्राप्त इस प्रकार आग्राणीय नामक द्वितीय पूर्व की चौदह वस्तु के नाम हैं ।। ४२-४३ ।।
जिसमें गुण और पर्यायें रहती हैं उसको वस्तु कहते हैं । उसी प्रकार जिसमें अक्षर पद संघात आदि का समूह पाया जाता है । अर्थात् जिसमें बीस प्राभृत, चौबीस अनुयोग आदि पाये जाते हैं उसको वस्तु कहते हैं ।
विशेषार्थ
आग्रायणीय पूर्व में चौदह वस्तु हैं ।
पूर्वान्त - यद्यपि पूर्वान्त आदि का खुलासा देखने में नहीं आया तथापि शब्दार्थ से वर्णन किया जाता है ।
जैसे पूर्व का अर्थ काल का प्रमाण है । अथवा तीर्थ प्रवर्तन काल में तीर्थंकर भगवान् सकल श्रुत के अर्थ की अवगाहन करने में समर्थ गणधर का निमित्त पाकर पूर्व, पूर्वगत और सूत्रार्थ को कहते हैं वह पूर्व कहलाते हैं । उसी पूर्व, पूर्वगत और सूत्रार्थ की गगधर आचारांग आदि के क्रम से रचना करते हैं ।
अन्त का अर्थ धर्म, अवयव, नाश आदि अनेक हैं उसमें पूर्व के धर्म का अवयव का वर्णन जिसमें है वह पूर्वान्त कहलाता है । पर शब्द के अर्थ अनेक होते हैं, कहीं दूसरे अर्थ में होता है जैसे यहाँ 'पर' दूसरा है ।