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द्वितीय अधिकार
तिबालगोपरा र धम्मा हवंति । तप्परिणदं गव्वमविवहा । उप्पण्णमुप्पज्ज माणमुपस्समाणं, णटुं गस्समाणं, णखमाणं, ठिदं तिट्टमाणं विस्संतमिदि णवाणं तं धम्माणमुग्वण्णादीणं पत्तेयं णवविहत्तणसंभवादो एयासीदिविधपधम्मपरिणदव्ववण्णणं यं करेदि तमुप्पादपुवं ।
द्रव्याणां नानानयोपनयगोचरक्रमयौगपद्यसंभवितोत्पादव्ययध्रौव्याणि त्रिकालगोचरा नवधर्मा भवन्ति । तत्परिणतं द्रव्यमपि नवधा । उत्पन्नं उत्पद्यमानं उत्पत्स्यमानं, नष्टं नश्यत् नंक्ष्यत्, स्थितं तिष्ठत् स्थास्यत् इति नवानां तेषां धर्मागां उत्पन्नादीनां प्रत्येकं नवविधत्वसंभवात् एकाशीतिविकल्पधर्मपरिणतद्रव्यवर्णनं यत्करोति तदुसादपूर्वम् ।
अब दृष्टिवाद अङ्ग का चतुर्थ भेद चौदह पूर्व रूप है । उसमें प्रथम उत्पाद पूर्व का कथन करते हैं
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इस लोक में तीर्थङ्करों ने तीर्थ प्रवर्तन काल में सकल श्रुत के अर्थ की अवगाहना करने में समर्थ गणधरों का उद्देश्य लेकर पूर्वगत सूत्रार्थ का कथन किया है, वह पूर्व कहलाता है । उसके उत्पादादि चौदह भेद हैं । जो एक करोड़ पदों से युक्त जोवादि द्रव्यों के समूह का उत्पाद, व्यय और धौयादि अनेक धर्मों का पूरक उत्पादपूर्व है ।। ३८ ।।
जैसे द्रव्यों के नाना नय, उपनय, गोचर क्रम से और युगपत् संभव त्रिकाल गोचर उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप नौ धर्म हैं । और उन नौ धर्मों से युक्त ( परिणत ) होने से द्रव्य भी नौ प्रकार का है । जैसे उत्पन्न ( जो उत्पन्न हो चुका है ), उत्पद्यमान ( जो उत्पन्न हो रहा है ), उत्पमान ( जो भविष्य काल में उत्पन्न होगा ) । इस प्रकार उत्पाद के तीन भेद हैं।
नष्ट ( नष्ट हो चुका है ) नश्यत् ( नष्ट हो रहा है ) और नक्ष्यत् ( भविष्य काल में नष्ट होगा ) इस प्रकार व्यय के भी तीन भेद हैं ।
स्थित ( स्थित हो चुका है ) तिष्ठत ( स्थित है) और स्थास्यत् ( स्थित रहेगा ) इस प्रकार उत्पाद आदि नौ धर्मों का प्रत्येक के नौ-नौ भेदों की संभावना होने से द्रव्य के इक्यासी धर्म होते हैं । इन इक्यासी धर्मों से परिणित द्रव्य का जो वर्णन करता है, वह उत्पादपूर्व है ।
विशेषार्थ
गुण सत्, द्रव्य सत् और पर्याय सत् के भेद से सत् तीन प्रकार का है । और उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को सत् कहते हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य