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अंगपण्णत्ति
अवयव प्रधान एकान्त आदि अनेक अर्थ में हैं। यहाँ पर 'पर' शब्द का अर्थ एकान्त लिया जाय और 'अ' नय 'समास में' न परा 'अपरा' अर्थात् जिसमें अनेक धर्मों का वा स्याद्वाद' का कथन किया जाता है वह अपरान्त है।
ध्रुव वर्गणाओं का वर्णन जिसमें है वह ध्रुव वस्तु है। अधू व वर्गणा आदि का वर्णन जिसमें है वह अध्रुव है।
पुद्गल या जीव में विवक्षित पर्याय का नाश होना चयन है । उसकी लब्धि का जो कथन है वह चयनलब्धि है । अथवा जिस वस्तु में कर्मों का बन्ध, नाश, बन्ध विधि, नाश विधि आदि का वर्णन है। इस च्यवन ( चयन ) लब्धि के अनुसार षट् खण्डागम की रचना हुई है।
अथवा इसमें चयनविधि और लब्धिविधि का विधान है। चयन का अर्थ विनाश और लब्धि का अर्थ उत्पाद है। अतः इसका यह चयनलब्धि यह सार्थक नाम है । यह च्यवनलब्धि अक्षर, पद संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोग रूप द्वारों की अपेक्षा संख्यात है तथा अर्थ की अपेक्षा अनन्त प्रमाण है । इसमें स्वसमय का कथन है, इसलिए स्वसमय वक्तव्यता है । इसके कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोग द्वार हैं, जिसका उल्लेख आगे किया जायेगा। ___ अध्रुव संप्रणधि का अर्थ माया है, सं का अर्थ समीचीन है जिसमें सम्यक् प्रकार से माया के भेदों का वर्णन है। अर्थात् प्रणिधान का अर्थ परिणाम भी है । सम्यक् परिणामों का वर्णन है वह संप्रणिधि है । अध्रुवपरिवर्तनशील प्रणिधि । ____ अर्थ का अर्थ गणधर देव का नाम है, क्योंकि वे आगमसूत्र के बिना सकल श्रुतज्ञान रूप पर्याय से परिणत रहते हैं इसके समान जो श्रुतज्ञान होता वह अर्थ सम श्रुतज्ञान है। ___ अथवा अर्थ बीज पद को कहते हैं इससे जो समस्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थ सम श्रुतज्ञान है।
अर्थ प्रकरण, संभव और अभिप्राय आदि शब्द न्याय से कल्पित किये हुए अर्थाधिगम्य कहलाते हैं। जैसे रोटो खाते हुए “सैंधव लाओ" ऐसा कहने पर नमक ही लाना, घोड़ा नहीं ऐसा स्पष्ट अभिप्राय न्याय से सिद्ध है । इत्यादि अर्थ कथन जिस वस्तु में है वह अर्थ वस्तु है । १. परत्वं चान्यत्वं तच्चैकान्त भेदाविनाभावि । स्याद्वादमञ्जरी । २. घ, १४/५, ६ १२/८/