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अंगपण्णत्ति से वस्तु की प्ररूपणा होती है। जैसे द्रव्याथिक नय की अपेक्षा वस्तु नित्य है, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा वस्तु अनित्य है, वस्तु का स्वरूप एक साथ शब्दों में कहने में नहीं आता। अतः सप्तभंगों का नाना नयों के द्वारा निरूपण करने वाले अस्ति, नास्ति, प्रवाद पूर्व के ज्ञानी जनों ने साठ लाख पद कहे हैं। ___ अर्थात् जिसमें कथंचित् अस्ति नास्ति आदि सात भंगों का साठ लाख पदों के द्वारा निरूपण करने वाला अस्ति नास्ति प्रवादपूर्व है। इसमें अठारह वस्तु तीन सौ साठ प्राभत हैं ॥ ५८ ॥ ॥ इस प्रकार अस्ति-नास्ति प्रवादपूर्व का कथन समाप्त हुआ।
ज्ञानप्रवादपूर्व का कथन णाणप्पवादपुव्वं मदिसुदओही सुणाणणाणाणं । मणपज्जयस्स भेयं केवलणाणस्स रूवं च ॥ ५९ ॥
ज्ञानप्रवादपूर्वं मतिश्रुतावधिसुज्ञानाज्ञानानां ।
मनःपर्ययस्य भेदान् केवलज्ञानस्य रूपं च ॥ कहदि हु पयप्पमाणं कोडो रूऊणगा हि मदिणाणं । अवगहईहावायाधारणगा होंति तब्भया ॥६०॥
कथयति पदप्रमाणं कोटि रूपोनां हि मतिज्ञानं ।
अवग्रहहावायधारणा भवन्ति तभेदाः॥ जो पूर्व एक कम एक कोटि प्रमाण पदों के द्वारा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान इन आठों का तथा इनके भेद-अभेदों का जो कथन करता है उसको ज्ञानप्रवाद पूर्व कहते हैं ।। ५९ ।।
मतिज्ञान का दूसरा नाम अभिनिबोधिक है। इन्द्रिय और मन के द्वारा ग्रहण करने योग्य अर्थ का नाम अभिमुख है । अर्थात् इन्द्रिय और मन के द्वारा नियमित पदार्थों का ज्ञान होता है वह मतिज्ञान कहलाता है। पाँचों इन्द्रियों का विषय नियमित है। जैसे स्पर्शन इन्द्रिय का विषय है स्पर्श करना, रसना का स्वाद लेना इत्यादि। ___ द्रव्याथिक नय की अपेक्षा मतिज्ञान एक होते हुए भी पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद होते हैं ।। ६० ॥