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अंगपण्णत्ति - अथ परिच्छेद (स्व पर पदार्थ परिच्छेदक) करने वाली जोव । शक्ति ज्ञान है-उसको आवरण करने वाली ज्ञानावरणोय है । अन्तरंग का विषय करने वाले उपयोग को आवृत करने वाली दर्शनावरणीय है।
जीव के सुख दुःख का उत्पादक वेदनीय कर्म प्रकृति है ।
मोहरहित स्वभाव वाले जीव की बाह्य पदार्थों में मोहित करने वाला आत्म स्वरूप को भुलाने वाला मोहनीय कर्म है ।
संसार में रोककर रखने वाला आयुकर्म है। ___जाति आदि नाना प्रकार के जीव के आकार बनाने वाला नाम कर्म है । उच्च-नीच कुल में उत्पन्न करने वाला गोत्र कर्म है । और दान, लाभ आदि में विघ्न कारक अन्तराय कर्म है।
ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृति पाँच है। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ।
तीन सौ छत्तीस प्रकार के मतिज्ञान पर आवरण करने वाली मति. ज्ञानावरण तीन सौ छत्तोस प्रकार का है। ज्ञानप्रवाद में मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद लिखे हैं।
पर्याय, पर्याय समास आदि बीस प्रकार के श्रुतज्ञान पर आवरण करने वाली बीस प्रकार का श्रुतज्ञानावरण है।
देशावधि, परमावधि, सर्वावधि और उसके भेद-प्रभेदों का आवरण करने वाली अवधिज्ञानावरण है।
ऋजुमति, विपूलमति, मनःपर्ययज्ञान पर आवरण करने वालो मन.. पर्ययज्ञानावरणीय है। और केवलज्ञान पर आवरण करने वाली केवटज्ञानावरणीय है। इस प्रकार कर्म प्रवाद में उल्लेखित कर्म प्रकृतियों का उनकी शक्ति लक्षण आदि का कथन प्रकृति, निक्षेप, प्रकृतिनय, प्रकृति नाम विधान, प्रकृति द्रव्य विधान, प्रकृति क्षेत्र विधान, प्रकृति काल विधान, प्रकृति भाव विधान, प्रकृति प्रत्यय विधान, प्रकृति स्वामित्व विधान, प्रकृति प्रकृति विधान, प्रकृति गति विधान, प्रकृति अन्तर विधान, प्रकृति सन्निकर्ष विधान, प्रकृति परिमाण विधान, प्रकृति भागा-भाग विधान और प्रकृति अल्पबहुत्व इन सोलह अधिकारों के द्वारा अनुयोग में वर्णन किया जाता है । अर्थात् इन १६ अनुयोग के द्वारा प्रकृति का क्षेत्र काल, अल्पबहुत्व आदि का वर्णन किया जाता है।
भाव प्रकृति दो प्रकार को है-आगमभाव और नोआगमभाव प्रकृति !