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द्वितीय अधिकार से नष्ट हो गया है । अर्थात् शेष वस्तुओं के प्राभृत और अनुयोगों के नाम इस समय उपलब्ध नहीं हैं ॥ ४८ ॥
आग्राणीय पूर्व के छयानबें लाख पद हैं और चौदह वस्तु गत दो सौ अस्सी प्राभूत हैं। ॥ इस प्रकार आग्राणीय पूर्व का कथन समाप्त हुआ।
वीर्यानुवाद का कथन विज्जाणुवादपुव्वं वज्ज जीवादिवत्थुसामत्थं । अणुवादो अणुवण्णणमिह तस्स हवेत्ति गंणमह ॥ ४९ ॥ वोर्यानुवादपूर्व वीर्य जीवादिवस्तुसामर्थ्य ।
अनुवादोऽनुवर्णनमिह तस्य भवेदिति नन्नम्यत ।। तं वण्णदि अप्पबलं परिविज्जं उहयविज्जमवि णिच्चं । खेत्तबलं कालबलं भावबलं तवबलं पुण्णं ॥५०॥
तद्वर्णयति आत्मबलं परवीयं उभयवीर्यमपि नित्यं ।
क्षेत्रबलं कालबलं भावबलं तपोबलं पूर्ण ॥ दव्वबलं गुणपज्जयविज्ज विज्जाबलं च सव्ववलं । सत्तरिलक्खपहिं पुण्णं पुव्वं तदीयं खु ॥५१॥
द्रव्यबलं गुणपर्ययवीर्य विद्याबलं च सर्वबलं।
सप्ततिलक्षपदः पूर्ण पूर्वं तृतीयं खलु ॥ पयाणि ७००००००। इदि विज्जाणुवाद पुव्वं गदं-इति वीर्यानुवाद पूर्वं गतं ।
जीवादि पदार्यों के वीर्य ( शक्ति सामर्थ्य ) का अनुवाद, अनुवर्णन ( कथन ) जिसमें होता है उसको वीर्यानुवाद कहते हैं । हे भव्य जीवो ! उस वीर्यानुवाद को तुम नमस्कार करो ।। ४९ ॥ ___ यह वीर्यानुवाद नामक तृतीय पूर्व आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भाववीर्य, तपवीर्य, द्रव्यवीर्य, गुणवीर्य, पर्यायवीर्य, विद्यावीर्य आदि सब वीर्यों का सत्तरलाख पदों के द्वारा वर्णन करता है ।। ५०-५१ ॥
विशेषार्थ इसमें एक सौ साठ प्राभृत होते हैं और आठ वस्तु होती हैं । द्रव्य की