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अंगपण्णत्ति ....सादमसादंदि (वि) ग्घं हस्सं भवं धारणीयसण्णं च । पुरुपोग्गलप्पणामं णिहत्तअहिहत्तणामाणि ॥४६॥
सातमसातं विघ्नं हास्यं भयं धारणीयसंज्ञं च ।
पुरुपुद्गलप्रमाणं निधत्यनिषत्यनामानि ॥ सणकाचिदमणकाचिदमहकम्मट्ठिदिपच्छिमखंधा। अप्पबहुत्तं च तहा तद्दाराणां च चउवीसं ॥४७॥
सकाचितानकाचितमथकर्मस्थितिपश्चिमस्कन्धाः।
अल्पबहुत्वं च तथा तद्वाराणां च चतुर्विशतिः॥ आग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व की च्यवनलब्धि नामक पंचम वस्तु के चतुर्थ प्राभृत के चौबीस अनुयोग द्वार के नाम इस प्रकार हैं-कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, सुबन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याक्रम, लेश्या परिणाम, सात-असात, दीर्घह्रस्व, भरधारणीय, पुद्गलत्व, निधत्त-अनिधत्त, निकाचित-अनिकाचित, कर्मस्थिति और पश्चिमस्कन्ध ॥ ४४-४५-४६-४७ ।।
विशेषार्थ कृति अनुयोग-कृति-षटखण्डागम के चतुर्थ खण्ड का नाम वेदना है, इसी खण्ड के अन्तर्गत कृति और वेदना अनुयोग द्वार हैं।
कृति' अनुयोग द्वार में औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण इन पाँच शरीरों के संघातन और परिशातन रूप कृति का तथा भव के प्रथम और अप्रथम समय में स्थित जीवों के कृति नोकृति और अवक्तव्य रूप संख्याओं का वर्णन है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, गणना, ग्रन्थ, करण और भाव, ये कृति के १. जो किया जाता है वह कृति शब्द की व्युत्पत्ति है अथवा मूल कारण ही
कृति है-/घ ९/४०/१-६८/३२६/१/ २. पाँचों शरीरों में विवक्षित शरीर के परमाणुओं का निर्जरा के बिना जो
संयम होता है उसे संघातन कृति कहते हैं। और पांचों शरीरों में विवक्षित शरीर के पुद्गल स्कन्धों का आगमन और निर्जरा का एक साथ होना
संघातनपरिशातन कृति कही जाती है । -ध. ९/४.१.६९ । ३. किसी राशि के वर्ग को कृति कहते हैं ३-४ आदि संख्या कृति है । ४. जिस संख्या का वर्ग नहीं होता उसको नोकृति कहते हैं जैसे एक संख्या । ५ बंध का अभाव होकर पुनः जो कर्म बँधते हैं उसको अवक्तव्य बंध कहते हैं।