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प्रथम अधिकार
वह जीव उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की अपेक्षा तीन प्रकार का है।' कर्मोदय वश चारों गतियों में भ्रमण करने की अपेक्षा से यह जीव चार भेद संयुक्त हैं । औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पाँच भावों के भेद से आत्मा पाँच प्रकार की है।
भवान्तर में संक्रमण के समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोगमन के कारण ( छह संक्रमण लक्षण अपक्रमों से युक्त होने की अपेक्षा ) जीव छह प्रकार का है ॥ २४-२५ ॥ ___स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अवक्तव्यं, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य और स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य इस सप्तभंगी की अपेक्षा जीव सात प्रकार का है ॥ २६ ॥
अट्टविहकम्मजुत्तो अस्थि णवच्छ णवत्थगो जीवो। पुढविजलतेउवाउपच्चेयणिगोयवितिचपगा ॥२७॥
अष्टविधकर्मयुक्तः अस्ति नवधा नवर्थको जीवः ।
पृथ्वोजलतेजोवायुप्रत्येकनिगोदद्वित्रिचतुःपंचेन्द्रिया॥ दहभेया पुण जीवा एवमजीवं तु पुग्गलो एक्को । अणुखंधादो दुविहो एवं सम्वत्थ णायव्वं ॥ २८ ॥
दशभेदाः पुनः जीवा एकोऽजीवः तु पुद्गलः एकः ।
अणुस्कन्धतो द्विविध एवं सर्वत्र ज्ञातव्यं ॥ २ठाणांगस्स पयप्पमाणं ४२००० । श्लोक २१४५७१५५१०३००० । अक्षर प्रमाणं ६८६६२८९३१२९६००० । इदि ठाणांगं तिदियं गदं-इति स्थानांगं तृतीयं गतम् ।
ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों से युक्त होने से जीव आठ प्रकार का है।
१. कर्म चेतना, कर्म फल चेतना और ज्ञान चेतना के भेद से जीव तीन
प्रकार का है। २. स्थानांङ्गस्य पदप्रमाणं । ३. सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदि सिद्धों के आठ गुणों की अपेक्षा अथवा अस्तित्व,
वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व, ज्ञानत्व और दर्शनत्व इन सामान्य आठ गुणों की अपेक्षा भी जीव आठ प्रकार का है ।