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अंगपण्णत्ति दर्शनव्रतसामायिकप्रोषधसचित्तरात्रिभक्ताश्च ।
ब्रह्मारंभपरिग्रहानुमतोद्दिष्टा देशविरता एते ॥ जिस उपासकाध्ययन में जिनेन्द्र भगवान् ने ग्यारह लाख सत्तर हजार पद का प्रमाण कहा है। हे भव्य जीवो उस उपासकाध्ययनांग को तुम नमस्कार करो ॥ ४५ ॥
विशेषार्थ ___ आचार्य शुभचन्द्र ने उपासकाध्ययन के प्रति श्रद्धा अनुराग प्रकट करने के लिए भव्यजीवों को नमस्कार करने के लिए प्रेरित किया है। क्योंकि जब उपासकाध्ययन के प्रति श्रद्धा प्रकट होती है तब ही भव्यजीव व्रतों को धारण करने के लिए उत्सुक होता है। __दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषध प्रतिमा, सचित्तत्याग प्रतिमा, रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरम्भ- ' त्याग प्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, अनुमतित्याग प्रतिमा और उद्दिष्टत्याग प्रतिमा ये देशविरत के ग्यारह भेद हैं। अर्थात् देशविरत ग्यारह प्रकार के होते हैं ।। ४६ ॥
जत्थे यारहसद्धा दाणं पूयं च संहसेवं च । वयगुणसीलं किरिया तेसि मंता वि मुच्चति ॥ ४७ ॥
यत्रकादशश्रद्धा दानं पूजा च संघसेवा च ।
व्रतगुणशीलानि क्रिया तेषां मंत्रा अपि उच्यन्ते ॥ उपासकाध्ययनस्य पदानि ११७००००।श्लोक ५९७७३५००७१५५०००। अक्षर १९१२७५२०२२८९६०००० । ___ इदि उवासयज्कयणं सत्तमं अगं गद-इत्युपासकाध्ययनं सप्तमङ्गं गतम्।
जिस ग्रन्थ ( अंग ) में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का, श्रावक के व्रतों का, सम्यग्दर्शन को विशुद्धि का, दान, पूजा, संघसेवा, श्रावकों के व्रत ( पाँच अणुव्रत ) गुण ( तीन गुणवत) चार शिक्षाव्रत रूप सात शीलों का, श्रावक की क्रियाओं ( ५३ क्रिया ) का तथा उनके भेदों का अर्थात् धारण करने की विधि का वर्णन है। वह उपासकाध्ययनांग कहलाता है ।। ४७ ।।