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अंगपण्णत्त
आत्मा ज्ञान रहित है, अनाथ है अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता, उस आत्मा का सुख-दुःख, स्वर्ग तथा नरक में गमन वगैरह सब ईश्वर का किया हुआ होता है । ऐसे ईश्वर का किया सब कार्य मानना ईश्वरवाद का अर्थ है ॥ २० ॥
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आत्मवाद का कथन
देवो पुरिसो एक्को सव्वव्वावी परो महप्पा य । सव्वंगविगूढो विय सचेयणो णिग्गुणोऽकत्ता ॥ २१ ॥
देव: पुरुष एकः सर्वव्यापी परो महात्मा च । सर्वांग विगूढोऽपि च सचेतनो निगुणोऽकर्ता ॥ अप्पवादो- --आत्मवादः
संसार में एक ही महान् आत्मा है, वही पुरुष है, वही देव है और वह सबमें व्यापक है, सर्वांगपने से अगम्य (छुपा हुआ ) है, चेतना सहित है, है और उत्कृष्ट है । इस तरह आत्म स्वरूप से सबको मानना आत्मवाद का अर्थ है ॥ २१ ॥
नियतिवाद का कथन
जेण जदा जंतु जहा नियमेण य जस्स होइ तंतु तदा । तस्स तहा तेण हवे इदि वादो णियडिवादो दु ॥ २२ ॥
येन यदा यत्तु यथा नियमेन च यस्य भवति तत्तु तदा । तस्य तथा तेन भवेदिति वादो नियतिवादस्तु ॥ णिगडिवादो -- नियतिवादः
जो जिस समय जिससे जैसे जिसके नियम से होता है वह उस समय उससे तैसे उसके ही होता है ऐसा नियम से ही सब वस्तु को मानना उसे नियतिवाद कहते हैं ॥ २२ ॥
स्वभाववाद का कथन
सव्वं सहावदो खलु तिक्खत्तं कंटयाण को करई । विविहत्तं णरमियपसुविहंगमाणं सहावो य ॥ २३ ॥
सर्वं स्वभावतः खलु तीक्ष्णत्वं कंटकानां कः करोति । विविधत्वं नरमृगपशुविहंगानां स्वभावश्च ॥ सहाववादो - स्वभाववादः