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द्वितीय अधिकार जैसे स्तनों का दूध पीना बिना पुरुषार्थ के कभी नहीं बन सकता। सर्व कार्य की सिद्धि पुरुषार्थ से हो होती है ॥ ३० ॥
विशेषार्थ पुरुषार्थवादी कहता है कि एक महात्मा पुरुष देव जो सर्व व्यापी है, सर्व अंग में निगूढ़ है, निर्गुण है, वह पुरुष ही एक सारे लोक की उत्पत्ति और विनाश का कारण है इत्यादि कथन करना पौरुषवाद मिथ्यात्व है।
दइवा सिज्झदि अत्थो पोरिसं णिप्फलं हवे । एसो सालसमुत्तुंगो कण्णो हम्मइ संगरे ॥ ३१॥
दैवात् सिद्धयति अर्थः पौरुषं निष्फलं भवेत् । एष सालसमुत्तुंगः कर्णः हन्यते संगरे ॥
दइववादो-दैववादः। दैववाद-केवल दैव ( भाग्य ) से ही अर्थ की सिद्धि होती है। पुरुषार्थ निष्फल है, पुरुषार्थ से अर्थ की सिद्धि नहीं होती। देखो पुरुषार्थ करने वाला, किले के समान ऊँचा ( उत्तंग महापुरुषार्थी ) कर्ण राजा युद्ध में मारा गया। अतः पुरुषार्थ से कार्य सिद्ध नहीं होता-भाग्य से होता है ऐसा एकान्त मानना दैववाद मिथ्यात्व है ।। ३१ ।। एक्केण चक्केण रहो ण यादि संजोगमेवेति वंदति तण्णा । अंघो य पंगू य वणं पविट्ठा ते संपजुत्ता णयरं पविट्ठा ॥ ३२॥
एकेन चक्रण रथो न याति संयोगमेवेति वदन्ति तज्ज्ञाः । अन्धश्च पंगुश्च वनं प्रविष्टौ तौ सम्प्रयुक्तौ नगरे प्रविष्टौ ॥
संजोयवादो-संयोगवादः। संयोगवाद-कोई संयोग से ही कार्य सिद्धि मानते हैं। वह कहते हैं कि एक पहिये से रथ नहीं चल सकता। जैसे अन्धा और लँगड़ा ये दोनों वन में प्रविष्ट हुए थे सो किसी समय अग्नि लग जाने पर अन्धे के कन्धे पर लँगड़े के चढ़ जाने पर अर्थात् दोनों के मिल जाने पर नगर में प्रवेश कर जाते हैं ॥ ३२ ॥
लोयपसिद्धी सत्था पंचाली पंचपंडवत्थी ही। सइउट्टिया ण रुज्झइ मिलिदेहिं सुरेहि दुव्वारा ॥३३॥