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प्रथम अधिकार
और सम्यक्चारित्र रूप धर्म का तथा धर्म से उत्पन्न ( धर्म का फलभूत ) तीर्थंकर देव, देव के प्रभाव, तेज, वीर्य, श्रेष्ठ ज्ञान ( केवलज्ञान ) सुखादि का वर्णन संवेदिनी कथा के द्वारा किया जाता है। अर्थात् तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव आदि के पुण्य फल का वर्णन जिसमें किया जाता है तथा जिसको सुनकर जीव पुण्य कार्य करने का प्रयत्न करता है, वह संवेदिनी कथा है। _ निर्वेदिनी कथा के द्वारा परम वैराग्य का कथन किया जाता है अर्थात् संसार, शरीर और भोगों ( पंचेन्द्रिय विषयों ) का राग ( अनुराग) है। उससे जीव के अशुभ कर्मों का बन्ध होता है और अशुभ कर्म से दुःख होता है । तथा संसार शरीर एवं भोग के राग से उत्पन्न दुष्कर्मों का फल है, मनुष्य लोक में अशुभ कुल ( नीचकुल ) में उत्पत्ति ( नीचकुल में जन्म ) विरूप अंग, दारिद्रय रोगों की बाहुलता ( अत्यन्त रोगी शरीर की प्राप्ति ) अपमान, दूसरों की सेवा करना महापाप पर्याय की प्राप्ति ।
निर्वेदिनी कथा में पाप के फल का कथन है, कि पाप करने से इस । जीव को नरक, तिथंच और कुमानुष योनियों में जन्म लेना पड़ता है । दारिद्रय, आधि-व्याधियों की प्राप्ति भी पाप कर्म से ही उत्पन्न होती है। यह संसारी प्राणी संसार, शरीर और भोगों में आसक्त होकर किस प्रकार संसार में भटकता रहता है आदि का कथन करने वाली संवेगिनी और पाप फल का कथन करने वाली निर्वेदिनी कथा है । संवेगिनी कथा से पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति और निर्वेदिनी कथा से संसार शरीर और भोगों से विरक्ति होती है । इस प्रकार प्रश्नव्याकरण नामक दशवें अंग में आक्षेपिणी आदि कथाओं का वर्णन किया गया है । हे भव्य जीवों, उस अंग का नित्य श्रवण, मनन एवं चिन्तन करो ॥ ६३-६४-६५-६६-६७ ॥
प्रश्न व्याकरण के पदों की संख्या तिरानबे लाख, सोलह हजार है। श्लोक संख्या चार शंख, पचहत्तर नील, चौरानबे खरब, एक अरब, तेरह करोड़, अड़तीस लाख, चौरानबे हजार है। इस अंग के अक्षरों की संख्या एक पद्म, बावन शंख, तीस नील, आठ खरब, छत्तीस अरब, अठाइस करोड़, छियालीस लाख, आठ हजार प्रमाण है। ॥ इस प्रकार प्रश्नव्याकरण नामक दशवाँ अंग समाप्त हुआ।
विपाकसूत्र अंग का कथन चुलसीदिलक्ख कोडी पयाणि णिच्चं विवागसुत्ते य। कम्माणं बहुसत्ती सुहासुहाणं हु मज्भिमया ॥६८॥