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ण्णात्त
अंगपण्णत्ति वृक्षों से युक्त छह वनखण्ड, दो भूतारण्य, दो देवारण्य और १६ वक्षारगिरि के वन खण्ड सब मिलाकर छब्बीस वन खण्ड ) हैं। कोई आचार्य यमकगिरि और मेघगिरि के बीच पाँच द्रह, देव गुरु में और पाँच उत्तर गुरु में मानते हैं परन्तु कोई आचार्य सुदर्शन मेरु के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में पाँच-पाँच द्रह मानते हैं अत बीस-द्रह होते हैं । यद्यपि वक्षारगिरि १६ हैं परन्तु तिलोयपण्णत्ति में वक्षारगिरि और चार गज दंत को मिलाने से बीस वक्षारगिरि माने हैं अतः १६ वक्षारगिरि हो सकते हैं ॥ ५॥
चोत्तीसं भोगधरा छक्कं वेंतरसुराणमावासा । जम्बूसालमलिरुक्खा विदेउ चारि णाहिगिरि ॥ ६ ॥ चतुस्त्रिशत् भोगधराः षट्कं वेंतरसुराणमावासाः।
जम्बूशाल्मलिवृक्षा विवेहाः चत्वारो नाभिगिरयः॥ चौंतीस भोगभूमि, छह व्यन्तर देवों का आवास, जम्बूशाल्मलि वृक्ष, चार विदेह और नाभिगिरि हैं ।। ६॥
विशेषार्थ इसमें चौंतीस भोगभूमि कही हैं परन्तु भोगभूमि तो छह ही कही हैं। एक भरत, एक ऐरावत और बत्तीस विदेह की अपेक्षा कर्मभूमि चौंतीस होती है । हो सकता है यहाँ पर 'भोगधरा' का अर्थ कर्मभूमि है। __छह कुलाचल पर्वतों पर व्यन्तर देवों के नगर हैं। उसकी अपेक्षा छह व्यन्तरों के निवास हो सकते हैं। पूर्व में समवायांग में व्यन्तरों के छह आवास का उल्लेख है। परन्तु खुलासा नहीं है । जम्बू और शाल्मलि ये दो वृक्ष हैं । ये दोनों वृक्ष रमणीय और अनादिनिधन हैं, तथा एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस परिवार वृक्षों से युक्त हैं। ___ दो पूर्व विदेह और दो पश्चिम विदेह की अपेक्षा चार विदेह हैं। अर्थात् सीता और सीतोदा नदी के कारण पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह दो रूप में विभाजित हो जाते हैं । हिमवन, हरि, रम्यक और हैरण्य में एक-एक नाभिगिरि है । अतः चार नाभिगिरि हैं। इन नाभगिरि पर्वतों पर व्यन्तर देव निवास करते हैं ।
सुण्णणवसुण्णदुगणवसत्तरअंककमेण गईसंखा । १७९२०९० वण्णेदि जंतुदीवापण्णत्ती पयाणि जत्थथि ॥ ७ ॥