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प्रथम अधिकार सुकथा, कल्प, व्यवहार धर्म क्रिया, छेदोपस्थापना, स्वसमय, परसमय आदि अनेक क्रियाओं के भेदों का जिसमें प्ररूपण होता है वह सूत्रकृतांग है ।। २१-२२ ॥
विशेषार्थ दर्शन विनय, ज्ञान विनय और चारित्र विनय के भेद से विनय तीन प्रकार का है।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार के भेद से विनय चार प्रकार का है। अथवा ज्ञान, चारित्र, तप, दर्शन, और उपचार के भेद से विनय पाँच प्रकार का है।
अथवा लोकानुवृत्ति विनय, अर्थ निमित्तक विनय, कामतन्त्र विनय, भय विनय और मोक्ष विनय के भेद से विनय पाँच प्रकार का है। यहाँ मोक्ष के कारण मूल ज्ञान विनय, दर्शन, चारित्र विनय का प्रकरण है।
निर्विघ्न स्वाध्याय के प्रथम क्या करना चाहिए ? किस भक्ति का पाठ करना चाहिए इत्यादि सक्रिया का वर्णन सक्रिया कहलाती है।
प्रज्ञापना-कथन करना, नय विविक्षा से वस्तु की सिद्धि करना। सुकथा (समीचीन कथा) कल्प ( करने योग्य क्रियाओं का वर्णन ) व्यवहार वृषक्रिया ( व्यवहार धार्मिक क्रिया का वर्णन ) यतिजनों के व्रतों में दूषण लगने पर छेदोपस्थापना आदि प्रायश्चित्त का वर्णन तथा स्वसमय ( जिनधर्म ) पर समय ( अन्य धर्म ) आदि अनेक क्रियाओं का वर्णन जिसमें है।
अर्थात् जिसमें छत्तीस हजार पदों के द्वारा स्वसमय, परसमय और स्वपर समय का कथन है । जो जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष रूप स्व समय कथित पदार्थों का वर्णन करके पाप से मलीन मति की विशुद्धि करने के लिए एक सौ अस्सी क्रियावादी, चौरासी अक्रियावादी, सड़सठ अज्ञानवादी और बत्तीस विनयवादी, इन तीन सौ त्रेसठ मिथ्या पाखंड रूप पर समय का खंडन कर जीवों को स्व समय में स्थापित करता है। ज्ञान विनय आदि पाँच प्रकार का विनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोस्थापना आदि व्यवहार धर्म क्रियाओं का जिसमें कथन है वह सूत्रकृतांग है।
इन अंग के पद का प्रमाण छत्तीस हजार (३६०००) प्रमाण है। . श्लोक संख्या-एक नील, तिरासी खरब, इकानवे अरब, चौरासी