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प्रथम अधिकार
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व्युत्सर्गं समिति - सावधानीपूर्वक जीव रहित स्थान पर मल-मूत्रादि शरीर के मल को छोड़ना ।
जो मुनिजनों के अवश्य करने योग्य कार्यं होते हैं वे आवश्यक कहलाते हैं । वे निम्न प्रकार हैं
प्रतिक्रमण - व्रतों में लगे हुए दोषों का निराकरण करने के लिए प्रतिक्रमण दण्डकों को पढ़ना " मेरे पाप मिथ्या होवो" ऐसा उच्चारण
करना ।
प्रत्याख्यान - भविष्य काल में होने वाले पापों का त्याग करना तथा 'विषय वासनाओं में दौड़ती हुई इच्छाओं का निरोध करना ।
समता - राग-द्वेष मय विचारों से चित्त वृत्ति को पृथक् करके मध्यस्थ भाव से रहना वा आर्त- रौद्रध्यान को छोड़कर धर्म एवं शुक्लध्यान में लीन होना ।
स्तवन - चतुर्विंशति तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन करना ।
वन्दना - पूजनीय पुरुषों के प्रति मन, वचन, काय के द्वारा आदर प्रगट करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना वा एक तीर्थंकर के गुणों का कीर्तन करना ।
कायोत्सर्ग - शरीर सम्बन्धी ममत्व को हटाकर एक चित्त से ध्यान करना अथवा नव देवताओं के गुणों का स्मरण करना ।
कछुए के समान अपनी इन्द्रियों को विषयों से रोक लेना अथवा अमनोज्ञ ( अप्रिय ) मनोज्ञ प्रिय ) सचेतन, अचेतन पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना पञ्चेन्द्रिय निरोध है ।
स्नान नहीं करना, वस्त्रादिक का त्याग कर अचेलकत्व ( नग्नत्व ) धारण करना, हाथों से केशों को उखाड़ना । दिन में एक बार भोजन करना, खड़े होकर करपात्र में भोजन करना, जीवों की रक्षा करने के लिए दन्तौन नहीं करना निर्जन भूमि पर या फलकासन पर शयन करना । ये मुनिराजों के अठ्ठाईस मूलगुण हैं तथा चौरासी लाख उत्तरगुण हैं। इन मूलगुण और चौरासी लाख उत्तरगुण दैविसिक, रात्रिक क्रियाओं का वर्णन करने वाला आचारांग है।
इस आचारांग के अठारह हजार पद ( १८००० ) हैं । इसकी श्लोक संख्या ९१९५९२३११८७००० ( नौ नील, उन्नीस खरब उन्नसठ अरब तेईस करोड़ ग्यारह लाख सत्तासी हजार ) है । और अक्षर संख्या