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अंगपण्णत्ति -
आचार्य शुभचन्द्र ने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ के पूर्व निर्विघ्न समाप्ति, नास्तिकता का परिहार, शिष्टाचार का परिपालन और उपकार स्मरण इन चार प्रयोजनों से इष्टदेव को नमस्कार करके इस ग्रन्थ में गाथा के उत्तरार्द्ध में "पुव्वपमाणमेगारह अंगसंजुत्तं” इस पद्य से इस ग्रन्थ में जो कुछ वक्तव्य है उसके कथन करने की प्रतिज्ञा की है ।
पर्याय, पर्याय समास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग, अनुयोग समास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृत-प्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृत समास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व, पूर्व समास इस प्रकार श्रुतज्ञान के २० भेद हैं ।
सूक्ष्म निगोदिया लव्धपर्याप्तक के जो सबसे जघन्य ज्ञान होता है उसको पर्यायज्ञान कहते हैं । इसका दूसरा नाम लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान है । जब सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीव छह हजार बारह क्षुद्र भव धारण कर अन्त में अपर्याप्त शरीर को तीन मोड़ाओं के द्वारा ग्रहण कर उत्पन्न होता है, उस समय उसके स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान होता है । लब्धि का अर्थ श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है और अक्षर का अर्थ है अविनश्वर । इसलिए इस ज्ञान को लब्ध्यक्षर कहते हैं, क्योंकि इस क्षयोपशम का कभी भी विनाश नहीं होता । कम से कम इतना क्षयोपशम तो जीव के रहता ही है । किसी-किसी ग्रन्थ में पर्यायज्ञान से कुछ अधिक ज्ञान को भी लब्ध्यक्षर ज्ञान कहते हैं ।
यह जघन्य पर्यायज्ञान भी अगुरुलघुगुण के अविभाग प्रतिच्छेदों को अपेक्षा अष्टांक ( अनन्त गुणवृद्धि ) प्रमाण होता है । "
सर्व जघन्य पर्यायज्ञान के ऊपर क्रम से अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि रूप छह वृद्धि होती है । सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग का जितना प्रमाण है उतनी बार अनन्त भागवृद्धि हो जाने पर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है, इसके अनन्तर पुनः सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग का जितना प्रमाण है, उतनी बार अनन्त भागवृद्धि होने पर फिर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है । इसी क्रम से असंख्यात भागवृद्धि भी जब सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण बार हो जाय तब सूच्यंगुल के १. अनन्तभागवृद्धि को उवक, असंख्यात भागवृद्धि को चतुरंक, संख्यातभागवृद्धि पंचांक, संख्यातगुणवृद्धि को षडंक, असंख्यातगुणवृद्धि को सप्तांक और अनन्तगुण वृद्धि को अष्टांक कहते हैं ।