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अंगपण्णत्ति ...
प्रतिपत्ति ज्ञान का विषय तथा अनुयोग का लक्षण और उसका विषयचउगइसरूवरूवयपडिसंखदेहिं अणियोगं । चोद्दसमग्गणसण्णाभेयविसेसेहि संजुत्तं ॥७॥
चतुर्गतिस्वरूपरूपकप्रतिपत्तिसंख्यातैरनुयोगम् ।
चतुर्दशमार्गणासंज्ञाभेदविशेषैः संयुक्तं ॥ प्रतिपत्ति ज्ञान चारों गतियों के स्वरूप का वर्णन करता है। चारों गतियों के स्वरूप का निरूपण करने वाले प्रतिपत्ति ज्ञान के ऊपर संख्यात प्रतिपत्ति की वृद्धि होने पर अनुयोग नामक श्रतज्ञान होता है । तथा यह चौदह मार्गणा सहित ज्ञान के भेद विशेष रूप से संयुक्त है ।। ७॥
विशेषार्थ चारों गतियों के स्वरूप का निरूपण करने वाले प्रतिपत्ति ज्ञान के ऊपर क्रमशः पूर्व के समान एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार प्रतिपत्ति की वृद्धि हो जाय, तब एक अनुयोग श्रुतज्ञान होता है । अनुयोग ज्ञान के पूर्व तथा प्रतिपत्ति ज्ञान के ऊपर सम्पूर्ण प्रतिपत्ति समास ज्ञान के भेद हैं। अन्तिम प्रतिपत्ति समास ज्ञान के भेद में एक अक्षर की वृद्धि होने से अनुयोग श्रुतज्ञान होता है । इस अनुयोग ज्ञान के द्वारा चौदह मार्गणाओं का विस्तृत स्वरूप जाना जाता है।
प्राभृत-प्राभृत श्रुतज्ञान का लक्षण और प्राभृत श्रुतज्ञान का स्वरूप तथा प्राभृत में होने वाले प्राभृत-प्राभूतों की संख्या का कथन
चउरादीअणियोगे पाहुडपाहुडसुदं सया होदि । चउवीसे तम्हि हवे पाहुडयं वत्थुअहियारे ॥ ८॥
चतुराधनुयोगे प्राभृतप्राभृतश्रुतं सदा भवति ।
चतुर्विशतौ तस्मिन् भवेत् प्राभृतं वस्तुत्वधिकारे ॥ चार आदि अनुयोग का एक प्राभृत-प्राभृत श्रुतज्ञान होता है । और चौबीस प्राभृत-प्राभृत का वस्तु अधिकार में एक प्राभृत होता है । अर्थात् वस्तु के एक अधिकार का नाम प्राभृत है ।। ८ ।।
विशेषार्थ चौदह मार्गणाओं का निरूपण करने वाले अनुयोग ज्ञान के ऊपर क्रमशः एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब चतुरादि ( चार ) अनुयोग