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प्रथम अधिकार की वृद्धि हो जाती है तब प्राभृत-प्राभूत श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। अनुयोग और प्राभूत-प्राभृत ज्ञान के मध्य में जितने विकल्प हैं वे सब अनुयोग समास ज्ञान कहलाते हैं।
प्राभत और अधिकार ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं । अतएव प्राभूत के अधिकार को प्राभूत-प्राभूत कहते हैं। अर्थात् वस्तु नाम श्रुतज्ञान के एक अधिकार को प्राभत और अधिकार के अधिकार को प्राभूत-प्राभूत कहते हैं । अथवा चौबीस प्राभूत-प्राभूत के समूह को प्राभूत श्रुतज्ञान कहते हैं। अर्थात् प्राभूत-प्राभूत ज्ञान के ऊपर क्रमशः एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब चौबीस प्राभूत-प्राभत की वृद्धि हो जाती है तब एक प्राभृतक नाम श्रुतज्ञान होता है। प्राभृत श्रुतज्ञान के पूर्व और प्राभृत-प्राभृत श्रुतज्ञान के ऊपर जितने ज्ञान के विकल्प हैं वे सब ही प्राभूत-प्राभूत समास के भेद हैं।
प्राभृत अधिकार में वस्तु अधिकार और सम्पूर्ण चौदह पूर्व के वस्तु श्रुतज्ञान की संख्याओं का वर्णन
वीसं वीसं पाहुडअहियारे एकवत्थु अहियारो। तहिं दस चोद्दस अट्ठारसयं वार वारं च ॥९॥ विशतौ विंशतौ प्राभृताधिकार एक वस्त्वधिकारः।
तत्र दश चतुर्दश अष्ट अष्टादश द्वादश-द्वादश च ॥ बीस-बीस प्राभूत अधिकार में एक वस्तु अधिकार होता है । इस गाथा में “वीसं वीसं" ऐसा दो वचन दिया है। इससे ऐसा समझना चाहिए कि एक-एक वस्तु अधिकार में बीस-बीस प्राभूत होते हैं और एकएक प्राभृत में चौबीस-चौबीस प्राभूत-प्राभूत होते हैं । अर्थात् पूर्वोक्त क्रमानुसार प्राभृत ज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब बीस प्राभूत की वृद्धि हो जाती है तब एक वस्तु अधिकार पूर्ण होता है । वस्तु ज्ञान के पूर्व और प्राभृत ज्ञान के ऊपर जितने विकल्प हैं वे सब प्राभृत समास ज्ञान के भेद हैं ॥ ९ ॥
सोलं च वीस तीसं पण्णारसयं च चउसु दस वत्थू । एदेहि वत्थुएहिं चउद्दसपुव्वा हवंति पुणो ॥१०॥ षोडश च विंशति त्रिशत् पंचदश च चतुषु दश वस्तूनि ।
एतैः वस्तुभिः चतुर्दशपूर्वाणि भवन्ति पुनः ॥ उनमें दश, चौदह, आठ, अठारह, बारह, बारह, सोलह, बीस, तीस,