________________
प्रथम अधिकार
असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भागवृद्धि होने पर एक बार संख्यात भागवृद्धि होती है। इस प्रकार अन्त की वृद्धि पर्यन्त जानना चाहिए।' इस प्रकार अनक्षरात्मक जघन्य पर्यायज्ञान के ऊपर असंख्यात लोक-प्रमाण षट् स्थान होते हैं । ये सब पर्याय समास ज्ञान के भेद हैं।
असंख्यात-लोक प्रमाण षट् स्थानों में अन्त के षट् स्थान की अन्तिम उर्वक ( अनन्त भाग ) वृद्धि से युक्त उत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान से अनन्तगुणा अर्थाक्षर ज्ञान होता है। यह अर्थाक्षर सम्पूर्ण श्रुतज्ञान रूप है। इसमें एक कम एकट्ठी का भाग देने से जो लब्ध आता है उतना ही अक्षर ज्ञान का प्रमाण होता है। ___ जो केवल केवलज्ञान के द्वारा जाने जा सकते हैं किन्तु जिनका वचन के द्वारा निरूपण नहीं किया जा सकता ऐसे पदार्थ अनन्तानन्त हैं । इस प्रकार के पदार्थों में अनन्तवें भाग प्रमाण वे पदार्थ हैं कि जिनका वचन के द्वारा निरूपण हो सकता है उनको प्रज्ञापनीय भाव कहते हैं। जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनका भी अनन्तवाँ भाग श्रुताक्षर में निरूपित है।
अक्षर ज्ञान के ऊपर क्रम से एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात अक्षरों की वृद्धि हो जाती है तब पद नामक श्रुतज्ञान होता है। अक्षर ज्ञान के ऊपर और पद ज्ञान के पूर्व तक जितने ज्ञान के विकल्प हैं, वे सब अक्षर समास ज्ञान के भेद हैं।
पद ज्ञान के भेद और लक्षण तिविहं पयं जिणेहिमत्थपयं खलु पमाणपयमुत्तं । तदियं मज्झपयं हु तत्थत्थपयं परूवेमो ॥२॥
त्रिविधं पदं जिनरर्थपदं खलु प्रमाणपदमुक्तम् ।
तृतीयं मध्यपदं हि तत्रार्थपदं प्ररूपयामः ॥२॥ जाणादि अत्थं सत्थं अक्खरबूहेण जेत्तियेणेव । अत्थपयं तं जाणह घडमाणय सिग्घमिच्चादि ॥ ३ ॥
जानाति अर्थ सार्थ अक्षरव्यूहेन यावतैव । अर्थपदं तज्जानीहि घटमानय शीघ्रमित्यादि ॥३॥
१. इनका विशेष वर्णन गोमट्टसार आदि ग्रन्थों से जानना चाहिए । विस्तार के
कारण यहाँ नहीं दिया गया है।