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अंगपण्णत्ति । जो केवलज्ञान के द्वारा सर्व पदार्थों को जानते हैं अथवा जो केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टय सहित हैं उसको बुद्ध कहते हैं।
अपर्यवसान ( जिसका कभी नाश नहीं होगा ऐसी ) स्थिति वाले होने से वे सिद्ध नित्य हैं।
केवलज्ञानरूपी आभूषणों से भूषित (शोभित) होने से ज्ञानभूषण हैं।
शुभ उपयोग को वृद्धिंगत करने के लिए जो चन्द्रमा के समान हैं अतः शुभचन्द्र हैं। इस प्रकार शुभचन्द्र आचार्य ने सर्व प्रथम शास्त्र के प्रारम्भ में सिद्धों को नमस्कार करके मंगलाचरण किया है ।
यह मंगल स्वरूप गाथा देशामर्षक होने से मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता इन छह अधिकारों का सकारण प्ररूपण करती है, क्योंकि आचार्य मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता का व्याख्यान करके ही शास्त्र का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं । अतः शुभचन्द्र आचार्य ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में सिद्धों को नमस्कार रूप मंगलाचरण किया है। __मंगल-जो 'म' अर्थात् पाप मल का प्रक्षालन करता है, विध्वंस करता है वह मंगल है। अथवा जो 'मंग' अर्थात् पुण्य को प्राप्त कराता है, आत्मा को पवित्र करता है अथवा जिन क्रियाओं से सुख की प्राप्ति होती है वह मंगल है।
"सिद्ध प्रभु की भक्ति से विघ्नों का समूह नष्ट होता है, आन्तरिक भक्ति से सिद्धों के गुणों में तन्मय होकर सिद्धों को नमस्कार करने से तत्सम्बन्धी पुण्य-बन्ध की अपेक्षा असंख्यातगुणो कर्मों की निर्जरा होती है।"१ अतः शास्त्र के प्रारम्भ में, मध्य में और अन्त में मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए। क्योंकि शास्त्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण करने से शीघ्र विद्या का लाभ, मध्य में करने से निर्विघ्न शास्त्र की समाप्ति और अन्त में मंगलाचरण करने से विद्या का फल प्राप्त होता है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। इसी बात को ध्यान में रखकर शुभचन्द्राचार्य ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल के लिए सिद्ध प्रभु को अपनी प्रणामाञ्जलि अर्पित करके उनकी अभिवन्दना की है।
इस गाथा में 'वोच्छे' यह उत्तम पुरुष की एक वचन की क्रिया है। जिसमें 'अहं' शब्द गर्भित है। उस ( अहं ) शब्द से शुभचन्द्र आचार्य आराधक और सिद्ध भगवान् आराध्य इस प्रकार द्वैतनमस्कार भी किया है। १. जयधवला, पृ० १।