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सिरिसुहचंदाइरिय विरइया
अंगपण्णत्ति
श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित अंग प्रज्ञप्ति
प्रथम अधिकार द्वादशाङ्गप्रज्ञप्तिः
सिद्धं बुद्धं णिच्चं णाणभूसणं णमीय सुहयंदं । वोच्छे
पुव्वपमाणमेगारह अंगसंजुत्तं ॥ १ ॥
सिद्धं बुद्धं नित्यं ज्ञानभूषणं नत्वा शुभचन्द्रम् । वक्ष्ये पूर्वप्रमाणमेकादशांगसंयुक्तम् ॥ १ ॥
ज्ञान के भूषण वा ज्ञान ही है भूषण जिनका ऐसे शुभभावों को वृद्धिगत करने वाले नित्य, बुद्ध स्वरूप सिद्धों को नमस्कार करके ग्यारह अंग सहित पूर्वगत प्रमाण को कहूँगा ॥ १ ॥
विशेषार्थ
इस गाथा के पूर्वार्द्ध में इष्टदेव को नमस्कारपूर्वक मंगलाचरण और उत्तरार्द्ध में इस ग्रन्थ प्रतिपाद्य विषय के कहने की प्रतिज्ञा की है ।
'सिद्ध'' शब्द का अर्थ कृत्य कृत्य होता है, अर्थात् जिन्होंने अपने करने योग्य सर्व कार्यों को कर लिया है।
जिन्होंने अनादिकाल से बँधे हुए ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों को ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा भस्म कर दिया है ऐसे कर्म प्रपंच मुक्त जीवों को सिद्ध कहते हैं ।
fog धातु गमनार्थक भी है, जिससे सिद्ध शब्द का अर्थ होता है, कि जो शिवलोक में पहुँच चुके हैं, वहाँ से लौटकर कभी नहीं आते ।
१. सितं बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्यातं दग्धं जाज्वल्यमान शुक्लध्यानानलेन यस्तै सिद्धाः ।