Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ १६, वर्ष ४१, कि०१ अनेकान्त कि समय-समय पर हमने अपनी पूर्वगत अनेक सैद्धान्तिक विवरणों में परस्पर विरोध तो है ही, एक ही शाखा के मान्यताओ के संशोधनों को स्वीकृत किया है जिसमे कुछ विवरणो मे भी विसंगतियां पाई जाती हैं। परंपरापोषी निम्न है: टीकाकारों ने ऐसे विरोधी उपदेशों को भी ग्राह्य बताया (i) हमने विभिन्न तीर्थंकरो के युग मे प्रचलित है। यह तो उन्होंने स्वीकृत किया है कि विरोधी या भिन्न त्रियाम, चतुर्याम और पचयाम धर्म के परिवर्धन को मतो में से एक ही सत्य होगा पर बीरसेन, वसुनदि जैसे स्वीकृत किया। टीकाकार और छमस्थों मे सत्यासत्य निर्णय की विवेक (ii) हमने विभिन्न आचार्यों के पचाचार, चतुराचार क्षमता कहाँ ?५ इन विरोधी विवरणों की ओर अनेट एवं रत्नत्रय के क्रमश: न्यूनीकरण को स्वीकृत किया। विद्वानो का ध्यान आकृष्ट हुआ है। (iii) हमने प्रवाहमान (परंपरागत) और अनुवाह्य सबसे पहले हम मूल ग्रन्थों के विषय में हो सोचे । मान (मधित) उपदेशो को भी हमने मान्यता दी।" सारणी २ मे ज्ञात होता है कि कषायप्राभूत, मूलाचार एव (1v) अकलक और अनु गोग द्वार सूत्र ने लौकिक कुन्दन्द साहित्य के भिन्न-भिन्न टीकाकारों ने ततत संगति बैठाने के लिये प्रत्यक्ष के दो भेद कर दिये जिनके ग्रन्थो मे मूत्र या गाथा को सखपायो मे एकरूपता ही नही विरोधी अर्थ है : लौकिक और पारमार्थिक । इन्हे भी पाई। इसके अनेक रूप में समाधान दिए जाते हैं । इस हमने स्वीकृत किया और यह अब सिद्धान्त है।" भिन्नता का सद्भाव ही इनकी प्रामाणिकता को जांच के (v) न्याय विद्या मे प्रमाण शब्द महत्वपूर्ण है। लिए प्रेरित करता है। ये अतिरिक्त गाथाएँ कैसे आई? इसकी चर्चा के बदले उमास्वाति पूर्व साहित्य मे ज्ञान और १ क्यों हमने - उसके सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को ही चर्चा है। प्रमाण सारणी २ : कुछ मुलग्रन्थों की गाथा/सूत्र संख्या ५ शब्द की परिभाषा भी। ज्ञान प्रमाण' से लेकर अनेक ग्रन्थ गाथा सख्या गाथा सख्या बार परिवधित हुई है। इसका वर्णन द्विवेदी ने दिया है।" प्रथम टीकाकार द्वितीय टीकाकार (vi) हमने अर्धकारक और यापनीय आचार्यों को १ कमायपाहुड ८० २३३ (जयधवला) अपने गर्भ में समाहित किया जिन के सिद्धान्त तथाकथित २. कसाय पाहुड्चूणि ८००० श्लोक ७००० , (ति.प.) मूल परपरा से अनेक बातो मे भिन्न पाये जाते है । ३. सत्पुरूषणासूत्र १७७०० ये तो सैद्धान्तिक परिवर्धनो को सूचनाये है । ये हमारे ४. मूनाचार १२५२ (वसुनंदि) १४०६ (मघचद्र) धर्म के आधारभूत तत्व रहे है इन परिवर्धनो क परिप्रेक्ष्य ५. समयसार ४१५ अमृत चंद्र ४५ जयसेन में हमारी शास्त्रीय मान्यताओ की अपरिवर्तनीयता का तर्क ६. पचास्तिकाय १७३ , १६१ ॥ कितना सगत है, यह विचारणीय है। मुनिश्री ने इस ७ प्रवचनसार २७५ , ३१७ , समस्या के समाधान के लिये शास्त्र और ग्रन्थ की स्पष्ट इनको भी प्रामाणिक मान लिया ? यही नहीं, इन परिभाषा बताई है। उनके अनुसार केबल अध्यात्म विद्या यशों गोशायों ग्रन्थों मे अनेक गाथाओं का पूनरावर्तन है जो ग्रन्थनिर्माण ही शास्त्र है जो अपरिवर्तनीय है, उनमें विद्यमान अन्य प्रक्रिया से पूर्व परम्परागत मानी जाती है। ये सबभेद से प्रक्रिया वर्णन ग्रन्थ की सीमा मे आते है और वे परिवर्धनीय हो पूर्व की होने के कारण अनेक श्वेताबर प्रथों मे भी पाई , सकते है। जाती हैं। गाथाओ का यह अन्तर अन्योन्य विरोध तो। शास्त्रों में पूर्वापर विरोध : माना हो जावेगा । कुन्दकुन्द साहित्य के विषय मे तो यह ___शास्त्रों की प्रमाणता के लिए पूर्वापर-विरोष का और भी अचरज कारी है कि दोनों टीकाकार लगभग १०० अभाव भी एक प्रमुख बौद्धिक कारण माना जाता है। वर्ष के अन्तराल में ही उत्पन्न हुए। पर यह देखा गया है कि अनेक शास्त्रों के अनेक सैद्धान्तिक (शेष पृ० २८ पर) २७

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