Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 135
________________ जैन ग्रन्थों में विज्ञान शब्दों पोजीटीव और नेगोटिव से परिचित थे। उन्होंने उसी प्रकार यह धर्म द्रब्य भी जीव और पुदगलो के गमन यह भी कहा है कि अणुओ मे साम्य गुण होने पर बंध नहीं करने में सहायक होता है। होगा। वह बंध तभी होगा जब गुरगों में अन्तर होगा। वैज्ञानिको ने माना है कि वस्तुओं के गिर कर रुकने और वह गुणा में अन्तर दा डिग्रा का हागा । आधुनिक मे ग्रेवेटी पावर गुरुत्वाकर्षण काम करता है, इसी गुरुत्वा कर्षण को जैन शास्त्रों में अधर्म द्रव्य माना गया है। जो होगा जब दोनों अणुओं से दो डिग्री का फरक होगा। पर । पर कि जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहायक होता है। माणुओं मे जो कण भरे हुए है उनको जैन शास्त्री की परि. भाषा में यह कहा जायेगा कि पारा और सोना भिन्न इसी प्रकार विज्ञान ने स्पेस को भी माना है। स्पेश पदार्थ नही है, वे पुद्गल द्रव्य की ही पर्याय है। होने के कारण ही जीव और पूदगल इस विश्व मे रहते हैं। यदि स्पेश ना हो तो कोई कहां रहे। जैन ग्रन्थों में इस जैन ग्रन्य गोम्मटसार मे परमाणु को षट्कोणी, स्पेश का नाम आकाश दिया गया है । आकाशस्यावगाहः। खोखला और सदा दौड़ता-भागता हुआ बताया गया है। यह आकाश द्रव्य के उपकार है कि पूरे विश्व में जीव परमाणु की रचना स्निग्ध और रुक्ष कणो के सहयोग से ही और पुद्गल समाए हुए है। होती है। विज्ञान ने १८४१ मे यह सिद्ध किया कि १९८ जैन शास्त्रों मे काल को भी एक स्वतत्र द्रव्य स्वीकार अश डिग्री का पारा लेकर उमको योगिक क्रिया करने पर किया गया है। वैज्ञानिक भी टाइम को स्वीकार करते है। २०० अश डिग्री वाला सोना तैयार किया जा सकता है। यह टाइम ही समय को बदलने मे महायक हो रहा है। यही बात जैन ग्रन्थो में भी उल्लिखित है। दो अधिक अश वैज्ञानिक मानते है कि टाइम (काल द्रव्य) को स्वीकार हो तो बध होगा और कम हो तो बध नही होगा। जैन करे बिना काम नही चल सकता। मिन्को नामक वैज्ञासिद्धान्तानुसार संसार की जितनी भी वस्तुएं दृष्टिगोचर । वस्तुए दृष्टिगोचर निक ने यह सिद्ध किया था कि काल द्रव्य एक स्वतंत्र होती है वे सब पुद्गल की ही पर्याय है। वैज्ञानिक भी कर उन्हें मेटर को भिन्न-भिन्न अवस्थाएं मानता है। इस प्रकार जगत निर्माण मे सहायक जिन छः तत्त्वो मेटर को स्वीकार करने के बाद विज्ञान ने मेटर के का जैन साहित्य मे उल्लेख है उन सभी को आज के वैज्ञादो भेद किए। इस विश्व मे कुछ तो लिविंग सबस्टेन्स है निक भी जैसा का तैसा स्वीकार करते है। और कुछ नोन लिविंग सबस्टेन्स है। लिविंग सबस्टेन्स मे जैनाचार्यों ने प्रत्येक द्रव्य का कोई न कोई गुण माना उन्होंने जीव और पुद्गल को माना है । नोन लिविंग सब- है। वैज्ञानिक भी प्रत्येक सबस्टेन्स को क्वालिटी स्वीकार स्टेन्स मे उन्होने शेष द्रव्यो को माना है। जीव जब गमन करते है। सभी द्रव्यों मे एजिस्टेन्स गुण वैज्ञानिक स्वीकार करता है तो उसके गमन में एक मीडियम होता है। उस करते हैं। उसे ही जैनाचार्यों ने द्रव्यों का अस्तित्व गुण मीडियम का नाम वैज्ञानिको ने ईथर रखा है। जैन ग्रंथों कहा है। वैज्ञानिक सबस्टेन्स को कोई न कोई युटिलिटी में इस गमन के माध्यम मे सहायक को धर्म द्रव्य कहा है। मानते हैं। जितने भी द्रव्य है वे सभी गुण वाले है और मीडियम आफ मोशन-ईथर या धर्म द्रव्य के बिना पुद- गुण वाले होने के कारण उनका कोई न कोई उपयोग है। गल और आत्मा गमन नही कर सकते । वैज्ञानिक ईथर प्रत्येक द्रव्य कोई न कोई क्रिया करता रहता है। इसलिए को नोन लिविंग सबस्टेन्स मानते है जैन ग्रन्थो में ईथर के साइन्स प्रत्येक द्रव्य मे फंगसनेलिटी गुण मानता है। जैन पर्यायवाची धर्म द्रव्य को अरूपी-न दिखाई देने वाला साहित्य मे इसे द्रव्यत्व गुण कहा है। कहा है। उन्होने कहा है कि धर्म द्रव्य मात्र अनुभव की जैन शास्त्रों में कहा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के वस्तु है। वैज्ञानिक भी ईथर को इन्द्रिय ग्राह्य नही मानते रूप को नही ग्रहण कर सकता। उसके गुण भी कभी है। जैसे पानी मछली को गमन करने में सहायक होता है नही बिखर सकते। इस गुण को अगुरु लघुत्व गुण कहा

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