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वर्ष ४१ : कि० १
वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
( पत्र-प्रवर्तक : श्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर')
इस अंक मेंविषय
क्रम
१. उपदेशी पद
२. जैन साध्वाचार के आदर्श भगवान कुन्दकुन्द -डा० ज्योति प्रसाद जैन
३. पार्श्वनाथ विषयक प्राकृत अपभ्रंश रचनाएँ -डॉ० प्रेमसुमन जैन
४. समयसार क: दार्शनिक पृष्ठ
--डॉ० दरबारीलाल कोठिया
५. आगम-तुल्य ग्रंथो की प्रामाणिकता का मूल्यांकन -- डॉ० एन० एल० जैन
६. आगम के मूल रूपों में फेर-बदल घातक है श्री पद्मचन्द्र शास्त्री
७. श्री ब्र० कुँवर दिग्विजयसिंह जी के शास्त्रार्थं ने मेरे द्वार खोले श्री पद्मचन्द्र शास्त्री
6149
बीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंण १-११
८. ग्रन्थ- प्रशस्तियों का उपयुक्त प्रकाशन डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन ६. क्या कुन्दकुन्द भारती बदलेगी ? - श्री पद्मचन्द्र शास्त्री
१०. जरा सोचिए :
-सम्पादक
पृ०
१
२
5
१३
१७
२१
२३
२५
२३
जनवरी-मार्च १९८८
प्रकाशक :
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली- २
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जैन साध्वाचार के आदर्श भगवान कुन्दकुन्द
डाज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ
प्राज के युग में, जब जैन साध्वाचार अनेकविध शिथिलाचार, विकृतियों एवं धनाधित कुरूढ़ियों से अभिमूत होता जा रहा है, सर्वमहान क्रियोहारक एवं भगवान तीर्थंकर देव की शुद्धाम्नाय के पुनरुवारक भगवत्करकन्दाचार्य के तविषयक उपवेश ही समर्थ प्रेरणास्रोत एवं मार्गदर्शक हो सकते हैं। साध्वाचार शुद्ध हो जाय तो प्रावकाचार स्वतः संघरता चला जायेगा। भगवान के धर्म-तीर्थ एवं श्रीसंघ की शक्ति का प्रधान प्राधार शद्ध एवं पावर्श साध्वाचार ही है।
प्रातःस्मरणीय मूलसंचाग्रणी श्रीमद् भगवत्कुन्दाचार्य विदेशी लोगों के प्रागमन एवं प्रभाव से भारतीय धर्मों का का सूनाम मात्र जन संस्कृति के ही इतिहास में नहीं, व्यावहारिक रूप भी पर्याप्त निश्रित होने लगा थाअध्यात्म-विद्या के सार्वकालीन एव सर्वदेशीय इतिहास में दक्षिण भारत अभी तक ऐसे अनिष्ट प्रभावो से अछना भी स्वर्णाकित हैं। वह युगान्तरकारी महापुरुष थे और बचा हुआ था। कम से कम जैन इतिहास के तो ऐसे मोड़ पर खड़े थे जब ऐसे समय मे भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य का सुदूर दक्षिण अनेक आन्तरिक एवं बाप कारणों से परिस्थिति पर्याप्त में आविर्भाव हुआ। वह भगवान महावीर की आचार्य विषम थी। अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर (ई० पू० परपरा के २७वे गुरू, आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (ई० पू० ५६९-५२७) को निर्वाण प्राप्त किये लगमग पांच सो वर्ष ३७-१४) के, जो कि स्वय अष्टागधारी थे तथा शेष अगबीत चुके थे, और इस बीच उनके द्वारा प्रवर्तित द्रव्यश्रुत, पूर्वो के देशज्ञाता थे, साक्षात् शिष्य थे। लोहाचार्य, द्वादशांगवाणी अथवा ग्यारह अंग-चौदहपूर्वो के ज्ञान में वटुकेरि, गुणधर, अर्हद्वलि, माघनंदि, धरसेन, विमलार्य क्रमशः ह्रास एवं ध्युच्छिति होते रहने से अब कतिपय अंग- शिवार्य, स्वामिकमार, उमास्वाति आदि अनेक घरघर पूर्वो के गिने-चुने कुछ एकदेश ज्ञाता ही अवशिष्ट रह गये आचार्य उनके प्रायः समसामयिक थे । अभी तक द्वादशांगथे। भगवान के श्रीसघ मे शनैः शनैः भारी विघटन, श्रुत गुरुपरंपरा में मौखिक द्वार से ही प्रवाहित होता पाया बिखराव, केन्द्र परिवर्तन, शिथिलाचार एव फूट प्रकट हो था, और शायद यह भी एक बड़ा कारण था कि उसमें रहे थे । अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु प्रथम (ई० क्रमशः ह्रास एक व्यच्छिति होती चली जा रही थो । किन्तु पृ० ३९४-३६५) की शिष्य-परंपरा के दाक्षिणात्य निर्ग्रन्थ सर्व परिग्रहत्यागी बनवासी निग्रंथ श्रमणों की चर्या ही ऐसी श्रमणों का सगठन एवं मार्गदर्शन करने की भी परम थी। वे न किसी बस्ती मे ही रह सकते थे, न किसी एक आवश्यकता थी, क्योंकि अभी तक वे ही भगवान को स्थान में अधिक समय तक ठहर सकते थे और लेखन एव मौलिक परंपरा का संरक्षण अपनी मुनिचर्या द्वारा करते पठन-पाटन की साधन-सामग्री तक का परिग्रह भी नहीं आ रहे थे। उनमें भी अब बिखराव के सकेत मिलने लगे रख सकते थे । अतएव श्रुतागम को लिपिबर थे। ब्राह्मण परंपरा के षड्दर्शन अब तक रूढ़ हो चुके थे सामूहिक विरोध ही चलता रहा। कनिगचक्रवर्ती सम्रट और बौद्ध धर्म हीनयान एवं महायान में विभाजित होने खारवेल द्वारा कुमारी पर्वत पर, लगभग ई० पू० १५० मे, पर भी फल फूल रहा था। सब ही परंपराएं बाह्य पिया- आयोजित महामुनि-सम्मेलन में यह प्रश्न जोर-शोर के काण्ड एवं प्रवृत्तिमार्ग का पोषण कर रही थीं। उत्तर साथ चचित भी हुआ और वहां से आकर उत्तर मथुरा के भारत में तो ईरानी- यूनानी, हलव, शक, कुषाण आदि जैनसंघ ने पुस्तकधारिणी सरस्वती प्रतिमा को प्रतीक बना
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जैन साध्वाचार के आवशं भगवान कन्वन्द
कर सारस्वत अभियान भी छेड़ दिया, तथापि स्थितिपालक ८०० वर्ष पूर्व श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य अपनी आध्यात्मिक दल के प्रबल विरोध के कारण उसके सफल होने में कुछ विधारधारा के विशद प्रतिपादन द्वारा भारतीय संस्कृति, देर लगी । अन्तत: आचार्य कुन्दकुन्द ने ही सर्वप्रथम वह विशेषकर जैन परपरा के लिए सम्पन्न कर गये थे। साहसिक कदम उठाया । उन्होने स्वय को गुरुपरंपरा से इधर कुछ दिनों से कुन्दकुन्दाचार्य-द्विसहस्राब्दि प्राप्त श्रुतागम के आधार से अपने समयसारादि ८४ पाहुड़ महोत्सव मनाने की चर्चा चली है और उसका कई (प्राभूत) ग्रन्थों की रचना की और लिपिबद्ध कर दिया। माध्यमो से प्रचार किया जा रहा है। कई स्थानों में कुछ यह एक महान क्रान्तिकारी कदम था जिसका समुचित सेमिनार-संगोष्ठियां, समारोह-उत्सव आदि हुए भी हैं और मूल्यांकन करना सहज नहीं है।
हो रहे है तथा व्यापक स्तर पर द्विसहस्राब्दि महोत्सव आचार्यप्रवर ने समस्त तत्कालीन परिस्थितियों और मनाने की योजनाएं भी बन रही हैं। यों तो प्रत्येक शुभ भावी संभावनाओं पर गंभीर चिन्तन-मनन करके अपने कार्य के प्रारम्भ में नित्य पढ़े जाने वाले मंगल श्लोक में लिए जिनवाणी का निचोड एव सारतत्व अध्यात्मविद्या को तीर्थकर भगवान महावीर और उनके प्रधान गणधर चुना और व्यवहार नय तथा व्यवहार धर्म की उपेक्षा न गौतम स्वामि के साथ-साथ जिन एकमात्र आचार्यपुंगव करते हुए भी निश्चय नय, शुद्वात्मोपलब्धि, अत: भावतः कुन्दकुन्द का नाम स्मरण किया जाता है उनके सुनाम या एव द्रव्यतः भी शुद्धमुनिचर्या एव आत्मसाधना पर अधिक निमित्त से कभी भी, कही भी, कोई भी धर्म एवं संस्कृतिबल दिया । वह स्यात सर्वप्रथम ऐसे मरमी साधक योगि-प्रभावक आयोजन किया जाय, वह सदैव पलाधनीय होगा, राज थे जिन्होंने अपने लेखन द्वारा पात्मिक रहस्यवाद का किन्तु जब किसी महापुरुष या उनके जीवन की घटना उद्घाटन कर दिया और पाने वाली पीढ़ियो के लिए विशेष की स्मृति मे कोई आयोजन किया जाय तो उसमें आध्य त्मविद्या को ठोस आधार प्रदान कर दिया। स्यात कुछ तुक होना उचित है। भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य का जन्म उन्ही से प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा लेकर उनके सघ के सम- ईसा पू० ४१ में हुआ था, ११ वर्ष की आयु में ई०पू० सामायिक उपरोक्त अन्य आचार्यों ने भी अपने अपने ३० मे उन्होंने मुनि दीक्षा ली थी, २२ वर्ष मुनि जीवन क्षयोपशम, रुचि और ज्ञान के अनुसार श्रुतागम के आधार व्यतीत कर ३३ वर्ष की आयु मे ई०पू० ८ में वह आचार्य से चतुरानुयोग के विभिन्न विषयो पर मूलभूत रचना पद पर प्रतिष्ठित हुए और ५२ वर्ष पर्यन्त उस पद को करके तद्विषयक भावी साहित्य सृजन के लिए ठोस आधार सुशोभित करके ८५ वर्ष की आयु मे सन् ४४ ई. में प्रस्तुत कर दिया। इतना ही नही, वट्टकेरि, गुणधर एवं उन्होंने स्वर्गगमन किया था इनमे से किसी भी विधि की धरसेन जैसे श्रुतधराचार्यों ने तो उन्हे प्राप्त श्रुतागम के संगति इस या आगामी वर्ष के साथ नही बैठती। हमें महाकर्म-प्रकृति प्राभृत, कसायप्राभृत, आचारांग प्रभति ज्ञात नहीं है कि किस महानुभाव की प्रेरणा से इस समय अगो को भी लिपिबद्ध करा दिया। इस प्रकार भगवान इस प्रायोजन का विचार प्रस्फुटित हुआ है। हमे उनकी कुन्दकुन्दाचार्य के अप्रतिम ऋण से जैन संसार कभी भी सद्भावना में तनिक भी सन्देह नही है, और हो सकता है उऋण नही हो सकता। इतिहास साक्षी है कि जब-जब कि उनके इस निर्णय का कोई आधार भी रहा हो, परन्तु बाह्य क्रियाकाण्ड, शिथिलाचार एवं विकृतियों ने धर्म के हमारे देखने सुनने में उसकी कोई अभिव्यक्ति नही आई। मौलिक स्वरूप को आवश्यकता से अधिक आच्छादित बहुमान्य परंपराये अनुभूति के अनुसार तो प्राचार्य प्रवर करना शुरू किया, कुन्दकुन्द-साहित्य ही उसे सही मोड़ देने के जन्म को द्वि-सहस्राब्दि सन् १९५६ ई० में होती, उनकी और सम्यक् दिशानिर्देश करने मे प्रधान सम्बल बना। दीक्षा की द्वि-सहस्राब्दि सन् १९७० में होती, उनके वस्तुतः जो कार्य श्रीमद् शकराचार्य ने अपने वेदान्त दर्शन प्राचार्य-पव-ग्रहण की द्वि-सहस्राब्दि सन १९६२ ई. में एवं अद्वैतवाद द्वारा ८वीं शती के अन्त मे ब्राह्मण परंपरा और उनके स्वर्गगमन की द्वि-सहस्रादि सन २०४४ ई० में एवं हिन्दू जाति के लिए किया, प्राय: वैसा ही कार्य उनसे होनी चाहिए।
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पार्श्वनाथ विषयक प्राकृत-अपभ्रश रचनाएँ
0 डा. प्रेमसुमन जैन, (सुखाडिया वि०वि० उदयपुर)
श्रमण-परम्परा के महापुरुषों तीर्थकरो में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन पर नया प्रकाश डाल सकती हैं। पार्श्वनाथ के जीवन का विशेष योगदान रहा है। ईसा उनमे कुछ रचनाओं का संक्षिप्त परिचय यहां प्रस्तुत किया पूर्व लगभग एक हजार वर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ का जा रहा है। जन्म हुआ था। उस समय देश में उपनिषद्-दर्शन का प्राकृत रचनाएं: विकास हो रहा था। पार्श्वनाथ के चिन्तन ने भारतीय प्राकृत भाषा में भगवान पार्श्वनाथ का जीवन प्रमुख दर्शन को आध्यात्मिक बनाने में विशेष योग किया है। रूप से 'चउपन्नमापूरिसचरिय' मे शीलांक ने प्रस्तुत नगर सस्कृति के साथ ही ग्राम्य जीवन एव अनार्य लोगो किया है। इसी का अनुसरण श्री देवभद्रसूरि (या गुणचन्द्र) के बीच में जीवनमूल्यों का प्रचार पार्श्वनाथ की अध्यात्म
ने अपने 'पासनाहचरिय' मे किया है । प्राकृत की ये दोनो परम्परा ने भगवान् बुद्ध एवं भगवान् महावीर के दर्शन
रचनाएं प्रकाशित है। कुछ वर्ष पूर्व भद्रेश्वरसूरि की को भी गति दी है । महावीर की परम्परा में पार्श्वनाथ के
'कहावलि' भी प्रकाशित हुई है, जिसमे पार्श्वनाथ का शिष्यो की जीवनचर्या एवं उनके विकारों को व्यक्त करने
जीवनचरित वणित है। विद्वानों ने इस कहावलि का वाले कई प्रसंग शास्त्रो मे प्राप्त होते है। धीरे-धीरे
समय लगभग आठवी शताब्दी माना है। अत: प्राकृत के पार्श्वनाथ के जीवन का विषद वर्णन भी जैनाचार्यों ने रचनाकारो के लिए यह प्रेरणा-ग्रन्थ रहा है। स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में किया है।
१: पार्श्वनाथ विषयक प्राकृत की रचनाओं मे १२वी अर्धमागधी आगम ग्रन्थों मे पार्श्वनाथ के जीवन के शताब्दी के आम्रकवि द्वारा रचित 'चउपन्नमहापुरिसकुछ प्रसग प्राप्त हैं। उनके शिष्य एव अनुयायियो के जीवन चरिय' का प्रमुख स्थान है। इस ग्रन्थ मे ८७३५ गाथाएं की विस्तृत जानकारी यहां मिलती है। कल्पसत्र में सक्षेप है तथा अन्य छन्दो की सख्या १०० है । खभात के विजयमे पार्श्वनाथ का जीवन वणित है। तिलोयपण्णति में भी नेमिसुरीश्वर शास्त्रभण्डार मे इस रचना की पाण्डुलिपि पार्श्वनाथ की जीवन-कथा का अधिक विस्तार नहीं मिल उपलब्ध है. जिगका लेखनकाल लगभग १६वीं शताब्दी है। सका है। समवायांगसूत्र में केवल इतना उल्लेख है कि २. किसी अज्ञात कवि ने प्राकृत में 'पासनाहचरिय' पार्श्वनाथ का पूर्वभव मे सुदर्शन नाम था । तिलोषपण्णत्ति नामक ग्रन्थ की रचना की । इस ग्रन्थ मे २५६४ गाथाए मे भी इतना ही कहा गया है कि पार्श्वनाथ का जीव है। इसका दूसरा नाम 'पार्श्वनाथदशभवचरित' भी प्राप्त प्राणत कल्प से इस भव मे आया है। अत: पार्श्व के पूर्वभवों होता है। इस प्राकृत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि शातिनाथ जैन का वर्णन लगभग ८वी शताब्दी के ग्रन्थो मे किया गया मंदिर जैसलमेर के ताडपत्रीय ग्रन्थभण्डार मे उपलब्ध है।' है । गुणभद्र के उत्तरपुराण में सर्वप्रथम यह वर्णन प्राप्त है, .. पार्श्वनाथ विषयक प्राकृत के एक अन्य ग्रन्थ की जिसका अनुकरण परवर्ती प्राकृत एव अपभ्र श के ग्रन्थकारो सुचना प्रौ० बेलणकर ने दी है। किसी नागदेव नामक ने किया है। सस्कृत, प्राकृत एव अपभ्रश की पार्श्वनाथ प्राकृत कवि ने 'पार्श्वनाथपुराण' की रचना की है। इस विषयक कुछ रचनाए प्रकाशित हो गई हैं, जिनमे पार्श्वनाथ ग्रन्थ के सम्बन्ध में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो के जीवन के सम्बन्ध में विद्वान सम्पादको ने विशेष प्रकाश सकी है। प्राच्यविद्या सस्थान, बड़ौदा, भारतीय संस्कृति डाला है। जैन साहित्य और दर्शन के मनीषी देवेन्द्र मुनि विद्यामंदिर, अहमदाबाद, बी० एल० सस्थान, पाटन एवं शास्त्री ने भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन पर एक पुस्तक भी राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपूर द्वारा प्रकाशित लिखी है। ब्लूमफील्ड ने भी पार्श्वनाथ के जीवन एव हस्तलिखित ग्रन्थों की सूचियों के अवलोकन से प्राकृत मे तत्सम्बन्धी कथाओ पर प्रकाश डाला है। किन्तु अभी रचित कुछ और पार्श्वनाथ विषयक रचनाएं खोजी जा भी प्राकृत-अपभ्रश की कई रचनाएं अप्रकाशित हैं, जो सकती है।
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पारवनाथ विषयक प्राकृत अपभ्रंश रचनाएँ
अपभ्रंश रचनाएं
अपभ्रंश साहित्य में पार्श्वनाथ का जीवन प्रेरणा का स्रोत रहा है । १०वी शताब्दी से ५वीं शताब्दी के बीच अपभ्रंश में पार्श्वनाथ के जीवन पर कई रचनाएं लिखी गई है। महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण में पार्श्वनाथ का जीवन वर्णित है, जो प्रकाश में आ चुका है । स्वतन्त्र रूप से ११वीं शताब्दी के कवि पद्मकीति का 'पासनाहचरित' हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुका है। अभी तक अपभ्रंश की ज्ञात रचनाओ में पार्श्वनाथ विषयक निम्नाकित रचनाएं अप्रकाशित है। इनको संपादित कर प्रकाशित किया जाना चाहिए, जिससे पार्श्वनाथ के जीवन पर अधिक प्रकाश पड सकेगा ।
१. पार्श्वपुराण (पं० सागरदत्त सूरि- वि० सं० १०७६ के कवि पं० सागरदत्त सूरि ने पाश्र्श्वनाथ पुराण की रचना की थी। इन्होने जवसामिचरिय भी लिखा है, ऐसी सूचना बृहत् टिप्पणिका सूची से प्राप्त होती है । किन्तु इनकी ये दोनों रचनाए अभी उपलब्ध नही हुई है । २. पासणाहचरिउ ( देवचंद )- लगभग १२ वी शताब्दी के अपभ्रंश कवि देवचद द्वारा रचित पासणाहचरित की अब तक मात्र दो प्रतियां उपलब्ध हैं । एक प्रति प० परमानन्द शास्त्री के निजी संग्रह मे है, जिसमे पत्रसंख्या ७, ७६ एवं ८१ उपलब्ध नही है । दूसरी प्रति सरस्वती भवन, नागौर के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध है । यह प्रति पूर्ण है । इसमें कुल ६७ पत्र है तथा प्रति का लेखनकाल वि० सं० १५२० चैत्र सुदी १२ अकित है। इस प्रति में ग्रन्थ का नाम 'पासपुराण' दिया हुआ है ।"
इस पासणाहचरिउ मे कुल ११ संघिया है, जिनमें २०२ कडवकों में पार्श्वनाथ के जीवन को काव्यमय भाषा में प्रस्तुत किया गया है । कवि ने अपना यह ग्रन्थ मुदिज्जनगर के पार्श्वनाथ मंदिर मे निर्मित किया गया था । देवचद के गुरू का नाम वासवचन्द्र था। इनको दक्षिण भारत का विद्वान् मानते हुए पं० परमानन्द जी ने इनका समय १२वीं शताब्दी तक किया है।
पार्श्वनाथ की ध्यान-समाधि का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि पार्श्वनाथ मोहरूपी अधकार को दूर करने के लिए सूर्य के समान एवं क्षमा रूपी लता को चढ़ने के
लिए उन्नत पर्वत की तरह है। उनका शरीर संयम और शील से विभूषित है. जो कर्मरूप कषाय की अग्नि के लिए मेघ की तरह है । कामदेव के उत्कृष्ट बाण को नष्ट करने वाले तथा मोक्षरूप महासरोवर मे कोड़ा करने वाले वे हंस की तरह हैं। वे इन्द्रिय रूपी सर्पों के विष को हरण करने वाले मन्त्र है तथा आत्म- गाक्षात्कार कराने वाली समाधि मे वे लीन है
मोह तमंध पचाव पयगो, खतिलयारुहणे गिरितुंगो । संत्रम-सीस-विसिय देहो, कम्मरुमाथ आसण मेहो पुप्फधणु वर तोमर धसो, मोक्ख महासरि- कीलण हंसो । इंदिय सप्पह विसहरमतो, अप्पसरूव-समाहि-सरतो । ३. पाषणाहचरिउ (विबुध श्रीधर ) - विबुध श्रीधर १२वी शताब्दी के समर्थ अप' कवि हैं इनको अपभ्रश की छह रचनाओ का उल्लेख मिलता है, जिनमे से चार उपलब्ध हो चुकी है उनमें 'पासणाहरि को कवि की प्रथम उपलब्ध रचना कहा जा सकता है। अपभ्रश के मनीषी डा० राजाराम जैन ने कवि के 'वड्ढमाणचरिउ' नामक ग्रन्थ का सम्पादन कर हिन्दी अनुवाद के साथ उसे प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ की भूमिका मे 'पाषणाहचरिउ' के महत्त्व आदि पर प्रकाश डाला गया है ।" इसी कवि की छठी रचना 'सुकुमाल चरिउ' का हमने सम्पादन कार्य सम्पन्न किया है, जो शीघ्र प्रकाश्य है ।
विबुध श्रीधर के इस 'पासनाहचरिउ' की अभी तक दो प्रतिया उपलब्ध है। आमेरशास्त्र भण्डार, जयपुर मे उपलब्ध प्रति वि० सं० १५७७ की है, जिसमे कुल ६६ पत्र है । ग्रन्थ की दुमरी प्रति अग्रवाल दि० जैन बड़ा मंदिर, मोतीकटरा, आगरा मे उपलब्ध है । इसमें कुल ६८ पत्र है, किन्तु ६२वा पत्र उपलब्ध नही है । इस ग्रन्थ मे कुल २ सधिया एव २३८ कड़वक हैं। साहू नट्टल की प्रेरणा से इस 'पासनाहचरिउ' की रचना दिल्ली में की गई थी । ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि श्रीधर जाति के अग्रवाल जैन थे तथा हरियाणा के निवासी थे। उन्होंने दिल्ली का सुन्दर वर्णन इस काव्य में किया है। इतिहास एवं संस्कृति स सम्बन्ध मे कई नई सूचनाएं इस ग्रन्थ से प्राप्त होती है । ग्रन्थ की रचना करते हुए कवि ने कहा है कि जिसने इस संसार के भ्रमण को नामा
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६, वर्ष ४१, कि०१
अनेकान्त
कर दिया हैं, पापों को समाप्त कर दिया है तथा जो कुछ पन्ने कीड़े लग जाने से कट-फट गये हैं। फिर भी अनुपम गुणरूपी मणियों के समूह से भरा हुआ है उसे प्रति पूर्ण और अच्छी है । इस भण्डार की सूची तैयार भव-बन्धन को तोड़ने वाले पार्श्व को प्रणाम कर मैं उसके करने वाले विद्वान डा० जैन ने इसे प्राकृत की रचना चरित को प्रकट कर रहा हूं---
कहा है, जबकि यह अपभ्र श का ग्रन्थ है। पूरिय भुअणासहो पावपणासहो,
५. पार्श्वनाथ पुराण (रइधू)-रइधू ने अपभ्रंश णिरुवम गुणमणि वारण-भरिउ ।
मे कई रचनाए प्रस्तुत की है। उनके व्यक्तित्व एव उनकी तोडिय भव-पास हो पणववि पासहो,
रचनाओ के सम्पादन-प्रकाशन का कार्य डा० राजाराम पुणु पयडमि तासु जि चरिउ ।
जैन सम्पन्न कर रहे है।" डा० के० सी० कासलीवाल ने इस ग्रन्थ को प्रशस्ति सास्कृतिक दृष्टि से विशेष विभिन्न ग्रन्थभण्डारी का सर्वेक्षण कार्य सम्पन्न किया है। महत्त्व की है।
इसमे रइधु की कई रचनाए प्रकाश मे आई है। डा. ४. पासनाहचरिउ (बुह असवाल)-कवि बुध देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने रइधू के इस पार्श्वपुराण की ५ असवाल १५वी शताब्दी के अपभ्रश कवि थे। इनकी
प्रतियों की सूचना अपनी पुस्तक में दी है । कोटा, व्याबर, अन्य रचनायो का अभी पता नही चला है। इनकी ज्ञात
जयपुर एवं आगरा मे इस ग्रन्य की पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध एक मान वृति 'पासणाहचरिउ' उनकी विद्वता के परिचय है। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे कवि कहता हैके लिए पर्याप्त है। बुध असवाल ने कुशान देश (इटावा
पणविवि सिरिपासहो, उ० प्र०) करहल नामक गाव मे यदुवशी साहु सोणिग के
सिवउरिवासहो विहुणिय पास हो गुणभरिउ । अनुरोध से इस पासणाहचरिउ की रचना की थी। कवि
भवियहं सुह-कारण दुक्ख-णिवारण, ने अपनी प्रशस्ति मे ग्रन्थ के रचना स्थल के सम्बन्ध म
पुणु आहासमि तह चरिउ ।
इस ग्रन्थ मे ७ सधियां हैं और १३६ कडवक हैं। अच्छी जानकारी दी है । इस प्रन्थ की रचना वि० स० १४७६ में भाद्रपद कृष्णा एकादशी को सम्पन्न की गई
ग्रन्थ मे प्राकृत एवं संस्कृत में लिखे गये पाश्वनाथचरित
ग्रन्थो की विषयवस्तु को काव्यमय भाषा मे कवि ने प्रस्तुत थी। ग्रन्थ लिखने में लगभग एक वर्ष का समय कवि को
किया है। कवि के द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रादि एवं अन्त लगा था। कवि असवाल का वश गोलाराड (गोलालार) था। वे पण्डित लक्ष्मण के पुत्र थे--
की प्रशस्ति मध्यकालीन सस्कृति के विषय मे महत्त्वपूर्ण अहो पडिय लक्खड़ सुयगुलग, गुलरास्वंसि धयवह अहंग ।
सामग्री प्रस्तुत करती है। विशेषकर ग्वालियर के सामाग्रन्थ की १३वी सधि के अन्त में पुष्पिका म एव
जिक, धार्मिक, राजनैतिक जीवन पर ग्रन्थ की यह सामग्री ग्रन्थ के प्रारम्भ मे ५व पत्ते मे कवि ने स्पष्ट रूप से
विशेष प्रकाश डालती है। तत्कालीन जैन समाज की अपने नाम का उल्लेख किया है।
उन्नत दशा का ज्ञान इससे होता है। साह खेमचन्द के इउ सुणिव मज्झ पोसहि चित्त,
परिवार का विस्तृत विवरण इस ग्रन्थ में प्राप्त है। करि कन्बु पामणाहहो चरित्तु ।
६. पासणाहचरिउ (तेजपाल)-कवि तेजपाल त णिसुणाव कन्वह तण उणाभु,
१६वी शताब्दी के समर्थ अपभ्रंश कवि थे। इन्होने १. वुहु प्रासुवालु हुउ जो मधामु ।।
संभवनाथचरित, २. वरागचरित एव ३. पार्श्वनाथचरित इस पासणाहरिउ की मात्र दो पाण्डुलिपिया उपलब्ध ये तीन रचनाए अपभ्र श मे लिखी हैं। अभी ये तीनों हैं। अग्रवाल दिगम्बर जैन बड़ा मादर, मोतीकटरा, ग्रन्थ अप्रकाशित है। अतः कवि के सम्बन्ध में अधिक आगरा में जो प्रति है उसमे १५० पत्र है। किन्तु बीच के जानकारी प्रचारित नही हुई है। कवि नेत्रपाल ने इस ६१ से ६७ तक पत्र लुप्त है।" ग्रन्थ की दूसरी प्रति पासणाहचरिउ मे जो प्रशस्ति दी है उससे उनके परिवार सरस्वस्ती भवन, बड़ा मदिर ग्रन्थभण्डार, घी वालो का के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। बासवपुर रास्ता, जयपुर में उपलब्ध है। इस प्रति मे १२१ पत्र है। नामक गांव मे वरसावडह नामक वंश की परम्परा मे
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पाश्र्वनाथ विषयक प्राकृत-अपभ्रंश रचनाएँ
तेजपाल का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम ताल्हुच का ग्रन्थभण्डार है। उसमें जो इस ग्रन्थ की प्रति है उसमें था। तेजपाल ने ग्रन्थ के प्रेरणादायक घूधनु साहु (सुरजन कुल १०१ पत्र है । अतिम १०२वा पत्र नहीं है। प्रति में ग्रन्थ साइ) के परिवार का भी विस्तृत परिचय दिया है। की रचना का समय वि०सं० १५१५ अकित है।" ग्रन्थ की सुरजन साहु की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है- दूसरी पाण्डुलिपि आमेरशास्त्र भण्डार के कलेक्शन में है। णामें सुरजण साहु दयावरु, लंबकंचु जणमण-तोमायरु । पार्श्वनाथ के जीवन के सम्बन्ध मे विभिन्न भाषाओं धणसिरि रमणि सुहणेहासिय णिय जस पसरदि के ग्रन्थों से जो जानकारी मिलती है, उसकी प्रामाणिकता
सुरमुह-बासिय ॥ -अतिम सधि ३६ घत्ता के लिए एवं तुलना मक अध्ययन के लिए प्राकृत-अपभ्रंश
ग्रन्थ के प्रारम्भ में पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए के इन अप्रकाशित ग्रन्थों का विशेष महत्त्व है। पार्श्वनाथ कवि कहता है देवेन्द्र आदि के द्वारा पूजित, इस जन्म- पूर्व भव, उपसर्ग, गृहस्थ जीवन एव विहार क्षेत्र के सम्बन्ध समुद्र को पार कर जाने वाला, कर्मरूपी शत्रुओं का मे जो विखरी हुई सामग्री उपलब्ध है उसका अध्ययन इन नाशक, भय-हरण करने वाला, कल्याण करने में पटु एव अप्रकाशित ग्रन्थो के साथ करने पर किसी निश्चित ध्यान के द्वारा जिसने कर्म-समूह को जीत लिया है, उस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। पार्श्वनाथ के जीवन के पार्श्वनाथ के चरित को मैं कहूंगा
अतिरिक्त १०वी से १६वी शताब्दी तक के भारतीय जीवन देखिदेहि णुप्रो वरो सियरो जन्मवुही-पारणो, के विभिन्न पक्ष भी इन ग्रन्थो के अध्ययन से उजागर हो कम्मारीण विइसणो भहरो कल्याण-मालायरो। सकते है । अतः पार्श्वनाथ से विशेष रूप से जड़े हए तीर्थझाणे जेण जिओ चिर अणहियो कम्पट्टपुट्ठासवो, म्थान, अतिशयक्षेत्र एव सस्थाओं का यह दायित्व है कि सोयं पासजिणिदु संघवरदो वोच्छ चरित्त तहो। वे पार्श्वनाथ सम्बन्धी इन अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाश
इस पासणाहचरिउ की दो पाण्डुलिपियां उपलब्ध है। मे लाने का दृढ-संकल्प करे। प्राकृत-अपभ्रश के विद्वानों बड़े धड़े का दि. जैन मंदिर, अजमेर मे भट्टारक हर्षकीति को भी इस दिशा मे प्रयत्नशील होना चाहिए।
सन्दर्भ-सूची १. (क) पार्श्वनाथचरित (वादिराजसूरि), माणिक चन्द्र १६२५, स. २७८ ग्रन्थमाला, वम्बई, सं० १६७३,
७. जिनरत्नकोश पृ०२७ (ख) सिरियासनाहचरिय (देवभद्रसूरि), अहमदाबाद, ५. शास्त्री, देवेन्द्रकुमार; अपभ्रश भाषा एवं साहित्य की १९४५,
शोध प्रवृत्तिया, दिल्ली, १९७१, पृ० १४७ (ग) पासणाहचरिउ (पद्मकीर्ति), प्राकृत ग्रन्थ परिषद'
६. शास्त्री, परमानन्द; जैनग्रन्थ प्रशास्तिस ग्रह, भाग ३, वाराणसी, १९६५
पृ० ७७ २. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि; भगवान् पाव--एक समीक्षात्मक १०. जैन, राजाराम, वड्ढमाण चरिउ, दिल्ली, १९७५ अध्ययन, पूना, १९६६
११. शास्त्री, देवेन्द्रकुमार, वही, पृ० १४६ ३. ब्लूमफील्ड; 'द लाइफ एण्ड स्टोरीज आफ द जैन
१२. जैन, पी० सी०; 'जैन ग्रन्थ भण्डार इन जयपुर एण्ड सेवियर पार्श्वगा,' बाल्टीमोर १६१६ ज्ञान प्रकाशन;
नागौर,' जयपुर. १९७८; पृ० १०४ दिल्ली द्वारा १९८५ मे पुर: मुद्रित ।
१३. (क) रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, ४. उमाकान्त, पी० शाह; आल इडिया ओरियन्टल वैशाली
कान्फ्रेंस, वर्ष २०, भाग २ पृ० १४७; जैन सत्य- (ल) र इध-ग्रन्थावली भाग १, सोलापुर; मे यह प्रकाश, भाग १७, संख्या ४, १९५६
पासणाहुचरिउ प्रकाशित हो गया है। ५. चौधरी, गुलाबचन्द ; जैन साहित्य का बहत इतिहास, १४. कासलीवाल, के० सी०; राजस्थान के जैन ग्रन्थ भाग ६, पृ०७२
भण्डारो की सूची, ५ भागों में ६. बृहत् टिप्पणिका, जैन साहित्य संशोधक मण्डल, पूना, १५. शास्त्री, परमानन्द, वही, पृ० ८८ (प्रस्तावना)
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C डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य
प्राथमिक : आ: कुन्दकुन्दकी रचनाएँ, उनकी भाषा और प्रभावित और उस भाषा के प्रकाण्ड पंडित बने होंगे। उनका प्रभाव
तभी उन्होने शौरसेनी प्राकृत मे विपुल ग्रन्थ रचे । उनका "समयसार" आचार्य कुन्दकुन्दकी, जिन्हें शिलालेखो तमिल भाषा मे रवा "कुरल" एकमात्र उपलब्ध है, जिसे में "कोण्डकुन्द" के नाम से उल्लेखित किया गया है,। तमिलभाषी "पंचमवेद'' के रूप में मानते है । कुन्दकुन्द के एक उच्च कोटि की आध्यात्मिक रचना है। यो उन्होने उत्तरवर्ती शतश आचार्यों ने भी शौरसेनी प्राकृत मे प्रचुर अनुश्रुति अनुसार ८४ पाहुडो (प्राभृतो-:पहार स्वरूप ग्रन्थो की रचना की है। प्रकरण ग्रन्थो') तथा आचार्य पुष्पदन्त-भूनावली-द्वारा शौरसेनी-प्राकृत साहित्य के निर्माताओं में आचार्य रचित "षड्खण्डागम" मूलागमकी विशाल टीका की भी कुन्दकुन्द का निस्सदेह मूर्धन्य स्थान है। वे यशस्वी प्राकृत रचना की थी। पर आज वह समग्र ग्रन्थ-र।शि उपलब्ध साहित्यकार के अतिरिक्त मूल-सघ के गठन कला के रूप नही है फिर भी उनके जो और जितने ग्रन्थ प्राप्त है वे मे भी इतने प्रभाव गाली रहे है कि ग्रन्थप्रशस्तियो, शिलाइतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उनसे समग्र जैन वाङ्गमय समद्ध लेखो एव मूर्ति-लेखनो के सिवाय शास्त्र-प्रवचन के आरभ एवं देदीप्यमान है। उनके इन ग्रन्थो का, जिनकी संख्या मे और मगल-क्रियाओं के अवसर पर "मंगलं भगवान् २१ है, परिचय अन्यत्र दिया गया है।
वीरों" आदि पाठ्य द्वारा तीथंकर महावीर और उनके ____ ध्यातव्य है कि कुन्दकुन्द ने अपने तमाम ग्रन्थ उस प्रथम गणधर गौतम इन्द्रभूति के पश्चात् उनका भी बड़ी समय की प्रचलित प्राकृत, पाली और सस्कृत इन तीन श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है। इसमे आचार्य भारतीय प्रमुख भाषाओ में से प्राकृत मे रचे हैं। प्रश्न हो
कुन्दकुन्द का एक महान् एव प्रामाणिक आचार्य के रूप मे सकता है कि कुन्दकुन्द ने अपनी ग्रन्थ-रचना के लिए सर्वाधिक महत्त्व प्रकट होता तथा उनके धवल यश की प्राकृत को क्यो चना, पालो या संस्कृत को क्यो नही
प्रचुरता स्थापित होती है। चना ? इसके दो कारण ज्ञात होते है। एक तो यह कि समयसार : समयपाहड : नाम-विमर्श प्राकृत साधारण जनभाषा थी--उसके बोलने वाले ।
इतना प्राथमिक कहने के बाद हम कुन्दकुन्द की सामान्य-जन अधिक थे और कुन्दकुन्द तीर्थकर महावीर प्रस्तत मे विचारणीय कृति के नाम के सम्बन्ध मे कछ के उपदेश को जन साधारण तक पहुचाना च हते थे। विचार करेंगे । दूसरे षड्खण्डागम, कसायपाहुड जैसे दिगम्बर आगम-ग्रन्थों
उनकी इस महत्त्वपूर्ण कृति का मूल नाम समयसार के प्राकृत शौरसेनी, मे निबद्ध होने से उनकी सुदीर्घ है या समय-पाहुड ? मूलग्रन्थ का आलोडन करने पर परम्परा भी उन्हें प्राप्त थी । अतएव उन्होंने अपनी ग्रन्थ- विदित होता है कि इसका मूल नाम "समयपाहुई" है। रचना के लिए प्राकृत को ही उपयुक्त समझा । उनको यह कुंदकुंद ने स्वयं ग्रन्थ के आरम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थप्राकृत शौरसेनी-प्राकृत है। यद्यपि कुन्दकुन्द की गात- प्रतिज्ञा गाथा मे समस्त सिद्धान्तों की वन्दना करके भाषा तमिल थी और बे तमिलभाषी थे। किन्तु वे अन्तिम “समयपाहुड' ग्रन्थ के कथन करने का निर्देश किया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में उत्तर भारत से दक्षिण और ग्रन्थ का समापन करते समय भी उसका इसी नाम भारत में जो विशाल मुनि-श्रावक संघ गया था और जो से समुल्लेख किया है। इससे अवगत होता है कि ग्रन्थशौरसेनी-प्राकृत का पूरा अभ्यासी था उससे कन्दकुन्द बहुत कार को इसका मूल नाम "समयपाहुड" (समयप्राभूत)
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अभिप्रेत है। चूंकि इसमें उन्होंने समय-आत्मा के सार- को अतिशय अभीष्ट है। शुद्ध हा का कथन किया है, इससे उसे "समयसार" भी समयसार में दार्शनि क दृष्टि कहा जा सकता है । कुन्दकुन्द ने गाथा ४१३ में इसका यद्यपि समयपाहुड अथवा समयसार मूलतः भी उल्लेख किया है। किन्तु यहा उन्होंने "समयपाहुड" आध्यात्मिक कृति है। इसके आचार्य कुन्दकुन्द ने आरम्भ के वाच्य शुद्ध आत्मा के अपने "समयसार" पद का प्रयोग से लेकर अन्त तक शुद्ध आत्मा का ही प्रतिपादन किया किया है। उत्तरकाल मे तो "समयपाइड" के प्रथम है और उसी का श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी को प्राप्त व्याख्याकार आचार्य अमतचन्द्र (दशवीं शताब्दी) के वाच्य कर उसी मे स्थिर होने-रमने पर पूरा बल दिया है।" और वाचक दोनो मे अभेद-विवक्षा (एक मान) करके यही कारण है कि उन्होंने मंगलाचरण में अरहन्तों को "समयाहुड" (चक) को ही "ममयसार" (वाच्य) कहा नमस्कार न करके पूर्ण शुद्ध; अबद्ध और प्रबुद्ध समस्त है और इसी आधार पर उन्होने अपनी व्याख्या के आद्य सिद्धो की बन्दना की है।" तथापि उसे (शुद्ध आत्मा को) मगलाचरण में "नमःममयसाराय" आदि कथन द्वारा उन्होने दर्शन के द्वारा ही प्रदर्शित किया है। दर्शन का "समयसार" का उल्लेख करके उसे नमस्कार किया है। प्रयोजन है कि किसी भी वस्तु की सिद्धि प्रमाण के द्वारा और उसे सर्व पदार्थों से भिन्न चित्स्वभावरूप भाव (पदार्थ) करना और कुन्दकुन्द ने उसमें उस एकत्व-विभक्त शुद्धात्मनिरूपित किया है तथा वे यह मानकर भी चले हैं कि तत्व की सिद्धि स्पष्ट तया रविभव (युक्ति, अनुभव और "समयसार" "समयपाहड" है। तभी वह यह कहते है कि ।
आगम से प्राप्त ज्ञान) द्वारा करने की घोषणा की है। "समयसार" की व्याख्या के द्वारा ही मेरी अनुभूति की।
स्वविभव को स्पष्ट करते हुए व्याख्याकारों ने कहा है" परम शुद्धि हो। ऐसा भी नही कि अमतचन्द्र "समय- कि कुन्दकुन्द का वह सब विभव आगम, तर्क, परमगुरूपदेश पाहड" नाम से अरुचि रखते हो, क्योकि पहली गाथा की और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । इसके द्वारा ही उस शुद्ध आत्मा व्याख्या में न केवल उसका उन्होने उल्लेख किया है. अपितु
__ को समयसार मे सिद्ध किया गया है। उसे "अर्हत्प्रवचनावयव" कहकर उसका महत्त्व भी प्रकट
आत्मा द्वैतवादी उपनिषदो एव वेदान्त दर्शन में भी किया है। वास्तव में उनकी दृष्टि नाम की अपेक्षा उनके
आत्मा को सुनने के लिए श्रुतिवाक्यों, मनन (अनुमान) अर्थ की ओर अधिक है, क्योकि नाम तो पोद्गलिक
करने के लिए उपपत्तियो (युक्तियों) और स्वयं अनुभव (शब्दात्मक) है और अर्थ चित्स्वभाव शुद्ध आत्मा है। इसी करने के लिए स्वानुभव प्रत्यक्ष (निदिध्यासन:) इन तीन कारण उन्हें इस ग्रन्थ को "समयसार" कहने और उसकी प्रमाणो को स्वीकार किया है। उस प्राचीन समय मे किसी महिमा गाने मे अपरिमित आनन्द आता है। आगे भी भी वस्तु की सिद्धि इन प्रमाणों से ही की जाती थी। उन्होने गाथाओ पर रचे कलशों और उनकी व्याख्या मे साख्यदर्शन में भी अपने तत्वों की सिद्धि के लिए यही तीन "समयसार" नाम का ही निर्देश किया है। आचार्य प्रमाण माने गये है।“ अत: कुन्दकुन्द के द्वारा दर्शन के अमृत चन्द्र के बाद तो आचार्य जयसेन ने भी अपनी अंगभूत इन तीन प्रमाणों से उस शुद्ध आत्मा को सिद्ध तात्पर्यवृत्ति (व्याख्याः) मे "समयसार'' नाम ही दिया करना स्वाभाविक है। है।" और "प्रभृत" का अर्थ "मार' कर के उससे समयपाहुड स्वरुचिविरचित नहीं : आगम और युक्ति उन्होने "शुद्धावस्था" का ग्रहण किया है।" ५० बनारसी का प्रस्तुतिकरण दास, प० जयचन्द्र आदि हिन्दी टीकाकारों ने भी "समय- सब से पहले कुन्दकुन्द यह स्पष्ट करते है कि मैं उस सार" नाम को ही ज्यादा अपनाया है। यह नाम इतना "समयपाहुड" को कहूंगा, जिसका प्रतिपादन आगम, श्रुतलोकप्रिय हुआ कि आज भी जन-जन के कंठ पर यही नाम केवली और केवली के द्वारा किया गया है। इससे वे अपने विद्यमान है, "समयपादुड" नाम कम । किन्तु ग्रन्थ का "समयपाहुड" को स्वरूचिविरचित न होने तथा श्रुतकेवली मूल नाम "समयपाहुड' ही है, जो ग्रन्यकर्ता आ० कुन्दकुन्द कथित होने के प्रमाण सिद्ध करते हैं। इसके अतिरिक्त
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अनेकान्त
१० वर्ष ४१.० १
"सुयकेवली भणिय" ( श्रुतके वलीकथितं ) यह पद प्रथमाविभक्ति का होते हुए भी हेतुपरक है। वहा वह "समयपाट" की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए हेतु रूप मे प्रयुक्त किया गया है। न्यायशास्त्र में प्रथमा विभक्ति वाला पद भी हेतु रूप में स्वीकार किया हुआ है।" अतः इस हेतु रूप पद के द्वारा कुन्दकुन्द ने अपने "समयपाहुड" को प्रामाणिक सिद्ध किया है। समयसार में दर्शन
यहां हम कतिपय ऐसे तथ्य भी प्रस्तुत करेंगे, जिनके आधार पर हम यह ज्ञात करेंगे कि समयसार ने आ० कुकुन्द ने अनेक स्थलों पर दर्शन के माध्यम से शुद्ध आत्मा को प्रदर्शित किया है, वे इस प्रकार है
१. समयसार गाया ५ मे कुन्दकुन्द कहते है कि मैं अनुभव, युक्ति और आगमरूप अपने वैभव से उस एकत्वविभक्त शुद्ध आत्मा को दिखाऊगा यदि दिखाऊ तो उसे प्रमाण (सत्य) स्वीकार करना और कही चूक जाऊ तो छल नही समझना। यहां उन्होंने शुद्ध आत्मा को दिखाने के लिए अनुभव ( प्रत्यक्ष), युक्ति (अनुमान) और आगम इन तीन प्रमाणों को स्पष्ट स्वीकार किया है। उनके कछ ही उत्तरवर्ती आचार्य गृद्धपिच्छ और स्वामी समन्तभद्र" जैसे दार्शनिकों ने भी इन्ही तीन प्रमाणो से अर्थ ( वस्तु) प्ररूपण माना है और उन्हे भ० महावीर का उपदेश कहा है। कुन्दकुन्द के उक्त कथन में स्पष्टतया दर्शन को पुट समाविष्ट है और यह तथ्य है कि दर्शन बिना प्रमाण के आगे नहीं बढता ।
१०
२. कुन्दकुन्द गाथा ३ में बतलाते है कि प्रत्येक पदार्थ अपने एकाने मे सुन्दर स्वच्छ अच्छा भला है और इसलिए लोक मे सभी पदार्थ सब जगह अपने एकपने को प्राप्त होकर सुन्दर बने हुए है। किन्तु उस एकरने के साथ दूसरे का बन्ध होने पर झगड़े ( विवाद ) होते हैं और उसकी सुंदरता ( स्वच्छपना - एकपना ) नष्ट हो जाती है । वास्तव में मिलावट असुन्दर होती है, जिसे लोक भी पसन्द नही करता और अमिलावट ( निखालिस एकपना) सुन्दर होती है, जिसे सभी पसन्द करते हैं। यह सभी के अनुभवसिद्ध है। कुन्दकुन्द कहते है कि जब सब पदार्थों का एकत्व ही सुन्दर है तो एकत्व - विभक्त प्रात्मा सुन्दर क्यो नही होगा ?
३, जब कुन्दकुन्द से किसी शिष्य ने प्रश्न किया कि वह एकस्व विभक्त शुद्ध आत्मा क्या है ? तो वह उसका उत्तर देते हुए कहते है" कि जो न अप्रमत्त है - अप्रमत्त आदि आयोगी पर्यन्त गुण स्थानों वाला है और न प्रमत है - मिथ्यादृष्टि आदि प्रमत्त पर्यन्त गुण स्थानों वाला है, मात्र ज्ञायक स्वभाव पदार्थ है वही एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा है । उसके ज्ञान, दर्शन और चारित्र का भी उपदेश व्यवहारनय से है, निश्चयनय से न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन हैं। वह तो एक शुद्ध अखंड ज्ञायक ही है। कुन्दकुन्द का यह गुणस्थान-विभाग और नयविभाग से आत्मा का कथन आगम प्रमाण पर आधृत है ।
४. वह शिष्य पुनः प्रश्न करता है कि हमें एकमात्र परमार्थ ( निश्चयनय) का ही उपदेश दीजिए, व्यवहारनय की चर्चा यहाँ (एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा के प्रदर्शन मे ) अनावश्यक है, क्योंकि वह परमार्थ का दिग्दर्शक नहीं है ? इसका उत्तर आचार्य कुन्दकुन्द एक उदाहरण पूर्वक देते हुए व्यवहारनय की आवश्यकता प्रकट करते है* – जैसे अनार्य ( म्लेच्छ ) को उसकी म्लेच्छ भाषा के बिना वस्तु ( अनेकान्त आदि) का स्वरूप समझाना आवश्यक है और उसकी भाषा मे बोलकर उसे उसका स्वरूप समझाना शक्य है, उसी प्रकार ससारी जीवों को व्यवहारनय के बिना एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप समझाना भी अशक्य है, इसलिए उसकी आवश्यकता है। सर्वदित है कि पानी पोने के लिए लोटा ग्लास, कटोरी आदि पात्रों को आव श्यकता रहती है और पानी पी लेने के बाद उनकी आवश्यकता नहीं रहती यहा कुन्दकुन्द ने अनुमान के एक अवयव उदाहरण को स्वीकार कर स्पष्टतया दर्शन का समावेश किया है ।
५. यो तो अध्यात्म मे निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों को यथास्थान महत्त्व प्राप्त है किन्तु अमुक अवस्था तक व्यवहार ग्राह्य होते हुए भी उसके बाद वह छूट जाता है या छोड़ दिया जाता है। निश्चयनय उपादेय है। व्यवहार जहाँ अभूतार्थ है वहां निश्वयनय भूतार्थ है इस भूतार्थ का धय लेने से वस्तुतः जीव सम्यग्दृष्टि होता है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने गाया ११ व १२ मे यही सब प्रतिपादन किया है। यहां भी उनका स्यादवाद समाहित
आश्रय
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है, जो तीथंकरों का उपदेश है । यहां हम आचार्य अमृतचन्द्र ८. कुन्कुन्द भेदविज्ञान की सिद्धि करते हुए कहते हैं।० द्वारा व्याख्या (गाथा १२) मे उद्धत एक प्राचीन गाथा उपयोग में उपयोग है, क्रोधादिक में उपयोग नही है, को देने का लोभ संवरण नही कर सकते। यह इस वास्तव में क्रोध में ही क्रोध है, उपयोग मे क्रोध नही है। प्रकार है
आठ प्रकार के कर्मों में तथा शरीर आदि नौ कर्मों में भी जइ जिण मयं पवनह ता मा ववहार-णि च्छए मुयह । उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म तथा नौकर्म भी नही एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च ॥ है। जिस काल में ऐसा यथार्थ ज्ञान होता है उस काल मे
"यदि जिनमत की प्रवृत्ति चाहते हो, तो व्यवहार और उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्मा उपयोग के सिवाय अन्य कुछ भी निश्चय दोनों को मत छोडो। व्यवहार को छोड देने पर भाव नही करता। ऐसा भेदविज्ञान ही अभिनन्दनीय है तीर्थ का उच्छेद हो जावेगा और निश्चय को छोड़ देने पर और इस भेदविज्ञान से ही उसी प्रकार शुद्ध आत्मा की तत्त्व (स्वरूप) का नाश हो जावेगा । अत: दोनो नय उपलब्धि होती है जिस प्रकार अग्नि से तपा हुआ भी सम्यक् हैं और ग्राह्य है।"
सोना अपने स्वर्ण स्वभाव को नही छोडता । ज्ञानी जीव भी ६. यथार्थ मे नयो के द्वारा वस्तु को समझना और कर्मोदय से तप्त होने पर भी अपने ज्ञानस्वभाव को नहीं समझाना भी दर्शनशास्त्र का विषय है। आचार्य गद्धपिच्छ छोडता । सच तो यह है कि जीव शुद्ध को जानेगा ता ने "प्रमाणनयं रधिगमः" (त० सू० १-६) द्वारा स्पष्ट शद्ध की ही उपलब्धि होगी और यदि वह शुद्ध को जानता बतलाया है कि जहा प्रमाण वस्तु को जानने का साधन है है तो उसे शुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होगी । यह और वहा नय भी उसे जानने का साधन है और इसलिए आगे जितना और जो भी कुन्दकुन्द का चिन्तन है वह सब प्रमाण और नय दोनों को न्याय कहा गया है। दोनो मे दर्शन है-दर्शनशास्त्र हे। अन्तर यही है कि प्रमाण अखउ वस्तु (धर्मों) को ग्रहण ६. शिष्य प्रश्न करता है कि बन्ध कैसे टूटता है ? करता है और नय उसके अशो (धर्मों) को विषय करता कन्दकन्द इसका उत्तर देते हुए कहते है" कि बन्ध न तो है । अत. कुन्दकुन्द का निश्च । और व्यवहार नयो द्वारा उसके स्वरूप ज्ञान से टूटता है और न उसकी चिन्ता करने विवेचन दार्शनिक दृष्टि को प्रशित करता है। वे कहते से वह नष्ट होता है । अपितु जैसे बन्धन मे बधा हुआ है कि व्यवहारनय तो जीव ओर देह को एक कहता है । पर पुरुष उस बन्धन को तोड़ कर ही मुक्त होता है। उसो निश्चयनय कहता है कि जीव और देह य दोनो कभी एक प्रकार जीव भी कर्म के बन्धन को छेद कर ही मुक्ति प्राप्त पदार्थ नही हो सकते।"
करता है। यहां उन्होने प्राचरण पर पूर। बल दिया है। ७. शिष्य पूछता है कि आत्मा म कर्मबद्ध-स्पष्ट है या अबद्ध-स्पृष्ट है ? इसका कुन्दकुन्द ने नय० विभाग से १०. आत्मा के कर्तृत्व को लेकर श्रमणो मे अनेक उत्तर देते है कि जीव में कर्म बद्ध (जीव के प्रदेशो के मत प्रचलित थे । उन सब की आलोचना कुन्दकुन्द ने साथ बधा हुआ) है और सयोग होने से स्पष्ट (लगा हुमा) गाथा ३२१, ३२२ और ३२३ मे की है और कहा है कि है, ऐसा व्यवहारनय कहता है तथा जीव प कर्म न बंधा ऐसा मानने पर लोक और श्रमणों के कथन मे क्या भेद हुआ है। ऐसा शुद्ध नय बतलाता है। यहा भी कुन्दकुन्द रहेगा? लोक बिष्णु को कर्ता मानते है और श्रमण प्रात्मा शिष्य के प्रश्न का समाधान नय-विभाग (स्याबाद-सरणि) को। और इस प्रकार दोनो से ही मोक्ष सम्भव नही। से देते हैं। उनसे उनकी यहां भी दार्शनिकता स्पष्ट विदित कर्म कर्तृत्व मानने पर सांख्य मत के प्रसग का दोष देकर होती है। इसके सिवाय एक महत्त्वपूर्ण बात वे यह कहते सांख्य मत को भी उन्होने प्रदर्शित किया है।" कहा है कि हैं कि जीव मे कर्म बधे हुए हैं और नही बंधे हए है, "तेसि पयडी कुम्वइ अप्पा य अकारया सव्वे।"-प्रकृतिः ये दोनों एक-एक पक्ष (नयष्टि यां) है किन्तु जो इन दोनों की पुरूषस्तु अकर्ता-प्रकृति की है और पुरुष (आत्मा) पक्षों से अतीत (रहित) है वही समयसार (शुद्ध आत्म- अकर्ता है। कई मतो का और भी कुन्दकुन्द ने दिग्दर्शन तत्त्व) है।
कराया है । इसी प्रकरण में वे पुनः सांख्यमत को दिखाते
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१२, वर्ष ४१, कि.१
अनेकान्त
हुए कहते हैं कि जो करता है वह वेदन नहीं करता- कुन्दकुन्द का चिन्तन समयसार मे इतना गाढा भोगता नही है। क्षणिकवादी बौद्धों का भी मत देते है कि हो गया है और लगता है कि इसे उन्होंने जीवन के अन्त 'अन्य (क्षण) करता है और अन्य (क्षण) भोगता है। में तब बनाया है जब व इसके पूर्व कई ग्रन्थ रच चुके थे "ऐसे लोगों को क्या कहा जाय ? उन्हे सत्य के परे ही और समकालीन दार्शनिक मान्यताओ को अच्छी तरह जानना चाहिए। इस प्रकार समयसार मे जहां एक अध्यात्म-पृष्ठ है
अभ्यस्त कर चुके थे। तभी वे इसमे अपने समन मुनियहां हम दूसरा दार्शनिक पृष्ठ भी देखते हैं । वस्तुत. बिना।
जीवन और आगमाभ्यास से अजित अनुभव को अस्खलित दर्शन के आध्यात्म को न समझा जा सकता है और न उसे
भाव से विन्यास कर सके । यह नि.सन्देह अमृत-कलश है।
" प्राप्त किया जा सकता है।
ओ शान्तिः ।
सन्दर्भ सूची :१. वन्यो विभुवि न करिह कौण्डकून्द.कन्दप्रभा-प्रणयि. ५. वही, मगला० पद्य ३ । कीति-विभूषिताशः ।
६. ... .. .'समयप्रशिकस्य प्रभृतावस्वाहत्प्रवचनायश्चारूचारण-कराम्बुज-चंचरीकक श्च के श्रुतस्य भरते वयवम्य स्वपरयोरनादिमोहप्राणाय भाववाचा द्रव्यप्रयत: प्रतिष्ठाम् ॥
वाचा च परिभाषण मुपक्रम्यते।" श्रवणवेलगोला, चन्द्रगिरि-शिलालेख।
--वही, गाथा २ को व्याख्या । ....... कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।।
१०. ... ...... "न खलु समयसारादुत्तर किंचिदस्ति" रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यंजयित यतीशः। -वही, कलश २४४, समयपाहुड गा० ४१३, ४१४ रजः पद भूमितल विहाय चचार मन्ये चतुरगुल सः॥
की आत्मख्याति। -श्रवणवेलगोला, विन्ध्यगिरि-शिलालेख ,
११. वीतराग जिन नत्वा ज्ञानानन्दकमम्पदम् । २. डॉ० दरबारीलाल कोठिया, "आचार्य कुन्दकुन्द का
वक्ष्ये समयसार य वृत्ति तात्पयंसज्ञिकाम् ॥ प्राकृत वागमय और उनकी देन" शीर्षक लेख, "जैन.
___-- सेन, तात्पर्यबृत्ति, गा०.१, मगला० । दर्शन और प्रमाणशास्त्रपरिशीलन"-१० २४ से ३०. १२. "प्राभूत मार सारः शुद्धावस्था, वी० से० म० दृस्ट।
समयस्यात्मनः प्राभूत समयप्राभृत।" ३. मगल भगवान् वीरो मगल गौतमो गणी।
--वही, ता. वृ० गा०-१, व्याख्या। मंगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मगल ।।
१३. स० पा० गा० ४१०, ४११ । शास्त्रप्रवचन का मंगलाचरणपद्य। १४. वही, गा०-१ ।। ४. वदित सम्वसिद्ध ध्र वमचलमणोवर्म गइ पत्ते। १५. वही, गा०-५ । वोच्छामि समयमाहामिणमो सयकेवली भणिय ॥ १६. जयसेन, ता० १० गा-५ ।
-समयपा० गा०-१। १७. श्रोतव्य श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । ५. जो समयपाहुडमिणं पढिदूण य अस्थतच्चदो णाऊ । मत्वा च सतत ध्येय एते दर्शनहेतवः ।। अत्येठाही चेया सो होही उत्तम सोक्ख ॥
"आत्मा वाऽ रे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासतव्य:" -वही गा० ४१५ ।
-उपनिषद्वाक्य । ६. पाखंडीलिगेसु व गिहलिगेसु व बहुप्पयारेसु ।
१८. दृष्टमनुमानमाप्तवचन च सर्वप्रमाणसिद्धत्वात् । कुव्वंति जे ममत्त तेहिं ण णाय समयसार ॥
त्रिविध प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि । -वहीं, गा० ४१३ ।
—ईश्वरकृष्ण, साख्यका० ४ । ७. नमः समयसागय स्वानुभूत्या चकासते।
१६. अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला १.१ । चिस्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।
२०. "मतिश्रुतावधिमनःपयर्यकेवलानि ज्ञानम् तत्प्रमाणे, -~-अमृत चन्द्र, आत्मख्याति, मंगला० पद्य-१ ।
(शेष पृ० २७ पर)
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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन
वर्तमान वैज्ञानिक युग की यह विशेषता है कि इसमें विभिन्न भौतिक व आध्यात्मिक तथ्यों और घटनाओं को द्धिक परीक्षा के साथ प्रायोगिक साक्ष्य के आधार पर भी व्याख्या करने का प्रयत्न होता है। दोनों प्रकार के सपोषण से आस्था बलवतो होती है। वैज्ञानिक मस्तिष्क दार्शनिक या सन्त की स्वानुभूति दिव्यदृष्टि या मात्र बौद्धिक व्याख्या से सतुष्ट नहीं होता इसीलिए वह प्राचीन शास्त्रों, शब्द या वेद की प्रमाणता की धारणा की भी परीक्षा करता है। जैन शास्त्रों में प्राचीन श्रुत की प्रमाणता के दो कारण दिये है. (१) सर्वश, गणधर उनके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा रचना और (२) शास्त्र वर्णित तथ्यो के लिये वाधक प्रमाणो का अभाव। इस आधार पर जब अनेक शास्त्रीय विवरणों का आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है, तब मुनिश्री नदिघोष विजय के अनुसार भी स्पष्ट भिन्नतायें दिखाई पडती है । अनेक साधु, विद्वान्, परपरपोषक और प्रबुद्धजन इन भिन्नताओ के समाधान में दो प्रकार के दृष्टिकोण अपनाते है
(अ) वैज्ञानिक दृष्टिकों के अनुसार ज्ञान का प्रवाह वर्धमान होता है। फलतः प्राचीन वर्णनो मे भिन्नता ज्ञान के विकास पथ को निरूपित करती है। वे प्राचीन शास्त्रो को इस विकास पथ के एक मील का पत्थर मानकर इन्हे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मे स्वीकृत करते है। इससे वे अपनी बौद्धिक प्राप्ति का मूल्याकन भी करते है ।
(ब) परंपरा पोषक दृष्टिकोण के अनुसार समस्त ज्ञान सर्वज्ञ, गणधरों एव आरातीय आचार्यों के शास्त्रों में निरूपित है वह शाश्वत माना जाता है। इस दृष्टि कोण मे ज्ञान की प्रवाहरूपता एवं विकास प्रक्रिया को स्थान प्राप्त नही है । इसलिये जब विभिन्न विवरणो, तथ्यो ओर उनकी व्याख्याओं में आधुनिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य मे भिन्नता परिलक्षित होती है, तब इस कोटि के अनुसर्ता
डा० एन०एल० जैन, जंन केन्द्र, रीवां म०प्र०
विज्ञान की निरन्तर परिवर्तनीया एवं शास्त्रीय अपरिवर्तनीयता की चर्चा उठा कर परपरापोषण को महत्त्व देते है । यह प्रयत्न अवश्य किया जाता है कि इन व्याख्याओ से अधिकाधिक मगतता आये चाहे इसके लिये कुछ बीचछान ही क्यों न करनी पडे अनेक विद्वानो की यह धारणा संभवतः उन्हें अरुचिकर प्रतीत होगी कि अन-साहित्य का विषय युगानुसार परिवर्तित होता रहता है। साथ ही, पोषण का अर्थ केवल सरक्षण ही नहीं, सवर्धन भी होता है। जैन शास्त्री के काकदृष्टीय अध्ययन से ज्ञात होता है कि शास्त्रीय आचार-विचार की मान्यताये नवमी दशमी सदी तक विकसित होती रही है । इसके बाद इन्हे स्थिर एव अपरिवर्तनीय क्यो मान लिया गया, यह शोधनीय है। शास्त्री का मन है कि परपरापोषक वृद्धि का कारण सभवतः प्रतिभा की कमी तथा राजनीतिक अस्थिरता माना जा सकता है। पापभीरुता भी इसका एक सभावित कारण हो सकती है। इस स्थिति ने समग्र भारतीय परिवेश को प्रभावित किया है।
शास्त्री ने आरातीय आवायों को बुतधन, सारस्वत, प्रबुद्ध, परंपरापोषक एव आचार्य तुल्य कोटियो में वर्गीकृत किया है। इनमे प्रथम तीन कोटियों के प्रमुख आचार्यों के ग्रन्थो का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि प्रत्येक आचार्य ने अपने युग मे परपरागत मान्यतायो मे युगानु रूप नाम, भेद, अर्थ और व्याख्याओ मे परिवर्धन, सशोधन तथा विलोपन कर स्वतंत्र चिन्तन का परिचय दिया है। इनके समय मे ज्ञानप्रवाह गतिमान् रहा है । इस गतिमत्ता ने भी हमे आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राजनीतिक दृष्टि से गरिमा प्रदान की है। हम चाहते हैं कि इसी का आलंबन लेकर नया युग और भी गरिमा प्राप्त करे । इसके लिये मात्र परंपरापोषण की दृष्टि से हमे ऊपर उठाना होगा । आचायों की प्रथम तीन कोटियों की
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१४ बर्षे ४१, कि०१
मनैकन्त
प्रवृत्ति का अनुसरण करना होगा। उपाध्याय अमर मुनि' एक सूची में १०, ६, ८ अगधारियों के नाम ही नहीं हैं। ने भी इस समस्या पर मंथन कर ऐसी धारशा प्रस्तुत की सारिणी १ धवला और प्राकृत पदावलीको ६८३ है । हम इस लेख में कुछ शास्त्रीय मन्तव्य प्रकाशित कर
वर्ष-परंपरा रहे है जिससे यही मन्तव्य सिद्ध होता है।
धवला परंपरा प्राकृत पट्टावली
परंपरा आचार्यों और ग्रन्थों की प्रामाणिकता
३ केवली
६२ वर्ष ६२ वर्ष हमने जिनसेन के 'सर्वज्ञोक्त्यनुवादिन.' के रूप में
५ श्रुतकेवली १०० , १००, आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों को प्रामाणिकता की धारणा
११ दशपूर्वधारी १८३ , १८३ , स्थिर की है। पर जब विद्वज्जन इनका समुचित और
५ एकादशांगधारी २२० , १२३ ,, सूक्ष्म विश्लेषण करते है, तो इस धारणा मे सन्देह उत्पन्न
४ १०, ६, ८ अगधारी - ६७, होता है एवं संदेह निवारक धारणाओ के लिये प्रेरणा
४ एकांगधारी
११८ , ११८, (पाँच मिलती है।
--- ---एकांगधारी) सर्वप्रथम हम महावीर की परंपरा पर ही विचार
६८३ ६८३ करें। हमे विभिन्न स्रोतो से महावीर निर्वाण के पश्चात्
फलतः आचार्यों की परपरा मे ही नाम, योग्यता और ६८३ वर्षों की प्राचार्य परंपरा प्राप्त होती है। इसमे कम
कार्यकाल में भिन्नता है। यह परपरा महावीर-उत्तर से कम चार विसंगतियां पाई जाती है। दो का समाधान
कालीन है। महावीर ने विभिन्न युग में आचार्यों के लिए जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति से होता है, पर अन्य दो यथावत् बनी
भिन्न-भिन्न परंपरा के लेखन की दिव्य ध्वनि विकीर्ण न
की होगी। प्राधुनिक दृष्टि से इन विसगतियो के दो (१) महावीर के प्रमुख उत्तराधिकारी गौतम गणधर
कारण संभव है : हुए। उसके बाद और जबूस्वामी के बीच मे लोहार्य और (अ) प्राचीन समय के विभिन्न आचार्यों और उनके सुधर्मा स्वामी के नाम भी आते है। यह तो अच्छा रहा साहित्य के संचरण एवं प्रसारण की व्यवस्था और प्रक्रिया कि जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति मे स्पष्ट रूप से सुधर्मा स्वामी और का अभाव । लोहार्य को अभिन्न बनाकर यह विसनति दूर की और (ब) उपलब्ध, प्रत्यक्ष, अपूर्ण या परोक्ष सूचनाओ के तीन ही केवली रहे।
आधार पर परंपरा पोषण का प्रयत्न । i) पांच श्रतकेवलियों के नामो मे भी अतर है। नगे युग मे ही कारण प्रमाणिकता में प्रश्नचिह्न लगाते पहले ही श्रुतवली कही "नन्दी' है तो कही 'विष्णु' कहे है। फिर, यह प्रश्न तो रह ही जाता है कि कोन सी सूची गये है। इन्हें विष्णुनन्दि मानकर समाधान किया गया है। प्रमाण है?
(i) घबला मे सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु एव लोहा- मूलाचार के अनुसार, प्राचार्य शिष्यानुग्रह, धर्म एवं चार्य को केवल एक प्राचारांगधारी माना गया है जबकि मर्यादाओं का उपदेश, संव-प्रवर्तन एव गण-परिरक्षण का प्राकृत पट्टावली मे इन्हें क्रमशः १०, ६, ८ अंगधारी कार्य करते है , अंतिम दो कार्यों के लिये एतिहासिक एव माना है। इस प्रकार इन चार पाचायाँ की योग्यता जीवन परंपरा का गंथन आवश्यक है। पर आरम्भ के विवादग्रस्त है।
प्रायः सभी प्रमुख आचार्यों का जीवनवृत्त अनुमानतः ही (iv) ६८३ वर्ष की महावीर परंपरा मे एकांगधारी निष्कषित है । आत्म-हितषियो के लिये इसका महत्त्व न पुष्पदंत-भूतबलि सहित पांच आचार्यों (११८ वर्ष) को भी माना जावे, तो भी परंपरा या ज्ञानविकास की क्रमिक समाहित किया गया है और कही उन्हें छोडकर ही ६८३ धारा और उसके तुलनात्मक अध्ययन के लिये यह अत्यंत वर्ष की परपरा दी गई है जैसा सारिणी १ से स्पष्ट है। महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इस इतिहास
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मागम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन
निरपेक्षता की शक्ति को गुण माना जाय या दोष-यह (v) उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण बनाकर जैन विचारणीय है । एक ओर हमें 'अज्ञात कुलशीलस्य, वासो विद्योत्रा में सर्वप्रथम प्रमाणवाद का समावेश किया । देयोन कस्यचित' की सूक्ति पढ़ाई जाती है, दूसरी ओर (vi) उमास्वाति ने श्रावकाचार के अन्तर्गत ग्यारह हमे ऐसे ही सभी आचार्यों को प्रमाण मानने को धारणा प्रति ओ पर मौन रखा। संभवतः इसमे उन्हें पुनरावृत्ति दी जाती है। यह और ऐसी ही अन्य परस्पर-विरोधी लगी हो। मान्यताओं ने हमारी बहुत हानि की है। उदाहरणार्थ, शिष्यता से मार्गानुसारिता अपेक्षित है। परंतु लगता शास्त्री' द्वारा समीक्षित विभिन्न आचार्यों के काल-विचार है कि उमास्वाति प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने तत्कालीन के आधार पर प्रायः सभी प्राचीन आचार्य समसामयिक समग्र साहित्य म व्याप्त चर्चाओ की विविधता देखकर सिद्ध होते है :
अपना स्वयं का मत बनाया था। यही दष्टिकोण वर्तमान १. गुणधर ११४ ई०पू० -
में अपेक्षित है। २. धरसेन ५०-१०० ई० प्रथम सदी सौराष्ट्र, महाराष्ट्र उमास्वाति के समान अन्य आचार्यों ने भी सामयिक ३. पुष्पदत ६०-१०६ ई० , प्राध्र, महाराष्ट्र समस्याओं के समाधान की दृष्टि से परंपरागत मान्यताओं ४. भूतबनि ७६-१३६ ई. १-२ सदी आध्र में मंयोजन एवं परिवर्धन आदि किये है। इसलिये धार्मिक ५. कुदकुद ८१.१६५ ई० १-२ सदी तमिलनाडु ग्रथो में प्रतिपादित सिद्धांत, चाय या मान्यताये अपरि६. उमास्वाति १००-१८० ई० २ सदी
वर्तनीय है, ऐमी मान्यता तर्क संगत नही लगती । विभिन्न ७. वट्टकेर
प्रथम सदी
यूगो के ग्रंथों को देखने से ज्ञात होता है कि अहिंसादि पांच ८. शिवार्य
" मथुरा
नीतिगत सिद्धांतों की परंपरा भी महावीर-युग से ही चली ६. स्वामिकुमार
२-३ सदी गुजरात है। इसके पूर्व भगवान् रिषभ की त्रियाम (समत्व, सत्य (कार्तिकेय)
स्वायत्तता) एबं पवनाथ की चतुर्याम परपरा भी। इनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदत और भूतबलि का पूर्वा- महावीर ने ही अचेलकत्व तो प्रतिष्ठिन किया। महावीर पर्य और समय तो पर्याप्त यथार्थता से अनुमानित होता ने युग के अनुरूप अनेक परिवर्धन कर परंपरा को व्यापक है। पर कंदकंद और उमास्वाति के समय पर पर्याप्त बनाया । व्यापकीकरण की प्रक्रिया को भी परंपरापोषण चर्चायें मिलती है। यदि इन्हें महावीर के ६८३ वर्ष बाद ही ही माना जाना चाहिये । र द्यपि आज के अनेक विद्वान इस मानें, तो इनमे से कोई भी आचार्य दूसरी सदी का पूर्व निष्कर्ष से मःमत नही प्रतीत होते पर परपराये तो परि. वर्ती नही हो सकता (६८३-५२७- १५६ ई.)। इन्हे वधित और विकसित होकर ही जीवन्त रहती है । वस्तुतः गुरु शिष्य मानने में भी अनेक बाधक तर्क है
देखा जाय, ता जो लोग मूल आम्नाय जैसी शब्दावली (i) उमास्वाति की बारह भावनाओं के नाम व क्रम का प्रयं ग करते हैं, उसका विद्वान जगत के लिये कोई अर्थ कुंदकुंद से भिन्न है।
ही नहीं है। वीसवी सदी मे इस शब्द की सही परिभाषा (ii) उमास्वाति ने वट्टकेर के पंचाचार और शिवार्य देना ही कठिन है ? भ. रिषभ को मूल माना जाय या के चतुराचार को सम्यक् रत्नत्रय में परिवधित किया। भ० महावीर को ? इस शब्द की व्युत्पत्ति स्वय यह प्रदर्शित उन्होने तप और वीर्य को चरित्र मे ही अन्तर्भूत माना। करती है कि यह व्यापकीकरण की प्रक्रिया के प्रति अनुदार
(iii) कुंदकुंद के एकार्थी पांच अस्तिकाय. छह द्रव्य, है । हा बीसवी सदी के कुछ लेखक" समन्वय की थोड़ी सात तत्व और नी पदार्थों की विविधा को दूर कर उन्होने बहुत सभावना को अवश्य स्वीकार करने लगे हैं। सात तत्वों की मान्यता को प्रतिष्ठित किया ।
सैद्धान्तिक मान्यताओं में संशोधन और उनकी (iv) उमास्वाति ने अद्वैतबाद या निश्चय-ब्यवहार स्वीकृति प्टियों की वरीयता पर माध्ययमाव रखः ।
उपरोक्त तथा अन्य अनेक तथ्यों से यह पता चलता है
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१६, वर्ष ४१, कि०१
अनेकान्त
कि समय-समय पर हमने अपनी पूर्वगत अनेक सैद्धान्तिक विवरणों में परस्पर विरोध तो है ही, एक ही शाखा के मान्यताओ के संशोधनों को स्वीकृत किया है जिसमे कुछ विवरणो मे भी विसंगतियां पाई जाती हैं। परंपरापोषी निम्न है:
टीकाकारों ने ऐसे विरोधी उपदेशों को भी ग्राह्य बताया (i) हमने विभिन्न तीर्थंकरो के युग मे प्रचलित है। यह तो उन्होंने स्वीकृत किया है कि विरोधी या भिन्न त्रियाम, चतुर्याम और पचयाम धर्म के परिवर्धन को मतो में से एक ही सत्य होगा पर बीरसेन, वसुनदि जैसे स्वीकृत किया।
टीकाकार और छमस्थों मे सत्यासत्य निर्णय की विवेक (ii) हमने विभिन्न आचार्यों के पचाचार, चतुराचार क्षमता कहाँ ?५ इन विरोधी विवरणों की ओर अनेट एवं रत्नत्रय के क्रमश: न्यूनीकरण को स्वीकृत किया। विद्वानो का ध्यान आकृष्ट हुआ है।
(iii) हमने प्रवाहमान (परंपरागत) और अनुवाह्य सबसे पहले हम मूल ग्रन्थों के विषय में हो सोचे । मान (मधित) उपदेशो को भी हमने मान्यता दी।" सारणी २ मे ज्ञात होता है कि कषायप्राभूत, मूलाचार एव
(1v) अकलक और अनु गोग द्वार सूत्र ने लौकिक कुन्दन्द साहित्य के भिन्न-भिन्न टीकाकारों ने ततत संगति बैठाने के लिये प्रत्यक्ष के दो भेद कर दिये जिनके
ग्रन्थो मे मूत्र या गाथा को सखपायो मे एकरूपता ही नही विरोधी अर्थ है : लौकिक और पारमार्थिक । इन्हे भी
पाई। इसके अनेक रूप में समाधान दिए जाते हैं । इस हमने स्वीकृत किया और यह अब सिद्धान्त है।" भिन्नता का सद्भाव ही इनकी प्रामाणिकता को जांच के (v) न्याय विद्या मे प्रमाण शब्द महत्वपूर्ण है।
लिए प्रेरित करता है। ये अतिरिक्त गाथाएँ कैसे आई? इसकी चर्चा के बदले उमास्वाति पूर्व साहित्य मे ज्ञान और १
क्यों हमने - उसके सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को ही चर्चा है। प्रमाण सारणी २ : कुछ मुलग्रन्थों की गाथा/सूत्र संख्या ५ शब्द की परिभाषा भी। ज्ञान प्रमाण' से लेकर अनेक ग्रन्थ गाथा सख्या गाथा सख्या बार परिवधित हुई है। इसका वर्णन द्विवेदी ने दिया है।"
प्रथम टीकाकार द्वितीय टीकाकार (vi) हमने अर्धकारक और यापनीय आचार्यों को
१ कमायपाहुड ८० २३३ (जयधवला) अपने गर्भ में समाहित किया जिन के सिद्धान्त तथाकथित
२. कसाय पाहुड्चूणि ८००० श्लोक ७००० ,
(ति.प.) मूल परपरा से अनेक बातो मे भिन्न पाये जाते है ।
३. सत्पुरूषणासूत्र १७७०० ये तो सैद्धान्तिक परिवर्धनो को सूचनाये है । ये हमारे ४. मूनाचार १२५२ (वसुनंदि) १४०६ (मघचद्र) धर्म के आधारभूत तत्व रहे है इन परिवर्धनो क परिप्रेक्ष्य ५. समयसार
४१५ अमृत चंद्र ४५ जयसेन में हमारी शास्त्रीय मान्यताओ की अपरिवर्तनीयता का तर्क
६. पचास्तिकाय १७३ , १६१ ॥ कितना सगत है, यह विचारणीय है। मुनिश्री ने इस ७ प्रवचनसार २७५ , ३१७ , समस्या के समाधान के लिये शास्त्र और ग्रन्थ की स्पष्ट
इनको भी प्रामाणिक मान लिया ? यही नहीं, इन परिभाषा बताई है। उनके अनुसार केबल अध्यात्म विद्या यशों गोशायों
ग्रन्थों मे अनेक गाथाओं का पूनरावर्तन है जो ग्रन्थनिर्माण ही शास्त्र है जो अपरिवर्तनीय है, उनमें विद्यमान अन्य
प्रक्रिया से पूर्व परम्परागत मानी जाती है। ये सबभेद से
प्रक्रिया वर्णन ग्रन्थ की सीमा मे आते है और वे परिवर्धनीय हो
पूर्व की होने के कारण अनेक श्वेताबर प्रथों मे भी पाई
, सकते है।
जाती हैं। गाथाओ का यह अन्तर अन्योन्य विरोध तो। शास्त्रों में पूर्वापर विरोध :
माना हो जावेगा । कुन्दकुन्द साहित्य के विषय मे तो यह ___शास्त्रों की प्रमाणता के लिए पूर्वापर-विरोष का और भी अचरज कारी है कि दोनों टीकाकार लगभग १०० अभाव भी एक प्रमुख बौद्धिक कारण माना जाता है। वर्ष के अन्तराल में ही उत्पन्न हुए। पर यह देखा गया है कि अनेक शास्त्रों के अनेक सैद्धान्तिक
(शेष पृ० २८ पर)
२७
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आगम के मूल रूपों में फेर-बदल घातक है
.0पचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त' निवेदन :
एक ओर जब मुसलमानों के कुरान की स्थिति वही है, जो पहिले थी और आगे वैसी ही रहेगी जैसी प्राज है। उसके जेर-जबर, सीन-स्वाद, अलिफ-ऐन और तोय-ते में कहीं कोई फर्क नहीं पाया । हिन्दुओं के वेद भी वे और वैसे ही प्रामाणिक हैं जैसे थे। तब दूसरी ओर कुछ जैनों ने आगमों में गलत शब्द रूपों के मिश्रित होने की (भ्रामक) बात को प्रचारित कर आगम भाषा के सही ज्ञान के विना ही, ना समझी में आगमों के संशोधन का उपक्रम चलाकर यह सिद्ध कर दिया है कि अब तक जो हम पढ़ते रहे हैं वह आगम का गलत रूप था। इससे यह भी सिद्ध हना है कि प्रागमरूप बदलता रहा है और पहिले की भांति आगे भी बदलता रह सकेगा। क्योंकि इसकी कोई गारण्टी नहीं कि अब जो सशोधन होगा वह ठीक ही होगा। फलतः हमारी समझ से कोई भी बदलाव जैन सिद्धान्त की प्रामाणिकता पर जबरदस्त चोट और जनेतर ग्रन्थों के मुकाबले जैन पागम रूप को अप्रामाणिक सिद्ध करने वाला है। यदि लोग प्राकृत भाषा के रूप को समझेंगे-जैन-मागम की भाषा को समझेगे तो वे अवश्य इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि हमारे पागमों में सिद्धान्तों की भांति भाषा-वृष्टि से भी कहीं किसी भी तरह से कोई मिश्रण या कोई विरूपता नहीं है-वे जैसे, जिस रूप में है प्रामाणिक हैं-उन्हें वैसे ही रहने दिया जाय। इसी भावना के साथ श्रद्धापूर्वक कुछ लिखा है-विचार करें। -लेखक
दिगम्बर गुरुओं मे विकृति आने और आगम के अर्थों दोनों में अन्तर है। जहाँ शौरसेनी में भाषा सम्बन्धी बध में फेर-बदल के चर्चे तो चल ही रहे थे। अब कुछ लोगो नियम हैं, वहां जैन-शौरसेनी-नियम बधन-मुक्त है-जैनने संशोधनों के नाम पर मूल-आगमो की भाषा में परि- शौरसेनी कई भाषाओं का मिला जुला रूप है और इस वर्तन करने-कराने का लक्ष्य भी बनाया है-वे परिवर्तन विषय में प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान एक मत है। कर रहे हैं । सोचें-जब पुराने पाषाण-खण्डों (पुरातत्त्व) तथाहिकी रक्षा महत्त्वपूर्ण मानी जा रही है तब क्या हमारे
'In his observation on the Digamber test आगम-ग्रन्थ उनसे भी गए-बीते है ? जो उन्हें विकृत
Dr. Denecke discusses various points about कि जा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि अभी तक
some Digamber Prakrit works... He remarks कई लोग दि० जैन आगमों की भाषा का सही निर्णय ही
that the language of there works is influenced नहीं कर पाए है। कभी किसी ने लिख या कह दिया कि
by Ardhmagdhi, Jain Maharastri which Appro'दि० जैन आगमों की भाषा शौरसेनी है तो उमी आधार
aches it and Saurseni.' -Dr. A.N. Upadhye पर आज कई विद्वान् आगम-भाषा को ठेठ शौरसेनी मारे
(Introduction of Pravachansara) बैठे है। हमें एक लेख अब भी मिला है, जिसमे लेखक विद्वान् ने आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा को शौरसेनी लिखा 'The Prakrit of the sutras, the Gathas as है। जब कि तथ्य यह है कि दि० आगमों की भाषा well as of the commentary, is Saurseni influशोर सेनी न होकर जैन-शोरसेनी है। ध्यान रहे कि शौर- enced by the order Ardhamagdhi on the one सेनी और जैन-शौरसेनी ये दो पृथक-पृथक् भाषा हैं और hand and the Maharashtri on the other, and
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१० वर्ष ४१०१
this is exactly the nature of the language called Jain Saurseni.
Dr. Hiralal ( Introduction of पट् बडागम P. IV)
'जैन महाराष्ट्री का नामचुनाव समुचित न होने पर भी काम चलाऊ है । यही बात जैन शौरसेनी के बारे में और जोर देकर कही जा सकती है। इस विषय में अभी तक जो थोड़ी-सी शोध हुई है, उससे यह बात विदित हुई है कि इस भाषा मे ऐसे रूप और शब्द है जो शौरसेनी में बिल्कुल नही मिलते बल्कि इसके विपरीत वे रूप और शब्द कुछ महाराष्ट्री और कुछ अर्धमागधी में व्यवहृत होते हैं ।
अनेकान्त
- विशल, प्राकृत भाषाओ का व्याकरण पृ० ३८ 'प्राचीन गाथाओं की भाषा शौरसेनी होते हुए भी महाराष्ट्रीयन मे युक्त है। भाषाओं की दृष्टि से गाथाओं मे एकरूपता नही है ।'
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'अर्धमागधी और महाराष्ट्री का सम्मिलित प्रभाव इन पर देखा जा सकता है ।' - डा० नेमिचन्द्र, आरा प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृ० २१७
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उक्त मान्यता की पुष्टि मे हम दि० अगमो के विविध उद्धरण दे इससे पूर्व कुछ इन भाषाओं के नियमो का अवलोकन कर ले ता विषय और स्पष्ट होगा । उससे यह भी स्पष्ट होगा किशोरोनी के ऐसे कई रूप है। जिन्हें दि० आचार्यों ने ग्रहण नहीं किया और उनकी जगह सामान्य — ग्रन्य प्राकृती के रूपों को भी ग्रहण किया । जैसे शोरसेनी के नियमों में एक सूत्र है- 'तस्मात्ता'प्राकृत शब्दानुशासन, ३/६/१२. इसका अर्थ है- शौरसेनी में 'तस्मात् ' शब्द को 'ता' आदेश होता है जैसे कि 'ता अलं एदिणा माषेण इसमे तम्मात् के स्थान पर 'ता' हुआ है। यदि दि० आवायों को नेवल शौरसेनी मान्य रही होती तो वे अपनी कृतियो म सभी जगह तस्मात् की जगह 'ना' का प्रयोग करते पर उन्होंने उक्त नियम की उपेक्षा कर अन्य भाषाओं के शब्द रूपो को भी आगम में स्थान दिया । जैसे- समयसार - गाथा १०, ३४, ११२, १२७, १२८, १२६ नियमसार गाथा १४३,
१४४, १५६ में 'तम्हा' का ग्रहण है, जब कि शौरसेनी के नियमानुसार वहाँ 'ता' होना चाहिए था।
दूर क्यों जाते हैं, हमें तो कुन्दकुन्द के ग्रन्थ 'समयपाहू' के नामकरण मे भी शौरसेनी की उपेक्षा ई दिखती है । तथाहि - 'पाहुड' शब्द संस्कृत के 'प्राभृत' शब्द का प्राकृतरूप है जिसका अर्थ भेंट होता है। यदि इस शब्दरूप को शौरसेनी के नियम से देखना चाहें तो वह 'पाहूद' होगा। क्योकि शौरसेनी मे नियमों में एक सूत्र है'दन्तस्य शौरसेन्यामरवावचोऽस्तोः । - प्राकृतशब्दानुशासन ३ / २ / १, इसमें 'त' को 'द' होने का विधान है, * होने का विधान नहीं पर आचार्य ने उक्त नियम की उपेक्षा कर अन्य प्राकृतो के नियमानुसार 'त' को 'ड' कर दिया है। अन्य प्राकृतों के नियम हैं-तोड पताका प्राभूति प्राभृत स्यावृत पते । प्राकृतद्रिका २ / १७ 'ड· प्रत्यादो' - प्राकृत-सर्वस्व २/१०; 'तस्य हृत्व हरीतक्यां प्राभृते मृतके तथा । - वसन्तराज २ / ० Intro - duction of A.N. Upadhye in प्राकृत सर्वस्व ।
इसी प्रकार दि० आगमों में उन सभी प्रानो के रूप मिलते है जो रूप जन शौरसेनी की परिधि में आते है । दि० आचार्यों ने न तो सर्वथा महाराष्ट्री को अपनाया और न सर्वथा शौरसेनी या अर्धमागधी को अपनाया । अपितु उन्होने उन सभी प्राकृतों के रूप को ( भिन्न-भिन्न स्थानो में अपनाया जो जैन शोर में सहयोगी है और जैसा उपर्युक्त विद्वानों का मत है और प्राचीन दि० आगमो और आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओ में इसी आधार पर विविध प्राकृत के प्रयोग है-दिगम्बर आचार्य नियम किसी एक प्राकृत के कोर नहीं चले। यदि वारीकी से देखें तो प्राकृत भाषा के नियमों की परिधि बहुत विशाल है शौरसेनी मे तो कुछ ही परिवर्तन है; प्राकृत शब्दानुशासन मे तो शौरसेनी सम्बन्धी मात्र २६ सूत्र है (देखें अध्याय ३ पाद २) ऐसे में क्या २६ सूत्र मात्र से जैन आगमों की रचना हो सकती है ? जरा सोचिए ! मानना पड़ेगा कि आगमो मे अन्य प्राकृतनियमों का भी समावेश है। उदाहरण के लिए 'पाहुड' शब्द को ही लीजिए। इसमें जो 'म' को 'ह' और ''
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पागम के मूल रूपों में फेर-बदल घातक है को 'उ' हुआ है-वह अन्य प्राकृतो के नियमो से हुआ दिगम्बर जैन आगमों में उपलब्ध विविध प्रयोगहै । तथाहि
. षट् खण्डागम [१-१-:1 बधयध भाम् ।-त्रिविक्रम १/३/२० से भकोह (महाराष्ट्री)।
(क) (महाराष्ट्री के नियमानुसार 'द' को हटाया) 'जैवात्रिके परभते संभृते प्राभते तथा ।'-प्राकृत
उप्पज इ (दि) पृ० ११०, कुणइ पृ० ११०, वण्णेइ चन्द्रिका, ३/१०८ (साधा०) से 'ऋ' को 'उ' आदेश हुआ।
पृ० ६८, परूवेइ पृ० ६६, उच्चई पृ० १७१, गच्छ। क्या शौरसेनी के सूत्रो मे कोई स्वतत्र नियम है जिनसे
पृ० १७१, ढुक्कई पृ० १७१, भणइ पृ० २६६, सभ'पाहुड' शब्द बन सका हो? फलतः-भाषा की दृष्टि से वइ पृ०७४, मिच्छाइट्ठि पृ० २०, वारिसकालो कओ आगमों के संशोधन की बात सर्वथा निराधार है।
पृ० ८१ इत्यादि। उक्त स्थिति में हम तो यही व हेगे कि या तो सशो
(ख) (शौरसेनी के अनुसार 'द' को रहने दिया) धकगण पूर्व महान् विद्वानो से अधिक विद्वान है या उनमें 'अहं' भाव--- अपनी यश कामना का भाव है कि लोग
सुदपारगा पृ. ६५, वणदि पृ० ६६, उच्चदि पृ०
७६, परूवेदि पृ० १०५, उपक्कमो गदो पृ० ८२, सद वर्तमान में हमे विद्वान् समझें और बाद मे रिकार्ड रहे कि अमूक भी कोई आगम-पण्डित हुए जिन्होने आगमो का
पृ० १२२, णिग्गदो पृ० १२७ । संशोधन किया। वरना, जैन आगमो के विविध प्रयोग
(ग) ('द' लोप के स्थान मे 'य'* सभी प्राकृतों के अनुसार) हमारे सामने ही है। हमे तब और आश्चर्य होता है, जब
सुयमायरपारया पृ०६६, भणिया पृ० ६५, सुयदेवया आगम भाषा को 'जैन-शौरसेनी' स्वीकार करने वाले भी पृ०६, सुयदेवदा पृ०६८, वरिसाकालोको' पृ०७१, आगम ग्रन्थो को किसी एक भापा के नियमो मे बांधने का णवयसया (ता)पृ. १२२, कायवा पृ० १२५, णिग्प्रयत्न करे और आगम की छबि को बिगाडें ।
गया पृ० १२७, सुयणाणाइच्च (तिलो०५०) पृ० ३५। २. कुन्दकुन्द 'अष्टपाहुड' के विविष प्रयोग :
(ग्रन्थनाम, शब्द और गाथा नम) दर्शनपाहुड
होदि होइ २६ ११,२७,३१
२० सुत्तपाहुड ६, २० ११,१४, १७
१६ २०, २४ चरित्तपाहुड
१६, ४५
३४, ३६ बोधपाहुड
१५, ३६ ११, २६ भावपाहुड १२७, १४०
५१, २८, ७६ १४३, १५१ मोक्खपाहुड
७०, ८३, ५२,६० हवाई ५० १४, १८, ५१, ४८ ८७, १०० १०१
३८,४७ लिंगपाहुड
२,१३,१४ - शीलपाहुड नियमसार १८, २६,४५ २, ४, ३१ १०,१२७
११३, ११४ -५, २०, ५५, ५८, ६४ ५६, ५७ १६३, १७६,
१६१, १६२ १५० ८२,८३,६४ १६६,१६८ १६६, १०७, १४२ १६६, १७१ १६८
१७४, १७५ * जैन महाराष्ट्री में लुप्त वर्ण के स्थान पर 'य' श्रुति का उपयोग हुआ है जैमा जैन-शौरसेनी मे भी होता है। २. 'द' का लोप है 'य' नहीं किया।
-षट्खडागम भूमिका पृ० ८६ नोट-टोडरमल स्मारक जयपुर से प्रकाशित 'कुंदकंद शतक' में भी विभिन्न पाठ हैं
दर्शनपाड गाथा २६ में 'होदि' गाथा २७ में 'होई', 'समयसार' गाथा १६ मे 'हवादि' ।
हवेई
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२० वर्ष ४१, कि० १
अनेकान्त
इसी प्रकार अन्य प्रचुर शब्द हैं जो विभिन्न रूपों में दि० जैन आगमों में प्रयुक्त किए गए हैं और कई ऐसे भी शब्द जो शौरसेनी के नियम में होते हुए भी इन ग्रागमों मे कही कही नही लिए गए है। जैसे शौरसेनी में एक सूत्र है--'इ] [अ] द्रणी] क्त्वः - प्राकृत शब्दानुशासन, ३ / २ / १० इसका अर्थ है- शौरसेनी मे क्त्व प्रत्यय को इ अ और दूग ये आदेश होते हैं। इसके अनुसार 'समय पाहू' के मगलाचरण के 'वंदित्तु' शब्द के स्थान पर 'वन्दिग्र या बंदिण' होना चाहिए जो नहीं हुआ। इससे तो ऐसा हो सिद्ध होता है कि यदि समयसार शौरसेनी का आगम होता तो यह 'प्रथमे ग्रासे - ( मगलाचरण के प्रथम शब्द में) मक्षिकापात:' न होता ।
आज स्थिति ऐसी है कि बाज लोग जैन-शौरसेनी के नियमों की अवहेलवा कर आगम में आए शब्दों को बदल रहे है । जैसे-- पुग्गल को पोंगल, लोए को लोगे, एइ को एदि, वत्तुं को वोत्तु आदि । प्रवचनसार में पुग्गल और पोमल दोनो रूप मिलते है-गाया २/७६, २/२३, २ / ७८, पिशल मे लिखा है 'जैन-शौरसेनी मे पुग्गल' रूप भी मिलता है' - पेरा १२४; षट्खण्डागम के मंगलाचरण- मूलमंत्र णमोकार मे 'लोए' अक्षुण्ण रूप में पाया जाता है जो आबाल-वृद्ध सभी मे श्रद्धास्पद है। पिशल
लिखा है प्राकृत मे निम्न उदाहरण मिलते है'एति' के स्थान में 'एड' बोला जाता है, 'लोके' को 'लोए' कहते हैं। १०६६ यदि सभी जगह 'द' को रखना इष्ट होगा तो 'पढम होइ मगलं" इस आबाल-वृद्ध प्रचलित पद को 'पडम होदि मगन' रूप में पढ़ना पड़ेगा जैसा कि चलन जैन के किसी सम्प्रदाय मे नही ।
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यद्यपि प्राकृत वैयाकरणियों ने जैन शौरसेनी को प्राकृत को मूल भेदो मे नही गिनाया, तथापि जैन साहित्य में उसका अस्तित्व प्रचुरता से पाया जाता है । दिगम्बरसाहित्य इस भाषा से वैसे ही ओत-प्रोत है जैसे श्वेताम्बर मान्य आगम अर्धमागधी से सम्भवतः उत्तर से दक्षिण में । जाने के कारण दिगम्बराचार्यों ने जैन-शौरसेनी को जन्म दिया - प्रचार की दृष्टि से भी ऐसा किया जा सकता है। जो भी हो, यह दृष्टि बड़ी विचारपूर्ण और पैनी है । इससे जैन सिद्धान्त को समझने मे सभी को पासानी हुई
होगी और सिद्धान्त सहज प्रचार में आता रहा होगादेश-देश के शब्द आचायों ने इसीलिए अपनाए होंगे - शूरसेन जनपद में आए तो उन्होने शौरसेनी शब्द लिए और महाराष्ट्र में गए तो कुछ महाराष्ट्री रूप । इस तरह जैन आगमों की भाषा जैन-शौरसेनी' बनी दिखती है।
हम स्मरण दिला दें कि हमें देव शास्त्र गुरु के प्रति और निर्धन्य वीतराग जिनधर्म के प्रति जैसी श्रद्धा बनी है, वह दिगम्बर समाज के व्यवहार से ही बनी है। कही निराशा और कही आशा इन दोनो ने ही हमें वस्तु स्वरूप-चिन्तन की दिशा दी है। फलतः धर्म-समाज के हित में जो भाव हमें उठते है, लिख देते हैं-लोग समझते हैं- यह हमारी खिलाफत करता है। हमे याद है-कभी हमने 'अनुत्तर योगी' की भी ऐसी ही विसंगतियो की ओर पाठकों का ध्यान खीचा था और प्रबुद्धों ने हमारा साथ दिया । जिन लोगो को तब पछतावा नही हुआ था, वे तब जागृत हुए जब आचार्य दुलमी की सस्था से 'दिगम्बर-मत' शीर्षक द्वारा दिवम्बरो पर चोट की गई। वे भी विरोध को बोला उठे सैर, 'देर आयदुरुस्त आयद ।'
हम चाहते है -देव-शास्त्र-गुरु के मूलरूपों में किसी प्रकार की विसंगति न हो और समाज सावधान हो । यदि आगमों के मूल शब्दरूपों में बदलाव आता है तो निश्चय समझिए - आगम विरूप और लुप्त हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं हम नहीं चाहते कि जैसे हमारी शिथिलता से, हमारे दि० गुरुओ मे विरूपता आने लगी है वैसे आगम भी दूषित हो यतः आगम मार्ग-दर्शक और मूल है, गुरु के रूप को भी नहीं सभारता है और मोक्षमार्ग का सकेत भी वही देता है । आशा है - प्रबुद्ध वर्ग हमारी विनती पर ध्यान देगा |
एक बात और स्वार्थसूत्र में देवों के प्रति एक स्वाभाविक नियम है परिग्रहाभिमानतो होनः ।'अर्थात् ऊपर-ऊपर के स्वर्ग-देवों में परिग्रह और अभिमान हीन है। जब कि देव अवती हैं। ऐसी स्थिति मे हमें सोचना है कि कही व्रत धारण करने के शक्तिधारी हम, देवगति से हीन तो नहीं हो रहे जो 'परिग्रहाभिमानतो हीनः' की अवहेलना कर, देव-शास्त्र-गुरु के रूप को विरूप करने मे लगे हों । ! O
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श्री ब्र० कंवर दिग्विजयसिंह जी के शास्त्रार्थ ने मेरे द्वार खोले
। श्री पनचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
लगभग सन् १९२७ के चैत्र मास की बात है, जब चाहते थे कि वे मेरा बोझ समाज पर डालें, फलतःश्री कुंवर दिग्विजयसिंह जी अहिक्षेत्र के मेले के बाद उन्होने खुशी से आश्रम को पाच रुपए मासिक देना बिलसी पहुंचे। उनके साथ मथुरा ब्रह्मचर्याश्रम के प्रचारक स्वीकार किया और राशि बराबर पहुचती रही। उन प० सिद्धसेन गोयलीय और एक पगडी धारी पडित जी दिनों पांच रुपयो की बड़ी कीमत थी। श्री देवीसहाय जैन-(सम्भवतः सलावा वाले थे) भी थे। पढ़ाई के बाद सन् ३६ मे जब अम्बाला शास्त्रार्थ उन दिनो आर्य समाज के प्रचार का युग था। आये दिन संघ में उपदेशक विद्यालय खुलने की बात मेरे पिता के समाजियो से जैनियों के विवाद चलते रहते थे। मेरे पिता यान मे आई तब उन्होने पुराने शास्त्रार्थ की बात याद जी को ऐसे विवादो में रुचि थी-उन्हें ज्यादा रस आता कर मुझे आदेश दिया कि शास्त्रार्थ संघ मे चले जाओ। था-जैन की बात पोषण में । कुंवर सा० के आने से बस, स्वीकृति आने पर मैं पहुच गया। २५-५-३६ के शास्त्रार्थ का वातावरण बन गया। नियम-समय आदि उद्घाटन पर उपदेशक विद्यालय का मैं तत्त्वोपदेशक निर्धारित हो गए। आर्य समाज ने अपनी ओर से बरेली विभाग का सबसे छोटी उम्र का और प्रथम छात्र था। के पं० बंशीधर शास्त्री को नियुक्त किया और जैन की उन दिनो ५० बलभद्र जी सघ के मैनेजर थे-हमारे ओर से कुंवर साहब बोले । कुंवर सा० को वहाँ कई दिन आफीसर । फिर भी सादा, सरल । उन्होने मुझे भाई ठहरना पड़ा।
सरीखा स्नेह दिया । आश्रम का छात्र होने के कारण सघ मुझे याद है कटरा बाजार मे मेरे ताऊ श्री दुर्गा- मे मुझे ब्रह्मचारी का सबोधन मिला। मैं खुश था आश्रम प्रसाद जी की दुकान के सामने काफी भीड थी। दोनो के गौरव अनुरूप और प्रारम्भिक प्राशीर्वादाता ब्र० कंवर ओर मेजे लगी थी। दोनो विद्वान बारी-बारी बोलते थे। दिग्विजयसिंह जी के अनुरूप नाम को पाकर । सभापति का आसन विलसी के प्रमुख रईम श्री गंदनलाल होनी की बात है जिनका नाम मैं भुला बैठा, उन्हें ने (जो अजैन थे) ग्रहण किया था। नतीजा क्या रहा मुझे मेरी रमति मे लाने का श्रेय डा० नन्दलाल, डा० कन्छेदी नही मालुम ? हाँ, दोनों ओर की तालियो की गड़गड़ाहट लाल और श्री खुशालचन्द्र गोरावाला ने लिया-मुझसे और जयकारो का मुझे ध्यान है। अगले दिन कुंवर सा० कुंवर साहब का परिचय चाहा । यद्यपि मुझे विशेष मालुम के सुझाव पर, वातावरण से प्रभावित मेरे पिता ने मुझे
नहीं था और मना भी लिख चुका था। परन्तु संघ के विद्वान् बनाने का संकल्प ले लिया और मथुरा ब्रह्मचर्या- संपर्क और कुंवर सा० के उपकारों को स्मरण कर कँवर श्रम मे भेजने का निश्चय प्रकट किया। कुंवर सा० ने मेरे सा. की जीवनी की खोज मे लगा रहा। और अन्ततः सिर पर हाथ रखकर मुझे विद्वान् पंडित बनने का आशी- सुखद नतीजे पर पहुंच ही गया-बहुत खोजने पर मेरी र्वाद दिया और गोयलीय जी से कहा-इस बालक की अम्बाला की नोट बुक मे कुंवर सा० का परिचय मिल ही अच्छी व्यवस्था कराना। मुझे भली भांति याद है उस गया जो मैंने उन दिनो कभी किसी पुस्तक से लिया था। समय कुंवर सा० सफेद चादर ओढ़े, सफेद चांदी फेम वाला कुंवर सा० बड़े प्रभावक व्यक्तित्व के उत्साही कार्यचश्मा लगाए थे और उनकी दाढ़ी मन मोह रही थी। कर्ता थे। वे जन्मतः क्षत्रिय थे और प्राचीन अग्निकुल के कुछ महीनों में मैं आश्रम में पहुंच गया। मेरे पिता नही भदौरिया वंश की कुलहिया शाखा के थे। उनका जन्म
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२२ वर्ष ४१ ० १
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श्रावण कृष्ण ८ सं०वि० १६४२ दिनांक ५ अगस्त १८०५ ई० मगलवार को हुआ था । उनके पिता ठाकुर भारतसिंह जी बीधूपुरा (इटावा) के रईस व जमीदार थे और चाचा ठाकुर सा० रघुवर सिंह जी उन दिनों महाराज बीकानेर के प्रधान मंत्री थे। कुंवर सा० का कुटुम्ब उन दिनो धन, जन, विद्या और राज सन्मानादि सुखों से परिपूर्ण था। उन्होंने ५ वर्ष की आयु में ग्राम्य पाठशाला में दाखिला लिया। उसके बाद वे छोटी जुही कानपुर मे अपने नाना बाबू ब्रह्मा सिंह पडिहार के पास चले गये वहाँ परेवाले डिस्ट्रिक्ट स्कूल मे अग्रेजी पढ़े। वे इन्ड्रेन्स (दसवी ) तक पढ़े। नागरी और संस्कृत मे भी धीरे-धीरे योग्यता प्राप्त कर ली। आप स्वदेश-प्रेमी, सदाचारी, दृढ़ प्रतिश ये और धर्म श्रद्धालु भी भागवत, रामायण, महाभारत श्रादि संस्कृत ग्रन्थो और वेदान्त का उन्होने अच्छा ज्ञान प्राप्त किया । श्रार्य समाजियों के ससर्ग से उनका श्रद्धान उस समाज की ओर ढुल गया और उसी के अनुरूप सध्या बन्दन आदि किया-काण्डो म सचेष्ट रहने लगे। ठाकुर सा० के जैन होने का सुयोग ही है कि
सन् १९०६ के फाल्गुन मास का दिन धन्य है जब आप अपनी जमीन्दारी हक्कियत का बयनामा कराने इटावा आए तब उनका मिलन इटावा के तत्कालीन जैन विद्वान् प० उत्तूलाल जी से हो गया। उनसे अनेको शकासमाधान हुए। बाद को कई बार चर्चाएं होती रही । जब भादो मास आया तब पण्डित जी ने दशलक्षण पर्व में उन्हें शास्त्र सभा में निमंत्रित किया । कुँवर सा० ने दस दिन तक दश धर्मो और तस्वार्थसूत्र का वाचन सुना और इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने को तवज्ञान की जानकारी की ओर मोड़ दिया और लगातार इसके अध्ययन-मनन मे पूरा-पूरा समय देने लगे और निष्णात हो गए । जो पहिले आर्य समाज के भक्त थे अब वे उनसे बाद-विवाद करने लगे। अन्ततः उनके अटूट जैन श्रद्धन का स्पष्ट पता तब लगा जब उन्होने आर्य समाज के सामने अपनी शंकाएँ खुले रूप में रख दी। ये दिन था कार्तिक
अनेकान्त
कृष्णा चतुर्दशी सन्
१९१० का - जब आर्य समाज इटावा का वार्षिकोत्सव या उत्सव में बाहर से आर्य समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पधारे। स्वामी सत्यप्रिय संन्यासी, आगरा के प० रुद्रदत्त शर्मा सम्पादकाचार्य जैसे दिग्गजों से कुंवर सा० की 'परमात्मा के सृष्टिकर्तृत्व' विषय पर चर्चा चली ये चर्चा तीन दिनो तक चली। अन्तिम दिन स्वामी ब्रह्मानन्द जी महाराज आगरा से आये भी वे कुँवर सा० का समाधान न कर सके। निदान कुँवर सा० ने आर्य समाज का परित्याग कर 'जैन' मे श्रद्धान की घोषणा की।
१० फागुन सुदी सम्मेलन हुआ ।
स्मरण रहे कि दिनांक १४ मार्च ३, चन्द्रवार को इटावा में प्रथम जैन यहाँ जैन तत्व प्रकाशनी सभा थी उन दिनों उस सम्मे लन मे कुंवर सा० का जैन स्टेज से प्रथम भाषण हुआ । भाषण इतना प्रभावक था कि उससे गद्गद् होकर न्यायदिवाकर प० पानालाल जी ने मंगल आशीर्वादात्मक श्लोक बोलकर कुँवर सा० के गले में माला पहिनाई । प० गोपालदास जी ने कुंवर सा० की भूमि भूरि प्रशंसा करते हुए धन्यवाद देकर सभा विसर्जित की। बाद में सभा ने कुँवर सा० की जीवनी व भाषण दोनों का प्रकाशन
कराया ।
कुँवर सा० ने शास्त्रार्थ सघ अम्बाला के माध्यम से जैसा प्रचार कार्य किया उसे संघ के तत्कालीन पत्र जैनदर्शन की फाइलों से जाना जा सकता है । वे लोह पुरुष थे, लोग कभी-कभी मुझे कहते हैं कि आप इतना स्पष्ट निर्भीकता पूर्वक कैसे बील और लिख देते हैं ? और मेरा उत्तर होता है-मुझे सत्रिय कुंबर दिग्विजय सिंह जी का आशीर्वाद प्राप्त है, उन्ही ने मेरे जीवन द्वार को सुनहरा बनाया। फिर हमारे सभी तीर्थंकर भी तो क्षत्रिय थे। ऐसे उपकारी वीरो के लिए मेरे सादर - सादर नमन ।
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कुँवर सा० का निधन दिनांक ७ अप्रैल सन् १९३५ की साय अम्बाला छावनी के शास्त्रार्थं सघ भवन में हुआ । उनका जीवन धन्य है ।
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ग्रन्थ-प्रशस्तियों का उपयुक्त प्रकाशन
इतिहास के प्रमुख साधन स्रोतों के रूप में, शिलालेखो के पश्चात् ग्रन्थ प्रशस्तियों का भी अतीव महत्वपूर्ण स्थान है। अनेक प्रयों की या छोटी-बडी रचनाओं की भी पांडुलिपियों में किसी न किसी प्रकार की प्रशस्ति प्राप्त हो जाती है, जिसमें बहुधा बड़ी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी निहित रहती है। प्रशस्तियाँ कई प्रकार की होती है, यथा-- (१) मूल रचनाकार की प्रशस्ति, जिसमे रचनाकार का नाम, कुल-वश आदि, या आम्नाय एव गुरुपरम्परा, रचना स्थल, रचनातिथि, उक्त ग्रन्थ के सहायक आदि अथवा जिसके हितार्थ लिया गया है उसका नाम, परिचय आदि, तत्कालीन शासक या राजा का नाम आदि, ज्ञातव्य दिए जाते है। कभी-कभी उक्त ग्रन्थ के आधारभूत अथवा तद्विषयक पूर्ववर्ती साहित्य एवं साहित्यकारों का नामोल्लेख भी रहता है । कहीं-कही किसी तत्कालीन रोचक या महत्वपूर्ण पटना का भी उल्लेख हो जाता है। अधिकांशतः ये प्रशस्तियों प्रत्यात मे होती है, किन्तु कभी-कभी ग्रन्थ के आद्य मे उपोद्घात रूप से भी उपयोगी ज्ञातव्य रहता है, विशेषकर पूर्ववर्ती साहित्य या लेखकों के विषय मे अनेक ग्रन्थो के प्रत्येक सर्ग पर्व या अधिकार के अन्त में, तथा ग्रन्थति मे मूल लेखक रवित पुष्पिकायें भी रहती है, जिनमें भी अनेक बार महत्त्वपूर्ण ज्ञातव्य प्राप्त हो जाता है। किसी-किसी ग्रन्थ के मध्य मे भी कहीं-कहीं किसी समवायिक ऐति हासिक तथ्य का उल्लेख हो जाता है । इस प्रकार का समस्त ज्ञातव्य जो मूललेखक द्वारा स्वयं प्रदत्त होता है, रचना या रचनाकार की प्रशस्ति के अन्तर्गत आता है । (२) टीकाकार की प्रशस्ति जिन ग्रन्थो की कालान्तर मे एक या अधिक टीकाएँ, वचनाएँ व्याया विलय व्याख्याएँ, विवृत्तियाँ आदि हुई, उक्त टीकाकारादि ने भी बहुधा अपनी टीका में प्रायः आद्य, अन्त्य अथवा दोनों स्थलों में स्वयं अरना
डा० ज्योतिप्रसाद जैन
परिचय, तिथि, स्थान, प्रेरक, तत्कालीन शीर्षक मूलग्रन्थ और कर्ता, अपने से पूर्ववर्ती उस ग्रन्थ के अन्य टीकाकार आदि का भी उल्लेख किया है। (३) दान- प्रशस्ति – जैन परम्परा से चतुविधदान प्रवृत्ति के अन्तर्गत शास्त्रदान का प्रभूत महत्व रहा है। अनेक धावनाविकायें पुरातन ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराकर उन्हें मुनिराजो आविकाओं गृहत्यागी, ब्रह्मवारी या उदासीन धावको आदि को भेंट करते रहे है । बहुधा किसी व्रत के उद्यापन या अनुष्ठान आदि के उपलक्ष्य मे भी इस प्रकार का शास्त्र दान किया जाता रहा है । अपने ग्राम या नगर के अथवा अन्यत्र के जिनमन्दिरों के शास्त्र भण्डारों मे भी, भण्डार के संवर्द्धन, प्राचीन साहित्य के संरक्षण अथवा स्वाध्याय प्रेमियों के हिलार्थ शास्त्रों की प्रतिलिपियों कराकर दी जाती रही है । (४) प्रतिलेखक प्रशस्ति एक एक ग्रन्थ की समयसमय पर कई-कई प्रतिलिपियाँ बनी, जो विभिन्न शास्त्र भण्डारों या व्यक्तिगत सग्रहो में संरक्षित रहीषा प्रत्येक प्रतिलेखक अपने द्वारा लिखित प्रति के ऊन्त मे अपना नाम, लेखन स्थान, प्रतिलेखन तिथि, प्रेरक का नाम आदि दे देता है। इस प्रकार की प्रशस्तियों से तत्सम्बन्धित ऐतिहासिक ज्ञातव्य के अतिरिक्त, बड़ा लाभ यह होता है कि एक ही ग्रन्थ की विभिन्न प्रतियो के मिलान से ग्रन्थगत पाठ का संशोधन-सम्पादन] सन्तोषजनक हो सकता है। दूसरे यदि ग्रन्थ के मूल लेखक की तिथि, स्थानादि । अज्ञात हो या अल्पज्ञान हो तो उसकी विभिन्न प्रतियों में जो प्राचीनतम उपलब्ध प्रति होती है उससे मूल लेखक के ममयादि का भी बहुत कुछ सही अनुमान हो जाता है । कभी-कभी एक नाम के कई-कई आचार्य या ग्रन्थकार हो गये हैं। उनमें भेद करने उनका पूर्वापर निश्चित करने में भी व प्रशस्तियाँ अनेक बार सहायक हो जाती है।
तथा
इसमे सन्देह नही कि उपरोक्त विभिन्न प्रकार की
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२४. पर्व ४१, कि०१
ग्रन्थ-प्रशस्तियों के अध्ययन से न केवल विभिन्न भाषाओं प्रशस्ति संग्रह"-भाग १, सम्पादक डा० कस्तूरचन्द में निबद्ध एवं विविध विषयक हमारे साहित्य के इतिहास कासलीवाल, प्रकाशक-शोष सस्थान श्री महावीर जी, के संशोधन एवं निर्माण में तो कभी-कभी अभूतपूर्व सहा- १९५० ई० मे भी सूचीगत ग्रन्थों में से अनेको की प्रशयता मिलती ही है, विभिन्न युगो एव प्रदेशों के समृद्ध स्तियां भी प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्त, १६५८ ई० मे जैन सांस्कृतिक केन्द्रों, प्रभावक आचार्यो एव साहित्यकारों, जैन सस्कृति संघ शोलापुर से प्रकाशित प्रो. वि. जोहराधर्मप्राण दानी एवं साहित्यप्रेमी, श्रावक-श्राविकाओं आदि पुरकर की पुस्तक "भट्टारक सम्प्रदाय" मे, भारतीय ज्ञानके विषय मे अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाती है। जाति- पीठ, दिल्ली से प्रकाशित तथा पं० के. भुजबलि शास्त्री कूल-वंश आदि तत्तद समाज व्यवस्था, आर्थिक दशा, राज- द्वारा सम्पादित कन्नड प्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची (१९४८ नैतिक परिस्थितियों, भौगोलिक स्थानो की पहिचान, ई.) और प्रो० कुन्दन लाल जैन द्वारा सम्पादित "दिल्ली आम्नाय भेद, साम्प्रदायिक स्थिति, मुनिसंघों का रूप एव जिन ग्रन्थ रत्नावली" (१९८१) में, अहमदाबाद से (१९६३ दणा, धार्मिक प्रवृत्तियो का रूप एव प्रकार आदि अनेक से ७२ ई० मे) प्रकाशित मूनि पुण्यविजय जी की सस्कृत उपयोगी ज्ञातव्य भी प्राप्त हो सकती है।
प्राकृत हस्तलिखित ग्रन्थो को सूचियो के ६-७ भागो मे, ऐसा नहीं है कि प्रशस्तियो की उपयोगिता एव उनके
अन्यत्र प्रकाशित कतिपय अन्य ग्रन्थ-सूचियों मे, और फुटप्रकाशन की आवश्यकता की ओर विद्वानो का ध्यान नही कर रूप से भी जैन सिद्धान्त भास्कर आदि शोध पत्रिगया है-विगत पचास-साठ वर्षों में कई प्रशारत संग्रह काओ के कछ अंको मे प्रकाशित विविध प्रशस्तियों की प्रकाशित हो चुके है, यथा--
सख्या भी कम नही। १. ५० के० भुजबलि शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा
उपरोक्त विभिन्न पकाशनो में प्रकाशित अधिकांश १९४२ ई० मे श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा द्वारा प्रका
प्रशस्तियों के मूल पाठ मात्र ही प्राप्त है। बहुधा तो पूरी शित "प्रशस्ति सग्रह"-जिसमे उक्त भवन मे सग्रहीत
प्रशस्ति भी नहीं रहती, केवल नमूने के लिए कुछ अन्त्य कतिपय पांडुलिपियो की महत्त्वपूर्ण प्रशस्तियां संग्रहीत हैं,
या आद्याश देकर ही सन्तोष कर लिया गया है। प्रथम साथ में शास्त्री जी द्वारा लिखित उनका विवेचन, व्याख्या आदि भी है।
तीन प्रशस्ति संग्रहों मे सकलित प्रशस्तियों का परिचय, २. प० जुगल किशोर मुख्तार एव प० परमानन्द संक्षेपसार और ऐतिहासिक विवेचन भी है, अन्यत्र वह भी शास्त्री द्वारा सम्पादित, तथा वीर सेवा मन्दिर, सरसावा नही है। इस प्रकार न कुछ होने से, इस दिशा में भी द्वारा १९५४ ई० मे प्रकाशित "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह, कुछ तो हुआ, यह सन्तोष की बात है। उनका उपयोग भी भाग-१०"-जिसमे विभिन्न शास्त्र भण्डारो से चय- हया। किन्तु जिसके पाठक, विशिष्ट अध्येता, इतिहासकार नित, संस्कृत भाषा निबद्ध हस्तलिखित ग्रन्थों की... एवं शोधकर्ता उनका समुचित उपयोग कर सकें और यथोप्रशस्तियां सकलित है।
चित रूप मे लाभान्वित हो सके, यह आवश्यक है कि जो ३. "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मग्रह, भाग -२", सम्पादक भी प्रशस्ति-सग्रह आगे से प्रकाशित हो, जिनमें पूर्व प्रकाएवं प्रकाशक वहीं, वर्ष १९६३ ई०--जिसमे अपभ्र श शनों के नवीन सस्करण भी हो सकते है, उन सबमें (१) तथा कछ एक प्राकृत ग्रन्थो की-प्रशस्तियाँ सकलित है। पोक हस्तलिखित ग्रन्थ प्रति में प्राप्त सभी प्रकार की दोनों ही भागो के प्रेरक-निर्देशक वीर सेवा मन्दिर के प्रशस्तिया व पूष्पिकाएँ (रचनाकार, टीकाकार, दाता संस्थापक, सचालक स्त्र० पं० जुगल किशोर मुख्तार थे, प्रतिलेखक आदि की) एक साथ अपने मूलरूप मे संकलित किन्तु उनका सम्पादन, विस्तृत परिचयात्मक प्रस्त वनायें, हो, (२) साथ में उनका अन्वयार्थ एव अविकल भाषानुविविध अनुक्रमणिकाएँ आदि कार्य मुख्यतया उनके सहायक वाद रहें, (३) पाठ सशोधन-संपादन की टिप्पणियां, स्व० पं० परमानन्द शास्त्री का है।
(४) विशेषार्थ, ऐतिहासिक या तुलनात्मक विवेचन यथा४. "राजस्थान के शास्त्र भण्डारो की सूची एव
(शेष पृ० २५ पर)
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(वि-सहलाम्बी उपक्रम में) क्या कुन्दकुन्द भारती बदलेगी?
[! श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली लगभग दस वर्ष पूर्व सन ७८ जून में मेरे मन में कैसा? हो, यदि मूल आगमरूप कुन्दकुन्द भारती बदलती एक विकल्प उठा था और तब मैंने 'आ० कुन्दकुन्द की है तो 'सर्व व पूर्णग्वं स्वाहा' में संदेह नहीं। प्राकृत' शीर्षक के माध्यम से कुछ लिख कर अपने मन को सर्वविदित है कि षटखण्डागम शास्त्र आचार्य कुन्दशान्त कर लिया था। पर, आज आचार्य कुन्दकुन्द की कुन्द से बहुत पूर्व हुए आचार्य भगवत् भूतवलि-पुष्पदंत की द्वि-सहस्राब्दी समारोह के उपक्रम-समाचारों को पढ़-सुनकर कृति है। प्रथम पुस्तक के पृ. १३३ पर चौथे सूत्र में वह विकल्प पुन: जागृत हो बैठा है । विकल्प है- 'क्या 'इंदिए, काए, कसाए' शब्द प्रयुक्त हैं और ये शब्द क्रमशः कुन्दकुन्द भारती बदलेगी?'
'इन्द्रिये, काये, कषाये' इन संस्कृत शब्दों के स्थान पर __ वर्तमान में हमारे समक्ष दो कुन्दकुन्द भारती हैं --एक
(परिवर्तित रूप प्राकृत मे) दिए गए हैं । अर्थात् उक्त रूपों आगमरूप और दूसरी संस्थारूप । प्रसग में संस्था के
में प्राकृत भाषा के नियम रूप सूत्र 'प्रायः क ग च ज त द विषय में हमे कुछ नही कहना। क्योंकि हम मान कर
पब य वां लोप:'-प्राकृतसर्वस्व २/२ और 'प्रायो लुक्क
गचजतदपयवां'-प्राकृत शब्दानुशासन १/३ के नियमाचलते है कि समय, साधन और साधको के अनुरूप सस्थाएँ निमित और विघटित होती रहती है, इसमें हर्ष-विषाद
नुसार संस्कृत के शब्दों से 'य' को हटा दिया गया है।
उक्त तीनों शब्द सप्तमी त्रिभक्ति के रूप हैं। इतना ही (पृ० २४ का शेषांश)
क्यों ? उक्त चौथे सूत्र से पूर्व भी आचार्य ने षट्खण्डागम वश्यक, (५) ग्रन्थ प्रति का संक्षेप में पूरा परिचय, प्राप्ति ।
के मंगलाचरण में इसी नियम के अनुरूप क या ग को स्थान सहित, (६) ग्रन्थ, अप्रकाशित है या प्रकाशित, हटाकर लोके या लोगे के स्थान पर 'लोए' शब्द का प्रयोग प्रकाशित है तो कब और कहाँ से, (७) प्रशस्तियों का नियमो लो मन मारण।' इसके अतिरि संकलन भाषा वार तथा कालक्रम से हो, और (८) अन्त
के आचार्यों ने भी 'लोए' को मान्यता दी है। स्त्रय कुन्दमे उपयुक्त वर्गीकृत नामानुक्रमणिकाएँ आदि रहे।
कुन्दाचार्य ने भी इस शब्द का खुलकर प्रयोग किया है। यो तो देश भर मे अनगिनत छोटे-बड़े जैनशास्त्र
देखें-पंचास्तिकाय प्राभत गाथा ८५, ६० आदि । उक्त भण्डार मे सग्रहीत प्रायः प्रत्येक ग्रन्थप्रति मे एक व अधिक
रूप के सिवाय दि० आगमों में लोयो, लोओ, लोय जैसे प्रकार की प्रशस्तिया प्राप्त हो जाती हैं। उन सभी भडारों
सभी रूप मिलते है और सभी उचित हैं। क्योंकि का सम्यकरीत्या सर्वेक्षण-पर्यवेक्षण करके अनगिनत प्रश
प्रकाण्ड प्राकृत विद्वानो के मतानुसार दि. आगमो की स्तियां एकत्र की जा सकती है। अतएव एक-एक भण्डार
भाषा, अन्य कई प्राकृत भाषाओं का मिला जुला रूप है मे यदि छोटे-छोटे हों तो, ग्रामपास के या सम्बद्ध कई-कई और इस भाषा का नाम ही जैन-शौरसेनी है । स्मरण रहे भण्डारों मे, संग्रहीन ग्रन्थों की प्रशस्तियों के पृथक-पृथक कि शौरसेनी और जैन-शौरसेनी में महद् अन्तर है। आज प्रशस्ति-संग्रह उपरोक्त प्रकार से सुसम्पादित होकर प्रका- हमारे कई विद्वान भी भ्रम में हैं वे शोर-सेनी को ही दि० शित किये-कराये जा सकते हैं। यथासम्भव सर्वागपूर्ण, आगमों की भाषा मान बैठे हैं और रूप बदल रहे हैं। उपयुक्त ज्ञातव्य पूरित एवं स्तरीय प्रकाशन समय और युग षटखण्डागमकार से पूर्ववर्ती आचार्य गुणधर हैं इनकी के लिए अपेक्षित है।
--चारबाग, लखनऊ रचना 'कसाय पाहड सुत्त' है। इसमें भी इसी जाति के
* द्वादशानुप्रेक्षा गा०८, सुतपाहुड गा० ११, दर्शनमा गा० ३३।卐देखें-चास्तिकाय ।
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२६, बर्ष ४१, कि० १
अनेकान्त
अन्य शब्दों का प्रचुर मात्रा मे प्रयोग है। जैसे तृतीये के गम, मंगलाचरण ‘णमो लोए सव्वसाहणं ।' अब आपको स्थान पर दिए. संपराये के स्थान पर संपराए, कषाये के सोचना है कि आप प्राचीन मूल बीजमत्र को जैन-शौरसेनी स्थान पर कसाए आदि । ये सभी सप्तमी के रूप है और के अनुसार 'लोए' के रूप में स्वीकारते है या मात्र ‘लोगे' सभी मे से (प्राकृत सर्वस्व और प्राकृत-शब्दानुशासन के रूप को स्वीकारने के कारण उसे मात्र अर्धमागधी के उपर्युक्त नियमानुसार) य को हटा दिग गया है। हमारा लिए छोड़ते हैं ? निर्णय आपके हाथ है। अभिमत प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् डॉ० ए० एन० हमारी दष्टि से आगमरूप कुन्दकुन्द भारती के मूल उपाध्ये, डॉ हीरालाल, डॉ नेमीनन्द आरा व पिशल के जैन-शौरसेनी (जिम में कई प्राकृत भाषाएं समिलित है) अनुरूप है-कि जैन-शोरसेनी को दिगम्बर आचार्य ने के रूप को यथावत सुरक्षिन ग्यना ही कुन्दकुन्द की द्विअपनाया जो कि कई प्राकृत भाषाओ का मिला-जुला रूप सहस्राब्दी मनाने की सार्थकता है। अन्यथा, हम उत्सवो है-(देखें हमारा अन्य लेख)-फलत: दिगम्बर आगमो में बाजे बजवाने, भाषणादि सुनने-सुनाने के तो अभ्यासी में सभी रूप मिनते है। कही त को द भी होना है, कही
है ही-कोई नई बात नहीं । यदि आप अपनी अज्ञानता व का लोप भी होता है, कही क को ग होता है और कही
या कायरतावश अथवा भावावेशवश भाषा-बदलाव (सशोकया ग का लोप भी होता है और कही इनके लोप के
धन?) को न रोक सके तो आप अपने आगम का स्वयं स्थान में य भी होता है। जैसे-गति = गदि, गति = गइ;
घात कराएंगे। वेदक=वेदग, एकेंद्रिय-एइंदिय; इसके मिवाय मध्यवर्ती
डॉ. रिचर्ड पिशल प्राकृत-भाषाओ के जाने-माने क ग च ज त द प व य का लोप तो बहुशः पाया जाता
प्रामाणिक उच्चतम विद्वान माने जाते है उन्होंने प्राकृत में है। फलत:-जहाँ जो है, ठीक है।
उपलब्ध प्रभूत माहित्य और आगमिक ग्रन्थो को बड़ी हमारा निवेदन है कि यदि इस रहस्य को न समझा
बारीकी से देखा और उनके आधार पर प्राकृत भाषाओ गया और हम भावुकता में बह गए तो (सशोधित ? समय
के पारस्परिक भेद के जो निष्कर्ष अपनी कृति 'प्राकृत सार गाथा न० ३ 'लोगे' के अनुसार) जिसे हम अब तक
भाषाओ का व्याकरण' द्वारा सन्मुश रख, उनमे उन्होने 'णमो लोए सव्वसाहूण' पढते रहे है कभी उसे गलत मान
शौरसेनी और जैन-शोर सेनी दोनों को प्रथक्-पृथक भापाएं कर ‘ण मो लोगे सव्वमाहूणं' भी पढने लगेगे । और तब
माना। उन्होंने दोनो भाषाआ का पृथक्-पृथक् नामोल्लेख कहाँ जायगा स्वामी गमतभा का कथन --'न हि मंत्रोक्षर.
किया, दोनो के शब्द रूप मे भेद दशामा प्रार दोनो के न्यूनोनिहन्ति विषवेदना ।' जब कि णमोकार हमारा महा
साहित्य को भिन्न बतलाया। फनतः-दोनो भाषाएँ एक मंत्र है । सोचें क्या भाषा के बदलाव की भांति इस मत्र
नही है और दि० जं. आगम भी शोरमेनी के नही है-वे में लोए का लोगे न होगा? और न होगा तो क्यो, किस
सभी जैन-शौरसेनी भाषा के है। बत. दि० आगमो को नियम से ? यदि न होगा तो उस नियम को समयसार
शौरसेनी की प्रमुखता देकर उनमे शौरसेनी की भरमार गाथा न० ३ मे लागू क्यों नहीं किया जा रहा ? अब ये सोचना आपका काम है कि वर्तमान संशोगों के नाम
करना और उनमें गहीन जैन-शोररानी रूपों का तिरपर आगमरूपी कुन्दकन्द भारती बदलेगी या नही?
स्कार करना सर्वथा ही अनुचित है-जैसा कि किया जा यदि बदलेगी तो समयसार में परिवर्तित शब्दरूपों की
रहा है। डॉ. पिशल द्वारा निर्दिष्ट कुछ उद्धरण (पाठको
की जानकारी के लिए) इस प्रकार हैभाँति आगमसम्मत प्राचीन अनादि मूलमत्र णमोकार भी आपके हाथों से खिसक कर अन्यों के हाथो मे रह जायगा (एक) पृथक-पथक नामोल्लेख : -वह आपका सिद्ध न हो सकेगा। क्योंकि आपका भाषा- (क) 'सौख्य शब्द के लिए महाराष्ट्री, अर्धमागधी, शुद्धिमोर'लोए' को अशुद्ध मान उसे 'लोगे' कर चुका है और जैन महाराष्ट्री, जन-शौरसेनी, शोरसेनी और अपभ्रश में प्राचीन मूलबीज मंत्र में 'लोगे' है नही-देखें-षट्खण्डा- सोक्ख होता है। -पैरा ६१ अ०
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२७
(जैसे-- मृच्छ० शकु० आदि) से चुने। इसका तात्पर्य ऐसा है कि गौरसेनी दि० आगमो की भाषा नहीं है यदि दि० आगम शौरसेनी के होते तो शौरसेनी शब्दरूपों की पुष्टि में उदाहरण दि० आगमों से दिये गये होते ।
(घ) 'जै०शौर०, शौर० भाग० और प० रूप बहिणी (चार) जैन- शौरसेनी ( भाषाओं का संगम ) :
जो बचिणी से निकला है।
- पंरा २०४
दि० आगमों मे अर्धमागधी के शब्दों का भी प्रयोग है और अन्य भाषा के शब्दो का भी प्रयोग है अर्थात् इसमे किमी एक भाषा के शब्दरूपो का बन्धन नही है -ये भाषा मुक्त भाषा है। विशल ने स्वयं जैन शौरसेनी का अर्धमागधी से अधिक मेल बताया है और इसीलिए दि० आगमों में 'ता', 'ग' आदि जैसे रूप (जो अर्धमागधी के है पास जाते है। शिल के शब्दों मे
(क)
का जो अर्धमागधीरूप है। (स) 'जैन शौरसेनीका अर्धमागधी से
क्या कुन्दकुन्द भारती बदलेगी ?
(ल) जैन शौरसेनी और शोरसेनी मे ओसह शब्द काम में लाया जाता है । पैरा ६१ अ०
-
(ग) नं० शर० और शौर० में बोसह रूप भी चलता है । पैरा २१५
(च) 'जं० शौर०, शौर०, माग०, ढ० मे तथा अप० मे त का द और थ का ध है। पैरा १६५
(छ) 'जं०शौर०, शौर०, माग० और ढ० में मौलिक द और ध बने रह जाते है ।' पैरा १६५ (नोट
-- दोनो भाषाओं के नाम पर्ध-विराम देकर पृथक्-पृथक् बतलाए है | ) (दो) दोनों के शब्द रूपों में भेद : (क) 'जैन शौरसेनी म रयण रूप पाया जाता है । शौरसेनी म रदण का व्यवहार हाता । - पैरा १३१ (ख) जैन शौरसेनी में बगह रूप है किन्तु शौरसेनी मे वृषभ के लिए सदा सह
आता है।
(ग) जं० शौर० जध, शोर जधा शौर और माग० तथा ।'
४६ जे०शोर तथ - पैरा १६५
मे बोली के रूप रूप बन जाता
( तीन ) दोनों के साहित्य में भिन्नता.
डॉ० पिशल ने जैन शौनी के शब्द रूपो में अन्यभाषारूपों से वृत्रता सूचक भी उदाहरणों का चयन दि० आगमग्रन्थो (जैसे पवयणसार, कत्तिगेया० आदि) से किया तथा शौरसेनी के सभी उदाहरण जनेतर ग्रन्यो
आद्ये परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत्, मतिपूर्वं श्रुतम् ।" १० सू १-६, १०, १२, २० । २१. दुष्टमविरुद्ध प्ररूपण युक्तयनुशासनते युवत्यनुशासन, कारि० ४८ २२. एओ समज सवस्य सुदरो लोए ।। बंधका एयस्ते तेष विसवादणी होई ॥ ३ ॥
१२१ अधिक मेल -पैरा २१ (ग) क का ग में परिवर्तन अर्धमागधी की विशेषता १६
स्मरण रहे भाषा सम्बन्धी यह आवाज हमारी ही नही अपितु पूर्वाचार्यो की भाषा से फलित और प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड दिव । त-विद्वानो से सम्मत है । पहिले भी आगम के रूप को बदलना घातक हुआ है और आगे भी धानक होगा, भले ही अर्थ मे अन्तर न पड़ता हो । भविष्य में लोग भी अपनी बुद्धि से, सशोधन की परम्परा बना लेंगे और आदम का लोप होगा। इसे विचारिए - कुन्दकुन्दी के समारोह मे । धन्यवाद !
( पृ० १२ का शेपा)
२३. णा वि होदि अपमन्तो ण पमत्तो जाणजो दु जो भावो । एवं भणति शुद्ध णाओ जो सो उ सो चेव ॥ ६ ॥ यवहारेणुर्वादिसह गाणिस्स परित दंसणं णान । ण विणाणं ण चरित ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥ ७ ॥ २४. जहण विसक्कमणज्जो अणज्जभास विणा उगाहेउ ।
तह ववहारेण विणा परमत्युव देसण मसक्क ॥ ८ ॥ २५. बद्वारोऽभूत्यो भूयस्थो देखिदो दु सुद्धणी ।
भूयत्यमस्सिदो, खलु सम्मादिट्ठी हव जीवो ॥११॥
है ।
२६. "प्रमाणनयात्मको न्यायः । "
-धर्मभूषण, न्यायदीपिम, पृ० ५ १ २७. बहारो भादि जीवो देहो य हवदि खल एक्को । ण दु गियरस जीवो देदो म कदा दिएको ।
-सा० पा० गा० २७ ।
चेदिहारणयभगिद
२८. जीवे कम्मं वपु सुगयस्य
जीव अवद्धपुछ हम कम्मं ।। १४१ २६. क्रम्म बद्धमबद्ध जीवे एव तु जाण णयपक्खं । पखातिक्कन्तो पुण मण्णदि जो सो समयसारो ॥ वही गा० १४२ । ३०. वही गा० १०१, १०२, १०२, १०४, १०६। ३९. वही, गा० २८८, २६६, २६०, २६१, २६२ । ३२. वही, गा० ३४० " एव सखुवदेस जे उपरूविति एरिस
समणा । ३३. वही, गा.३४७, ३४. वही, गा० ३४८ ॥
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२५ वर्ष ४१, कि.१
अनेकान्त
(पृ० १६ का शेषांश) शास्त्रों में सैद्धान्तिक चर्चाओं के विरोधी विवरण: खाता । भगवती आराधना मे साधुओ के २८ व ३६ मूलयह विवरण दो शीर्षकों में दिया जा रहा है :
गुणो को चर्चा के समय कहा है। "प्राकृतटीकाया तु अष्ट
विशति गुणा: । आचारवत्वादयश्चाष्टो-इति षट्त्रिंशत् ।" (१) एक ही प्रन्थ में प्रसंगत चर्चा-मूलाचार के ।
इसी ग्रन्थ में १७ मरण बताये है पर अन्य ग्रन्थो में इतनी पर्याप्ति अधिकार की गाथा ७६-८० परस्पर असगत हैं :
संख्या नही बताई गई है। सौधर्म स्वर्ग की देवियो की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य ५४०
शास्त्री ने बताया है कि 'षट् खण्डागम' और 'कषायईशान स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु ७ पल्य ५४०
प्राभूत' मे अनेक तथ्यों में मतभेद पाया जाता है। इसका सानत्कुमार स्वर्ग मे देवियोकी उत्कृ. आपु ६ प० १७४०
उल्लेख 'तन्नान्तर' शब्द से किया गया है। उन्होने धवला, पवला के दो प्रकरण"-(१) खुद्दक बंध के अल्प
जयधवला एवं त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनेक मान्यताभेदों का बहुत्व अनुयोग द्वार मे वनस्पतिकायिक जीवों का प्रमाण
भी सकेत दिया है। इन मान्यता भेदो के रहते इनकी सूत्र ७४ के अनुसार सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवो से विशेष
प्रामाणिकता का आधार केवल इनका ऐतिहासिक परिअधिक होता है जबकि सूत्र ७५ के अनुसार सूक्ष्म वनस्पति
प्रेक्ष्य ही माना जावेगा। कायिक जीवों का प्रमाण वनस्पतिकायिक जीवों से विशेष
आचार विवरण संबंधी विसंगतियां : अधिक होता है। दोनों कथन परस्पर विरोधी है। यही
शास्त्रों मे सैद्धान्तिक चर्चाओं के समान आचारनही, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीव और सूक्ष्म निगोद जीव
विवरण में भी विसगतिया पाई जाती हैं। इनमें से कुछ वस्तुत: एक ही हैं, पर इनका निर्देश पृथक् पृथक है।
का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है। (२) भागाभागानुगम अनुयोग द्वार के सूत्र ३४ को
श्रावक के पाठ मूल गुण ---श्रावको के मूलगुणों की व्याख्या में विसगतियों के लिए वीरसेन ने सुझाया है कि
परम्परा बारह व्रतों से अर्वाचीन है। फिर भी, इसे समन्तसत्यासत्यका निर्णय आगमनिपुण लोग ही कर सकते है।
भद्र से तो प्रारम्भ माना ही जा सकता है। इनकी आठ (२) भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में असंगत चर्चायें--(१) तीन की सख्या मे किा प्रकार समय-समय पर परिवर्धन एव वातवलयों का विस्तार यतिवृषभ और सिंहसूर्य ने अलग- समाहरण हुआ है। यह देखिए :-- अलग दिया है :
१. समतभद्र तीन मकार त्याग पचाणु व्रत पालन (अ) त्रिलोकप्रज्ञप्ति मे क्रमशः ११/२, ११/६ व ११-१/२ २. आशाधर तीन मकार त्याग पचोदुम्बर त्याग कोश विस्तार है।
३. अन्य तीन मकार त्याग पचोदुम्बर त्याग, रात्रि (ब) लोकविभाग मे क्रमशः २, १ कोश एवं १५७५ धनुष
भोजन त्याग, देव पूजा, विस्तार है।
जीव दया, छना जल पान इसी प्रकार सासावन गुणस्थानवी जीव के पुनर्जन्म
समयानुकूल स्वैच्छिक परिवर्तनों ।। तेरहवी सदी के के प्रकरण में यतिवृषभ नियम से उसे देवगति ही प्रदान पं० आशाधर तक ने मान्य किया है। यहां शास्त्री" करत ह जब कि कुछ आचाय उसे एकान्द्रयादि जावा की समन्तभद्र की मूलगुण-गाथा को प्रक्षिप्त मानते हैं। तियंच गति प्रदान करते है। उच्चारणाचार्य और यति- बाईस अभक्ष्य-सामान्य जैन श्रावक तथा साधुओ के वृषभ के विषय के निरूपण के अन्तरो को वीरसेन ने जय- आहार से सम्बन्धित भक्ष्याभक्ष्य विवरण मे तेरहवी सदी घवला मे नयविवक्षा के आधार पर सुलझाने का प्रयत्न तक बाईस अभक्ष्यो का उल्लेख नहीं मिलता। मूलाचार किया है। इसी प्रकार, उच्चारणाचार्य का यह मत कि एवं प्राचाराग के अनुसार, अपित किए गए कन्दमूल, बहुबाईस प्राकृतिक विभक्ति के स्वामी चतुर्गतिक जीव होते बीजक (नि:जित) आदि की भक्ष्यता साधुओं के लिए हैं-यतिवृषभ के केवल मनुष्य-स्वामित्व से मेल नहीं वजित है। पर उन्हें गहस्थो के लिए भक्ष्य नही माना
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जाता । वस्तुतः गृहस्थ ही अपनी विशिष्ट चर्या से साधुपद की ओर बढ़ता है, इस दृष्टि से यह विरोधाभास ही कहना चाहिए | सोमदेव आदि ने भी गृहस्थो के लिए प्रासुक की सीमा नही रखी। सम्भवत: दोलतराम के समय ५३ क्रियाओ मे अभक्ष्यो की सख्या बाईस तक पहुच गई । फलतः भक्ष्याभक्ष्य विचार विकसित होते होत सत्रहवी सदी में ही रूढ हो सका है ।
श्राहार के घटक - भक्ष्य आहार के घटकों मे भी अन्तर पाया जाता है । मूलाचार की गाथा ८२२ मे प्रहार के छह पटक बताये गए है जबकि गाथा ८२६ मे चार घटक ही बताए हैं। ऐसे ही अनेक तथ्यो के आधार पर मूलाचार को संग्रह ग्रन्थ मानने की बात कही जाती है" । आवक के व्रत- कुन्दकुन्द और उमास्वाति के युग से श्रावक के बारह व्रतो की परम्परा चली आ रही है । कुन्दकुन्द ने सल्लेखना को इनमें स्थान दिया है पर उमास्वाति, समंतभद्र और आशाधर इसे पृथक् कृत्य के रूप मे मानते हैं | इससे बारह व्रतो के नामो मे अन्तर पड गया है। इसमे पाँच अणुव्रत तो सभी में समान हैं, पर अन्य सात शीलों के नामो मे अन्तर है * ।
यहाँ कुन्दकुन्द और उमास्वाति की परम्परा स्पष्ट दृष्टव्य है । अधिकाश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उमास्वाति का मत माना है । साथ ही भोगोपभोग परिमाण व्रत के अनेक नाम होने से उपभोग शब्द की परिभाषा भी भ्रामक हो गई है :एक बार सेव्य बारबार से व्य भोग उपभोग उपभोग भोग
परिभोग
परिभोग
भावक की प्रतिमाएँ - श्रावक से साधुत्व की ओर
समंतभद्र
पूज्यपाद
सोमदेव
* (अ) गुण व्रत --
कुन्दकुन्द
उमास्वाति
प्रागम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन
आशाघर, समंतभद्र दिव्रत
दिशा - विदिशा प्रमाण, दिग्यत
(ब) शिक्षावत
कुंदकुंद
समंतभद्र, आशाधर
उमास्वाति
सोमदेव
अनदयत,
सामायिक,
सामायिक,
सामायिक,
सामायिक,
૨૨
बढ़ने के लिए ग्यारह प्रतिमाओं की परम्परा कुन्दकुन्द युग से ही है । संख्या की एकरूपता के बावजूद भी अनेक के नामो और अर्थों मे अन्तर है । सबसे ज्यादा मतभेद छठी प्रतिमा के नाम को लेकर है। इसके रात्रिमुक्त स्थान (कुंदकुंद, समंतभद्र) एव दिवा मैथुन त्याग (जिनसेन, आशाघर) नाम मिलते है । रात्रिभुक्तित्याग तो पुनरावृत्ति लगती है । यह मूलगुण है। आलोकित पान-भोजन का दूसरा रूप है। अत परवर्ती दूसरा नाम अधिक सार्थक है । सोमदेव ने अनेक प्रतिमाओ के नये नाम दिये है। उन्होंने १ मूलव्रत (दर्शन), ३ अर्चा ( सामायिक) ४ पर्वकर्म (प्रोषध), ५ कृषि कर्म त्याग (सचित्त त्याग), सचित्त त्याग (परिग्रह त्याग) के नाम दिये है। हेमचन्द्र ने भी इनमें पर्वकर्म, प्रायुक याहार, समारभ त्याग, साधु निस्संगता का समाहार किया है" । सम्भवत इन दोनों आचार्यों ने प्रतिमा, व्रत व मूलगुणों के नामो की पुनरावृति दूर करने के लिए विशिष्टार्थक नामकरण किया है। यह सराहनीय है। परम्परापोषी युग की बात भी है। बीसवी सदी में मुनि क्षीर सागर ने भी पुनरुक्ति दोष का अनुभव कर अपनी रत्नकरड श्रावकाचार की हिन्दी टीका मे ३ पूजन ४ स्वाध्याय ७ प्रतिक्रमण एव ११ भिक्षाहार नामक प्रतिमाओ का समाहरण किया है। पर इन नये नामों को मान्यता नही मिली है।
व्रतों के प्रतीचार श्रावको के व्रत के अनेक अतीचारों में भी भिन्नता पाई गई है ।
:
भौतिक जगत के वर्णन में विसंगतियां वर्तमानकालभौतिक जगत के अन्तर्गत जीवादि छह द्रव्यो का वर्णन समाहित है । उमास्वाति ने "उपयोगो लक्षण" कह कर जीव को परिमापित किया है पर शास्त्रों के अनुसार,
अनर्थदडव्रत, भोगोपभोगपरिमाण
देशव्रत भोगोपभोगपरिमाण
प्रोषधोपवास, अतिथिपूज्यता,
प्रोषधोपवास,
प्रोषधोपवास,
प्रोषधोपवास,
वैयावृत्य,
अतिथिस विभाग,
वैयावृत्य
सहलेखना देशावकाशिक
उपभोग परिभोग परिमाण भोग-परिभोग परिमाण
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जरा-सोचिए !
१. क्या जैन जिन्दा रह सकेगा? वहां झलकता है। आप देखें-ये जो कई श्रावक हैं,
पण्डित है, त्यागी और नेता है, इनमें कितने, किस अंश जैसे चन्द लोग इकट्ठे होते है और आकाश गुंजाने
में मलीनता, बनावट और दिखावे से कितनी दूर है ? जो को जोर से नारा लगाते हैं-'जैन धर्म की जय ।' नारे
इनमे जैन हो । क्या कहें ? आज तो त्याग की परिभाषा से आकाश तो गंजता है, पर, क्षण भर मे वह गूज कहा
भी बदली जैसी दिखती है । त्याग तो जैन बनने का सही विलीन हो जाती है ? इसे सोचिए : कही वह अस्तित्व
मार्ग है और वह मार्ग अन्तरग व बहिरंग दोनो प्रकार के रखते हुए भी अरूपी भाकाश में तो नही समा जाती।
परिग्रहो को कृश करने और परिग्रहो के अभाव मे मिलता इसी प्रकार आज जैन को ढूढना भी मुश्किल है, वह भी
है । अर्थात् परिग्रह की जिस स्थिति को छोडकर व्यक्ति चूर-चूर होकर बिखर चुका है ? शायद कही वह भी तो
घर से चला हो उस स्थिति की अपेक्षा पारग्रह मे हीनता अरूपी आकाश में नहीं समा गया ? देखिए, जरा गौर
होते जाना त्याग की सच्ची पहचान है । पर, आज तो से-यदि ज्ञान-दीपक लेकर ढढ़ें तो शायद मिल जाय !
परिस्थिति अधिकाश ऐसी है कि-जो पुरुष दीक्षा--- आप किसी मन्दिर में जाइए वहां आप समवमरण नियम से पूर्व किमी झोपड़ी, साधारण से सुविधारहित के कीमती से कीमती वैभव को देख सकेगे, पाषाण-निर्मित
कच्चे-पक्के घर मे रहता था वह त्यागी नामकरण होने के प्रतिबिम्बों को देख सकेंगे-वे विम्ब चादी, सोने, हीरे वाद सुन्दर, स्वच्छ सुविधायुक्त मकानों, कोठियो, बगलो और पन्नों के भी हो सकते है, आप आसानी से देख और यहां तक कि वह बकिंघम पैलेस जैसे महलों में रहने सकेंगे। पर, जन आपको अपनी आंखो या भावों में कदाचित् के स्वप्न देखता और वैसे प्रयत्न करता है। जिसे दीक्षा ही दिखे।
से पूर्व ख्याति, पूजा-प्रतिष्ठा की चाह न थी, वह उत्सवो, ऐसे ही किसी त्यागी समाज मे जाकर देखिए, यहा कार्यक्रमों आदि के बहाने बडे-बड़े पोस्टगे मे बड़ी-बड़ी आपको लाल, गेरुआ, पीत, श्वेत या दिगम्बर चोला तो पदवियों सहित अपने नाम-फोटो और वैसी किताब छपाना दिखेगा, पर, जिसे आप खोज रहे है बह 'जन' न चाहता-छपाता है। जिसे दीक्षा पूर्व लोग जानते भी न मिलेगा । ऐसे ही किसी पण्डित के पास जाइए-~-उमे थे-कोने मे बैठा रहता हो वह दीक्षा के बाद सिंहासनासुनिए : आपको सिद्धान्त और आगम की लम्बी-चौडी रूह होकर सभाग्रो मे अपने जयकारे चाहता है। जो घर व्याख्याएं मिलेंगी, बिया-काण्ड मिलेगा पर, जैन' के से सीमिन परिवार का मोह त्याग, वैराग्य की ओर बढ़ा दर्शन वहाँ भी मुश्किल से हो सकेंगे। धन-वैभव मे तो था वह उपकार के बहाने सीमित की बजाय श्रावकजैन के मिलने का प्रश्न ही नही-जहा लोग आज श्राविका और मठ-साहूकारो जैसे बड़े परिवारों के फेर मे खोजते हैं।
फंस जाता है, उपके वैभव से घिर जाता है । ये सब तो आप पूछेगे भला, वह जैन क्या है, जिसे देखने की पाप ग्रहण करने के चिन्ह हैं और ग्रहण करने मे जैन कहां? बात कर रहे हैं ? आखिर, उस जैन को कहाँ देखा जाय? जैन तो उत्तरोत्तर त्याग मे है, आकिवन्य मे है । हो, तो सुनिए
सच्चे त्यागी होंगे अवश्य-उनको खोजिए, जहाँ वे हों, ___ 'जन' आत्मा का निर्मल, स्वाभाविक रूप है, वह जाइए और नमन कीजिए, इसमे आपका भी भला है। सरल-आत्माओं के भावों और आचार-विचारों में मुखरित श्रावकों की मत पूछिए, वे भी कहाँ, कितने है ? होता है। जहां मनीनता, बनावट और दिखावा न हो. होंगे बहुत थोड़े कही--किन्ही आकाश प्रदेशों मे, श्रद्धा
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मोर विवेकपूर्वक श्रावक की दैनिक क्रियाओं में लीन। की अह-पण्डा (बुद्धि) के कारण, उनके सहयोग से मूलवरना, अधिकांश जन समुदाय तो इस पद से अछूता ही आगम-रूप भी बदलाव पर हों तो भी सन्देह नही । हम है-रात्रि-भोजी और मकार-सेवी तक । जिन्हें हम आगम के पक्षपाती हैं। हम नहीं चाहते कि कोई अपनी श्रावक माने बैठे है, तथोचित सर्वोच्च जैसे सम्मान आदि बुद्धि से आगमों में परिवर्तन लाए । हम तो पूर्वाचार्यों की तक दे रहे है, शायद कदाचित् उनमे कुछ श्रावक हो तो चरण-रज-तुल्य भी नही, जो उनकी भाषा मे किन्ही दैनिक क्रियाओं की कसौटी पर कस कर उन्हे देखिए। बहानों से परिवर्तन लाएँ-आचार्यों ने किस शब्द को वरना, वर्तमान वातावरण से तो हम यह ही समझ पाए किस भाव मे कहो, किस रूप में रखा है इसे वे ही हैं कि- इस युग में पैसा ही श्रावक और पैसा ही प्रमुख जानें-इस विषय को आचायों की स्व-हस्तलिखित प्रतियो है-सब उघर ही दौड रहे है।
की उपलब्धि पर--सोचा जा सकता है, पहिले नही । पण्डित, 'पण्डा' वाला होता है और 'पण्डा' बुद्धि जैसा हो, विचारें। को कहते हैं-'पण्डा-बुद्धिर्यस्यमः पण्डितः' अर्थात् जिसमें अब रह गए नेता । सो नेताओं को क्या कहें ? वे बुद्धि हो वह पण्डित है। आज कितने नामधारियों में हमारे भी नेता हैं । गुस्ताखी माफ हो, इसमे हमारा वश कैसी बुद्धि है, इसे जिनमार्ग की दृष्टि से सोचिए। जब नहीं। नेता शब्द ही ऐसा बहुमुखी है जो चाहे जिधर जिनमार्ग विरागरूप है तब वर्तमान पीढ़ी मे कितते नाम- मोड़ा जा सकता है-नेता अच्छों के भी हो सकते हैं और धारी, प० प्रवर टोडरमल जी, प० बनारसीदास जी और गिरों के भी-धर्मात्मानो के भी हो सकते है । पर, हम
और गुरुवर्य पं० गोपालदास जी बरैया, प० गणेशप्रसाद यहां 'मोक्ष मार्गस्य नेतारं' की नहीं, तो कम से कम जैनवर्णी जैसे सन्मार्ग-राही और अल्प-सन्तोषी है ? जो उक्त समाज और जैन धर्म के नेताओ की बात तो कर ही रहे परिभाषा मे खरे उतरते हो या जो लोकिक लाभों और हैं कि वे (यदि ऐमा करते हों तो) केवल नाम धराने के भयो की सीमा लांघ-बिना किसी झिझक के सही रूप उद्देश्य से दिखावा न कर जनता को धर्म के मार्ग में सही मे जिन वाणी के अनुसा या उपदेष्टा हों ? कडुवा तो रूप में ले चले और स्वप भी तदनुरूप सही आचरण नगेगा, पर, अाज के त्यागी वर्ग की शिथिलता मे कुछ करें। जिससे जैन धर्म टिका रह सके । यदि ऐसा होता पण्डितो, कुछ सेठो या श्रावको का कुछ हाथ न हो-ऐसा है तो हम कह सकेगे-'हा, जैन जिन्दा रह सकेगा। सर्वथा नहीं है। कई लोग हा, मे हाँ करके (भी) मार्ग असलियत क्या है ? जरा-सोचिए - बिगाड़ने मे सहयोगी हो तब भी सन्देह नही। कुछ पंडितो
-सम्पादक
'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित श्री बाबूलाल जैन, २ अन्सारी रोड, दरियागज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता--भारतीय मुद्रक-गीता प्रिंटिंग एजेंसी न्यू सीलमपुर, दिल्ली-११००५३ स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२
मैं बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त विवरण सत्य है।
बाबूलाल जैन प्रकाशक
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
मौलिक विचार
'हमारी विनम्र राय मे भाषा में शुद्ध या अशुद्ध होने का कोई प्रश्न ही नही है। जो लोग भाषा शास्त्र का ककहरा भी जानते है वे जानते है कि किसी भी भाषा या भाषारूप का जैसा वह उपलब्ध हो उसका वैसा अध्ययन करना चाहिए अपेक्षया इसके कि उसे किमो खास खूटे से बाँधा जाय और शुद्ध करने का ढोग किया जाए।'
'वस्तुतः जैन शोरसेनी पहली दो प्राकृतो से जुदा है, इस तथ्य को पूरी तरह समझ लेना चाहिए।'
'हमारे खयाल से अब उसे मानक बनाने का जो कष्ट उठाया जा रहा है, वह व्यर्थ और अनावश्यक है। भाषा के शुद्ध करने की सनक मे वही ऐसा न हो कि हम जैन-शौरसेनी के मूल व्यक्तित्व से ही हाथ धो बैठे।'
-'तीर्थकर'-सम्पादकीय, मार्च १९८८
'आगम के मूलरूयो मे फेर बदल घातक है' नामक आपका लेख सार्थक एव आगम की सुरक्षा के लिए कवच है।'
'कोई भी प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ/आगम किसी व्याकरण के नियमो से बधी भाषा मात्र का अनुगमन नही करता। उसमे तत्कालीन विभिन्न भाषाओ बोलियो के प्रयोग सुरक्षिा मिलते है।'
'एक ही पथ मे कई प्रयोग प्राकृत बहुलता को दर्शात है अत. उनको बदलकर एकरूप कर देना सर्वथा ठीक नहीं है।'
'सस्कृत छाया से प्राकृत पढ़ने वाले विद्वानो के द्वारा इस प्राकृत भाषा के गाथ छेडछाड करना अनधिकार चेष्टा कही जायेगी। उमे रोका जाना चाहिए।'
'प्राचीन ग्रन्थो का एक-एक पाब्द अपने समय का इतिहास स्तम्भ होता है।' 'केव न आने विचार व्यक्त किा जा सकते है या टिप्पणी दी जा सकती है, मूलपाठ मे शब्द नही बदला जा सकता है।'
-डॉ. प्रेमसुमन जैन, अध्यक्ष-जन विद्या एव प्राकृत विभाग, सुखा० वि० वि०, उदयपुर 'तीर्थकर मे आपका लेख जन-शौरसेनी के बारे में पढ़ा। अच्छा लगा। पर यहाँ कौन सुनने वाला है । सब तो लघ-सर्वज्ञ बनने जा रहे है और जो जिसक मन मे आता है सो करने लग जाता है।'
-नीरज जैन, सतना
सम्पादक परामशं मण्डल डा० ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पचन्द्र शात्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गोता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५ .
BOOK-POST
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वीर सेवा मन्दिर का मासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४१: कि०२
अप्रैल-जून १९८८
इस अंक मेंक्रम
विषय १. श्री सुपार्श्वनाथ जिन-स्तवन २. ५० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट-डीड संशोधन-प्रसग ३. दिगम्बर आगम रक्षा-प्रसंग ४. पार्ष-भाषा को खडित न किया जाय
-श्री पपचन्द्र शास्त्री ५. श्री कुन्दकुन्द का विदेह गमन
--श्री रतनलाल कटारिया ६. राजस्थानी कवि ब्रह्मदेव के तीन ऐतिहासिक
पद-डॉ० कस्तूरचन्द कासनीवाल ७. मध्य-प्रदेश का जैन केन्द्र सिहोनिया
---डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' ८. जैन कवि विनोदीलाल की अचचित रचनाएं
-डॉ० गंगाराम गर्ग ६. द्वादशानुप्रेक्षा--डॉ० कु. सविता जैन १०. दशवी शताब्दी के अपभ्र श काव्यों में दार्शनिक
समीक्षा-श्री जिनेन्द्रकुमार जैन उदयपुर २५ | १०. जरा सोचिए : -सम्पादक
प्रकाशक:
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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- इतिहास मनीषी, विद्यावारिधि
स्व० डा० ज्योति प्रसाद जैन को
श्रद्धांजलि
―
इतिहास-मनीषी, विद्यावारिधि स्व० डा० ज्योति प्रसाद जैन से सभी परिचित हैं। सामाजिक, धार्मिक और ऐतिहासिक जैसे सभी क्षेत्रो में उनकी अप्रतिम प्रतिभा और सहयोग रहे। वे सदा प्रामाणिक लिखते और कहते रहे । वीर सेवा मन्दिर से उनके पुराने सम्बन्ध थे । सन् १९७४ मे वे शोध-निमित्त सरसावा भी रहे । वे सरल स्वभावी, हँसमुख और पठन-पाठन के शौकीन थे । उन्होने समाज को जो भी दिया वह चिर-काम आएगा और आदर्श रहेंगा | वे वर्षों से अनेकान्त के सम्पादक मंडल में थे । गत ७-८ वर्षो से तो ऐसा अनेकान्त का शायद ही कोई अंक हो जिसमें उनका लेख न हो ।
"अनेकान्त' के माध्यम से प्रसारित उनके अन्तिम लेख की कड़ियां पाठको को अब भी विचारणीय हैं ।" कुन्दकुन्द द्विसहस्रान्दी की तिथि को लक्ष्य कर वे लिखते हैं
" जब किसी महापुरुष या उनके जीवन की घटना विशेष को स्मृति में कोई आयोजन किया जाय तो उसमे कुछ तुक होना उचित है । भगवत् कुंदकुंदाचार्य का जन्म ई० पू० ४१ मे हुआ था, ११ वर्ष की आयु में ई० पू० ३० में उन्होंने मुनि दीक्षा ली थी, २२ वर्ष मुनि जीवन व्यतीत कर ३३ वर्ष की आयु में ई० पू० में वह आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए और ५२ वर्ष पर्यन्त उस पद को सुशोभित करके ८५ वर्ष की आयु में सन् ४४ ई० में उन्होंने स्वर्गगमन किया था इनमे से किसी भी विधि की संगति इस या आगामी वर्ष के साथ नही बैठती । हमे ज्ञात नही है
कि किस महानुभाव की प्रेरणा से इस समय इस आयोजन का विचार प्रस्फुटित श्रुति के अनुसार तो आचार्य प्रवर के जन्म की द्विसहस्राब्दि सन् १९५६ ई० स्त्राब्दि सन १६७० में होती, उनके आचार्य पद ग्रहण की द्वि-सहस्राब्दि सन् को द्विसहस्राब्दि सन् २०४४ ई० में होनी चाहिए ।"
हुआ है । बहुमान्य परम्पराएँ अनु
मे
होती, उनकी दीक्षा की द्वि-सह१९६२ ई० मे और उनके स्वर्गगमन
आगम-रक्षा के सम्बन्ध मे डा० सा० का सन्देश है - "किसी भी प्राचीन ग्रन्थ के मूल पाठ को बदलना या उसमे हस्तक्षेप करना किसी के लिए उचित नहीं है । जहाँ संशय हो या पाठ त्रुटित हो उसी स्थिति में ग्रन्थ की विभिन्न प्रतिलिपियों मे प्राप्त पाठान्तरों का पाद-टिप्पण में सकेत किया जा सकता है और अपना संशोधन या सुझाव भी सूचित किया जा सकता है।"
डा० सा० के निधन से हुई क्षति पूर्ति सर्वथा असम्भव है । वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी ने अपनी बैठक में स्व० आत्मा मे श्रद्धा व्यक्त करते हुए उनकी आत्म-शांति और सद्गति की प्रार्थना की और परिवार के प्रति सम्वेदना प्रकट की। समाज डा० सा० के उपकारों का सदा ऋणी रहेगा ।
- सुभाष जैन महासचिव
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पोम् अहम्
Unit
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MARATHI
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परमागमस्य बीजं निषिखजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
अप्रैल-जून
वर्ष ४१ किरण २
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण संवत् २५१३, वि० सं० २०४५
१९८८
श्रीसुपार्श्व-जिन-स्तवन स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां । स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा ॥ तृषोऽनुषंगान्न च तापशान्ति-रितीव माख्यद्भगवान् सुपार्श्वः ॥१॥
-समन्तभद्राचार्य 'यह जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है-वह विभाव परिणति से रहित अपने अनन्तज्ञानादिमय स्वात्मस्वरूप में अविनश्वरी स्थिति है-वही पुरुषों का-जीवात्मा का सच्चा स्वार्थ है-निजी प्रयोजन है, क्षणभंगुर भोग--इन्द्रिय-विषय-सुख का अनुभव-स्वार्थ नहीं है; क्योंकि इन्द्रिय-विषय-सुख के सेवन से उत्तरोत्तर तृष्णा की-भोगाकांक्षा की-वृद्धि होती है और उनसे ताप की-शारीरिक तथा मानसिक दुःख की शान्ति नहीं होने पाती। यह स्वार्थ और अस्वार्थ का स्वरूप शोभनपाश्र्वो-सुन्दर शरीराङ्गों के धारक (और इसलिए अन्वर्थ-संज्ञक) भगवान सुपार्श्व ने बतलाया है।
भावार्थ-इस पद्य में आचार्य समन्तभद्र ने सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का स्तवन करते हुए स्वार्थ और अस्वार्थ का जो स्वरूप निर्दिष्ट किया है, वह महत्त्वपूर्ण है। ज्ञानी जीवों का स्वार्थ स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति है। वे उसी की सम्प्राप्ति का निरन्तर प्रयास करते हैं। क्षणभंगुर इन्द्रिय-विषयों की ओर उनका झुकाव नहीं होता, क्योंकि वे सन्ताप बढ़ाने वाले हैं, शान्ति के घातक हैं, अतएव वह ज्ञानी जनों का अस्वार्थ है। भगवान सुपार्श्व ने उसी सम्यक् स्वार्थ को प्राप्त किया, और जगत को उसी की सम्प्राप्ति का मार्ग बतलाया है।
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पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट-डीड-संशोधन-प्रसंग
पाठकों को स्मरण हो कि वीर सेवा मन्दिर सोसायटी ने पं० टोडरमल स्मारक के ट्रस्ट डीड में संशोधन कराने हेतु एक अपील प्रकाशित की थी। उस पर पाठकों ने अपनी सहमति देकर उसका आदर किया । हम पाठकों के सहयोग के लिए आभारी है। पाठकों की जानकारी के लिए संक्षिप्त-विवरण निम्न प्रकार है :वीर सेवा मन्दिर द्वारा अपील
आज जहाँ एक ओर मूल आगमों के सार्वजनिक शब्द रूपों में मनमाना बदलाव किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर दिगम्बर जैन धर्म को कानजी स्वामी द्वारा प्रतिपादित घोषित किया जा रहा है। पडित टोडरमल स्मारक, बापू नगर, जयपुर के ट्रस्ट डीड सन् १९६४ के अनुसार तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित दिगम्बर जैन धर्म को कानजी स्वामी द्वारा प्रतिपादित वीतराग दिगम्बर जैन धर्म बताया जा रहा है । यह कैसी विडम्बना है ? ट्रस्ट डीड के आपत्तिजनक अनुच्छेद नीचे दिए जा रहे है :Para-5 OBJECT OF THE TRUST SHALL BE :
To propagate the tenets of Vitrag Digamber Jain Religion as propounded by Prampujya Sadgurudav Shri Kanji Swami" (here in after refered to as 'Digamber Jain Religion" for the sake of brevity but it shall always mean religion as propounded by parampujya Sadgurdev Shri Kanji Swami) in general and to carry out any activity in any manner for the
purpose."
Para No. 28
Any person who is following the tenets of the Digamber Jain Religion as propounded by Parampujya Shri Kanji Swamy will be at liberty to attend and to worship in the temple at such time or times of the day as may be prescribed by the Trustees"
हिन्दी अनुवाद
ट्रस्ट के उद्देश्य होंगे "अनुच्छेद-५
साधारण या परमपूज्य सदगुरुदेव श्री कानजी स्वामी द्वारा प्रतिपादित वीतराग दिगम्बर जैन धर्म के तत्वों का प्रचार-प्रसार करना तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी भी गतिविधि को चलाना । वीतराग दिगम्बर जैन धर्म को ही संक्षेप की दृष्टि से आगे दिगम्बर जैन धर्म कहा गया है, किन्तु इसमे मदेव परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कान जी स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म ही अभिप्रेत होगा:" "अनुच्छेद २८
प्रत्येक व्यक्ति जो परमपूज्य कानजी स्वामी द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म के सिद्धान्तो का अनुयायी है, इस बात के लिए स्वतन्त्र होगा कि वह दिन के ऐसे समय या समयो पर जो न्यासियों द्वारा निश्चित किए जाएँ, मन्दिर में आएं और उपासना करें।"
वीर सेवा मन्दिर को पंडित टोडरमल स्मारक के ट्रस्ट की फोटो प्रति प्राप्त होने पर संस्था की कार्यकारिणी ने अपनी बैठक १३ मई १९८८ मे निर्णय लिया है कि प० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के डीड़ की उक्त धारये जैन
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पं० टोडरमल स्मारक दृस्ट-डीड-संशोधन-प्रसंग
आगम के प्रतिकूल है। इस सम्बन्ध में उक्त ट्रस्ट से अनुरोध किया जाय कि वह उक्त धारात्रों को अपने ट्रस्ट डीड से निकाल दें क्योंकि तीर्थंकरों का स्थान अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं ले सकता।
आशा है आप कार्यकारिणी के उक्त निर्णय से सहमत होगे इसलिए आप भी व्यक्तिगत रूप से अथवा दिगम्बर जैन संस्थाओं की ओर से पडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, वापू नगर, जयपुर को उक्त धाराओं को हटाने के लिए पूरे प्रयत्न करें। कहीं ऐमा न हो कि दिगम्बर जैन समाज की उदासीनता के कारण भविष्य मे तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित धर्म कानजी स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म बन कर न रह जाय। इस सम्बन्ध मे आप जरनी प्रतित्रिया से हमें अवश्य अवगत कराने का कष्ट करें। धर्म की रक्षार्थ आपका सहयोग अपेक्षित है।
सधन्यवाद !
भवदीय : सुभाष जैन
(महासचिव) समाज द्वारा समर्थन
पण्डित टोडरमल स्मारक जयपुर-ट्रस्ट डीड मे कान जी भाई के द्वारा दि. जैन धर्म को प्रतिपादित किया गया है, वह अत्यन्त घोर निन्दनीय है।
-मल्लिनाय शास्त्री, मद्रास आपने प० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट-डीड के अनुसार जो अनुच्छेद ५ व २८ की व्याख्या की है वह अनुकरणीय है। परन्तु समाज के श्रीमन्त लोग जयपुर के ट्रस्ट की ओर झुक रहे है और श्री कानजी स्वामी का सदेश फैला रहे है। हमे सबसे पहिले उन्हें ही इस ओर आकर्षित करना चाहिए।
-जीवन लाल बहेरिया वाले मैंने भी ट्रस्ट डीड सन् १९६४ के पैरा न० ५ और ८ की नकलें आपने भेजी, उनकी भाषा पर खूब ऊहापोह किया है और इस नतीजे पर पहुंचा हू कि ट्रस्ट डीड के अनुसार सद्गुरु देव कानजी स्वामी द्वारा प्रतिपादित वीतराग दिगम्बर जैन धर्म एक स्वतन्त्र धर्म है । अत: आपको आपत्ति उचित है। -विरधी लाल सेठी
श्री टोडरमल स्मारक नियमावली में भगवान महावीर को, या उनकी परम्परा के किसी आचार्य को नही मानते हुए 'परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कान जी स्वामी को ही जैन धर्म का प्रतिपादक कहा गया है। समाज को घोखे में डालने वाले ऐसे प्रयासो का पर्दाफाश किया जाना चाहिए और उनसे अपेक्षा की जानी चाहिए-अपना हठाग्रह छोड़ कर अपने डीड में परिवर्तन करके दिगम्ब रत्व की मूलधारा में बने रहने का प्रयास करें। -नीरज जैन, सतना
: वीर सेवा मन्दिर कार्यकारिणी के निर्णय हेतु हार्दिक वधाई। डीड ने अनुच्छेद ५ व २८ को तुरन्त हटावें तभी टोडरमल ट्रस्ट अथवा कान जी स्वामी के अनुयायी दिगम्बर जैन धर्म की धारा में आ सकेगे। यह एक यथोचित बात है।
-जिनेन्द्रप्रकाश जैनी, मेरठ शहर आपने जो Printed Letter about कानजी डीड निकाला है वह बहुत मुद्दे की बात है और जयपुर वालो को इसे स्वीकार कर सत्यपथ का समर्थन करना चाहिए ।
-कैलाशचन्द जैन, डिप्टीगंज
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषदका निर्णय:
"पं० टोडरमल स्मारक, बापूनगर, जयपुर के अनुयायियों को हम दि. जैन धर्म और दि. जैन समाज का अंग मानते हैं। किन्तु उक्त स्मारक के ट्रस्ट डीड की धाराएँ ५, २८ दि. जैन के सर्वथा विपरीत है क्योकि वीतराग दि० जैन धर्म का प्रतिपादन कानजी स्वामी के द्वारा नही हुआ है, अपितु दि० जैन धर्म अनादि से तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत चला आ रहा है। अतः १० टोडरमल स्मारक के ट्रस्टीज विद्वानो से यह बैठक पुरजोर अपील करती है कि वह अपनी ट्रस्ट डीड की उक्त धाराओं में आगमानुकूल संशोधन करें।"
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४ वर्ष ४१, कि० २
अनेका
साहू श्री श्रेयांस प्रसाद जी, अध्यक्ष दि० जैन महासमिति की मनोव्यथा :
"पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के ट्रस्ट डीड में कुछ ऐसे आपतिजनक मुद्दे हैं, जिनको संशोधित करने की आवश्यकता है । मेरा सस्था के पदाधिकारियो से निवेदन है कि वे उसमे सुधार करें ताकि समाज में शान्ति का वातावरण बन सके ।"
हम निवेदन कर दें कि वीर सेवा मन्दिर की इस प्रक्रिया के फलस्वरूप हमें टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर के महामंत्री द्वारा एक पत्र प्राप्त हुआ है कि वे ट्रस्ट डीड का पैरा ५ एव २८ परिवर्धित कर रहे हैं। पाठकों की जानकारी के लिए उनके पत्र के आवश्यक अंश नीचे दिये जा रहे हैं। ताकि वे इनके औचित्य अनौचित्य पर विचार कर सकें। साथ ही हमने जो उनसे पुनः आग्रह किया है, वह भी हम इसी अंक में छाप रहे हैं ।
पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर से प्राप्त पत्र के अंश :
"वर्तमान भ्रमित वातावरण को देखते हुए दिगम्बर जैन महासमिति, दिगम्बर जैन परिषद, भारतवर्षीय दि जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, वीर सेवा मन्दिर आदि प्रतिष्ठित एव ट्रस्ट की हितैषी संस्थाओं ने हमें अनुरोध किया एवं हमे परामर्श दिया कि समाज के वातावरण को ठीक करने के लिए ट्रस्टडी में आवश्यक स्पष्टीकरण देना चाहिए। उन सबकी भावनाओं का आदर करते हुए एवं आदरणीय साहू श्री श्रेयांस प्रसाद जी एवं आदरणीय साडू श्री अशोककुमार जी व श्री बाबूलाल जी पाटोदी आदि महानुभावो के अनुरोध का सम्मान करते हुए ट्रस्ट ने अपने स्टडीड मे निम्नानुसार स्पष्टीकरण के रूप मे परिवर्धन करने का निर्णय लिया है जिसकी आवश्यक कार्यवाही की जा रही है।
ट्रस्ट डीड का पैरा न० ५ एव २८ को इस प्रकार परिवर्धित किया गया है :5/Objects of the trust:
The objects of the trust shall be as follows: (1) To propogate "The tenets of Vitrag Digambar Jain Religion, as preached by our parampujya Tirthankar from Bhagwan Rishabhdev to Bhagwan Mahavir and as explained by our Pujya Acharyas like Acharya Shri Bhutbali, Pushpdant, Kund Kund, Umaswami and Samantbhadra etc and furthe explained in simple language by Pandit Shri Banarsidasji, Todarmalji, Daulatramji, Jaichandji and Shri KanjiSwami" (her inafter referred to as 'Digamber Jain Religion for the sake of brevity) in manner for the purpose.
28/Right of Worship:
Any person who is following the tenets of the Vitrag Digamber Jain Religion shall be at liberty to attend and to worship the deities in the temples belonging to the Trust at Jaipur (Rajasthan) according to Shuddh (Tarapanth) Amnaya at such time or times of the day as may be prescribed by the Trustees but no person shall be entitled to reside in the temple or its premises without the previous permission in writing of the Chairman or any other person appointed by the Trustees in this behalf, provided always that it shall be lawful for the Chairman or any other persons authorised in this behalf by the Trustees to remove or cause to be removed from the temple and its precinets any devotees or other such person
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पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट-बीड-संशोधन-प्रसंग
rosiding there or who may conduct himself or herself in a disorderly or objectionable manner or may contravene the religious discipline of the temple.
हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास भी है कि शान्तिप्रिय एवं प्रबुद्ध समाज को इससे पूर्ण सन्तोष एवं समाधान होगा।"
निवेदक :
नेमीचन्द पाटनी महामंत्री,
पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४, बापूनगर, जयपुर-१५ वीर सेवा मन्दिर का पत्र: श्री नेमिचन्द पाटनी, महामन्त्री, पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर-१५ प्रिय महोदय !
पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट की डीड के सम्बन्ध में अत्यन्त आवश्यक स्पष्टीकरण शीर्षक से आपका परिपत्र मिला। वीर सेवा मन्दिर आपका आभारी है कि आपने समाज की भावना को समझा और डीड में परिवर्तन करने के लिए निर्णय लिया। आपने जिस प्रकार से शब्दों का अर्थ किया है उसी प्रकार वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी द्वारा भी यही अर्थ समझ कर निर्णय लिया गया था। कार्यकारिणी आपके इस विचार से सहमत है कि दिगम्बर जैन धर्म अनादिकाल से तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट धर्म है। अत: ट्रस्ट डोड की धारा ५(१) में इतना लिखना ही पर्याप्त होगा : ५(१) परमपूज्य तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट दिगम्बर जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार करना।
स्वाभाविक है कि मूल उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसी अनुच्छेद के दूसरे और नवें पैरे में तदनुसार बदलाव प्रावश्यक है। ५(२) और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मन्दिर अथवा स्वाध्याय भवन निर्माण कराना, बनवाना-चिनवाना अथवा
इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु मदद करना अथवा मरम्मत के लिए मदद करना अथवा वर्तमान मन्दिरों, स्वाध्याय
भवनों की देख-रेख करना । ५(९) दिगम्बर जैन धर्म के सिद्धान्तों को विभिन्न साधनों से प्रकाशित कराना एवं उन्हें वितरित कराना जिसमें उन्हें टेप
पर रिकार्ड कराना और बजाना और इस प्रकार के टेयों को वितरित कराना और बजवाना भी सम्मिलित है।
हमारी पहचान दिगम्बर जैन धर्म के नाम से ही प्रचलित है। दिगम्बर से पहले वीतराग शब्द जोड़ने से यह भ्रान्ति होती है कि वीतराग दिगम्बर जैन धर्म एव दिगम्बर जैन धर्म दोनों अलग-अलग हैं। अत: केवल दिगम्बर जैन धर्म लिखना ही उपयुक्त होगा। ऐसा करने से उक्त धारा ५(१) मे धर्म का स्पष्टीकरण स्वयमेव ही हो जाता है और इसमें किसी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश नहीं रह जाती।
दिगम्बर जैन धर्म में देव-शास्त्र गुरु को ही आधार माना गया है । अतः ट्रस्ट डीड के अनुच्छेद २८ में आपने जो प्रस्ताव दिया है कि बिना आज्ञा के मन्दिर में कोई नहीं रह सकता, इसमें केवल यह बढ़ाना अनिवार्य होगा कि दिगम्बर जैन त्यागियों एवं मुनियों पर यह प्रतिबंध लागू नहीं होगा।
यह कार्यकारिणी महसूस करती है कि उक्त सुधार होने के बाद समाज में किसी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश नहीं रहेगी और समाज की एकता को एक दृढ़ आधार मिलेगा।
कृपया कार्यकारिणी के उक्त सुझाओं को सम्बन्धित अनुच्छेदों में सुधार कर सुधरे हुए डीड की प्रति शीघ्र भेजें ताकि समाज में एक अरसे से ट्रस्ट के प्रति चली आ रही भ्रान्ति एक दम दूर हो जाए। (सुभाष जैन)
महासचिव
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दिगम्बर आगम रक्षा-प्रसंग
वीर सेवा मन्दिर को प्राप्त कुछ पत्र ( १ ) अकलंक जैसे महान आचार्यों ने तस्वार्थसूत्र की टीका करते हुए एक-एक अक्षर और मात्रा पर विचार करके यह साबित किया है कि इस सूत्र मे यह मात्रा होनी जरूरी है। एक-एक मात्रा पर विचार किया और पूर्वाचाय की रचना को प्रामाणिक साबित किया ।
पण्डितवर टोडरमल जी ने गोम्मटसार की टीका करते हुए जगह-जगह पर यह लिखा है कि- ' इसका अर्थ हमारी समझ मे खुलासा नही हुआ है।" परन्तु मूल ग्रन्थो को बदली करने का काम तो आज तक किसी ने नहीं किया, जो आज हो रहा है। क्या कुन्दकुन्द भारती की स्थापना इन्हीं कामों के लिए की गई है- जो विद्वान और समाज ऐसे कार्यों में सहयोग दे रहे है, उनको सोचना चाहिए। पैसा ही सब कुछ अतः वीर सेवा मन्दिर को आगे आना चाहिए और आगम की रक्षा करना चाहिए।
नहीं है।
जिनागम की प्रमाणता इसी बात पर रही है कि कामयों ने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा, जो गुरु-परम्परा से मिला उसी का वर्णन किया है।
षट्खण्डागम की रचना आचार्य पुष्पदन्त भूतबली ने की उसकी टीका महान् समर्थ आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने की। उन्होंने भी कही किसी विषय मे मतभेद मिला तो यही लिखा है कि हमें तो दोनो ही बात प्रमाण हैं; परन्तु किसी विषय मे फेर फार नही किया ।
'संजय' शब्द को लेकर इस काल मे महान् आचार्य शान्तिसागर जी के समय मे विवाद चला और एक शब्द को बदली करने पर समस्त समाज ने विरोध किया ।
इसी प्रकार क्षीरसागर नाम के मुनि के तत्वार्थसूत्र और धवलादि मे गलती निकालने की कोशिश की। समाज मे उनका वहिष्कार कर दिया कि इनको मुनि न माना जाय ।
जो प्राचीन आचार्यों की बनाई हुई गाथा है, उसमे चाहे मात्रा ज्यादा कम हो, अथवा शौरसेनी हो, चाहे अन्य प्राकृत हो, किसी को कलम चलाने का कोई हक नही है । ग्रन्थ को भाषा शुद्ध है । अगर हमने किसी बहाने भी कलम चलानी चालू कर दी तो कलम चलती ही चलेगी और मूल ग्रन्थों का लोप हो जायगा। किसी को कुछ भी लिखना है वह अलग से लिखे, मूल गाथाओं को बदली करना सरासर आगम की हत्या करना है ।
अभी कुछ वर्षों से भगवान कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थों की गावाने में कही अक्षर बदले जा रहे हैं, कहीं मात्रा बदली जा रही है और समाज चुप बैठी है। ऐसा लगता है समाज मूच्छित हो गई है उसको जगाना जरूरी है। यह काम वीर सेवा मन्दिर को उठाना चाहिए, जिससे कोई ऐसा दुस्साहस न करे । आगम की रक्षा करना जरूरी है । किसी व्यक्ति विशेष की, आगम की रक्षा के सामने कोई कीमत नही है । अतः वीर सेवा मन्दिर की तरफ से इसका समुचित विशेष होना जरूरी है। श्री बाबूलाल जैन वक्ता
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( २ ) मेरा अभिप्राय
अनेकान्त (वर्ष ४१, कि० १) देखने को मिला मान्य पं० पद्मच द जी शास्त्री इस काल में स्व० मुख्तार सा० का स्थान ले रहे है। ऐसा उनके कार्यों और इस अंक के लेखों से मालूम पड़ता है ।
ग्रन्थों के सम्पादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है । नियम यह है कि जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सम्भव हों उतनी प्राचीन प्रतियां प्राप्त की जाती हैं । उनमें से अध्ययन करके एक प्रति को
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दिगम्बर मागम रक्षा-प्रसंग
पावशे प्रति बनाया जाता है। दूसरी प्रतियों में यदि कोई पाठभेद मिलते हैं तो उन्हें पाद टिप्पण में दिया जाता है। यह एक सर्वमान्य नियम है।
जो विद्वान इस पद्धति का अनुसरण करता है वह सिद्धान्त रक्षा में सफल माना जाता है। जो इस नियम का उल्लंघन करता है, उसकी समाज में भले ही पूछ हो, सिद्धान्त रक्षा में उसकी कोई कीमत नहीं की जा सकती।
सामान्य से नव दो प्रकार के हैं, भेद की अपेक्षा वे सात प्रकार के हैं और अनेक प्रकार के है। देखा जाता है कि किस मय से कहाँ क्या लिखा गया है। उस नय से स्पष्टीकरण करने में कोई बाधा नहीं । उसे अस्वीकार करना यही जिनमार्ग को तिलांजलि देना है।
जब षट्खण्डागम धवला जी की प्रथम पुस्तक का सम्पादन हो रहा था उस समय मैं और स्व. श्री पं. होरा. लाल जी शास्त्री अमरावती से उस भाग के सम्पादन, अनुवाद मे लगे हुए थे। सम्पादन करते हुए सत्प्ररूपणा में ६३ सूत्र में यह अनुभव हुअा कि इसमे 'संजद' पद छूटा हुआ है। यह बात डा० हीरालाल जी के ध्यान मे लाई गई परन्तु समस्या का हल न देख कर पाद टिप्पण मे यह लिखना पड़ा कि 'अत्र सयतपद: त्रुटितः प्रतिभाति'।
इसका जो फल हुआ वह समाज के सामने है। इसलिए मैं सोचता हूं कि जो ग्रन्थ हस्तलिखित प्रतियों में जैसा प्राप्त हो, उराको आधार मानकर उसे वैसा मुद्रित कर देना चाहिए। हमको यह अधिकार नहीं है कि हम उसमें हेर-फेर करें। आप अपने विचार लिख सकते हैं या पाद टिप्पण मे अपना सुझाव दे सकते है। मूल ग्रन्थ बदलवाने का आपको अधिकार नहीं है। इसी तथ्य की ओर मान्य प० जी का समाज के सामने ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न है । उमसे आम्नाय की मर्यादा बनाने में सहायता मिलती है और मूल आगमों की सुरक्षा बनी रहती है ।
वेदो के समान मुल आगम प्राचीन है। वे व्याकरण के नियमों से बधे नहीं हैं। व्याकरण के नियम बाद मे उन ग्रन्थों के आधार पर बनाये जाते है। फिर भी कुछ अश मे कमी रह जाती है, इसलिए व्याकरण के आधार पर संशोधन करना योग्य नहो । जो जैसा पाठ मिले वह रहना चाहिए। मान्य पं० जी का इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने का छोटा-सा प्रयत्न है, उसका सबको और स्वय किमी भी ग्रन्थ सम्पादक को स्वागत करना चाहिए । विज्ञेषु किमधिकम् ।
-पं० फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री
बनारस वाले हस्तिनापुर जनवरी-मार्च ८८ का 'अनेकान्त' त्रैमासिक पत्र मिला। उसमे आपका एक लेख "गम के मूलरूपों में फेर-बदल घातक है" शीर्षक पढने को मिला। उसमें आपने जो कुछ लिखा है वह बहुत उचित और युक्तियत लिखा है। यह समय कलियुग के नाम से विख्यात है, इस कलियुग के प्रभाव से ही मनुष्य की बुद्धि सुधार और सशोधन के नाम पर बिगाड और विनाश की ओर जा रही है। यही कारण है कि आज लोग आगम ग्रन्थो की भाषा के सुधार में लगे हुए है।
परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द जैन भारती के रचयिता आचार्यों में अपनी प्रधानता रखते हैं। बारह वर्ष के भिक्ष के बाद जैनधर्म और जैन साधुओं में जो विकृतियां आई थी उस समय जैन धर्म अनेक सघों में बिखर गया था और अपनी-अपनी बुद्धि तथा सुविधा के अनुसार उन्होंने अपने-अपने पृथक संघ बना लिए। उस समय चतुर्थ काल से चले प्राये मूल सघ की सुरक्षा प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ही की थी। नीतिसार समुच्चय ग्रन्थ में आचार्य इन्दनन्दि ने लिखा है :
भरते पञ्चमे काले नानासङ्घ समा समाकुलम् । वीरस्य शासनं जातं विचित्रा कोल शक्तयः ॥२॥
अर्थ-भरत क्षेत्र में पञ्चम काल में भगवान महावीर का शासन अनेक संघों में बट गया। काल शक्तियां भी बड़ी विचित्र होती हैं।
अलग-अलग बंट जाने वाले संघों के नाम उन्होंने इस प्रकार दिए हैं:
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वर्ष ४१, कि० २
गौ पुच्छिका श्वेतवासा द्राविड़ो वापनायकः । निः पिच्छश्च पते जैनाभासा प्रकीर्तिताः ॥१॥ १ गोच्छक संघ, २ श्वेताम्बर संप ३ द्राविड़ संप ४ यापनीय संघ ५ नि. पिच्छ संघ ।
इन पांचों संघों को आचार्य ने जैनाभास बताया है परन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने मूल जैनधर्म की रक्षा की मीर उस रक्षा की वजह से उनके संघ का नाम मूलसंघ रक्खा गया। आचार्य कुन्दकुन्द ने गिरनार आदि तीर्थ क्षेत्रों पर शामत आदि विभिन्न मतो से शास्त्रार्थ किया एवं मूल जैन धर्म की रक्षा की। जिनका नाम मंगल करने वालों (महावीर, गौतम, कुन्दकुन्द ) मे तीसरे नम्बर पर आता है । क्या उनसे यह आशा की जा सकती है कि उनकी भारती में अनेक भाषा या शब्दों की अशुद्धि है।
आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रभ्य प्रायः प्राकृत भाषा में हैं । प्राकृत भाषा का अर्थ है कुदरती भाषा । बहुत प्राचीन काल में जिस देश मे जो भाषा बोली जाती थी वह उस देश की प्राकृत भाषा थी । एक प्राकृत भाषी देश वाला यदि दूसरे प्राकृत भाषी देश में रहने लगे तो वह उस देश की प्राकृत भाषा सीख लेगा और बोलने लिखने में दोनों भाषाओं का सम्मिलित प्रयोग कर सकता है । आज भी हम देखते हैं कि हम हिन्दी भाषा के साथ कभी-कभी उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा का भी प्रयोग करते हैं। दोनों भाषाओं के मिश्रित प्रयोग में हम उर्दु भाषा के प्रयोग को गलत बता देवें तो यह कहा की बुद्धिमानी है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति भाषण करते हुए कह रहा है कि "आज का इंसान कितना बदल गया है" सुनने वाला कहता है यह गलत क्यों बोलता जा रहा है, सही बोलना चाहिए । "जाज का युगीन पुरुष कितना बदल गया है।" भाषाओं का मिश्रण हो सकता है पर उसका अभिप्राय गलत नही होना चाहिए।
शौरसेनी भाषा मथुरा एवं उसके आसपास के क्षेत्रों की भाषा है। थे, उनका विहार उत्तर दक्षिण सभी ओर था । अतः उन्हें अपने देश की प्राकृत भाषा का ज्ञान था ।
भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि विणुनाचल पर्वत पर खिरी थी। विपुलाचल पर्वत मगध देश में है। अतः भगवान की भाषा को कहा जाता है वह अर्द्धमागधी भाषा थी। इस अर्द्धमागधी भाषा का अर्थ ग्रन्थकारों ने किया है कि आधी भाषा मगध देश की और आधी भाषा अन्य देशों की थी । क्योकि समवशरण में दिव्यध्वनि सुनने वालों में आधी संख्या तो मगध देश के लोगों को यी तथा आधी सख्या अन्य सब देशों के लोगों की थी। इसका अभिप्राय यह है वास्तव में भगवान की वाणी सभी देशों की वाणी थी, परन्तु अधिक संख्या की अपेक्षा उसे अर्धमागधी कहा गया है। व्याकरण शास्शे मे प्राकृत भाषा के मुख्य पाँच भेद किये है, ये सभी भाषाएँ अपनी-अपनी जगह ठीक हैं। यदि इनमे कही शब्दो का मिश्रण आता है तो ठीक है कोई हानि नहीं है। लेकिन अगर हम उसके शब्दों को बदल देते हैं तो ऐतिहासिक दृष्टि से यह बहुत अनुचित है और जिन्होने उन शब्दों का प्रयोग किया उन शब्दों को बदल कर हम उनका अनादर कर रहे हैं।
कुन्दकुन्द मथुरा प्रदेश के रहने वाले नहीं प्राकृत भाषा के साथ अन्य देश को भी
आज हिन्दी पूजा, पाठ, स्तुतियों की भाषाओं का बहुत कुछ मिश्रण है, फिर तो हमे उस मिश्रण को हटा कर अपना शुद्ध शब्द रख देना चाहिए ।
हम हिन्दी का मंगल पाठ बोलते हैं उसमें ऐरावत हाथी के लिए रूपचन्द जी ने लिखा है :
'जोजन लाख गयंद बदन सो निरमये ।
इसकी जगह अगर हम इसका निम्न प्रकार सुधार कर दें तो बुरा है, जैसे
"योजन लाख गजेन्द्र वदन शत निरमयं" क्या इस सुधार को ठीक मान लिया जायगा । यदि ठीक मान लिए तो हिन्दा में भी ऐसे संकड़ों हजारों छन्दों की भाषाएँ हैं जो दूसरे शब्दों मे उसी अभिप्राय की हैं, बदली जा सकती है तथा णमोकार मंत्र को प्राकृत भाषा भी बदली जा सकती है फिर वह अनादि मूल मंत्र नहीं रहेगा। मंत्र की
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दिगम्बर प्रागम रक्षा-प्रसंग
प्रशंसा में एक श्लोक है :- एसो पंच णमोयारो सव्व पावप्पणासणी।
मंगलाणं च सव्वेसि पढम होइ मङ्गल ।। यही प्रशंसा श्वेताम्बर धर्म के शास्त्रों में इस प्रकार की गई है
एसो पच णमोक्कारो सव्व पावप्पणासणं ।
मंगलाणं च सवेसिं पढभं हवह मंगलं ॥ इन श्लोकों को देखकर दिगम्बर लोग भी अपने णमोकार मंत्र में 'मोयारो' शब्द को जगह णमोकारो और 'होइ' की जगह 'हवई' कर ले तो दिगम्बर समाज को कोई एतराज नहीं होना चाहिए क्योंकि अर्थ तो दोनों के समान है पर शब्दों का प्रयोग भिन्न-भिन्न है। लेकिन काई भी दिगम्बर यह मानने को तैयार नहीं है कि अपने णमोकार मंत्र के शब्द बदल देना चाहिए । क्योंकि इससे हमारे दिगम्बर धर्म के इतिहास पर चोट लगती है।
बदलने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में भी बहुत-सी गाथाओं को बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए समयसार का मंगलाचरण लीजिए । मंगलाचरण की गाथा इस प्रकार है :-..
"वदित्तु सव्व सिद्धे धुवमचल मणोवमं गईं पत्ते वोच्छामि समयपाहुड मिणमो सुयकेवली भणियं।" इसमें मिणमो शब्द को बदल कर यो गाथा को सुधारना चाहिए-"वंदित्तु सव्व सिद्धे धुवमचलमणोवमं गई पत्तै वोच्छामि समयपाहुण केवलि सुयकेवली भणिय ।"
अर्थात् 'मिण मो' की जगह केवली शब्द होना चाहिए क्योंकि धर्म का मूल उपदेश तो अहंत केवली का है न कि श्रुत केवली का है।
क्या विद्वान लोग इस परिवर्तन को स्वीकार करेंगे? क्योकि मूल गाथा में यह लिखा है श्रतकेवली द्वारा को हए समयसार को कहूंगा । जबकि वास्तविकता यह है कि श्रुत केवली ने भी अरहंत की वाणी सुनकर ही तो सब कहा है। लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द का अपना अभिप्राय ही दूसरा है। अतः उन्होने केवली शब्द का प्रयोग नही किया. इसलिए मात्र बोलने की भाषा के आधार पर शब्दो को अशुद्ध नही समझना चाहिए। हां अगर उन शब्दो में कोई भाषा की अशुद्धि हो तो हमे उसी भाषा के व्याकरण के अनुसार शब्द शुद्ध करदेना चाहिए । जैसे अगर सौरसेनी भाषा में कोई मागधी प्राकृत भाषा का शब्द प्रयुक्त किया गया है तो हमेमागधी भाषा के ही व्याकरणानुसार उसे ठीक कर देना चाहिए । हिन्दी भाषा मे तो कविता पर के अक्षर और मात्राओं की मर्यादा को लेकर अणुद्ध शब्द भी रखने पड़ते हैं । जैसे आठ को अठ, दृष्टि को दिठ, गोस्वामी को गुसाईं। अतः ग्रन्थकर्ता और रचना, रचनाकाल, परिस्थिति आदि सभी बातो को ध्यान रखना चाहिए । भाषाओं में संस्कृत भाषा ही एक ऐसी है जो सभी क्षेत्रो में एक जैसी है। क्योंकि उस भाषा का सस्कार किया गया है। संस्कार करने से ही उसे संस्कृत दहा गया है। प्राकृत भाषा संस्कृत से प्राचीन है विभिन्न देशों मे उस प्राचीन भाषा की विभिन्न स्थिति देखकर उस भाषा मे सस्कार किया गया तो वह संस्कृत हो गई। हमारे प्राचीन आगम ग्रन्थ प्राकृत भाषा में ही है तथा अर्वाचीन संस्कृत में है।
आपने अनेकान्त मे आगम के मूल रूप को लेकर जो कुछ लिखा है वह बहुत अच्छा। हमे कुन्दकुन्द भारती को बदलने से बचाना चाहिए । अन्यथा लोग आगम ग्रन्थ तो दूर रहे वे अनादि मूल मत्र णमोकार मत्र को भी बदल कर रख देंगे।
आपका दूसरा लेख 'क्या कुन्दकुन्द भारती बदलेगी?' वह भी मैं पढ़ चुका हूँ। आगम ग्रन्थों की भाषा रक्षा में आप संलग्न हैं इसके लिए आपको धन्यवाद है।
आपका: (4०) लाल बहादुर शास्त्री
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आर्ष-भाषा को खण्डित न किया जाय
सर्व विदित है कि वेदों की भाषा आर्ष-भाषा है और उसमें संस्कृत व्याकरण के प्रचलित नियम लागू नही होते । पाणिनीय जैसे वैयाकरण को भी वेदो के मूल शब्दों की सिद्धि के लिए वेद - भाषा के अनुसार ही पृथक् से स्वरवैदिकी प्रक्रियाओं की रचना करनी पड़ी और यास्काचार्य को वेदविहित शब्दों की सिद्धि और अर्थ समझाने के लिए अलग से तदनुरूप निरुक्त ( निघण्टु) रचना पडा ।
वेदों की भाति दिगम्बर प्राचीन अगम भी आर्ष है और उनकी रचना व्याकरण से शताब्दियों पूर्व हुई हैउनमें परवर्ती व्याकरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती । आ मे प्राकृत भाषा सम्बन्धी अनेक रूप पाए जाना भी इसकी साक्षी हैं। और दिगम्बरो की आषं भाषा का नाम ही जैन शौरसेनी है ।
प्राकृत व्याकरण के रचयिता आचार्य हेमचन्द्र जी १२वीं शताब्दी के महान् प्रामाणिक विद्वान् थे श्रीर आर्ष का निर्माण उनसे शताब्दियों पूर्व हो चुका था और हेमचन्द्रादि ने उपलब्ध रचनाओं के आधार पर बहुत बाद मे व्याकरण की रचना की । हैमचन्द्र ने 'शब्दानुशासन' मे दो सूत्र दिए है - 'आम्' और 'बहुलम्' । उनका आशय है कि आर्ष प्राकृत में व्याकरण की अपेक्षा नही होती उसमे प्राकृत भाषा के सभी रूप 'बहुलम्' सूत्र के अनुसार पाए जाते हैं और बहुलम् का अर्थ - 'क्वचित्प्रवृत्ति, क्वचिदप्रवृत्ति क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । - कही नियम लागू होता है कही ला नही होता, कही अन्य का अन्यरूप होता है ।
स्व० डा० नेमिचन्द्र, आरा ने प्राकृत को दो विभागो में विभक्त किया गया माना है। वे लिखते है
'हैम ने प्राकृत और आर्ष-प्राकृत ये दो भेद प्राकृत के किए है। जो प्राकृत अधिक प्राचीन है उसे 'आर्ष' कहा गया है ।' -आ० हैम० प्राकृत शब्दानु० पृ० १३४
श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
इसके सिवाय त्रिविक्रम द्वारा रचित 'प्राकृत शब्दानुशासन' के Introduction मे पृ० ३२ पर लिखा है"Trivikram also makes reference to ARSHA But he says that ARSHA and DESYA are rudha (रूढ़ ) forms of the language, they are quite independent; and hence, do not stand in need of grammer. " इसी में पृ० १८ पर लिखा है - 'The sutra 'बहुनम्' occurrings in both Trivikram and Hemchandra, which n eans. 'क्वचित्प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्ति क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव, and Hemchandra's statement 'आर्षे तु सर्वे विधयो विकल्पन्ते । ' - आगम मे सभी विधियां विकल्प्य है ।
उक्त स्थिति मे जब कि आचार्य हैमचन्द्र के 'बहुलम्' और 'आम्' सूत्र हमारे समझ हो और हमें बोध दे रहे हो कि -- आर्ष- आगम ग्रन्थ सदा व्याकरण निरपेक्ष और है प्राकृत व्याकरण के नियम अन्यत्र ग्रन्धो में भी क्वचित् प्रवृत्त व क्वचित् प्रप्रवृत्त होते है तथा क्वचित् शब्दरूप अन्य के अन्य ही होते है। इस बात को स्पष्ट समझ लिया जाय कि आगम आर्ष है और आर्ष-भाषा बन्धनमुक्त है । और जैन शौरसेनी का यही रूप है । दि० आगमो की भाषा यही है इसमे किसी एक जातीय प्राकृत व्याकरण से सिद्ध शब्द नहीं होते । जब कि शौरसेनी इससे सर्वथा भिन्न और बन्धनयुक्त है। ऐसी दशा मे आर्ष को व्याकरण की दुहाई देकर उसे किसी एक जातीय व्याकरण में बांधने का प्रयत्न करना या निम्न सन्देश देना कहाँ तक उपयुक्त है ? इसे पाठक विचारें ।
"उपलब्ध सभी मुद्रित प्रतियों का हमने भाषा शास्त्र, प्राकृत व्याकरण और छन्द शास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्म अवलोकन किया है। हमे ऐसा लगा कि उन प्रतियो मे परस्पर तो अन्तर है ही, भाषा शास्त्र आदि की दृष्टि से भी
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आर्ष-भाषा को खण्डित न किया जाय
त्रुटियों की बहुलता है। अधिकांश कमियां जन शौरसेनी 'ध' हो जाने का भी नियम है-देखें सूत्र 'यो ध:'भाषा के रूप को न समझने का परिणाम है। प्राकृत प्राकृत सर्वस्व ३१२१४. यद्यपि शब्दानुशासन में ऐसा व्याकरण और छन्द शास्त्र के नियमो का ध्यान न रखने नही है । के कारण भी अनेक भलें हुई जान पड़ती है।"
यदि शौरसेनी और जैन-शौरसेनी में भेद न किया -मुन्नुडि० पृ० १२ (समयसार कुदकुद भारती प्रकाशन) जायगा और आगमो के क्रियारूपो होदि, हवदि की भांति
यदि उक्त सस्करण के प्रकाशकों, मयोजकों का आर्ष- अन्य सभी रूप भी ठेठ शौरसेनी में किए जायेंगे तो भाषा और कथित जैन-शौरसेनी के स्वरूपो पर तनिक भी 'तम्हा के स्थान में ता', तहा के स्थान पर तधा' तुज्झ के लक्ष्य रहा होता तो वे न तो उक्त बात लिखते और न स्थान पर ते-दे तुम्ह', मज्झ के स्थान पर मे-मम', जहा ही ममयसार के वर्तमान कालिक क्रिया-रूपो और अन्य के स्थान पर जधा' चेव के स्थान पर ज्जेव' आदि भी शब्दरूपो में परिवतन कर उन्हे मात्र शोरसेनी के रूप करने पड़ेगे---- जबकि आगमों में तम्हा, तहा तुज्झ, मज्झ, बना देते । सयाजको का यह केा भयानक साहा है कि जहा और चेव आदि जैसे सभी रूप मिलते हैं। उन्होने पूरे ग्रन्थ में कहीं भी होइ, हवइ, हवेइ का नाम इसी भांति आगमो में अन्य अनेक शब्दों के विभिन्न निशान नहीं छोडा-जब कि पूरे जैन आगमो मे उक्त रूपों के और भी अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं, जिन्हें रूप बहतायत से पाए जाते है। क्या सगोजक को इष्ट है शौरसेनी के नियमो मे बदला जा सकेगा। जैसे आगम मे कि धवला आदि से भी उक्त स्गो का बहिष्कार करके 'भरत' के लिए कई जगह 'भरह' शब्द आया है, जो महाउनके स्थान पर सयोजको द्वारा निर्धारित होदि, हवदि, राष्ट्रो का है, देखे-'भरहक्खेतम्मि, भरहम्मि-(ति. हबेदि कर दिए जाय और पूरे आगमो को अशुद्ध मान कर प०४/१०० व ४/१०२) इसे शौरसेनी मे भरधक्खेत्तम्मि बदला जाय ? णमोकार मत्र-माहात्म्य को ही लीजिए ? और भर धम्मि करना पड़ेगा क्योकि शौरसेनी मे त को क्या उसमे भी 'होइ या हवइ मगलं' की जगह 'होदि या ध होने का नियम है-'भरते धस्तस्य'-प्रा०स० ६/२५. हवदि मगल' कर दिया जाय ? लोए को लोगे कर णमो- इसी प्रकार आगम में रस्न के लिए रयण शब्द है जो कार मत्र के बदलने का मार्ग तो वे खोल ही चके है। महाराष्ट्री का है—रयणप्पह, (ति०प० २/१६८); रयणक्या, श्रद्धालु चाहते है कि----जो अब ‘णमो लोए सव्व- मया (३/१३५), रयणस्थभा (३/१३८) यहाँ शौरसेनी के साहूणं है वह णमो लोगे सबसाहूण' हो जाय-मूल मंत्र अनुसार 'य' की जगह 'द' होकर-'रदण' हो जायगा। बदल जाए? यह तो मूल का घात ही होगा। हम पूछते (देखें पिशल पैरा १३१) आदि । फलत:हैं कि क्या ? समयसार की गाथा ३ और ३२३ मे 'लोए' हमारा कथन है कि आगमों में (समयसार में भी) गलत था जो उसे लोगे करने की जरूरत पड़ गई। सभी रूप मिलते है और जैन-शौरसेनी में सभी समाहित हैं। हमारी ही नहीं, प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से भी लोए, समयसार मे जिनरूपों को शुद्धि के नाम पर बदला गया लोगे और लोक के लिए लोगो, लोय, लोओ आदि सभी है-जैन-शौरसेनी की दृष्टि से वे सभी ठीक थे। संशोरूप आगमो में प्रयुक्त हैं तब किसी जगह के परम्परित धकों ने शौरसेनी को जैन-शौरसेनी समझ लिया यही शुद्ध रूप की जगह दूसरा शब्दरूप बिठाने की क्या आव- उनका भ्रम था। हमें आश्चर्य है कि उन्होंने सभी शब्द श्यकता थी? यदि संयोजक आगमो मे इसी भाति शोर- शौरसेनी मे क्यों न किए ? खैर, गनीमत है कि उनकी सेनी की भरमार करने लगे तो 'पढम' के स्थान पर मुख्य दृष्टि अपने अभीष्ट शब्दों तक ही सीमित रही, 'पधम' होते देर न लगेगी। क्योंकि शोरसेनी मे 'थ' को
(शेष पृ० १४ पर)
१. तस्मात्ता, २. थोधः, ३. तेदे तुम्हा सा, ४. न मज्झ ङसा, ५. थोधः, ६. एवार्थे ज्जेव स्यात्-सभी (प्राकृत सर्वस्व)।
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श्री कुन्दकुन्द का विदेह गमन
- श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी
ला
इस वक्त कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि महोत्सव का प्रारम्भ यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि ले जाने वाले है यह हमारे लिए अत्यन्त सौभाग्य की बात है । शिला- क्या अपने कन्धों पर बिठाकर ले गए ? आकाश मार्ग में लेखों ( सौ वर्ष) टीकाओं (८ सौ वर्ष) कथा ग्रन्थों कैसे ले गए ? महाव्रती साधु न तो किसी को बैठा सकते (५-६ सौ वर्ष) में आ० कुन्द कुन्द के चारण ऋद्धि होने हैं और न कोई महामुनि किसी के कन्धे पर बैठ कर कहीं और विदेह गगन के उल्लेख पाये जाते हैं । ये युक्ति और जा सकता है तब कैसे ले गए ? और फिर ये दोनों आगम से कहां तक ठीक हैं आज उन पर विचार किया चारषि पहुंचाने को भी आए गए क्या ? १-"तिलोय जाता है ताकि वास्तविकता का ज्ञान हो सके :- पण त्ती" अधिकार ४ (भाग २ सम्पादिका विशुद्धमति जी) चारण ऋद्धिधारी मुनि तो एकल नहीं होते ज्यादा
में बताया है कितर युगल ही होते हैं जैसा कि सारे कथा ग्रन्थों में जहाँ
अत्तो चारण मुगिगणो, देवा विज्जाहरा य णायान्ति । भी चारण मुनियों के उल्लेख है प्रायः दो मुनिराज ही (इस पचम काल मे यहा चारण ऋद्धिधारी मुनि, युगल रूप से विहार करते बताए गये है (देखो-मुनि देव और विद्याधर नहीं आते। सुव्रत काव्य में देशभूषण कुलभूषण (इनके जन्म, दीक्षा, २-'परमात्म प्रकाश' पृ० २५६ (अ० २ दोहा १३६ कैवल्य, निर्धारण साथ-साथ हुए है) महावीर काल मे सजय को ब्रह्मदेव कृत ठीका) में लिखा है : विजय) क्योकि एकल बिहारी होना मुति के लिए मूला- देवागम परीहीणे, कालेऽतिशय वजिते । चार और भगवती आराधना में महान दोषास्पद बताया केवलोत्पत्ति होनेतु, हल चक्रधरोज्झिते ।। है। अगर कुन्द कुन्द के चारण थी तो दूसरे साथी मुनि (इस पचम काल में यहा देवताओं का आगमन नही कौन थे ? चारण ऋद्धिधारी तो सदा चारण ऋद्धिधारी होता, कोई अतिशय नहीं होता किसी को केवलज्ञान नही मुनियों के साथ ही रहते है अन्य के साथ नहीं जबकि होता, बलदेव चक्री आदि शलाका पुरुष नहीं होते)। आचार्य कुन्द कुन्द के संघ मे अन्य किसी भी मुनि के 'किसा भा मुनि के ३.-"पुण्याश्रव कथाकोश" पृष्ठ २२४ में लिखा है :
. चारण ऋद्धि होने की बात नहीं बताई गई है। अतः आगच्छतो विमानस्य व्याघुटन अदय प्रभत्यत्र सुर चारकन्दकन्दाचार्य को चारण ऋद्धि बताना युक्तियुक्त नही, णादीनां आगमनाभावं व ते ॥३॥ (आते हुए विमान का असंगत है।
लोटना यह बताता है कि-आज से यहां देव और चारण अभी डा० हुकमचन्द जी भारिल्ल कृत "आ० कुन्द ऋषियों का आगमन नही होगा। (चन्द्रगुप्त के सोलह कन्द और उनके पंच परमागम' ग्रंथ जयपूर से प्रकाशित स्वप्नों का फल)। हुआ है उससे एक वर्ष पूर्व उनकी सुपुत्री का "आ० कुन्द ४-भद्र बाहु चरित (भ० रत्ननंदि कृत १७ वीं कन्दः एक अध्ययन" प्रकाशित हुआ है दोनों में "ज्ञान शती) परिच्छेद २ में लिखा है: प्रबोध" की कथानुसार लिखा है :
व्याघुट्यमानं गीर्वाण विमान वीक्षितं ततः । "मीमंधर स्वामी की समवशरण सभा में कुन्द कुन्द कालेऽस्मिन्नागमिष्यन्ति, सुर खेचर चारणाः ॥३६॥ के पूर्व भव के दो मित्र चारण ऋद्धिधारी मुनिराजा उप- (इस विषम काल में देव, विद्याधर और चारण मुनि स्थित थे वे आ० कुन्द कुन्द को विदेह ले गए।" नही आयेंगे, यह स्वप्न में जो सम्राट् चन्द्र गुप्त ने लौटता
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श्री कुन्दकुन्द का विवेह गमन
ही लिखी
६-प्रमाकि -"
हुआ देव विमान देखा है उसका फल है ।)
की बात नहीं लिखी है। क्योकि यह सब युक्तयुक्त्यागम ५-भद्र बाहु चरित (किशन सिंह जी पाटणी कृत विरुद्ध है जैसाकि ऊपर दिए ६-प्रमाणादि से सिद्ध है। १७८३ सं०)
मेरे ख्याल से कुछ ऐसा हो सकता है कि-"स्वप्न में जात अपूठा देव विमान, इस स्वप्ना को येह बखान । कुन्दकुन्द को सीमंधर प्रभु के दर्शन हुए हों और उनसे वे सुर खेचर चारण मुनि जोय, पंचमकाल न आवे कोय ॥ विबोध को प्राप्त हुए हो।" धीरे-धीरे परम्परागति से
६. प्रति बोध चिन्तामणि (काष्ठासंघी श्री भषण यही कल्पना और जनश्रुति विदेह गमन चारण ऋद्धि के विजय सूरि १६३६ सं०) में लिखा है :-पंचम काल मे रूप मे प्रस्फुटित हुई हो। उत्पन्न पुरुष विदेह मे नही जा सकता।
तत्वार्थ सूत्र के कर्ता उमा स्वामी और सर्वार्थसिद्धि ___तब कुन्द कुन्द का सदेह विदेह गमन कैसे सगत हो टीकाकार पूज्यपाद दोनों के भी, शिलालेखादि में चारण सकता है। तटस्थ होकर विद्वानों को विचार करना ऋद्धि और बिदेह गमन बनाए हैं। जैसे लोक में England चाहिए। कुन्दकुन्द को दो हजार वर्ष हो गए १२ सौ Returned-विदेश जाकर आए हुए को विशेष महत्व वर्ष तक तो किसी ने उनके विदेह गमन और चारण ऋद्धि दिया जाता है शायद उसी शैली मे इन आचार्यों के साथ को बात कही की नहीं उनके टीकाकार आ० अमृतचद्र ने विदेह-गमन की बात जोड़ी गई है। किन्तु गलत बातों से भी इस विषय का कही कोई संकेत तक नहीं नहीं दिया। किसी का गौरव और महत्ता नही बढती । गरिमा तो न स्वय कुन्दकन्द ने कही कोई उल्लेख किया है। एका- सदा गुणों और प्रामाणिकता की ही होती है। मान्य तो एक आठ सौ वर्षों के शिला लेखों से ऐसी बातें बिना वे ही है अन्ध श्रद्धादि नहीं । अपनो की झठी प्रशंसा आधार के उत्कोर्ण होना आश्चर्यजनक है। उत्कीर्ण करने करना और दूसरो की गलत निन्दा करना दोनो मिथ्या वालों की प्रामाणिकता का भी कोई नाम पता नही। है। भले ही विनय और कषायादि सही सोचने की हमारी आज तक किसी विद्वान ने इस पर गम्भीरता से विशेष शक्ति को कुण्ठित कर दें परन्तुविचार ही नहीं किया । भारिल्ल साहिब तो महान
सचाई छिप नही सकती बनावट के उसूलों से । ताकिक प्रतिभाशाली मनीषी विद्वान है वे कैसे गतानु- खुशबू आ नही सकती कभी कागज के फूलों से ॥ गतिक बन गये ? आश्चर्य है।
"मूलाचार" प्रस्तावना पृष्ठ १० मे श्री जिनदास __ कुन्दकुन्द प्राभूत संग्रह (सन् १९६० पण्डित कैलाश
पार्श्वनाथ जी फड़कुले लिखते है-भद्रबाहु चरित में चन्द जी शास्त्रीकृत) की विशाल प्रस्तावना मे (जिसका
स्वप्नफल के रूप मे जो पचमकाल मे चारण ऋद्धि आदि अनुसरण जयपुर के उक्त प्रकाशनो में थोड़ा बहुत है)
निषेध किया है, श्री कुन्दकुन्द के विषय में उसका समा. कुन्दकुन्द के विदेह गमन और चारण ऋद्धि पर विस्तृत
धान यो समझना चाहिए कि-"वह सामान्य कथन है। विचार करते हुए अन्त में लिखा है-"तथापि इन्हें अभी
पचम काल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। पंचमकाल ऐतिहासिक तथ्य के रूप मे स्वीकार नहीं किया जा
के प्रारम्भ मे ऋद्धि का अभाव नहीं है परन्तु आगे उसका सकता, उनके लिए अभी और भी अनुसन्धान की आव
अभाव है ऐसा समझना चाहिए। यह कथन प्रायिक व श्यकता है।" इसी से प्रेरित होकर वर्षों से मैं, श्रद्धातिरेक
___ अपवाद रूप है। इस सम्बन्ध मे हमारा कोई आग्रह से कुन्दकुन्द के साथ जुड़ी ऐसी अनेक घटनाओं का
नही है।" युक्त्यागम पूर्वक अध्ययन कर रहा हूं उसी का परिणाम यह और आगे के लेख है । दर्शनसार गाथा ४३ मे सिर्फ
समीक्षा यह लिखा है कि-"सीमंधर स्वामी के दिव्य ज्ञान द्वारा महापुराण पर्व ४१ श्लोक ६१ से ८० में भरत चक्री कन्दकन्द विवोध नहीं देते तो श्रमण सुमार्ग को कैसे को आये सोलह स्वप्नो का फल ऋषभ प्रभ ने यह बताया जानते ?" वहां कहीं भी चारण ऋद्धि और विदेह गमन कि
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१४, वर्ष ४१, कि०२
अनेकान्त प्रांसु धूसर रत्नीष निध्यानाद् ऋद्धि सत्तमाः। मे पैदा होने वाले कभी प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी नहीं हो नैव प्रादुर्भविष्यंति मुनयः पचमे युगे ॥७३॥ सकते । इसी तरह पचम काल में उत्पन्न कोई मुनि कभी
ऋधिधारी नहीं हो सकते। जैन नियम त्रिकालाबाधित धूल से मनिन रत्नराशि देखने का फल यह है कि -
है किसी की लिहाज नहीं करते । लिहाज मानने लगेगे पंचम काल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नही होगे ।) तोसिद्ध जीव भी कभी न कभी ससार मे आने लगेगे
इसमे और ऊपर जो छ: प्रमाण दे आए है उनमें किन्तु ऐसा अनन्त कल्पकाल बीतने पर भी नहीं होने कही भी पंचमकाल में ऋद्धि निषेध के कथन को न तो वाला । नियम नियम हैं घर का राज नही । फड़कुले जी सामान्य बताया है न प्रायिक (अधिकाश रूप) न आप- सा० लिखते है---"पचम काल मे ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त वादिक । फडकुले जी ने अपने मन से ही यह सब लिख दुर्लभ है ।" समीक्षा-पूर्वकाल मे भी ऋद्धिया तो सर्व दिया है इसी से आगे उन्हे लिखना पड़ा है कि--इस सुलभ नहीं थी दुर्लभ ही थी। इस काल में तो दुर्लभ क्या सम्बन्ध में हमारा कोई आग्रह नहीं है । अगर इस तरह अत्यन्न असम्भव है। इसी से महापुराण में "एव" लगा नियमो और सिद्धांतों को सामान्य करने लगेगे तो फिर कर निषेध किया हैं। तो स्वप्न फलों मे जो इम काल मे अवधि-मनः पर्याय विदेह भारत से अत्यन्त दूर है वहां की भाषा, रहनऔर केवल ज्ञान का भी निषेध किया है वह भी किन्ही
या ह वह भा किन्हा सहन, जल-वायु, भोजन-पान, आयु, शरीराकार आदि को होने लगेगा किन्तु ऐसा नहीं ये तीनो प्रत्यक्ष ज्ञान आदि सब यहा से भिन्न है तब कथानुसार कुन्दकुन्द वहां इस काल में किसी को नहीं होते। यहा यह शका नही ७ दिन तक कैसे रहे ? और भी कथादि मे दिया कुन्दकुंद करना चाहिए कि फिर पचम काल में गौतम, सुधर्मा, का जीवन-चरित्र कितना कल्पित, असगत तथा अयुक्त है जम्बू ये ३ केवली और श्रीधरादि अननुबद्ध केवली कैसे आगे क्रमश: उसकी समीक्षा को जाएगी। इसके सिवा, हए ? समाधान-ये सब चतुर्थ काल के अन्त में पैदा हुए स्त्री मुक्ति की तरह शूद्र मुक्ति का भी कुन्दकुन्द स्पामी ये और पवम काल के आदि में मुक्त हो गए । पचमकाल ने निषेध किया है यह उनके ग्रथो से स्पष्ट किया जाएगा।
(पृष्ठ ११ का शेषांश) अन्यथा पूरा आगम ही अशत: के स्थान पर पूर्णतः विलुप्त एक जातीय प्राकृत भाषा के हैं, हम तब भी नही मानेंगे। हो जाता। हम नहीं चाहते कि बाद में कभी नारा लगने हमारी दष्टि से तो वे उसी जैन-शौरसेनी के हैं जिसमें को सम्भावना बने कि कभी कोई अमुक महान् हुए जिन्होने सभी रूप समाहित होते है और यही आर्ष-भाषा का आगम या कुन्दकुन्द को ठीक किया--भले ही वर्तमान स्वरूप है इसे बदल कर शुद्ध करने के गीत गाना मिथ्या में कुन्दकुन्द की जय बोल-बुलवाकर यह सब बदलाव है। किया जा रहा हो।
समय ऐसा आ गया है कि अब अर्थ-दाता दानी को जब कोई किसी की प्रशंसा करता हो, उसे बढ़ाता भी सोचकर सावधान होना होगा कि उसका द्रव्य आगमहो, तब हमे हर्ष होता है : पर, जब कोई व्यक्ति अति- वंस में लग, कही प्रश्न तो नही पूछ रहा-कि क्या तेरी शयोक्तियों में पूर्वाचार्यो-विद्वानो को पीछे धकेल झूठी कमाई न्याय नीति की थी? क्योंकि अन्यायोपाजित द्रव्य ठकुरसुहाती करता हो तब हमे कष्ट होता है। ऐसा एक कभी सत्कार्य में नही लगता-ऐसा सुना गया है। लोगों ही क्यों; यदि मिलकर सभी विद्वान भी कहें कि मूल को इन बातों पर पूरा ध्यान देना चाहिए । आगम गलत है और वे बदले जा सकते है--या वे किसी
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राजस्थानी कवि ब्रह्मदेव के तीन ऐतिहासिक पद
ब्रह्मदेव १८वी शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे । राजस्थानी एवं विशेषतः ढूढारी भाषा में अपने पदों की रचना करके उन्होंने एक कीर्तिमान स्थापित किया था। वे सम्भवतः जयपुर अथवा इसके समीपस्थ किसी ग्राम के निवासी थे। उनके अब तक सैकड़ों पद प्राप्त हो चुके है । ७० से भी अधिक पद तो हमारे सग्रह में हैं। लेकिन पद साहित्य के अतिरिक्त इनकी कोई बड़ी रचना अभी तक प्राप्त नही हो सकी है। इसलिए कवि का विशेष परिचय भी कही उपलब्ध नही होता। फिर भी इनके पदों के लिपि काल के आधार पर कवि का समय सवत् २५०० से १८६० तक का माना जा सकता है ।
राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारो मे ब्रह्मदेव की जो रचनाएँ उपलब्ध हुई है वे सभी गुटकों मे संग्रहीत है । कवि निबद्ध भक्तिमय पदों के अतिरिक्त सास बहू का झगड़ा, शिखर विलास आदि लघु रचनाएं भी पदो के रूप में मिलती है । लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण कवि द्वारा निबद्ध तीन ऐतिहासिक पद है जो केशोरायपाटन के मुनि सुव्रत नाथ, राजोरगढ़ के नो गजा भगवान एव चदन गाव के महावीर स्वामी की भक्ति मे लिखे गए है । जैन कवियों ने हिन्दी मे हजारो पद तो अवश्य लिखे है लेकिन तीयों, अतिशय क्षेत्रों एवं अन्य मन्दिरों के बारे में बहुत कम लिखा है । मैंने कुछ समय पूर्व "जैन हिन्दी कवियो की महावीर यात्रा" लेख मे कुछ कवियों द्वारा निबद्ध चदन गांव के भगवान महावीर की भक्तिपूर्ण पदों पर प्रकाश डाला था उसमे देवाब्रह्म द्वारा निबद्ध एक पद था । उक्त पद सहित ब्रह्मदेव के तीन ऐतिहासिक पद हो गए हैं, जिनको लेकर प्रस्तुत लेख में प्रकाश डाला जा रहा है
मुनिसुव्रतनाथ का पद
कवि का प्रथम पद राजस्थान का प्राचीन जैन तीर्थं केशोरायपाटन स्थित भगवान मुनि सुव्रतनाथ के स्तवन
D डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
मे लिखा गया है । यद्यपि केशोराय पाठन पर मेरी एक पुस्तक सन् १९८५ में प्रकाशित हो चुकी है लेकिन उस समय तक प्रस्तुत पद प्राप्त नही हुआ था इसलिए पुस्तक मे उसका उल्लेख नही किया जा सका । अभी मैं दिनांक २७ मार्च को झालावाड़ का जब शास्त्र भण्डार देख रहा था तो उन समय एक गुटके में लिपिबद्ध यह पद अथवा विनती मिली है । कवि ने लिखा है कि हाडौती प्रदेश के चम्बल नदी के तट पर स्थित पाटनपुर नगर है। इस नगर के मन्दिर में भगवान मुनि सुव्रतनाथ की श्यामवरण सुन्दर प्रतिमा है जो पद्मासन है । जिनके दर्शनार्थ देशविदेश के विभिन्न यात्रीगण प्राते है। अष्ट द्रव्य से भगवान की पूजा करते है । कार्तिक सुदी १४ के शुभ दिन यहां मेला लगता है जिसमे बड़ी संख्या मे दर्शनार्थी एकत्रित होते है। पूरा पद निम्न प्रकार है-मुनि सुव्रत जो की विनती ढाल
मुनि सुव्रत जी पूजा मन वांछित दातार । मुनि० । जम्बू डीप की बीच जी गेर सुदरमण थाये ।
भरत क्षेत्र दक्षिण दिशा हाडोती देश कहाये ॥ मुनि १|| चामला नदी तट उपरे पाटण पूर सार ।
नगर वीच मन्दिर बण्यो सोमा अधिकार ||मुनि० २ || स्थामवरण सुन्दर सदा, पद्मासण धार ।
राजे चहेरा में सदा, अति से अधिकार ॥ मुनि० ३॥ देस देस का जातरी, आवे बारम्बार । आठ दव्य पूजा रचे; ध्यावे नवकार ||मुनि ४ || कार्तिक सुदी मेलो जुडे, चौदस दीन सार । नर नारी आवे घणा, गावे गुण सार० ॥ मुनि० ५|| सुरंग मुकत कोपंथ जी, उपदेस कराये । ज्यों सेवक आसा करे, पूर हीतकार ||मुनि० ६ आठ करम बेरी घणे; त्रिजग ज्ञास सुपार । देवा ब्रह्म वीनती करे, आवागमन नीवार ।। मुनि० ७॥ मुनि सुव्रत पूजस्यां मन वांछित दातार ।
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१६, वर्ष ४१, कि०२
अनेकान्त
उक्त पद में कवि ने केशोराय पाटन के स्थान पर स्तुति में लिखा गया है । यद्यपि ब्रह्मदेव के पूर्व भी जैन पाटण नाम का ही उल्लेख किया है जो उसके प्राचीन
___कवियों ने चांदन गांव के महावीर के सम्बन्ध में पद लिखे नाम की ओर संकेत है। केशोराय पाटन स्थित भगवान
हैं लेकिन प्रस्तुत पद विस्तृत है जो २० लघु अन्तरों में मुनि सुव्रत नाथ का मन्दिर राजस्थान के प्राचीनतम पूरा होता है । इसमें गाय चरने, गाय के स्तनों से दूध मन्दिरों में से है जिसकी अतिशय क्षेत्र के रूप में सर्वत्र
वर्षा होने, गाय के मालिक द्वारा उक्त घटना देख कर प्रसिद्धि है।
नगर मे जाकर वृत्तांत कहना, चौबीसवां तीर्थकर की
प्रतिमा होने का शब्द होना; पाँचों द्वारा एकत्रित होकर मो गजा पर
जमीन खोद कर मूर्ति का प्रकट कराना. देश के यात्रियों कवि का दूसरा ऐतिहासिक पद राजस्थान के अलवर
का दर्शनार्थ आने लगना, महावीर भगवान को शहर में जिले में राजोरगढ़ स्थित नो गजा नाम से प्रसिद्ध भगवान
विराजमान करने का विचार करके बैलगाढ़ी मे विराजमान पार्श्वनाथ की मूर्ति के स्तवन में लिखा गया है । पद मे
करना, बैल पाड़ी का नहीं चल सकना, स्वप्न आना, चैत्र नो गजा बिम्ब के सम्बन्ध में लिखा गया है कि वह गेहूं
शुक्ला पूर्णिमा का मेला भरना; वही पर भगवान का वरणी है जो राजपुर अथवा राजोरगढ जो वन मे पर्वत
मन्दिर बनवाना, दर्शनार्थियो का लगातार आते रहना पर गढ़ बना हुआ है उसी में वह मूर्ति विराजमान है।
आदि का वर्णन किया गया है । पद मे मन्दिर निर्माता घने जंगल के कारण मन्दिर तक पहुंचना कठिन लगता
का नाम नहीं दिया गया है । किस ग्राम के पंच आए थे है। वहाँ कितने ही जैन मन्दिर हैं । अजबगढ़ होकर
इसका भी उल्लेख नही किया गया है। फिर भी पद राजोरगढ़ जाना पड़ता है। स्वय अजबगढ़ भी प्राचीन
महत्त्वपूर्ण है तथा अपने समय में काफी लोकप्रिय रहा है नगर है। नो गजा की यात्रा की जाती थी ऐसा पद में
इसलिए राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत कितने वणित हैं । डॉ कैलाशचद जैन के मतानुसार राजोरगढ ८वीं शताब्दी से लेकर १२वी शताब्दी का नगर है जहा
ही गुटको में मिलता है। पूरा पद निम्न प्रकार हैपहिले बड़ा गूजर राजपूतो का राज्य था।
ढाल-प्रसडौ बधावो म्हारै पाइयो दूसरे पद मे पाँच अन्तरे हैं । पाठको के पठनार्थ पूरा
पूजो श्री महावीर जी पद ही यहां दिया जा रहा है
जीवा चांदण गांव नदी, राग रेखता
जीवा अतिशय अधिक अपार जी पू० १ सरसा उत्री बम्ही प्रतिमा राजोरगढ़ मैं विराजे है। जीवा गाय घणी वन मे चर, नो गजा बिम्ब छाजे है, गेहूं बरण कहा जे है ।१।।
जीवा नदी दरडा माहि जी।पूजो० २। देस है जोध ए नामां, नगर है राजपुर धामा। जीवा एक गऊ सिरदार हो, निकरि परबल बना गढ़ है, मारिग अति कठिन चाले है ।।
जीवा दरडो पूजे आय जी पूजो० ३। जन मन्दर घणा दरसै भव्य जीव आरिण पर है। जीवा दूध धार बरखा कर, पूजे आई द्रव्ध लै चित सै, करम सव भाग ऐ डर से ।३
जीवा ढोकै मस्तक नाय जीपूजो० ४॥ अजब गढ़ थे सबै ध्यावे, प्रभ की जतरा पावै। जीवा गाय घणी इम देखिके, गुरा जुत संग यावे, मंगल पूजा रचा है।४।
जीवा कहो नगर मैं आय जी पूजो० ५। प्रभू जी जी अरज ऐ सुणिये, करम का फद टाल्योगे। जीवा सबद देव का तब हुआ; देवा ब्रह्म वीनती करि है, तुम्हरी भगति मो धोये ॥
अठ चौबीसमा छ जिन राय जी पूजो०६। तीसरा पद पूजो श्री महावीर जी
जीवा पंच सबै भेला हुआ, तीसरा पद चान्दन गांव के भगवान महावीर की
जीवा खोदन लागा जाणो जीपूजो० ७॥
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मध्य-प्रदेश का जैनकेन्द्र सिहोनिया
डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' जैन विद्या संस्थान, महावीर जी मूलपाठ
राजा था। इसने ६५६ ईसवी में ग्वालियर के निकट संवत् १०१३ माधवसुतेन महिन्द्रचन्द्रकेनकभा (खो) सिहोनियों में विपुल द्रव्य व्यय करके एक जैन मन्दिर दिना।
बनवाया था। भूगर्भ से प्राप्त प्रतिमाओं से यह स्पष्ट है प्रथम प्रतिमा लेख:
कि यहाँ का मन्दिर ध्वस्त हो गया और प्रतिमाएं कालापाठ-टिप्पणी
न्तर में भूगर्भ में आवृत हो गई। पं० विजयमूर्ति ने खोदिता' पद को 'प्रतिष्ठिता' का
अभिलेख का महत्व अपभ्रंश बताया है।' दुर्जनपुर से प्राप्त गुप्तकालीन एक प्रस्तुत लेख एक ही पक्ति का होने पर भी बहुत प्रतिमा-लेख में 'कारिता' पद इस अर्थ में व्यवहृत हुआ महत्त्वपूर्ण है। राजा माधव और उनके पुत्र महेन्द्र का है। अतः प्रस्तुत लेख में 'कारिता' पद रहा प्रतीत होता है। नाम इसी लेख से ज्ञात हुआ है। अभिलेखों में कारिता या खोदिता पद प्रतिमा-निर्माण
प्राप्तिस्थल-परिचय के अर्थ में आये हैं। इन पदों के पूर्व प्रतिमाओं के नाम सिहोनिया-ग्वालियर से २४ मील उत्तर की ओर बताये गये हैं । दुर्जनपुर प्रतिमा-लेख मे 'कारिता' पद के तथा कोतवाल से १४ मील उत्तर-पूर्व में आसन नदी के पूर्व प्रतिमा का नाम चन्द्रप्रभ बताया गया है। अतः उत्तरी तट पर स्थित है। यह नगर प्राचीन काल में प्रस्तत लेख में भी 'खोदिता' पद के पहले 'चन्द्रप्रभ' नाम समृद्ध था। कहा जाता है कि यह बारह कोस विस्तृत उत्कीर्ण रहा प्रतीत होता है।
मैदान में बसा था। इसके चार फाटक थे। यहां से एक इस लेख मे दो नाम आये हैं माधव ओर महिन्द्र चन्द्र, कोस दूर बिलोनी ग्राम में दो खम्भे, पश्चिम में एक कोस इनमें पिता का नाम माधव और पुत्र का नाम महिन्द्र- दूर पोरीपुरा ग्राम में एक द्वार अंश, पूर्व में दो कोस दूर चन्द्र बताये जाने से महिन्द्र के साथ सयोजित 'चन्द्र' पद पुरावस ग्राम में तथा दक्षिण में बाढा ग्राम में दरबाजों के चन्द्रप्रभ तीथंकर का प्रतीक ज्ञात होता है।
अवशेष इसके प्रतीक हैं। भावार्थ
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने एक लेख में बताया सवत् १०१३ में माधव के पुत्र महेन्द्र ने चन्द्रप्रम
कि यहां प्राचीनकाल में विभिन्न सम्प्रदायों के मन्दिरों में तीर्थकर की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई।
ग्यारह जैन मन्दिर थे, जिनका निर्माण जैसवाल जैनों ने प्रतिमा-परिचय
कराया था। मुरैना के जैसवाल जैन श्रावकों की समति प्रस्तुत लेख जिस प्रतिमा की आसन पर उत्कीर्ण
को देखकर लगता है कि वे मूलतः सिहोनिया या उसके
निकट बसे ग्रामो के निवासी रहे होंगे। रहा है, वह प्रतिमा सम्प्रति यहाँ के मन्दिर में नहीं है।
कनिधम को विक्रम संवत् १०१३, १०३४ और जो मुख्य तीन प्रतिमाएं हैं, उनकी आसनें भूगर्भ में होने
१४६७ के ये तीन प्रतिमा लेख प्राप्त हुए थे। उन्हें वहाँ से यदि यह लेख उनमें किसी प्रतिमा की आसन पर
पांचवीं-छठी शताब्दी का एक लेख ऐसा भी मिला था जो उत्कीर्ण है, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह लेख किस तीर्थकर-प्रतिमा की आसन पर है।
चौदह पंक्ति में उत्कीर्ण था। यह शिलाखण्ड उन्होंने लंदन व्याख्या
भेज दिया बताया है। इस उल्लेख से नगर की धार्मिक माधव-यह वहाँ का आरम्भिक शासक ज्ञात होता समृद्धि का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। है। इसके पुत्र का नाम महेन्द्र था।
नगर के नामकरण का इतिहास महेन्द्र-यह सिहोनिया के महाराज माधव का पुत्र जनश्रुति है कि ग्वालियर के संस्थापक सूरजसेन के या।डॉ० ज्यतिप्रसाद ने बताया है कि यह अर्ध स्वतन्त्र पूर्वजों ने आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व इस नगर को
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१८, वर्ष ४१, कि० २.
अनेकान्त
रह सके।
बसाया था। कहा जाता है कि राजा सूरजसेन को कुष्ट सुन्दर हस्त-कोशल का परिचायक है। रोग हो गया था जो यहाँ अम्बिका देवी के पार्श्व में स्थित प्रतिमा के हाथों के नीचे चवरधारी सौधर्म और तालाब में स्नान करने से नष्ट हुआ था। इस घटना से वे ईशान इन्द्रों को खड्गासन मुद्रा में अंकित बताया गया बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने अपना नाम शुद्धनपाल है। पीछे भामण्डल भी अंकित है। तथा नगर का नाम सुद्धनपुर या सुधियानपुर रखा था', यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में इनके कत्थई वर्ण के जो कालान्तर में सुहानिया या 'सिहोनिया' हो गया प्रतीत पत्थर से निर्मित है । चरण से नीचे का अंश भूगर्भ मे है। होता है।
इसकी अवगाहना लगभग तेरह फुट है।। इस नगर पर ईसवी ११६५ से ११७५ के मध्य इस प्रतिमा की दाई पोर सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ कनौज के राजा अजयचन्द्र द्वारा आक्रमण किया गया था। की प्रतिमा है। इसकी आमन पर मध्य में अर्ध चन्द्राकृति इस समय नगर का शासन एक राव ठाकुर के आधीन था, के बीच चिह्न स्वरूप बकरे की आकृति अंकित है। चिह्न जो ग्वालियर के अन्तर्गत था। युद्ध में राव ठाकुर परा- के नीचे धर्मचक्र तथा धर्मचक्र के दोनों ओर आमने सामने जित हुआ। कन्नौज के शासक भी अधिक दिन तक न मुख किए एक-एक बैठा हुआ सिंह दर्शाया गया है । आसन
पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है। द्वितीय प्रतिमा-लेख
मूल नायक शान्तिनाथ-प्रतिमा की बाई ओर अठामूलपाठ
रहवें तीर्थकर अरहनाथ की प्रतिमा है। इस प्रतिमा के संवत् १०३४ श्री वजदाम महाराजाधिराज वइसाख हाथों के नीचे चंवरवाही इन्द्र, आमन के मध्य में एक अर्ध वदि......"
चन्द्राकृति के बीच मच्छ और इसके नीचे आमने सामने पाठ-टिप्पणी
एक-एक सिंह अकित है। इस प्रतिमा की बाई ओर पना. 4. विजयमूर्ति ने जरनल एसियाटिक सोसायटी ऑफ सन मद्रा मे छोटी-छोटी कुछ प्रतिमाओ का अंकन भी है। बंगाल जिल्द ३१ का सन्दर्भ देते हुए 'संवत्' को 'सम्वतः' शान्तिनाय-प्रतिमा के समान कुथुनाथ और अरहतथा 'पाचमी' को 'पाचमि' बताया है। लेख का अंतिम नाथ की प्रतिमाएं भी कायोत्सर्ग मुद्रा में कत्थई रंग के अंश अपूर्ण है। इस अंश में प्रतिमा का नाम तथा 'कारिता' बलए पाषाण से निर्मित है। गुच्छों के रूप में दर्शाई पद उत्कीर्ण रहा प्रतीत होता है।
गई केश गशि, उन्नत नासिका, नासाग्र-दृष्टि, मन्दस्मित भावार्थ
मुख, भरे हुए कपोल, अोठ, चिबुक और कणं दोनों प्रति. संवत् १०३४ के बैशाग्व वदि पंचमी (तिथि) मे महा
माओ में विन्यास की दृष्टि से समान है। अभिलेख तीनों राजाधिराज श्री वज्रदाम ने (प्रतिष्ठा कराई)।
प्रतिमाओं पर नही है। अभिलेख-परिचय
इन प्रतिमाओं से सम्बन्धित शान्ति, कुन्थु और अरह यह अभिलेख कनिंघम को एक जैन प्रतिमा पर तीनो कामदेव, चक्रवर्ती और हस्तिनापुर के निवासी तथा अंकित मिला था। पं० परमानन्द शास्त्री ने इसे सिहों- तीर्थकर थे। इन तीनों प्रतिमाओ मे शान्तिनाथ-प्रतिमा निया के शान्तिनाथ तीर्थकर की प्रतिमा के पृष्ठ भाग में अन्य प्रतिमाओ की अपेक्षा अधिक ऊँची है। सम्भवतः उत्कीर्ण बताया है।" वर्तमान में प्रतिमा के पीछे एक यही कारण है जो कि यह मन्दिर 'शान्तिनाथ-मन्दिर' के .. दीवाल खड़ी कर दी गई है जिससे लेख लुप्त हो गया है। नाम से विश्रुत हुआ। प्रस्तुत मन्दिर में विराजमान ये प्रतिमा-परिचय
तीनो प्रतिमाएँ एक टीले को खोदकर भूगर्भ से निकाली मन्दिर में तीन मनोज्ञ प्रतिमाएँ है। इनमे शान्ति- गई हैं। नाथ तीर्थंकर की मूलनायक प्रतिमा है। इस प्रतिमा की
व्याख्या केश-राशि, नासाग्र-दृष्टि, मन्दस्मित-मुख, कपोल, चिबुक, वनवाम-प्रस्तुत लेख में इन्हें 'महाराजाधिराज' कर्ण और नाभि का अंकन मूर्तिकार के शिल्ल ज्ञान और कहा गया है। 'महाराजाधिराज' इस पद से यह स्पष्ट है
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१६
मध्य-प्रदेश का जनकेन्द्र सिहोनिया कि ये अन्य नरेशों को पराजित कर स्वतन्त्र हो गये थे। आसन पर मध्य में धर्मचक्र तथा दोनों ओर एक-एक यहां से प्राप्त संवत् १०१३ के प्रतिमा-लेख से ज्ञात होता सिंहाकृति अंकित है। नीचे दाईं ओर उपासक तथा बाई है कि इन्होंने सिहोनिया के शासक माधव के पुत्र महेन्द्र ओर उपासिका की प्रतिमाएँ भी निर्मित है। चिह्न स्वरूप से सिहोनिया का शासन प्राप्त किया था तथा यहाँ सवत् सिंह दर्शाया गया है। यह सिद्ध बाबा' के नाम पर घी, १०३४ में एक जैन प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी। गुड़, दूध चढ़ाकर पूजी जाती थी।
कच्छपघात राजवश की ग्वालियर शाखा के संवत अन्य तीर्थकर प्रतिमाओ में यहाँ एक तीर्थकर चन्द्र११५० के प्रशस्ति लेख में भी इस नाम के एक नप का
: प्रभ और एक तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा भी है।
प्रभ और एक ताथकर पाश्व नाम आया है।" इतिहासकार गागुली ने सिहोनिया के सभी प्रतिमाएं भू-गर्भ से प्राप्त बताई जाती हैं। इस प्रतिमा लेख और ग्वालियर के संवत् ११५० के
भीमलाट
इस ग्राम के निकट एक टीले पर प्राचीन पाषाणप्रशस्ति-लेख मे उल्लिखित वज्रदाम नामक दोनों शासको
स्तम्भ है, जिसे आजकल 'भीमलाट' कहा जाता है। यह को एक ही माना है तथा इसका शासनकाल ९७७ ईसवी
स्तम्भ जैनों का मानस्तम्भ ज्ञात होता है। इस पर यद्यपि से 886 ईसवी तक की अवधि का बताया है ।१५ डॉ० रे०
प्राज कोई मूर्ति उत्कीर्ण नहीं है, किन्तु यहाँ उपलब्ध ने इसका शासनकाल ९७५ ई० माना है।"
प्रतिमाओं से यह स्पष्ट है कि यहां कोई विशाल जैन ग्वालियर के सवत् ११५० के इस प्रशास्त-लेख से
मन्दिर या । सम्भव है यह किसी जैन मन्दिर में स्थापित ज्ञात होता है कि इसने कन्नौज के राजा को पराजित पर
किया गया हो। यह भी सम्भावना है कि इस स्तम्भ के ग्वालियर पर अधिकार किया था। सम्भवतः ग्वालियर
शीर्ष भाग पर प्रतिमाएँ विराजमान की गई होंगी जो पर अधिकार हो जाने के पश्चात् इसने सिहोनिया पर अधिकार किया होगा।
कालान्तर में स्तम्भ के शीर्षभाग से अलग हो गई और अन्य प्राचीन कलावशेष
यह जिन-प्रतिमा विहीन हो गया । दमोह जिले के कुंअरसिहोनिया के जैन मन्दिर मे खण्डित और अखण्डित पुर ग्राम म एस आज भा स्तम्भ ह जिनम एक पर चारा कुल बाईस प्रतिमाएं है। इनमे एक प्रतिमा तीर्थकर कथ
दिशाओं में प्रतिमाओं का अंकन भी उपलब्ध है।" नाथ के पार्श्व मे खड्गासन मुद्रा मे स्थित है। इसके शीर्ष सिहोनिया ग्राम से दो मील दूर उत्तर-पश्चिम में भाग पर जटा जूट, मुख पर दाढी, गले में हार, सिर के
"ककनमठ" नाम से प्रसिद्ध एक मन्दिर है। इसका निर्माण गीछे प्रभावर्तुल, कटि मे मेखला, कलाई मे दस्तबन्द, बाहो ।
विशाल शिलाखण्डों से हुआ है। पं० बलभद्र जैन ने भुजबन्ध और दायाँ हाथ जांघ पर रखा हुआ अंकित है।
बताया है कि यह मन्दिर राजा कीतिराज ने अपनी पत्नी चरणों के पास खड़गासन मुद्रा में इसके सेवको की प्रति- काकनवती के नाम पर बनवाया था। यह अब ध्वस्त होने माएं भी अंकित की गई है।
लगा है । इसमें मूर्ति नहीं है । मण्डप के ऊपर शिखर है। तीर्थकर प्रतिमाओ मे यहां तीर्थकर सुपार्श्वनाथ और ग्वालियर के संवत् ११५० के सास-बहू मन्दिर तीर्थकर महावीर की प्रतिमाएं उल्लेखनीय है। सुपाश्व- प्रशस्ति लेख में राजा कीर्तिराज के द्वारा 'सिंहपानीयनगर' माथ की प्रतिमा के सिर पर पाच सर्पफण अकित है। मे शंकर का मन्दिर बनवाये जाने का उल्लेख है। इस तीर्थकर महावीर की प्रतिमा के शीर्ष भाग पर दन्दभि- लेख के परिप्रेक्ष्य में लगता है 'सिंहपानीयनगर' यह सिंहोवादक है। प्रतिमा के दोनों पार्श्व में सूंड उठाये एक-एक
निया है तथा सिंहोनिया का 'ककनमठ' कीतिराज द्वारा हाथी अंकित है। बाईं ओर का हाथी खण्डित हो गया है। बनवाया गया 'शिव मन्दिर' है। मूलतः यह मन्दिर काकनइन हाथियों के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा मे दोनों ओर एक- मठ के नाम से प्रसिद्ध रहा प्रतीत होता है। यहाँ अम्बिका एक तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्ण है। इनके नीचे चवरधारी देवी का मन्दिर तथा हनुमान की मूर्ति भी दृष्टव्यहै । इन्द्र चंवर ढोरते हुए अंकित है। प्रतिमा के पीछे सुन्दर सिहोनिया अपर नाम सिंहपानीयनगर प्रभामण्डल है।
ग्वालियर के संवत् ११५० के प्रशस्ति-लेख में उल्लि
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२०, वर्ष ४१, कि० २
खित 'सिंहपानीयनगर' और 'सिहोंनिया' एक ही नगर के दो नाम ज्ञात होते हैं। इस प्रशस्ति लेख में उल्लिखित राजा कोतिराज और उसके पूर्वज वज्राम, दोनों राजाओं ने इस नगर में पुनीत कार्य किए थे। बचदाम ने यहां जैन प्रतिमा स्थापित कराई थी और कीतिराज ने 'ककन मठ' नाम से प्रसिद्ध शिव मन्दिर बनवाया था । अतः इन अभिलेखों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि ये एक ही नगर के दोनों नाम है। इनमें 'सिपानीपनगर' नाम प्राचीन है।
जनवृति के अनुसार यह नगर राजा सूरजसेन ने बसाया था । कहा जाता है कि उसका यहाँ कुष्ट रोग दूर हो गया था। अतः उसने इस पटना से प्रभावित होकर अपना नाम शोधनपाल और नगर का नाम सुद्धनपुर या सुधियानपुर रखा था । कालान्तर मे किसी घटना विशेष के कारण पुनः नाम में परिवर्तन हुआ और इसे 'सिंहपा नीयनगर' कहा जाने लगा।
हमारा अनुमान है कि नगर के इस नाम में अम्बिका देवी की कोई अद्भुत घटना समाहित है। इसमें पूर्व पद 'सिंह' है जो अम्बिका का वाहन होने से अम्बिरा देवी का प्रतीक है । तथा नाम का उत्तर पद 'पानीय' है । इससे प्रतीत होता है कि कभी यहाँ पानी का संकट रहा है, जो अम्बिका देवी की आराधना से दूर हुआ होगा । अतः देवी
१. पूर्णचन्द्र नाहर, जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेख संख्या १४३० ।
सन्दर्भ-सूची
२. जैनशिलालेख संग्रह भाग २, ले. सं. १४८, पृ. १६१ । ३. प्रस्तुत कृति का प्रथम लेख । ४. वही, प्रथम पंक्ति । ५. डॉ. ज्योतिप्रसाद, भारतीय इतिहास, एक दृष्टि भारतीय ज्ञानपीठ, १२६१६० १० १७५-७६
"
अनेकान्त
की स्मृति में यहां 'प्रम्बिका देवी' का मन्दिर बनवाया गया तथा नगर का नाम 'सिंहपानीयनगर' रखा गया ।
है
दूसरी सम्भावना यह है कि लेख पढने में भ्रान्ति हुई विवानी' पद में 'प' वर्ग के स्थान में 'व' वर्ण रहा होगा जिसे 'प' समझा गया है । यदि 'प' वर्ण को 'य' वर्ण मान लिया जाये तो 'सियानीय' पढ़ा जायेगा, जिसका अर्थ होगा-सिंह है यान अर्थात् वाहन जिसका वह देवी अम्बिका इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से भी नगर का नाम अम्बिका देवी की स्मृति में रखा गया प्रतीत होता है।
सम्पूर्ण लेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण होने से सहपानीय' नाम में 'पानी' शब्द का व्यवहार विचारणीय है। निश्चित ही यहां 'पानी' शब्द अशुद्ध है भाषा की दृष्टि से भी इस नाम मे 'प' वर्ण के स्थान में 'य' वर्ण अधिक शुद्ध ओर अर्थसंगत है । अत: नगर का प्राचीन नाम 'सिंहपानीय नगर' रहा है। 'सिहो. नय' इसी नाम से निष्पन्न नाम ज्ञात होता है ।
६. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, जैन सिद्धान्त भारकर, भाग १५. किरण १ । ७. वही, किरण प्रथम ।
८. आकिलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट, जिल्द २ ई० १८६४-६५, पृ० ३६९-४०१ । २. बही १०. जैन सिद्धांत भास्कर, भाग १५, कि० १ । ११. पूर्णचन्द्र नाहर, जैनशिलालेख सग्रह भाग २ लेख संख्या १४३१ ।
१२. जनशिलालेख स० भाग २, ने.सं. १५३, पू. १२८ ।
वर्तमान में इस नगर के शान्तिनाथ मन्दिर को तीर्थ क्षेत्र बताया जा रहा है। मुरैना जिले के प्रसिद्ध समाजसेवी विद्वान् प० सुमतिचन्द्र शास्त्री की अध्यक्षता में एक समिति के सतत् प्रयत्न से मन्दिर तक पनका मार्ग हो गया है । मन्दिर मे यात्रियों के लिए कुछ कमरे बन चुके है, कुछ निर्माणाधीन है ।
१३. अनेक वर्ष १६. अक१-२, पृ० ६४ । १४. तस्मादवरीपमः क्षितिपति श्रीबदामाभवद् दुर्गारोज्जित वाहुदण्ड निजिते गोपा दुर्गे मा निव्य परिरि नगद यद्वीर व्रतसूचकः समभवद्गोपण किक्रमः ॥६॥ - पूर्णचंद्र नाहर, जैन शिलालेख संग्रह भाग २, ले.स १४२६ १५. श्री डी.सी. गांगुली हिस्ट्री आफ दि परमार दायनस्टी ढाका विश्वविद्यालय १९३३ ६० पृ० १०६ ।
१६. डॉ एच.सी. रे; डायनस्टिक हिस्ट्री ऑफ द दनं इडिया, भाग २, पृ० ८३५ ।
१७. जैन सिद्धांत भास्कर, भाग ३०, किरण १। १८. अद्भुतः सिंहपानीय नगरे येन कारितः
कीर्तिस्तम्भ इवाभाति प्रासादः पार्षतीपतेः ॥ ११ ॥ पूर्ण वद्र नाहर, जनशिल भाग २ ले स. १४२६ १६. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग ३, पृ० ३२ ।
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जैन कवि विनोदीलाल को अर्चाचत रचनाएँ
0 डा० गंगाराम गग
विनादीलाल शहिजादपुर के गर्ग गोत्रिय अग्रवाल जैन थे। दान भी हाथी, घोड़े और सोने तक का कर्म काण्डी थे। डॉ. प्रेमसागर जैन ने अपने शोध प्रबन्ध हिन्दी जैन साधुओं और ब्राह्मणों को दिन-प्रतिदिन अच्छे भोजनों से भक्तिकाव्य और कवि एवं पं० परमानन्द शास्त्री ने अपने इसलिए प्रसन्न रखा जाता था कि सामान्य निर्धन जनता एक लेख 'अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान' में कवि को वे धर्म के भुलावे मे फंसाये रखें। इस तरह धर्म, धन की सात रचनाएं बतलाई हैं-भक्तामर कथा, सम्यक्त्व एवं निरकुश सत्ता का त्रिगुट अधिसख्या जन समूह को कौमुदी, श्रीपाल विनोद, राजुल पच्चीसी, नेमि व्याह, अपने शिकजे में जकड़े हुअा था । ऐसे वातावरण में बड़ेफूलमाला पच्चीसी, नेमिनाथ का बारहमासा । चाकसू वड़े भोजों और दानराशि का विरंध करके सामान्य जन (जयपुर) के कोट नंदिर मे विनोदीलाल की श्रेष्ठ काव्य कृति के प्रति दया रखने का निर्देश एक उल्लेखनीय प्रसंग है'नेमिनाथ नव मंगल' दो प्रतियों में प्राप्त है। अग्रवाल कहा भूमिवान, अस्ववान कहा कंचन के दान महा, जैन मन्दिर कामां (भरतपुर) में विनोदीलाल की कुछ
कहुं मोक्ष पाइहै। महत्त्वपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई है-सुमति कुमति को झगरी, ग्राह्मण जिमाये कोटि जाप के कराये, लख तीरथ के नहाये, चेतन गारी (१७४३) नवकार मंत्र की महिमा, रेखता,
का सिपाई है। चुनड़ी, नेमिनाथ की विनती आदि । कामा में प्राप्त इन घरम न जानत, बखानत मन में प्रानत, रचनाओं का सम्वादात्मकता बाह्याचार-खडन और भाषा
जो सुगुरु बताई है। की दृष्टि से विशेष महत्व है।
कहत 'विनोदीलाल' करनी सब विकार, जपो एक ठीक बया, 'नवकार मंत्र महिमा' में यद्यपि अभी ३३ कवित्त ही
बया नहीं पाई है। प्राप्त हुए हैं, किन्तु उनके भाषा-प्रवाह एवं काव्य-सौष्ठव बाह्याचार का विरोध करते हुए भी जैन कवि से ऐसा लगता है कि कुछ अधिक कबित्त होने चाहिए। विनोदी लाल यह अनुभव करते हैं कि यदि भाव को शुद्ध नवकार मंत्र महिमा मे जिनेन्द्र के नाम-स्मरण के महिमा- और मन को निर्विकार रखते हुए यदि अष्ट द्रव्य से पूजा गान की अपेक्षा कवि का अनैतिकता के प्रति तीखा स्वर की जाय तो उपयोगी है । भक्त को प्रभु पर चन्दन, पुष्प, अधिक महत्वपूर्ण है। अपने समय में व्याप्त तीर्थ-स्नान, अक्षत चढाते समय शान्ति, यश तथा अक्षयता का बोध शख वादन, बाहरी वेशभूषा, गोरखपंथियों के काया-कष्टो होना चाहिए। दीप जलाते समय मोह-नाश तथा धूप से विनोदी लाल को कबीर की सी चिढ़ है। इसीलिए चढ़ाते समय वसु कर्मों के विनाश की ओर दृष्टि रहनी उनकी वाणी मे उग्रता आ गई है
चाहिए। भगवान की आरती उतारना, मन्दिर में नत्य द्वारिका के म्हाये काहा, अंग के बगाये कहा। करना अथवा दुन्दुभी बजाना तभी सार्थक है जब उद्देश्य संख के बजाये काहा, राम पाइयतु है। प्रेरित हो:जहा के बढ़ाये काहा, भसम के चढ़ाये कहा।
नीर के चढ़ाये नोर भववष पार हजे, घुनी के लगाये काहा, सिव ध्यायतु है॥
चन्दन चढ़ाये दाह दुरति मिटाइये। कौन के फराये काहा, गोरख के ध्याये कहा। पुरप के चढ़ाये पूजनीक होत जग माहि, सींगी के सुनाये काहा, सिद्ध ल्याहतु है।
प्रक्षत चढ़ाये ते सुप्रषं पर पाइये। . . बया धर्म जाने विनु, अग्या पहिचाने बिनु । चर के चढ़ाये क्षुधा रोग को विनाश होत, कहैयतु "विनोदीलाल' मोष पाइयतु है ॥३३॥
दीप के चढ़ाये मोह तमको नसाइये। उत्तर मध्यकाल मे खुशामदप्रिय सामन्त और सम्पन्न धूप के चढ़ाये बसुकर्म को विनास फल, लोग अपने चाटुकारों एवं धर्मान्धो को ही दान दिया करते
अर्थ पूजेत परम पद पाइये।
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२२, वर्ष ४१, कि० १
अनेकान्त
हिन्दी जैन काव्य में बूचराज कृत चेतन पुद्गल लाल जी ने ही नये रूप में प्रस्तुत किया है। मुगल काल कमाल, ब्रह्मरायमल्ल कृत परमहंस चौपई, बनारसीदास मे फारसी शब्दो के सहज बोधगम्य हो जाने के कारण कृत मोह विनेक तथा भैया भगवतीदास का चेतन कर्म इस रेरवता में भी नफासत आ गई है :चरित आदि श्रेष्ठ रूपक काव्यों के माध्यम से जैा तत्त्व न्याहौँ कू पाया श्री सिर सेहरा बंधाया। के मधुर विवेचन की परम्परा प्रारम्भ हुई थी। इसी सीस पंच को जावौं सब संग भी रहा है। परम्परा में विनोदीलाल कृत 'सुमति कमति को मगरौं' कहां गया नाथ मेरा, किया न दिगर फेरा, महत्वपूर्ण रचना है। भाषा के सरल प्रवाह और सवाद परवर दिगार मेरा, दिल संग ही रहा है । तत्व की प्रधानता से अन्य काफी रोचक बन गया है। पशु देख महर पाई, सब धन धगी छुड़ाई, 'कुमति' और 'सुमति' दोनों नारियों एक-दूसरी की निन्दा इतनी खबर मैं पाई, गिरिनार गढ़ गया है। करते हुए 'चेतन' पति को अपनी ओर आकृष्ट करने का
मैं जाऊंगी जहाँ ही, जहाँ गया मेरा साई, कैसा प्रयत्न कर रही है :
मैं वे अज भरोगी, मुझ कू मुकति रहा है। कुमति कहै सुनि नाह बावरे, यह तोकू फुसलावं। मरे चस्यौ दातारा, महताब सा उजारा, यह दूती चंचल सिवपुर की, केतेक छंद यह प्राव ॥ जिन मन हरा हमारा, वे मन हँस रहा है। है सूधी अपने घर बैठी, जाको अंक लगावै ।
उसकी खबर जो ल्याव, वोहोत सबाब पावं, तो सौ कंत पाय के भौंद, क्यों नहि नांच नचावे ॥
मुझकूँ कोई बतावै, उसका वतन रहा है । सुमति कहै इनको सूधापन, जान परंगो तोकों।
मुझे छोडि किधर भागा, दिलजान वस लागा, बैहै नारि जरा मनमथ की, यह अपनी गोकौं । प्रातस वियोग लगा, दिल खाक-२ हो रहा है। अपनों कियो पाप ही पैहैं, हूँ काहे को रोकौ।
खाने में क्या करूंगी, दिन रैन को मरोंगी, तब ही समझि परंगी चेतन, जब छोड़ेगो मोकौं। मैं वे अजल भरौगी, मुझको मुकति कहा है।
फागुन सुदि १३ सवत् १७४३ मे लिखित 'चेतन परहैजु मुझे दीना, उन्हीं के इश्क भी ना, गारी' मे आत्मा द्वारा जन्म-जन्मान्तरों में काया कष्ट मैं खूब तुझे चीना, मश्ताक हो रहा है। मेलने की निन्दा करते हुए उसे सिद्ध वधू से विवाह करने दिल जांन यार मेरा, किया बन में बसेरा, को कहा गया है:
करो नाथ फेरा मुकतन के बाह है। यह तो है बारे को बिगरी, अब कैसे जात सुधारी। अब खोप लाज नाहीं, मै जाऊँ कंत ताहीं, छाड़ों सग कुमति गणिका को, घर से देहु निकारि। नयो दस्त मुझ गाहीं तो करें सुख महा है। व्याहो सिद्ध वधू सी वनिता, और निबाहन हारी। लाचार हो रहोगी, उसके कदम गहोंगी, तृष्णा छांदि गहो निज संवर, तनहु परिग्रह भारी॥ मैं वे अजल भरौंगी, मुझको मुकाते महा है।
विनोदी लाल द्वारा साठ वर्ष की उम्र में लिखित राजल खड़ी पुकारे, जुगवस्त सीस मार, नेमिनाथ की वीनती तथा एक अन्य रचना रेरवता खड़ी मुख नाथ का निहार, क्या गुम हो रहा है। बोली के विकास-क्रम की दृष्टि से महत्वपूर्ण रचनाएं है। मुश्तास में दरस को, तेरे कदम परस को, जयपुर नरेश सवाई प्रताप सिंह जी निधि तथा उनके तुझे न मेरे तरस की, वे पर ही महा है। दरबारी कवि अमृतराम आदि द्वारा लिखित रेरवते विरह तू मान मरज मेरी, भव पाठ की मैं चेरी, और गेयता की प्रधानता के कारण तो रोचक है ही किन्तु मैं पांव खाक तेरी, कब का गुस्सा गहा है। शब्द और क्रिया के रूपो मैं खड़ी बोली हिन्दी के प्रारम्भिक लाल विनोदी गाव, तुझे महर भी न आवं, मानदण्ड भी है । अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ड में लिखित मैं वे अजल मरौंगी, मुझको मुकति कहा है। निम्नांकित रेरवता मे राजुल के विरह को केवल विनोदी
११०-ए, रणजीतनगर, भरतपुर (राज.)
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'द्वादशानुप्रेक्षा'
- डॉ० (कुमारी) सविता जैन अनित्य :
सूर्य रश्मि है सोख लेती तत्क्षण ओस की बूंद ज्यों। क्रूर मृत्यु की तांडव लीला चल रही चहुं ओर त्यों ।। रूप यौवन थिर नहीं इक पल जहाँ इस देह का।
ध्रुव आत्मा को छोड़कर फिर उसी से प्रीति क्यों ? अशरण :
काल खड़ा जब दे रहा दस्तक हमारे द्वार पर। चतुरंगिनी सेनाएँ भी उस पल तेरी रक्षक नहीं ।। ध्रुव आत्मा को कोई भी जब अस्त्र छू सकता नहीं।
फिर मरण की भीति क्यों, फिर शरण की प्रीति क्यों? संसार:
कस्तूरी मृग सम चंचल मन दौड़ रहा इस भव-वन में। सूख की खोज यहाँ ऐसे ही जैसे जल की मरुथल में ।। तुष्णाओं की दाहक ज्वाला शीतल होगी शुद्ध घनों से।
अनित्य और अशरण जग में पर पदार्थ से प्रीति क्यों ? एकत्व:
एकाकी आया था जग में, एकाकी ही जाना है। फिर क्यों लगाता द्वार पर है अर्गला अनुराग से ? यदि वरण करना ही है तो शुद्धात्म ही इक मीत हो ।
साथी कोई चुनना ही है तो एकत्व से ही प्रीति हो । अनयत्व:
जब देह ही अपनी नहीं, तब गेह से फिर मोह क्यों ? जब द्वेष भो अपना नहीं, तब शत्रु से फिर रोष क्यों ? जब कर्म ही अपने नहीं, फिर कर्तत्व की हो बुद्धि क्यों ?
जब राग भी अपना नहीं, फिर प्रिया से हो प्रीति क्यों? अशुचि :
नव द्वारों से रिसता रहता निसि वासर मल जिस देह से। इत्र, तेल, फुलेल भी दुर्गन्धित हों पड़ जिस गेह में । सातों जलधि की जलधारा भी धो सकतीन जिस कीच को। परम अशचि उस तन से फिर निर्मल आत्मा की प्रीति क्यों।
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२४. वर्ष ४१, कि० २
अनेकान्त
आधव:
इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग की ज्वाला में प्रतिपल जलता। राग द्वेष से पीड़ित हो नित आस्रव का द्वार खला रखता। शभ और अशुभ पर दृष्टि रख बेड़ी में जकड़ा फिरता। चौरासी की योनि में तू भ्रम वश म्रमण किया करता ।।
संबर :
कुछ भी शेष नहीं जग में मेरे करने के हेतु। मैं संकल्प विकल्प किया करता केवल कर्मों के हेतु ॥ कर्तृत्व बुद्धि को त्याग यदि बन जाऊँ ज्ञाता-द्रष्टा ।
तब आस्रव का द्वार रुके बन जाऊँ संवर का कर्ता । निर्जराः
पर से विमुख होकर हो जाऊँ निज स्वभाव में लीन । डूबूं और रमूं उसी में, हो जैसे जल बिच मीन । ब्रह्मचर्य के साहचर्य से करूं निर्जरा कर्मों की।
शुद्धोपयोग में ही हो जाए थिरता मन व इन्द्रियों की। लोक भावना :
षट् द्रव्यमय इस लोक में, दुर्लभ आत्मा ही है शरणभूत । उसमें जो विचरण करे, वह परलोक से भयभीत क्यों। चाहें नरक हों या निगोद, फिर किसी से भीति क्यों?
स्वर्ग और ग्रेवेयक से भी हो फिर किसी को प्रीति क्यों? बोधि दुर्लभ :
पूर्व संचित पुण्य से सब कुछ सुलभ संसार में। नर देह उत्तम कुल हो कंचन कामिनी भी साथ में॥ बस तत्त्व का श्रद्धान ही है कठिन इस संसार में ।
मर कर भी तू रमण कर इस बोधि दुर्लभ भाव में । धर्म:
वीतराग विज्ञानमय, शुद्ध बुद्ध, अरि नाशकारी। परम चैतन्य, अखण्ड रूप, 'सविता' सम आलोक कारी।। निविकल्प समाधि में हो लीन धर्म का जो धारी। चार गतियों के दुःखों से फिर उसे हो भीति क्यों ?
७/३५, दरियागंज, नई दिल्ली-२
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"दसवीं शताब्दी के अपभ्रश काव्यों में दार्शनिक समीक्षा"
0 श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, शोध-छात्र
जन-जीवन की आचार संहिता का प्रतिविम्ब तत्का- प्राच्य विद्याओं के शोध-परक विश्लेषण एवं गहन कालीन साहित्य मे देखने को मिलता है। साहित्य मानवीय अध्ययन से यह सिद्ध हो गया है कि अपघ्रश अन्य भाषाओं विचारों भावनाओं एवं आकांक्षाओं का मूर्तरू । है। की तरह एक स्वतंत्र भाषा थी। इसका उद्भव ईसा को भारतीय इतिहास व संस्कृति के निर्माण, विकास व तीसरी शताब्दी' एव विकास ईसा की छठी शताब्दी से संरक्षण के क्रम में जैनधर्म-दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका माना जाता है।' अपभ्र श साहित्य का पूर्वमध्यकाल (ई. रही है। भागीय आध्यात्मिक पृष्ठभूमि मे जैनधर्म दर्शन ६०० से ई० १२०० तक) साहित्य-सृजन का स्वर्ण युग उत्पन्न हुआ, विकसित हुआ और समृद्ध हुआ। जनसाहित्य माना जाता है। देवसेन कृत सावयधम्मदोहा, पद्यकीतिकृत सप्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय पासणाहचरिउ, पुष्पदन्तकृत महापुराण, णायकुमारचरिउ, भाषाओ में भी लिबाहुना प्राप्त होता है। मध्ययुगीन जैन जमहरचरिउ, हरिषेणकृत धम्मपरिक्खा मुनिकन कामरकृत साहित्य धामिक एव दार्शनिक मान्यताओं के परीक्षण का करकण्डचरिउ तथा मुनिरामसिंहकृत पाहुड़दोहा आदि युग था : अत: इस दृष्टि मे १० वी शताब्दी के जैनाचार्यों १० वी शताब्दी की प्रमुख कृतियां है। इसमें जैन धर्म एवं ने अपभ्र श साहित्य मे नत्कालीन धार्मिक व दार्शनिक दर्शन तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, बाचारमीमांसा, प्रमाणतत्वो को प्रतिपादन किया है। उन्होने : शनिक तत्वो के मीमांसा,अहिंसा, कर्म, पुनर्जन्म एवं मोक्ष विषयक सामग्री मण्डन ग खण्डन की परम्परा क. अनुसरण किया है। को प्रस्तुत किया गया है। उन्होने दार्शनिक निबन्ध में १०वी शताब्दी के अपभ्र श वैदिक दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार एवं यज्ञ साहित्य मे निपादित धमिक व वानिक तत्वों का प्रधान क्रियाओं, दर्शन के भौतिकवाद एवं तत्त्वमीमांसा, समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तु। करने का प्रयत्न किया बौद्ध दर्शन के आत्मा, निर्वाण, क्षणिकवाद व प्रतीत्यसमगया है।
त्पादवाद, सांख्यदर्शन के पुरुष व प्रकृति के स्वरूप एवं मध्य ग वैचारि कान्नि का युग था । इस युग के सम्बन्ध तथा कारण-कार्यवाद (सत्कार्यवाद) आदि प्रमुख माविंग , सम नत धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन इन काव्यों में प्राप्त है। वैशेषिक, विरोध तया वैसनर के सदर्भ प्राप्त होते है। धर्म एव न्याय, मीमासा, शंव आदि दर्शन तथा अन्य प्रचलित दर्शन के क्षेत्र पनी धनिकावर्णनि अवधारणाम्रो मान्यताओं का भी समीक्षात्मक इस शताब्दी के अपभ्र श की पुष्टि एव विगंधी अधारणाओं के खण्डन की प्राचीन कवियो ने किया है। परम्परा इस युग के जनाचार्यो मे भो परिलक्षित होती है। जैन धर्म एवं दर्शन : उन्होने अन्य कारतीय दर्शनों के साथ-साथ सामाजिक जैनधर्म विरक्तिमूलक सिद्धान्तों पर आधारित है। अन्धा श्वानो, बाह्य आडम्बरों व दूषिा धारणाओ पर इसीलिए अपभ्र श कवियो ने श्वेतबाल, टूटता हुआ तारा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की। किन्तु अनेकान्त और स्याद्वाद एव ामवासना हेतु परपुरुष का ससर्ग आदि प्रसंगों को जैस सिद्धान्तो के परिप्रेक्ष्य में उन्हे नाप-तौलकर समन्व- वैराग्य का कारण बताया है। जैनधर्म एवं दर्शन के या मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करना इन जैनाचार्यों की अपनो अहिंसा, आचारमीमांसा, तत्वमीमासा, ज्ञानमीमांसा, कर्म, विशेषता कही जा सकती है।
पुनर्जन्म, आत्मा, मोक्ष व अनेकान्तवाद आदि सिद्धान्तों
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२१ वर्ष ४१, कि०२
भनेकान्त
को व्यापक रूप से इन काव्यों में प्रस्तुत किया गया है। द्वारा किया गया है। अपभ्रंश महाकवि पुष्पदन्त ने कहा
वैदिकी हिंसा के निरसन के संदर्भ मे अहिंसा सिद्धांत है कि :की महत्ता प्रस्तुत की गई है।' जसह रचरिउ में वर्णित जहिं गिद्द ण भुक्ख ण भोयरइ, स्वप्नदोष को मिटाने के लिए जब माता ने नाना जीवों
देहु ण पंचिदियह सुहु । की बलि करने को कहा तब यशोधर उत्तर में हिंसा की जहिं कहि मि ण दीसइ णारिमुहु, निन्दा करते हुए कहता है
तद्वो देसहो लहु लेहि महु ॥" पाणिवहु भडारिए अप्पवहु,
जहाँ न नींद हो, न भूख हो, न भोगरति हो, न कि किज्ज इ सो दुक्कियणिवहु । शारीरिक शुद्धि हो और न ही नारी दर्शन हो।" अर्थात् कहिं चुक्कइ माणउ पसु हरिणवि,
ऐसी अवस्था मोक्ष प्राप्ति पर होती है। अत' वह (कवि) पावेण पाउखज्जइ खणिवि ॥' मोक्ष की कामना करता है । मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्न"प्राणियों का बध आत्मघात ही है। अतएव इस रूपी प्रथम सोपान का आश्रय अति आवश्यक है। इस प्राणी का हिंसा रूपी दुष्कर्म का पूञ्ज क्यों एकत्रित किया युग के अपभ्र श कवियों ने जैनधर्म व दर्शन के आत्मा, जाये ? पापी को उसका ही पाप खा जाता है।' अहिंसा मोक्ष कर्म" व पुनर्जन्म" आदि सिद्धान्तो का भी वर्णन को जगत में परमधर्म व परमार्थ कहा गया है। अतः
किया है। जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। हिंसक प्राणी नीच,
वैदिक दर्शन की समीक्षा: दरिद्री व नरकगामी होते हैं।
वैदिक दर्शन आस्तिक दर्शन है । क्योंकि वह जगत मे धर्म श्रमण व श्रावक के भेद से २ प्रकार का कहा
वेदों को ही सत् शाश्वत व मूल मानता है।" उसके मतागया है। इसी प्रकार व्रत के भी श्रमणव्रत (महाव्रत) नुसार वेदों को किसी ने नहीं बनाया। अतः वेद अपौरुषेय तथा श्रावक या ग्रहस्थव्रत (अणुव्रत) ये दो भेद होते हैं। (स्वयम) हैं । वेदों की ऋचाओ को भी जगत में किसी ने इन व्रतों को श्रमणो द्वारा सूक्ष्मरूप (बडी कठोरता पूर्वक नही बनाया। किन्तु जैनाचार्यों को "वेद अपौरुषेय है" पालन करने के कारण महाव्रत व श्रावको द्वारा स्थूलरूप उनकी यह बात उचित प्रतीत नही हुई। इसीलिए उन्होंने से पालन करने के कारण अणुव्रत कहते हैं। श्रावक धर्म कहा है कि :हेतु जैनधर्म १२ व्रतों (५ अणुव्रत, ३ गुणवत व ४ शिक्षा- ण हि सयमेव थंति पंतीए णहे मिलिऊण सद्दया ।" व्रत) के पालने का विधान है। इसी प्रकार आचार "शब्दों की पक्तिया स्वय आकाश में मिलकर स्थित मीमांसा के अन्तर्गत १२ तप, ५ आचार, त्रिरत्न, ५ नही रह सकती।" बिना जीव के कही (प्रमाणभूत ) शब्द समितियाँ, ३ शल्य और सलेखना आदि सिद्धान्तो का भी की प्राप्ति हो सकती है ? बिना सरोवर के नपा कमल पालन करने व चार कषाय तथा सप्तव्यसनो आदि के कहाँ से उत्पन्न हो सकता है ? अत: जगत मे वेद प्रमाण सर्वथा त्यागने का निर्देश दिया गया है।"
(अपौरुषेय) नही हो सकते ।२० । गुण व पर्याय से युक्त वस्तु द्रव्य कहलाती है।" वस्तु वैदिक दर्शन में पशुबलि व मांस भक्षण को भी 'मोक्ष या पदार्थ मे अनेक धर्म या गुण होते हैं। आचार्यों ने प्राप्ति का साधन' कहा गया है। यदि इस कर्म से भी पदार्थ की अनेकान्तिकता सिद्ध करने के लिए सभंगी मोक्ष की प्राप्ति होती है तो फिर धर्म से क्या ? शिकारी या स्याद्वाद जैसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। वस्तु के की ही पूजा (सेवा) करनी चाहिए। याज्ञिकी की हिंसा गुण विशेष को प्रमुख मानकर अन्य गुणों को गौण मानना मांस भक्षण तथा रात्रिभोजन को पुण्य का प्रतीक मानने ही स्याद्वाद है। आचार्य पुष्पदन्त ने अपन काव्यो मे इस वाले वेद पुराण सम्बन्धी मत की समीक्षा करते हुए जैनासिद्धान्त का उल्लेख किया है।" इस जगत को नश्वर चार्यों ने कहा है कि-मगों का आखेट करने वाले जो मानते हुए ससार के प्रपंच को त्यागने का निर्देश आचार्यों मांस-भक्षण से अपना पोषण करते हैं, वे अहिंसा क
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वसौं शताब्दी के अपभ्रंश काव्यों में वार्शनिक समीक्षा
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घोषणा क्या कर सकते हैं।" पशुबलि-हिंसा के विरोध में स्वीकार करता है। इस मत की पुष्टि करते हुए कवि आचार्य सोमदेव सूरि" ने भी अपने यशस्तिलक चम्पू में कहता है कि-"जिस प्रकार पुष्प से गंध भिन्न नहीं है, विशद वर्णन किया है। पुष्पदन्त ने भी इस प्रकार की किन्तु पुष्प के नष्ट होने पर गध स्वतः नष्ट हो जाती है। वैदिक मान्यता को उचित नही माना है, क्योंकि हिंसा उसी प्रकार शरीर के नष्ट होने पर जीव भी स्वत: नष्ट करने वाले महापापी व मायाचारी होते हैं। इसलिए हो जाता है।" इस मत का खण्डन करते हुए जसहरकवि ने वेदों का अनुसरण करने वाले को नरकगामी चरिउ में कहा गया है किकहा है।
"जी आहारदेह सो अण्णु जिमइ गहिओ अचयणो।" ब्राह्मणधर्म की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि
'यह शरीर जीव से भिन्न व अचेतन है।" जिस "हा हा बम्भणय माराविय, रायह रायवित्ति दरिसाविया प्रकार चम्पक पुष्प की वास तेल में भी लग जाती है और पियरपक्खु पच्चक्ख णिरिक्खइ मंसखडु दियपडिय भक्खइ॥ गध की पुष्प से पृथक सत्ता सिद्ध होती है, उसी प्रकार धोयंतउ दुद्धे पक्खालउ होइ कहिं मि इग लु ण धवलउ।
देह और जीव की भिन्नता देखी जाती है।" जीव की सत्ता एह देहु किं सलिल धुप्पइ हिंसारम्भे डम्भे लिप्पइ॥"
के संदर्भ में कहा गया है कि यदि जीव शरीर से पृथक है, "पशुओं का वध करके पितृपक्ष पर जो द्विज पंडित
तो क्या उसे किसी ने देखा है।" इसके प्रत्युत्तर ये कहा
गया है किमास खाते है, हिसा दम्भ तो उनसे पूर्णत: लिपटे है। तब
दूरा एन्तु सद्द णउ दोसइ पर कम्भि लग्गओ। उनके द्वारा देह को जल से क्या होगा ? कहीं अगार दूध
गज्ज इ जेम तेम जगि जीउ वि वह जोणीकुलं गओ।" से धोने पर श्वेत हो सकता है ?" आचार्य कहते है कि
___"दूर से आता हुआ शब्द यद्यपि दिखाई नही देता। वैदिक मान्यतानुसार यदि यज्ञ मे बलि दिए जाने वाले
परन्तु जिस शब्द का कान मे लगने पर अनुमान-ज्ञान हो प्राणी (जीव) स्वर्ग के अधिकारी होते है तो लोगो को ।
जाता है, उसी प्रकार नरक-योनियों में जीव की गति अपने पुत्रों व स्त्रियों सहित स्वय को भी बलि चढ़ जाना
होती । अतः जीव अनुमान से सिद्ध है।" । चाहिए।
चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वैदिक मान्यतानुसार तत्व एक ही है-'ब्रह्मा' जो
वायु ही जगत के मूल तत्व हैं। इन्ही भूत चतुष्टयों से अर्थ नित्य है। इस मान्यआ की समीक्षा करते हुए कवि
और काम पुरुषार्थ उत्पन्न होते है। कोई परलोक नहीं कहता है कि-"यदि ब्रह्म एक व नित्य होता, तो जो एक
है, मृत्यु ही निर्वाण है।" चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, देता है उसे दूसरा कैसे लेता है ? एक स्थिर है तो दूसरा ।
जल, अग्नि और वायु के परस्पर ससर्ग से ही जीव की कैसे लेता है ? एक स्थिर होता है तो दूसरा दौड़ता है।
उत्पत्ति होती है । अर्थात् उसकी सत्ता है।" इस मत की एक मरता है तो अनेक जीवित रहते हैं। अतः जो नित्य
समीक्षा करते हुए अपभ्रंश कवि कहता है कि-उन है, वह बालकपन, नवयौवन व वृद्धत्व कैसे प्राप्त करेगा
चारो में परस्पर विरोधी गुण होने के कारण इनका इत्यादि।
सयोग कैसे हो सकता है? चार्वाक दर्शन :
जल जणहं विरोह ससहावे ताई ति किह उक्के भावे । केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाले भौतिकवादी पवणु चवलु महि थक्क थिरत्ते, हा कि झखिउ सुरगुरुपुत्तें।" या जड़वादी (चार्वाक दर्शन सुख को ही जीवन का परम "जल और अग्नि स्वभाब से विरोधी गुण युक्त हैं, लक्ष्य मानते है । चार्वाक दर्शन के अनुसार 'जीवो नास्ति' फिर वे एक स्वरूप कैसे रह सकते हैं ? पवन चंचल है अर्थात जीव नहीं है।" वह शरीर से पृथक जीव की सत्ता और पृथ्वी अपनी स्थिरता लिए हुए स्थिर है।" यदि स्वीकार नहीं करता बल्कि शरीर को ही आत्मा मानता जीव चार भूतों के संयोग से उत्पन्न है तो सभी जीवों का है। क्योकि शरीर से पृथक आत्मा मूर्तरूप में दिखाई नहीं स्वभाव व शरीर एकसा क्यों नहीं है । अतः यह एक देती। अतः यह दर्शन शरीर पर्यन्त ही जीव की सत्ता वितण्डामात्र है। यदि भूतचतुष्टय के सम्मिलन मात्र
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२८, वर्ष ४१, कि०२
अनेकान्त
से जीव की उत्पत्ति सिद्ध है, तो औषधियों के क्वाथ माह की व्याधि (रोग) की वेदना (दु ख) कौन सहन (काढ़ा)से किसी पात्रमे जीव-शरीर उत्तान होना चाहिए।" करता है। महापुराण" राजा महाब 1 के एक मन्त्री ___ अपभ्रश कवियो ने भी चार्वाक .र्शन के "प्रत्यक्ष ही द्वारा क्षणिकवाद का समर्थन किया गया है। जिसका प्रमाण है" नामक मत की समीक्षा विभिन्न प्रमाणों द्वारा खण्डन अन्य मत्री स्वय बुद्ध नामक ने करते हुए कहा है किकी है । इसके अनुसार मात्र दृष्टिगत पदार्थों की सत्ता जइ दब्बई तुह खणभगुराइतो खणधसिणि वासणणकाइ।" नहीं है, अथवा जो नेत्रों से दिखाई नहीं देते वे पदार्थ नही "द्रव्य को क्षगस्थायी मानने से वासना (जिसके द्वारा है। तो हमारे पूर्वजों (पितामह आदि) को जिन्हें हरने पूर्व मे रखी गई वस्तु का स्मरण होता है) का भी अस्तित्व नही देखा, उनकी भी सत्ता नही स्वीक री जा सकती।" नहीं रह जाता है।" वौद्ध दर्शन की मान्यता है कि जबकि हमारी सत्ता होने पर पूर्वको की सत्ता-सिद्धि के वासना के नष्ट होने पर ज्ञान प्रकट होता है। किन्तु लिए आगम-प्रमाण माना जाए, तो भी चावार्क दर्शन का वासना भी पचस्कन्धों से भिन्न न होने के कारण क्षणयह मत स्वत: खण्डित हो जाता है।४३
मात्र में नष्ट हो जाती है। अत: उन्ही की यह उक्ति बौद्ध दर्शन की समीक्षा :
क्षणिकवाद को भग कर देती है। इसी प्रकार जो जीव जगत को नश्वर, क्षणविध्वंसी व अनित्य मानने घर से बाहर जाना है क्षणिकवाद के सन्दर्भ में देखे तो वाला बौद्ध-दर्शन आत्मा की नित्य सत्ता भी स्वीकार वहा जाप घर कसे लोटता है ? जो वस्तु एक ने रसो,
उसे दूसरा नही जान सकता।" नहीं करता है । जीव अनित्य इस मायने मे है कि वह
समार में प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति का कोई । कोई क्षणिक है, प्रत्येक क्षण वह परिवर्तित होता रहता है।
कारण अवश्य है । "अस्मिन् मात इद भवति" अर्थात यदि 'पचस्कन्ध" को आत्मा मान भी लिया जाये तो उसे
इसके होने से यह होना - इस प्रकार का भाव ही प्रतीक्षणिक ही माना जायेगा, नित्य नही । इसलिए आ:म
त्यसमुत्पादवाद (कारण-कार्यबाद) कहा जाता है। बुद्ध वादी मतो द्वारा जीव को नित्य मानना उचित नहीं है।
के नार आर्य सत्यों के दुख रूपी कार्य की उत्तात्त व बौद्ध-दर्शन में जीव को शरीरपर्यन्त माना गया है किन्तु
विनाश द्वादश निदान (अविद्या-अज्ञान आदि) रूपी कारण चार्वाक से इस मत मे भिन्न है कि इस दर्शन को यह
पर ही निर्भर है । बौद्ध दर्शन के प्रस्तुत पाद' सिद्धान्त यह मान्यता है-शरीर के नष्ट होते ही जीव पचस्कन्ध
की समीक्षा करते हुए महावि पुष्पदन्त ने कहा है. --- समुच्चय (रूप, वेदना, सज्ञा, सस्कार एवं विज्ञान) का
सतइ सताणइ सगाहय इ, गोवणामि कहि दुद्धइ दहियइ । समूह होने के कारण अन्य रूप धारण कर लेता है।
दीवक्खए कहिं लब्भइ भजषु; सच्चउ भास इमिणिरजणु।५२ बौद्ध दर्शन मे यद्यपि आत्मा को समस्त क्रियाओं का
"यदि क्षणीवनाशी पदार्थों में कारण-कार्यरूप धारा मूल माना गया है फिर भी क्षणिकवाद के कारण आत्मा
प्रवाह माना जाए, वे जैन -- गाय (कारण) से दूध (कार्य) की पृथक एव नित्य सत्ता स्वीकार नहीं की गई ।" इस
एव दीपक (कारण) से अजन (कार्य) की प्राप्ति माना जाये, मत का खण्डन करते हुए कहा गया है कि क्षणिकवाद
तो प्रतिक्षण गो और दीपक (कारण) के विनष्ट हो जाने सिद्धात के कारण आत्मा की नित्य सत्ता स्वीकार न कर पर दूध एव अजन (कार्य) की प्राप्ति कम हो सकती है। जीव को क्षण-क्षण में परिवर्तनशील माना जाये तो छ:
( शेष अगले अंक मे)
सन्दर्भ-सूची १. पातजलि-महाभाष्य ।
४. वहो-२।१४।६-७ २.(क) भामह-काव्यालकार, १।१६।२८.
५ परमत्थु हिंसा धम्मुजए, मारिज्जइ जीउ ण जीवकए। (ख) इडियन एन्टिक्नेरी, भाग १० अक्टू०८८ पृ.२८४
जसहरचरिउ, २.१५॥६ ३. जसहरचरिउ (पुष्पदतकृत) संपादक व अनु० डा० ६. ते दालिद्दिय इह उप्पज्जहि, णरय-पडता केण धरिहीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ १९७२.
ज्जहिं । ३।८।८।३. पासणाहचरिउ(पद्मकीतिकृत)
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बसवीं शताब्दी के अपभ्रंश काव्यों में दार्शनिक समीक्षा
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संपा० एवं अनु० प्रफुल्लकुमार मोदी, प्रकाशक प्राकृत २८. पसुसग्गुगच्छन्ति । दीखन्ति सकयस्थ तो अप्पयं तत्थ । ग्रंथ परिषद्, वाराणसी १९४४.
होमेवि मते हिं महुं पुत्तकतेहिं । महापु. ६६॥३२॥२१-२३ ७. ओ धम्मतरु राय, सोहोइ दुहुभेय-६॥२०॥३. २६. णायकुमार रउ ६।१०।३. ३०. वही ६।१०३.५.
करकण्डचरिउ (मुनिकन कामरकृत)-सपा० व अनु० ३१. चन्द्रप्रभचरित (वीरनन्दिकृत) २२५४१५३.
डा. हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, १९४४. ३२. जसहरचरिउ ३।२१।१२-१३ ३३. वही ३१२१११. ८. करकण्डचरिउ-६।२२।२-३
३४. चपयवासु विलग्ग उ तेल्नहो, एमगधु जिह पिण्ण फुल्लहो ६. (क) पासणाहरित ३।६-११
ति देहहो जीवहो भिण्णत्तणुं दिट्ठउ किं फिर चवहि(ख) करकण्डचरिउ-६।२२-२३
जिड़त्तण ॥
-जसहरचरित २।२१३१७ १०. (क) महापुराण (पुष्पदंतकृत) सधि ७, कड़वक १४, ३५ ......इंतृड दीसइ जीउ पहतरि । जसहरच० २।२१।१७
सपादक डा० पी. एल. वैद्य तथा अनुवादक डा. देवेन्द्र- ३६. जसह र चरिउ ३।२२।१-२. कुमार जैग, भारतीय ज्ञानपीठ । ६७६.
३७. प्रबोधचन्द्रोदय (कृष्णमिश्रकृत) रूपक के द्वितीय अक (ख) जसहरचरिउ ३।१७. (ग) क रकण्ड चरिउ ६।२१।६ में दष्टव्य । ११. 'गुणपर्यायवद्' द्रव्यम्' तत्वार्थसूत्र(उमास्नातिकृत) ५॥३७ ३८. महापुराण २०१७ १२. (1) महापुराण ३।२।७. (ख) णायकुमार बरिउ (पुष्प- ३६. (क) णायकुमारचरिउ ११॥ -२.
दन्त चरिउ) १.११६, सपा. व अनु० डा. हीर: लाल (ख) चवलयरु पवणु थिरजउ रित्ति, असरुवह कहि जैन भारतीय ज्ञानपीठ १९६२.
नेलावजुत्ति ॥ -महापुराण २०१८1८ १३. णायकुमारचरिउ ६।१५
४०. णयकुमारचरिउ ६।११।४-६. १४. 'मोक्खमग्गु सुन्दर मुणसु तिणि वि दणाणचरित्ताइ ४१. महापुराण २०१८।१०-११. ४२. वही २३।१६. णायकुमारचरिउ ६।१३।१४.
४३. यशस्तिलकचम्पू (दीपिक) उत्तरार्ध पृ० २७४. १५. (क) पासणाहचरिउ ६।१५ (ख)मह पुराण धा७, ७७१३ ४४. मलिन्द प्रश्न. ४५. ईश्वर प्रत्यभिज्ञाविमशिनी-१२।८ १६. (क) महापुराण ६।६, (ख) कर फण्ड वरिउ शर?
४६. ..... जगुणिछिउ खणबिद्धवसणु । १७. जगिवे उ मूल धम्मधिवहो । जसहरचरि उ २।१५।८
-णाय कुमार चरिउ, ५२ कि केणवि जयम्भिण कयाउ रियाउ भणन्ति णिया। सणि ख िAum टोद जद मेm - जसहरचारउ ३।२६१
छमासं वयण।
-जसहचरिउ, ३॥२६॥३ १६. जमहरचरिउ ३।२६।२
४८. महापुराण-२०॥१६८-१० ४६. वही-२०१२०१५ २०. वेउ पमाणु ण होउ जएविणु जीवेणसह कहिलन्भह। विणुसरेणकहिं णवकमलु विण धेणुयए गयणु कि युभइ ।। ५०. रेणकहिं णवकमल विण धणय गया ५०. वासणाइ जइणाण पयासह तो
वासण खणि किण उ णासइ । -गायकुमारचरिउ हा८1८-६
कि सा पचह खधहं भिण्णी जीव २१. पसुहम्मइ ५लु जिम्मइ सगहोमोक्खहो गम्मइ । ---जसहरचरिउ २ १५२१०
सिद्धि एमइ पडिवण्णी॥ २२. जइ एण जि कम्मे ता कि धम्मे पारधिउ सेविज्जह।
-जसहरचरिउ, ३।२६।४-५ -महापुराण ७।२१२ ५१. खणि-खणि अण्णु जीउ जइ जाय उ. २३. मिगमारउ अहिंसा कि घोसइ,
तो वाहिरे गउ किह घरु आयउ। जो मासे अप्पाणउ पोसइ। णायकुमारचरितार अण्णे यवियउ अण्णु ण याण इ, २४. यशस्तिलकचम्पू-आश्वासचतुर्थ ।
सुण्णु बि वाइ काई वक्खाण इं॥ २५. जसहरचरिउ २।६।१४. २६. वही ३।११।१०. ५२. णायकुमारचरिउ ६५२८-६ २७. महापुराण ७।८।१०-१३.
५३. सर्वदर्णन सग्रह (माधवाचार्यकृत) पृ० ६३-६४,
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३२, वर्ष १; कि०२
अनेकान्त
यह शोचनीय अवश्य है कि जब वर्तमान विद्यमान प्राकृतज्ञ संपादनों के पक्ष में भी नहीं। क्योंकि जितने संपादन उतनी जिस व्याकरण को (के आधार पर) पढकर प्राकृतज्ञ बने हैं विविधताएं। कई बार तो पाठक को ऐसा भ्रम तक हो वह व्याकरण आर्ष-निर्माण के बहन (शताब्दियो) बाद जाता है कि कौन-सा ठीक है, और कौन-सा नही। साथ आषों के आधार पर बना है-तब वे पूर्ववर्ती आगमों में ही पाठक संपादकों के शब्दजाल में भी उलझ जाता है। व्याकरण द्वारा विभक्त किसी एक भाषा का निर्धारण कैसे उदाहरण के लिए समयसार के संपादनों को ही लीजिए। कर सकेंगे, जब कि आगमों में परवर्ती विभिन्न जातीय कितने-कितने उद्धट विद्वान समयसार के पृथक-पृथक् व्याकरणों से सिद्ध विभिन्न शब्दरूप मिलते हैं।
कितने ही संपादन कर चके हैं फिर भी कार्यसिद्धि नहीफिर इसका निर्णय एक-दो दिन का विषय भी नही
विसंवाद ही हैं-किसी को कोई ठीक है और किसी को
कोई ? लम्बे विचार का विषय है। फलतः एक-दो दिन के कमीशन बिठाने की अपेक्षा हम उचित समझते है कि विद्वान् इस
काश, हमारा प्रयत्न समयसार आदि के मूल और विषय में खोज करें और सप्रमाण मैटर (लेख) तयार
आचार्यों कृत उसकी संस्कृत टीकाओ के शब्दार्थ मात्र के करे। वीर सेवा मन्दिर उपयुक्त लेखों पर उपयुक्त पुरस्कार
अनुसरण मात्र मे होता--हम लोगों को शब्दश: अर्थ देते मेंट करेगा। इससे लेखकों को विचार करने का अवसर
-उन्हें अपने भाव न देकर आचार्यों के शब्दशः मन्तव्य भी मिलेगा और लेखों का संग्रह भी होगा। लेख सादर
समझाते तो विवादों से तो बचे ही रहते-संपादों मे आमंत्रित हैं। हमारी भावना विरोध की नही, अपितु हम
पुन -पुनः प्रभून द्रव्य भी व्यय न हुआ होता और जिनवाणी चाहते हैं कि-प्राचीन कोई प्रति प्रादर्श मानी जाकर वैसेही का लरूप भी सुरक्षित रहा होता। पूरे पाठ छपाए जाय और पाठ-भेद या अपना अभिमत हो तो टिप्पण में दिए जाय।
इसका अर्थ यह नही कि हम संपादनों के खिलाफ है
सम्पादन तो हम चाहते है-वे हों और जानकार योग्य प्रन्यों का सम्पादन और सुझाव :
संपादको से हो और ऐसे ग्रन्थो के हों जो प्रकाश में न
आ सके हों। जैसे किसी समय भाषा के दिग्गज विद्वानो जब हमने मूल-आगम के बदलाव को रोकने की बात
द्वारा षटखण्डागम का सपादन हुआ था। आदि । उठाई तो एक महाशय ने शत-प्रतिशत हमारा समर्थन करके भी हमें बाद में सलाह दी कि इस विरोध के बजाय एक सुझाव यह भी था कि समाज में वैसे ही बहत से यदि आप किसी ग्रन्थ का सम्पादन करके कोई आदर्श उप- विवाद हैं आप भाषा का नया विवाद क्यों छेडते हैं ? यह स्थित करते तो और अच्छा होता । शायद उन्होने हमारी सुझाव भी उन्टा होने से हमे राम नहीं आया। हम सोचते कमजोरी और हमारे दष्टिकोण को नहीं समझा, जो वे है कि कैसे कैसे लोग हैं जिन्हे हमारा आगम-रक्षा का हमारी नाच मे उतर पड़े। हम बता दें कि हम इनने योग्य प्रसंग तो विवाद दिखा और आगम के मूल-लोर जैसे श्री नही कि आगम ग्रन्थो पर कलम चला सकें। फिर हमारा गणेश के ममय और आज भी वे मौन साधे रहे ? हम नहीं यह धन्धा भी तो नही । हमारी दष्टि से जब कई बड़े बड़े समझे उनकी क्या साध थी या उन्हें किसका क्या भय या विद्वान् जिनप्रथों के कई-कई सपादन करके आदर्श उप- लालच था? जो वे जिनवाणी के लोप को गुप-चुप देखते स्थिर कर चुके हों और उन्ही सम्पादनों से किसो को रहे ? इसे वे ही जाने । जरा, आप भी सोचए, कि ठीक आदर्श न मिल सका हो, तब हम किस खेत की मूली जो क्या है ? हमारा कोई आग्रह नही-विचार है । आदर्श दे सकें? फिर, हम तो एक-एक ग्रन्थ के अनेक-२
-संपादक
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श्री भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् का पत्र
दिनांक २३-६-८८ श्रीमान् ला० सुभाषचन्द जी जैन
(महासचिव) एवं श्रीमान् पं० पद्मचन्द जी शास्त्री एम०ए०
संपादक "अनेकान्त" श्री वीर सेवा मन्दिर दरियागंज, नई देहली
सादर जयजिनेश । दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों में मूल शब्दों के बदलने की प्रक्रिया के विषय में अध्यक्ष महोदय के पास जयपुर भेजा हुआ आपका पत्र प्राप्त हुआ। मैं षट्खण्डागम स्वाध्याय हेतु ललितपुर में आयोजित स्वाध्याय शिविर के समापन के अवसर पर ३ दिन ललितपर रहा। वहाँ माननीय डा. पन्नालाल जी. डा० कोठिया जी तथा अन्य कई विद्वानों से इस विषय पर चर्चा हुई। आगमों की भाषा कौन-सी प्राकृत है, यह तो एक गम्भोर विचारणीय बात है। इस पर समाज के सुप्रसिद्ध प्राचीन शोध संस्थान "वीर सेवा मन्दिर" को प्राकृत के अधिकारी विद्वानों को एक साथ बिठाकर उनसे निर्णय कराना चाहिए। ताकि हमेशा के लिए यह विषय सुलझ जाय ।
प्राचीन आर्ष ग्रन्थों के संपादन में शब्दों के बदलने के विषय में
"प्राचीन ग्रन्थों के संपादन की सर्वमान्य परिपाटी यह है कि उनके शब्दों में उलटफेर न करके अन्य प्रतियों में जो दूसरे रूप मिलते हों, परिशिष्ट में या टिप्पणी में उनका उल्लेख कर दिया जाय। यदि सम्पादक महोदय को उस विषय में अपनी ओर से किसी नये रूप का सुझाव देना है तो वह भी नीचे टिप्पणी में दे दिया जाय। ग्रन्थ लेखक के समय भाषा और व्याकरण की क्या स्थिति थी और लेखक ने किस रूप में शब्दों का प्रयोग किया है उसकी सुरक्षा हेतु छेड़छाड़ न करना ही सम्यक् मार्ग है। इसी मार्ग का संपादन में अनुसरण होना चाहिए।"
"भाषाओं के विकास का अपना इतिहास है। क्षेत्र और काल के भेद से उनके रूपों में भेद होना भी स्वाभाविक है। २००० वर्ष के लम्बे समय के बाद उनकी सही स्थिति पर पहुंच पाना अत्यन्त कठिन है। ऐसी दशा में जो लिखा है उसमें परिवर्तन न करके अपनी राय टिप्पणी में दिया जाना ही उन ग्रन्थों की प्राचीनता और वास्तविकता की रक्षा का परिचायक है।" शेष शुभ,
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नवम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
पहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... जनप्रग्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह | TH
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५... समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित अपणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य पोर इतिहास पर विशव प्रकाश. : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपारसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०. भावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया मैन लक्षणावली (तीन भागों में) : स०प० बालवाद सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन
२-०० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पधचन्द्र शास्त्री Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain___References.) In two Vol. (P. 1942)
Per set 600-00 सम्पादक परामर्श मण्डल डा० ज्योतिप्रसाव जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पपचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए मद्वित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३
२.०.
BOOK-POST
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वीर सेवा मन्दिर का मासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४१: कि०३
जुलाई-सितम्बर १९८८
इस अंक में
विषय! १. गुरु-स्तुति २. निन्यानवे के चक्कर से बचिए
-स्व० डा. ज्योतिप्रसाद जैन ३. आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार
__का समन्वय-डॉ. सुदर्शनलाल जैन ४. एक नया मिथ्यात्व-'अकिंचित्कर'-संपादक ५. मिथ्यात्व ही द्रव्य कमबंध का मूल कारण है
-श्री पं० फूलचन्द्र जी सि० शास्त्री ६. मिथ्यात्व का बदला रूप-अकिचित्कर
-धी पं० मुन्नालाल प्रभाकर ७. 'अकिंचित्कर' पुस्तक आगम विरुद्ध है
-श्री पधचन्द्र शास्त्री, दिल्ली ८. क्या मिथ्यात्व बन्ध के प्रति अकिचित्कर है
-श्री बाबूलाल जैन कलकत्ते वाले ६. मिथ्यात्व हो अनंत संसार का बंधक है
-स्व. पं० श्री कैलाशचन्द्र सि० शास्त्री १०. मिथ्यात्व अकिचित्कर नहीं-डा. सुदर्शनलाल जैन ११. दशवी शताब्दी के अपभ्रश काव्यों मे दार्शनिक
समीक्षा-श्री जिनेन्द्रकुमार जैन उदयपुर १२, धवला पु०६ व पु० १ तथा जयधवला पु०७ का
शुद्धिपत्र-श्री प० जवाहरलाल शास्त्री १३, जरा सोचिए : -सम्पादक १४. मिथ्यात्व अकिचित्कर नही है-रतनलाल कटारिया, क. ३
प्रकाशक:
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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निन्नानवे के चक्कर से बचिए
'इतिहास मनीषी विद्यावारिधि' स्व. डा. ज्योतिप्रसाद जैन
अरिपग्रह का अर्थ है परिग्रह का अभाव और 'परिग्रह' सर्वथा नगण्य है, हेय है। प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी डेविड उसे कहते हैं जो आत्मा को सर्व ओर से घेरे व बांधे रखना थोरो को उक्ति है कि "सबसे बड़ा अमीर वह है जिसके है--"परितो गल ति आत्मानमिति-परिग्रहः।" चेतन- सुख सबसे सस्ते हैं-आत्मा की आवश्यकताएं जुटाने के अचेतन, घर-जायदाद, धन-दौलत आदि अनगिनत बाह्य लिए पैसों की आवश्यकता नहीं होती।" गोल्डस्मिथ कहता भौतिक पदार्थ मनुष्य को बांधे रखते है। वह अनिश है कि- 'हमारी प्रमुख सुविधाएं व आरामतलबियाँ ही उनके अर्जन, सग्रह, सुरक्षा की चिन्ता में तथा उनके नष्ट बहुधा हमारी सर्वाधिक चिन्ता का कारण होती है और हो जाने वा छिन जाने के भय से व्याकुल रहता है। वह जैप-जैसे हमारे परिग्रह मे-हमारी धन सम्पत्ति में बढोउन्हे ही अपना जीवन प्राण समझता है। अतएव वे सब तरी होती जाती है हमारी चिन्ताएं भी बढ़ती जाती है, पदार्थ सामान्यतया परिग्रह कहलाते है, किन्तु वास्तव मे नित्य नवीन चिन्ताए उत्पन्न होती जाती है। शायद इसीस्वय वे पदार्थ परिग्रह नही है, वरन् उनमे जो व्यक्ति की लिए किसी ने कहा है कि-"जिमने धन की सर्वप्रथम मुर्छा है, मनत्वभाव है, आसक्ति है, वही परिग्रह है और खोज की, उसी ने मनुष्य के सारे दु.ख भी साथ ही साय इस परिग्रह का मूल कारण उसकी कामनाए, इच्छाएं, खोज लिए।" आकाक्षाएं, लोभ, तृष्णा या आशा है। जिसका चित्त इन अपने धर्म को, स्वरूप व स्वभाव को आत्मा और चित्त आशा-तृष्णादि विकारो से ग्रस्त रहता है, उसके पास अटूट की शांति को प्राप्त करने का आधार धन-सम्पति या परिधन वैभव हो तो भी उसे सुख व शान्ति प्राप्त नहीं होती। ग्रह नहीं है, वरन् उसके त्याग में, उसकी आशा व तृष्णा इसीलिए एक शायर ने कहा है कि
के घटाने में ही निहित है। जमीयते दिल कहां हरीमों को नसीब ।
अहमक पूछना है वहा जाने की राह क्या है ? निन्नानवे ही रहे कभी सौ न हुए ।।
जेब गर हल्की करें हर जानिब से रास्ता है। तृष्णा ग्रस्त जीवो को कभी भी चित्त की शान्ति जिन महानुभावो ने “परिग्रह पोट उतारकर तीनो प्राप्त नहीं होती। वे सदा निन्नानवे के चक्कर में पड़े चारित पथ" उन्हीने आत्म धर्म प्राप्त किया है । जरा यह रहते है क्योकि पुरानी इच्छा प्रो की पूर्ति के साथ ही साथ सोचना तो शुरू कीजिए कि धनवान होने की वह कौन-मी तृष्णा की सीमा आगे-आगे बढ़ती जाती है। अत. वह धनी सीमा है कि जिमपर पहचकर आपके और अधिक धनवान होते हा निर्धन है, वैभव सम्पन्न होते हा भी रक है - बनने की इच्छा समाप्त हो जाय? स्वय पमझ मे आ जायेगा स हि दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला। वह यह भ न जाता कि इस मृगतृष्णा ये पार नहीं पाया जा सकता।
आशैव मदिराक्षाणाम आपत्र विषमजरी । दिल की तस्की भी है जिन्दगी की खुशी की दलील । आशामूलानि दुखानि प्रभवन्ती देहिनाम् ।। जिन्दगी सिर्फ जरोसीम का पैमाना नही ।।
येषामाशा कुतस्तेषां मनः शुद्धि शरीरिणाम् । जीवन के सुख का प्रमाण चित्त का सन्तोष व शान्ति अतो नैराश्य वलम्ब्य शिवीभता मनीषिणः ॥ है, मात्र धन-दौलत उसका मापदड नही है -- वह बाह्य तस्य सत्य-श्रुत-वृत्त-विवेकस्तत्त्वनिश्चय । वंभव मे नही मापा जा सकता।
निर्ममत्वं च यस्याशा पिशाची निधनगता ।। पुरातन जैनाचार्य कह गये है कि जो निम्रन्थ होता है,
बडी भयंकर है यह धनलिप्पा । यह तृष्णा ही समस्त भीतर-बाहर दोनों से सर्वथा निष्परिग्रह होता है, वही दुःखों की जड़ है। इस आशा पिशाचिनी के नष्ट होने सच्चा चक्रवर्ती होता है-लौकिक चक्रवर्ती सम्राट का पर ही सत्य, श्रुतज्ञान, चारित्र, विवेक, तत्वनिश्चय और अपार वैभव भी उस महात्मा की दिव्य विभूति के समक्ष
(शेष पृ० ३ पर)
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आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार का समन्वय
० डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी
दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वो- आपको मान्य रचनायें हैं-१. पचास्तिकाय संग्रह, परि है। आपने भगवान महावीर की वाणी का मन्यन २. समयमार, ३. प्रवचनसार, ४. नियमसार, ५. अष्टकरके हमे नवनीत प्रदान किया है। भगवान महावीर ने पाहुड, ६. द्वादशानुप्रेक्षा और ७. भक्तिसंग्रह । 'रयणसार' जिस वीतरागता का उपदेश दिया था उसे मात्र बाह्यलिङ्ग के सन्दर्भ मे विद्वानो का मतभेद अधिक होने से उसे यहा के रूप मे समझा जाने लगा तो आपने भगवान महावीर नहीं लिया गया है । क्रमशः उनके उक्त ग्रथों का परिचय दर्शन के बाह्य और आभ्यन्तर वीतराग भाव को स्पष्ट दिया जा रहा है। किया । अभ्यन्तर वीतरागभाव को प्रकट करना उनका १. पचास्तिकाय संग्रह-यह ग्रन्थ दो श्रुतस्कन्धो में प्रमुख लक्ष्य था । अत: आपने उन्ही बातों का अधिक व्या- बिभक्त है । दोनों श्रुतस्कन्धों का प्रारम्भ ग्रन्थकार 'जिन' ख्यान किया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन्हे बाह्य स्तुतिपूर्वक करते है।' यह नमस्कार निश्चय ही भक्तिरूप वीतराग मुद्रा अभीष्ट नही थी। वस्तुतः आपने बाह्य और व्यवहार नय का आश्रय लेकर किया गया है। इगके प्रथम आभ्यन्तर बीत गगभाव के उपदेशो का व्यवहार और श्रुतस्कन्ध मे षड्द्रव्यो का और द्वितीय श्रुतस्कन्ध मे नव निश्चय उभय नयो के द्वारा सम्यक् आलोडन करके अपने पदार्थों एव मोक्षमार्ग का वर्णन है। जीवन मे तथा म्व-रचित ग्रन्थो मे समावेश किया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपसहार करते हुए निखा हैआपके ग्रन्थो के अन्तः साक्ष्य से तथा आपकी स्वय की "प्रवचन के सारभूत पंचास्तिकाय सग्रह को जानकार जो जीवनशैली से आपकी निश्चय-व्यवहार की यथायोग्य राग द्वेष को छोडता है वह दुखो से मुक्त हो जाता है। ममन्वय दृष्टि स्पष्ट परिलक्षित होती है।
इसके अर्थ को जानकर तदनुगमनोद्यत, विगतमोह और __सामान्य रूप से कोई भी लेखक अपनी रचनाओ के प्रशमित राग-द्वेष वाला जीव पूर्वापरबन्धरहित हो जाता प्रारम्भिक अशो में अपने अनुभवो को भूमिका रूप में है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तत्वश्रद्धानादिरूप व्यवहार मोक्षस्थापित करता है और अन्त मे उपमहार के रूप मे उन्हे मार्ग का कथन करके' निश्चय मोक्षमार्ग का कथन करत परिपुष्ट करता है । अत. उन्ही अशो को यहा इस लेख में हुए लिखा है---"रत्नत्रय से समाहित (तन्मय) हुमा आत्मा प्रमुख रूप से माध्यम बनाकर आपको समन्वयदष्टि का ही निश्चय से मोक्षमार्ग हे जिसमे वह अन्य कुछ भी नही प्रतिपादन किया गया है
करता है और न कुछ छोडता ही है।' यह कथन निश्चय (पृष्ठ २ का शेषांश)
ही निर्विकल्प शुद्ध ध्यानावस्था को लक्ष्य करके कहा गया निर्ममत्व या अपरिग्रह जैसे गुण आत्मा मे प्रगट होते हैं- है। इसके आगे बतलाया है कि अर्हदादि की भक्ति से उसके रहते वे व्यर्थ हैं।
बहुत पुण्यलाभ एव स्वर्गादि की प्राप्ति होती है। यही अस्तु, परिग्रह मे निरासक्त रहने का अभ्यास करने, अहंदादि की भक्ति से कर्मक्षय का निषेध और निर्वाणप्राप्ति उसका परिमाण करने का तथा उक्त परिमाण की सीमा की दूरी को भी बतलाया है, भले ही वह सर्वागमधारी को निरन्तर घटाते जाने का अभ्यास करने से ही व्यक्ति और सयम-तपादि से युक्त क्यों न हो।" यह कथन भी शनैः शनैः अपरिग्रही हो जाता है, और सच्चे सुख एव छठे आदि गुण स्थान वालों को लक्ष्य करके कहा गया शान्ति का उपभोग करता है।
है। यहीं पर यह भी कहा गया है कि मोक्षाभिलाषी पुरुष चारबाग, लखनऊ निप्परिग्रही और निर्ममत्व होकर सिद्धों मे भक्ति करता
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४, वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
है और उससे वह निर्वाण प्राप्त करता है। यहां टीका- इस तरह व्यवहार और निश्चय का सम्यक् समन्वय ही कागें ने 'सिद्धेषु' का अर्थ शुद्धात्म द्रव्य में विधान्तिरूप निर्वाण का हेतु है, न केवल व्यवहार और न केवल निश्चय पारमार्थिक सिद्ध भक्ति अर्थ किया है। गाथा १७२ की नय। यही ग्रन्थकार का अभिमत है । नय मात्र वस्तुव्याख्या में अमृतचन्द्राचार्य और सिद्धसेनाचार्य ने केवल परिज्ञान के लिए स्वीकृत है शुद्धात्मा नयातीत है। निश्चयावलम्बी उन जीवो को लक्ष्य करके कहा है जो (२) समयसारवस्तुत: निश्चय नय को नहीं जानते हैं :-कोई शुभभाव हां "जीव" पदार्थ को "समय" शब्द से कहा गया वाली क्रियाओं को पुण्यवन्ध का कारण मानकर अशुभ है। जब वह अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होता है तब उसे भादों में वर्तते हुए वनस्पतियों की भाति केवल पापबध __ "स्वसमय" कहते है और जब परस्वभाव (राग-द्वेषादि के को करते हुए भी अपने में उच्च शुद्धदशा की कल्पना करके कारण पुद्गल कर्मप्रदेशो) मे स्थित होता है तब उसे स्वच्छन्दो और आलसी है
'परसमय" कहते हैं।' इस ग्रन्थ में जीव के इस स्वसमय णिच्छयमालम्बन्ता णिच्छयदो णिच्छय अयाणता। और परसमय का ही विवेचन किया गया है। णासति चरणकरण बाहरि चरणालसा केई ।।
ग्रन्थारम्भ मे ग्रन्थ कार ध्र व, अचल और अनुपम गति अन्त में इस ग्रन्थ का उपसहार करते हुए ग्रन्थ कार को प्राप्त सभी सिद्धो को नमस्कार करके श्रुत केवलियो लिखते हैं -प्रवचन (जिन वाणी) की भक्ति से प्रेरित के द्वारा कथित इस समय प्राभत को कहने का सकल्प होकर मैंने (मोक्ष) मार्ग की प्रभावना के लिए प्रवचन करते है। इसके बाद एकत्व विभक्त (सभी पर पदार्थों से का सार भूत यह पंचास्तिकाय संग्रह सूत्र (शास्त्र) कहा है। भिन्न-पुद्गलकर्मबन्ध से रहित) आत्मा की कथा की
इससे स्पष्ट है कि जो व्यवहाररूप अहंदादि को भक्ति दुर्लभता का कथन करते हुए उसके कथन करने की को मात्र स्वर्ग का साधन बतलाकर और मोक्षप्राप्ति मे प्रतिज्ञा करते है-मैं अपनी शक्ति के अनुसार उस एकत्वप्रतिवन्धक बतला कर तुरन्त उपसहार करते हुए जिन मार्ग विभक्त आत्मा का यदि प्रमागरूप से दर्शन करा सकू तो प्रभावनार्थ "प्रवदनभक्ति प्रेरित" जैसे वाक्यो वा कथन प्रमाण मानना अन्यथा (ठीक से न समझा सकने पर या क्यों करेगा। नमस्कार वाक्यों मे महावीर को "अपुनर्भव ठीक न ममझने पर) छल रूप ग्रहण न करना। का कारण" कहना व्यवहार नयाश्रित कथन है क्योकि इससे सिद्ध है कि ग्रन्थकार का मुख्य उद्देश्य इस प्रथ निश्चय से कोई किसी का कारण नहीं है । इत्यादि कथनो मे आत्मा के दुर्बोध शुद्धस्वरूप का ज्ञान कराना है। अतः से सिद्ध होता है कि व्यवहार रूप बाह्य क्रियाये भी निर्वा- वे व्यवहार पक्ष को गौण करके निश्चय का कथन मुख्यता णप्राप्ति के लिए आवश्यक हैं परन्तु वही तक सीमित न से करते है। इसका यह तात्पर्य नही कि व्यवहार मिथ्या रह जाएं। अतः उन तपस्वियों के प्रतिबोधनार्थ निश्चय है। इस सन्दर्भ मे उनका यह निवेदन ध्यान देने योग्य है का कथन करके आचार्य ने दोनो नयो सम्यक् समन्वय कि "ठीक न जान सकने पर छल रूप ग्रहण न करना।" करना चाहा है। किसी एक नय को हेय और दूसरे को इस तरह से निश्चय ही व्यवहार और निश्चयनय से समउपादेय कहना स्याद्वाद सिद्धान्त का और आचार्य कुन्दकुद । वित कर आत्मा को दर्शाना चाहते है। अन्यथा वेदान्त का उपहास है। अपेक्षा भेद से अपने-अपने स्थान पर दोनो दर्शन के साथ जैन दर्शन का भेद करना कठिन हो जायेगा। नय सम्यक है। परमदशा की प्राप्ति तो नयोपरि अवस्था इसीलिए ग्रन्थ कार व्यबहार नय से कहते है कि ज्ञानी जीव
के चारित्र, दर्शन और ज्ञान हैं परन्तु (निश्चय नय से) न ___'दर्शनविशुद्धि' आदि भावनाए जो तीर्थङ्कर प्रकृति चारित्र है, न दर्शन है और न ज्ञान है, अपितु वह शुद्ध बन्ध की कारण मानी जाती हैं वे व्यवहार से बन्ध को ज्ञापकरूप है। यही ग्रन्थकार व्यवहार नय को अनुपयोकारण भले ही हैं परन्तु तीर्थङ्कर प्रकृति बन्ध करने वाला गिता की अशका का समाधान करते हुए कहते है कि जैसे जीव नियम से निर्वाण प्राप्ति करने वाला माना गया है। अनार्य (साधारण) जन को अनार्य भाषा के बिना समझाना
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श्राचार्य कुंदकुंव के ग्रन्थों में निश्चय व्यवहार का समन्वय
( वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना) कठिन है उसी प्रकार व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।'
इस तरह यहां स्पष्टरूप से साधारण जन को परमार्थ तक पहुंचाने में व्यवहारनय को अनिवार्य साधन के रूप मे स्वीकार किया गया है। इसके आगे व्यवहार को "अभूसार्थ" तथा शुद्धन (निश्वयनय) को "भूतार्थ" कहते हुए भूतार्थनयाश्रयी को सम्यग्दृष्टि कहा है।" यहा ग्रन्थकार भ्रम निवारणार्थं पुनः कहते है जो परम भाव (उत्कृष्ट दशा) में स्थित है उसके द्वारा शुद्ध तक उप देश देने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरम भाव (अनुस्कृष्ट दशा) में स्थित है वे पहाय से उन देश करने के योग्य है ।" इस तरह व्यवहारनय को त्याज्य न बतलाते हुए अपेक्षा भेद से ग्रन्थकार दोनो नयों की प्रयोजनवत्ता को सिद्ध करते है। अधिकांश जीव अपरम भाव में ही स्थित है। यहा टीकाकार "अमृत चन्द्राचार्य" "उक्त च" कहकर एक गाथा उद्धृत करते हैं"जइ जिणमय पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह। एक्केण विणा छिन् तित्य अरण उणतच्च
अर्थ - यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हो तो व्यवहार ओर निश्चय दोनो नयों को मन छोडो, क्योकि व्यवहार नय के बिना तो तीर्थ (व्यवहार मार्ग ) का नाश हो जायेगा और निश्चय नय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा क्योकि जिनवचन को स्याद्वाद रूप माना गया है, एकान्तवादरूप नही । अतः जिनवचन सुनना, जिनविम्बदर्शन आदि भी प्रयोजनवान् है ।
ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए प्राचार्य ने कहा है "जा बहुत प्रकार के आदि बाह्य लिङ्गो में ममत्व करते गृहस्थ है वे समयसार को नही जानते ।" व्यवहार नय दोनो ( मुनि और गृहस्थ ) लिङ्गो को इष्ट मानता है ।" पर यहा जो लिङ्गी को मोक्षमार्ग निश्चय नय से कहा है वह विशुद्धात्मा की दृष्टि से कहा है जो विशुद्ध आत्मा है वह जीव- अजीव द्रव्यों में से कुछ भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है।"
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इस प्रकार जो इस समयप्राभृत को पढ़कर अर्थ एव तत्त्व को जानकर इसके अर्थ मे स्थित होगा वह उत्तम सुख प्राप्त करेगा।" यहां पडिहूड (पढ़कर), अत्यतश्चदो
५.
गाउं ( अर्थ तत्व को जानकर ) और अत्थे ठाही चेया ( अर्थ मे स्थित आत्मा) पद चिन्तनीय है जो निश्चय व्ययहार के समन्वय को ही सिद्ध करते है। शुद्ध निश्चय नय तो स्वस्वरूप स्थिति है वहां कुछ करणीर नहीं होता, जब कि ससारी को करणीय कर्म भी जानना जरूरी है। (३) प्रवचनसार -.
यह ज्ञान शेप और चारित्र इन तीन अधिकारों में विभक्त है। इसकी प्रारम्भिक पांच गाथाओ मे तीर्थंकरों, सिद्धो, गणधरो उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार किया गया है तथा उनके विशुद्ध दर्शन ज्ञान प्रधान आश्रय को प्राप्त करके निर्वाण सम्प्राप्ति के साधनभूत समताभाव को प्राप्त करने की कामना की गई है। इसके बाद सराग चारित्र वीतराग चारित्र आदि कथन किया गया है ।
.
तृतीय चारित्राधिकार का प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार सिद्धों और श्रमणो को बारम्बार नमस्कार करके दुःखनिवारक भ्रमणदीक्षा लेने का उपदेश देते है । इसके बाद श्रमणधर्म स्वीकार करने की प्रक्रिया प्रादि का वर्णन करते हुए निश्चय व्यवहाररूप श्रमणधर्म का विस्तार से कथन करते है । प्रसङ्गवश प्रशस्तराग के सन्दर्भ मे कहा है"रागो पर बरबिसेमेण फलद विवरी । भूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥२२५॥||" जैसे एक ही भूमि की विपरीतना से विप रीत फल वाला देखा जाना है वैसे ही प्रशस्तरागरूप शुभयोग भी पत्र की विनता से विपरीत फल वाला होता है। इससे सिद्ध है कि प्रशस्त राग पात्रभेद से तीर्थकर प्रकृति के बन्धादि के द्वारा मुक्ति का और निदा नादि के बन्ध से संसारबन्ध का दोनों का कारण हो सकता है। श्री जयसेनाचार्य ने २५४वी गाथा की व्याख्या करते हुए इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है
'
वै
बुत्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है। इससे वे छोटे ध्यानों से बचते हैं तथा साधु-समति मे निश्चय व्यवहार मोक्ष मार्ग का ज्ञान होता है, पश्चात् परम्परया निर्वाणप्राप्ति होती है ।
२
उपसंहाररूप २७४वी गाथा मे शुद्धोपयोगी मुनि को सिद्ध कहकर नमस्कार किया गया है तथा २६५वी गाथा
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६, बर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
में ग्रन्थ का फल बतलाते हुए लिखा है
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मरस होदि ववहारा। बुज्झदि सासणमेय सागारणगार चरितया जुत्तो।
कम्म जंभावणादा कत्ता भोत्ता दूणिच्छयदो ॥ जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि ।।२७५।। दवस्थिएण जीवा वदिरित्ता पुवणिदपज्जया। अर्थ--जो गृहस्थ और मुनि की चर्या से युक्त होता
पज्जवण येण जीवा सजुता होति दुविहेहिं 16 हुआ (अरहन्त भगवान् के) इस शासन (शास्त्र) को जानता दशम परम भक्त्याधिकार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार है वह शीघ्र ही प्रवचन के सार (मोक्ष) को प्राप्त कर व्यवहार नय की अपेक्षा से उसकी प्रशसा में लिखते है - लेता है। यहा "सागारणगारचरियया" शब्द ध्यान देने "जो श्रावक अथबा मुनि रत्नत्रय मे भक्ति करता है अथवा योग्य है जिसकी व्याख्या करते हए : यसेनाचार्य ने लिखा गुणभेद जानकर मोक्षगत पुरुषो में भक्ति करता है उसे है-' अभ्यन्तर रत्नत्रयानुष्ठानमुपादेय कृत्वा बहिरङ्गरत्न- निवृत्ति-भक्ति (निर्वाण भक्ति) होती है।"५ श्रयानुष्ठानं सागारचर्या श्रावकाचर्या । बहिरङ्गरत्नत्रया- अन्त मे ग्रन्थ कार अपनी सरलता को बतलाते हुए धारेण भ्यन्तर रत्नत्रयानुष्ठानमनगार चर्या प्रमतसयतादि- हृदय के भाव को प्रकट करते है-'प्रवनने की भक्त से तपोधनचर्येत्यर्थः ।"
कहे गये नियम और नियमफल मे यदि कुछ पूर्वापर विरोध ___ इस तरह इस प्रवचन मार में विशेष रूप से व्यवहार हो तो समयज्ञ (आगमज्ञ) उस विरोध को दूर करके सम्यक् निश्चयरूप मुनिधर्म का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार पूर्ति करे। किन्तु ईयाभाव से इस सुन्दर मार्ग की यदि दोनों नयों का सम्यक समायोजन चाहते है। ज्ञान और कोई निन्दा करे उ-के वचन सुनकर जिनमार्ग के प्रति ज्ञेय अधिकार में भी निश्च 4-6 पवहार अथवा द्रव्याथिक- अभक्ति न करे क्योकि यह जिनोपदेश पूपिरदोष से रहित पर्यायाथिक दोनो नयों का समन्वय करते हुए वस्तु तत्त्व है।" यहाँ पूर्वापरविरोध परिहार की बात कर के ग्रन्थका विवेचन करते है।
कार दोनों नयो का सम्यक् समन्वय करना चाहते है । इसे (४) नियमसार--
सुनकर ईर्ष्या भाव उतन्न होने की सम्भावना को ध्यान में जो अवश्यकरणीय (नियम से करने योग्य हो उन्हें रखत हा ग्रन्थ कार व्यवहार नयाश्रित भक्ति को न छोडने नियम" कहते है। नियम से करने योग्य है सम्यग्ज्ञान, की बात करते है। दर्शन और चरित्र । विपरीत ज्ञान, दर्शन और चारित्र
इस तरह ग्रन्थ कार सरल हृदय से किसी एक नय का का परिहार करने के लिए नियम शब्द के साथ "सार"
ऐकान्तिक ग्रहण अभीष्ट न मानते हुए पूर्वापर विरोध रहिन पद का प्रयोग किया गया है। इस तरह यह नियमसार
स्याद्वाद का सिद्धान्त ही प्रतिपादन करना चाहते है। ज्ञान, दर्शन और चरित्र स्वरूप नियम निर्वाण का कारण (मोक्षोपाय) है तथा उसका फल परम निर्वाण प्राप्ति है। (५) अष्टपाहुडइसमे १६ अधिकार है। इस ग्रन्थ के लिग्वन का प्रयोजन दर्शनादि सभी पाहुडो के प्रारम्भिक पद्यो में वर्द्धमान ग्रन्थकार ने यद्यपि निज भावना बतलाया है परन्तु प्रवचन आदि तीर्थङ्करों को नमस्कार किया गया है। शील पाहड भक्ति भी इसका प्रयोजन रहा है।
मे शील और ज्ञान के अविरोध को बतलाते हुए लिखा है ग्रन्थारम्भ करते हुए ग्रन्थकार "जिन" नो नमस्कार कि शील के बिना पन्चेन्द्रिय के विषय ज्ञान को नष्ट कर करके केवली और श्रुतके वलियो के द्वारा कथित नियम- देते है। अत. सही ज्ञान के लिए चारित्र अपेक्षित है। सार को कहने का सकल्प करते है।' पश्चात् व्यवहार लिङ्गपाहुड मे केवल बाह्यलिङ्ग से धर्मप्राप्ति मानने वालो
और निश्चय दोनों नयो को दृष्टि से रत्नत्रय का कथन को प्रतिबोधित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकरते हैं। प्रथम जीवाधिकार के अन्त मे ग्रन्थकार निश्चय- का पथभ्रष्ट बाह्यलिङ्गी साधुओ को ही प्रतिबोधित करना व्यवहार तथा द्रव्याथिक-पर्यायाथिक दोनो प्रकार के नय मुरूप लक्ष्य रहा है। इस तरह इस ग्रन्थ में भी दोनो नयों विभाजना का समन्वय करते है :
का समन्वय देखा जा सकता है ।
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प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय व्यवहार का समन्वय
(६) द्वावशानुप्रेक्षा
इसका प्रारम्भ सिद्धों और चोबीस तीर्थ के नमस्कार से होता है ।' अन्तिम से पूर्ववर्ती दो गाथाओं (८९ १०) में अनुप्रेक्षाओ का माहात्म्य बतलाकर उनके चिन्तन से मोक्ष गये पुरुषों को बारम्बार नमस्कार किया गया है। अन्तिम गाथा कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों के मर्मज्ञ किसी अन्य विद्वान् के द्वारा जोडी गई जान पड़ती है क्योंकि वहाज भणिय कुन्दकुन्दमुनिणा" वाक्य का प्रयोग किया गया है जबकि पंचास्तिकाय को अन्तिम गाथा में "मया भगिय" का प्रयोग किया गया है।" द्वादशानु की पूरी अन्तिम गाथा इस प्रकार है -
इदि णिच्छयववहार ज भणियं कुन्दकुन्दमृणिणा हे । जो भावइ सुद्धमग सो पावई परमणिव्वाण ॥६॥
इस गाथा मे ग्रन्थकार के निश्चय व्यवहार के समन्वय को स्पष्ट शब्दों में कहा गया है। "मणो" शब्द से यहा एकान्त आग्रह रहित वीतराग हृदय का संकेत किया गया है ।
(७) भक्ति संग्रह
यह पूर्णत: भक्तिग्रन्थ होने से श्रादि से अन्त तक व्यव हारनयाश्रित है । जैसे- "तिन्धयरा में पीवन्तु,' आरोदाहि न मे बांधि सिद्धासिद्धि मम दिसतु', दुक्खखयं दितु' मगनमत्थु मे पिच्च, निव्वाणरस ខ្ចី लद्धो तुम्ह पसाएण', एयाण णमुक्कारा भव भवे मम सुहदितु इत्यादि ।"
ये कथन अपेक्षाभेद से सिद्धान्तविपरीत नहीं है। वाहा रूप से देखने पर लगता है कि पूर्ण शुद्ध निश्चयनय का प्रतिपादन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द ईश्वर कर्तृत्ववाचक व्यवहारपरक वाक्योंका प्रयोग कैसे कर सकते है परंतु निश्वय और व्यवहार के समन्वय के आचार्य के ये प्रयोग अनुपात नहीं है क्योकि तटस्थ निमित्तकारणो को भक्ति यहां सक्रियनिमित्त कारणों के हर में कहा गया है जो 'स्यात्' पद के प्रयोग से असंगत नही है ।
इस प्रकार ग्रन्थकार के सभी ग्रन्थो के आलोकन से सिद्ध होता है कि उन्हें उभयनयो का समन्वय है । अभीष्ट है जो जनमत के अनुकूल है। इसीलिए वे शुद्ध निश्वयन से विद्धादि के प्रति व्यावहारिक भक्तिभाव का निषेध
करते हुए भी प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में, कही-कही मध्य और अन्त मे भी सिद्धादि के प्रति नमस्कार रूप भक्ति को प्रदर्शित करते हैं । भक्ति संग्रह पुर्णतः भक्ति का पिटारा है। इसी प्रकार मात्र बाह्यलिंग का निषेध करके भी उसका न केवल प्रतिपादन ही करते है अपितु स्वयं भी भावलिग के साथ बाह्यलिय को भी धारण करते हैं।
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शुद्ध निश्चय नम से सारी और मुक्त आत्माओं को नियममार में जन्म जरादिरहित, सम्यक्त्वादि आठ गुणों से अलंकृत बद्रिय निर्मन विशुद्ध और सिद्धभावी कहा है । परन्तु क्या अपेक्षाभेद से इतना जानने मात्र से संगारी और मुक्त सर्वथा समान हो जायेंगे। ऐसा होने पर मुक्ति के लिए प्रयत्नादि सब व्यर्थ हो जायेगे । किञ्च वही परद्रव्य को देय और स्व को उपादेय कहा है ।" क्या निश्चयय से हयोपादेय भाव बन सकता है ? कभी नही सम्भव है। यह हेयोपादेय भाव व्यवहारनय से हो सम्भव है । अत ग्रन्थकार के किसी एक कथन को उपाव्य मानना एकान्तवाद का स्वीकार करना है जो स्वादसिद्धान्त से मिथ्या है। जब तक समग्र दृष्टि से चिन्तन नहीं करेंगे तब तक ग्रन्थकार के काल का सही मूल्याकन नही हो सकेगा । ग्रन्थकार ने किन परिस्थितियो में किनके लिए निश्चय न का उपदेश दिया है, यह ध्यान देने योग्य है। उपहार हे उन्होने कभी नही कहा अपितु उसे ही पकड़कर बैठ जाने अथवा उसकी नोट में जीविका चलाने का निषेध किया है ।" आचार्य ने स्वयं समयसार के कर्तृकर्माधिकार के अन्त मे दोनो नयो का समयसार है, किस नयाश्रित नही कहकर सारभूत अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट शब्दो में कहा है। जैसे
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जीवे कम्म बद्ध पुट्ठ चेदि ववहारणयभणिद | सुद्धणयस्सदु जीवे अबद्धपुट्ठे हवई कम्म || १४१ ॥ कम्म बद्धमबद्धं जीवे एव तु जाण णयपक्ख । पातितोपुर्ण भयदि जो सो समयसारो ॥१४२ सम्मद्दसणणाण एद लहदित्ति णवरि ववदेस । सरहदा भणिदां जो सो समयसारो ॥१४४ अर्थात् व्यवहार नय से जीव मे कर्म बद्ध स्पृष्ट है परन्तु निश्चयनय से अवद्ध स्पृष्ट है। "जीव मे कर्म बधे
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वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
हैं अथवा नही बंधे हैं" ऐसा कथन नय पक्ष है परन्तु जो है। यह समयसार ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और (सम्यक्इससे पूर (पक्षातिकान्त) है वही समयसार है। जो शुद्ध चारित्र) इस नाम को प्राप्त होता है। आत्मा से प्रतिबद्ध है, दोनों नयो के कथन को केवल जानता इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन मे निश्चय व्यवहै, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता है, वही पक्षा. हार का समन्वय देखा जाता है जो जैम दर्शन के अनुकूल तिक्रान्त है । जो सभी नयपक्षो मे हित है वही पमयमार और युक्तिसंगत है। -काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
सन्दर्भ-सूची १.पंचास्तिकाय -
७ ववहारोऽभूयत्थो भयत्थो देसिदो उ सुद्धणओ। १. (क) प्रथम श्रुतस्कन्ध में -
भूयत्यमस्सिदो खलु सम्पाइट्ठी हवई जीवो ॥ समय. ११ इंदसदवदिययाण तिहुअणहिदमधुर विशदवकाण । ८. सुद्धो सुद्धादेमो णायवो परमभावदरिसीहिं। अतातीदगुणाण णमो जिणाण जिभ वाण । पचा.१ वहार दमिदापुण जे दु अपरमेट्टिदा भावे ।। समय, १२ समण मुहग्गदमट्ठ च दुग्गदिनिवारण मणिव्वाण । ६. समयमार गाथा १२ (टीका) एसहणमिय सिरसा समयमिम सुह वोच्छामि । पचा. २ १०. पाखडीलिंगेषु वा गिहलिगेसु वा बहुप्पयारेसु । (ख) द्वितीय श्रुतस्कन्ध मे --
कुवति जे ममत्त तेहिं ण णाय समयमार | समय. ४१३ अभिवदिऊण सिरमा अपुगब्भव कारण महावीर। १. ववहारिओ पुणणओ दोण्णिवि लिंगारिण भणई मोक्ख पहे
तेसि पयत्थभंग मग्ग मोक्खस्स वोच्छामि ॥ पचा. .०५ णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहो सवलिंगाणि ।। ४१४ २. एवपवयणसार पच त्थय सगह वियाणि ।।।
१२ तम्हा उ जो विसुद्धो चेया मोणे। गिहए किचि । जो मुयदि रागदोसे मो गाहदि दुक्खप रमोक्ख ॥ प.१०३ विमुचई किचिवि जीवा जीवाग दवाण समय. ४०७ मुणिऊण एतदट्ठ तदणुगमणुज्झदो णिहदमोहो। १३. जो समयपाहुड मिण पठिदूण अत्थतच्चदो णाउ।
पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरावरो जीवो ॥ पचा. १०४ अत्थेठाही चेया मो होही उत्तम सोक्ख ॥ समय. ४१५ ३. पचा १०७, १६० ४. पंचा. १६१-१६३ (३) प्रवचनसार५. पंचा. १६६, १६८, १७०-१७१
१. प्रवचनसार गाथा २०१ ६. पंचा. १६६ ७. पचा. १६६ (वही)
२. प्रवचनमार गाथा २५४ जयसेनाचार्य टीका ८. मग्गप्पभावणठें पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया।
(४) नियमसार
१. णिय मेरा य ज क ज तणियम णाणदसण चरित्त। भणिय पवयणसारं पंचत्थिय संगह सुत्त ।। पंचा. १७३
विवारीयपरिह रत्थ भणिद खलु सारमिदि वयण ॥ निय. ४ २. समयसार
२. नियम० गाया २,४ १. समयसार गाथा २
३ नियम० गाया १८४,१८६ (देखें नियम. टि. ६,७ २. बंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गइ पत्ते ।
४. नियम० गाथा १ वोच्छामि समयपाहुइमिणमो सुयके वली भणिय ॥ सम. १
५. सम्मत्तणाणच रणे जो भत्ति कुणइ सावगो समणो। .. समय० ३.४
तस्स दुणिवुदिभत्ती होदित्ति जिणहि पण्णत्त ॥ नि० १३४ ४. तं एयत्तविहत्त दाएह अप्पणो सविहवेण।
मोक्ख गयपुरिसाण गुण भेद जाणिऊग तेसि पि । जदि दाएज्ज पमाण चुक्किज्ज छल ण घेतव्व ।। समय. ५
जो कुणदि परमभत्ति ववहारणयेण परिकहिय ॥ नि० १३५ ५. ववहारेणुवदिस्सई णाणिस्स चरितदसण णाणं ।
६. णियम णियमस्स फलं णि द्दिट्ठ पवयणस्स भत्तीए। ण वि णाण ण चरित्त ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥समय. ७
पूवावरविरोधी जदि अवणीय पुरयतु समयण्हा ॥१८४ ६. जहण वि सक्कमणज्जो अणज्जभास विणा उ गाहेउं ।
७. ईसाभावेण पुणो केई णिदति सुंदर मग्गं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। समय,
तेसि वयण सोच्चाऽभत्ति मा कूणह जिलमग्गे ॥ नि.८५ स्था देखिए, वही गाथा ६.१०
(शेष पृ० १० पर)
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मोम् महम्
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्पन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष ४१ किरण ३
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण संवत् २५१४, वि० सं० २०४५
जुलाई-सितम्बर
१९८८
गुरु-स्तुति कबधों मिले मोहिं श्रीगुरु मुनिवर, करिहैं भव-दधि पारा हो। भोग उदास जोग जिन लीनों, छांडि परिग्रह भारा हो। इन्द्रिय-दमन वमन मद कोनों, विषय-कषाय निवारा हो। कंचन-कांच बराबर जिनके, निंदक वंदक सारा हो। दुर्धर तप तपि सम्यक निज घर, मन वच तन कर धारा हो। ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरें, पावस तरुतर ठारा हो। करुणा भीन, चीन स थावर. ईर्यापंथ समारा हो ॥ मार मार, व्रतधार शोल दृढ़, मोह महामल टारा हो । मास छमास उपास, वास वन, प्रासुक करत अहारा हो। आरत रौद्र लेश नहिं जिन, धरम शुकल चित धारा हो। ध्यानारूढ़ गूढ़ निज आतम, शुध उपयोग विचारा हो। आप तरहिं औरन को तारहिं, भवजलसिंधु अपारा हो । "दौलत" ऐसे जैन जतिन को, नित प्रति धोक हमारा हो ।
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निन्नानवे के चक्कर से बचिए
'इतिहास मनीषी विद्यावारिधि' स्व. डा० ज्योतिप्रसाद जैन
अरिपग्रह का अर्थ है परिग्रह का अभाव और 'परिग्रह' सर्वथा नगण्य है, हेय है। प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी डेविड उसे कहते है जो आत्मा को सर्व ओर से घेरे व बांधे रखता थोरो की उक्ति है कि "सबसे बड़ा प्रमीर वह है जिसके है-- "परितो गृह्ण ति आत्मानमिति-परिग्रहः।" चेतन- सुख सबसे सस्ते है-आत्मा की आवश्यकताए जुटाने के अचेतन, घर-जायदाद, धन-दौलत आदि अनगिनत बाह्य लिए पैसों की आवश्यकता नहीं होती।" गोल्डस्मिथ कहता भौतिक पदार्थ मनुष्य को बांधे रखते है। वह अहर्निश है कि- "हमारी प्रमुख सुविधाएं व आरामतलबिया ही उनके अर्जन, सग्रह, सुरक्षा की चिन्ता में तथा उनके नष्ट बहुधा हमारी सर्वाधिक चिन्ता का कारण होती है और हो जाने या छिन जाने के भय से व्याकुल रहता है । वह जैसे-जैसे हमारे परिग्रह में-हमारी धन सम्पत्ति में बढोउन्हे ही अपना जीवन प्राण समझता है। प्रतएव वे सब तरी होती जाती है हमारी चिन्ताएँ भी बढ़ती जाती है, पदार्थ सामान्यतया परिग्रह कहलाते हैं, किन्तु वास्तव में नित्य नवीन चिन्ताए उत्पन्न होती जाती है। शायद इसी. स्वय वे पदार्थ परिग्रह नही है, वरन् उनमे जो व्यक्ति की लिए किसी ने कहा है कि - "जिमने धन की सर्वप्रथम मुर्छा है, ममत्वभाव है, आसक्ति है, वही परिग्रह है और खोज की, उसी ने मनुष्य के सारे दुःख भी साथ ही साय इस परिग्रह का मूल कारण उसकी कामनाए, इच्छाएं, खोज लिए।" आकाक्षाएँ, लोभ, तृष्णा या आशा है। जिसका चित्त इन अपने धर्म को, स्वरूप व स्वभाव को आत्मा और चित्त आशा-तृष्णादि विकारो से ग्रस्त रहता है, उसके पास अटूट की शाति को प्राप्त करने का आधार धन-सम्पनिया परिधन वैभव हो तो भी उसे सुख व शान्ति प्राप्त नही होती। ग्रह नहीं है, वरन् उसके त्याग मे, उमकी आशा व तृष्णा इसीलिए एक शायर ने कहा है कि
के घटाने में ही निहित है। जमीयते दिल कहां हरीसों को नसीब ।
अहमक पूछना है वहा जाने की राह क्या है ? निन्नानवे ही रहे कभी सौ न हुए ॥
जेब गर हल्की करें हर जानिब से रास्ता है। तृष्णा ग्रस्त जीवों को कभी भी चित्त की शान्ति जिन महानुभावो ने “परिग्रह पोट उतारकर लीना प्राप्त नही होती। वे सदा निन्नानवे के चक्कर मे पडे चारित पंथ" उन्हीने आत्म धर्म प्राप्त किया है। जरा यह रहने है, क्योकि पुरानी इच्छामो की पूर्ति के साथ ही साथ सोचना तो शुरू कीजिए कि धनवान होने की वह कौन-सी तृष्णा को सीमा आगे-आगे बढती जाती है। अत: वह धनी सीमा है कि जिसपर पहुंचकर आपके और अधिक धनवान होते हुए भी निर्धन है, वैभव सम्पन्न होते हुए भी रक है - बनने की इच्छा समाप्त हो जाय ? स्वय पमझ मे आ जायेगा म: हि दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला। वह यह भी जाता कि इस मृगतृष्णा से पार नही पाया जा सकता। है कि
आशैव मदिराक्षाणाम आणव विषमजरी। दि की तस्की भी है जिन्दगी की खुशी की दलील। आशामूलानि दुखानि प्रभवन्ती देहिनाम् ।। जिन्दी सिर्फ जरोसीम का पैमाना नही ।। येषामाशा कुतस्तेषा मन' शुद्ध शरीरिणाम् ।
जीवन के सुख का प्रमाण चित्त का सन्तोष व शान्ति अतो नैराश्य नवलम्ब्ध शिवीभता मनीषिण. ॥ है, मात्र धन-दौलत उसका मापदड नहीं है - वह बाह्य तस्य सत्य-श्रुत-वृत्त-विवेकस्तत्त्वनिश्चय । वैभव मे नही मापा जा सकता।
निर्ममत्वं च यस्याशा पिशाची निधनंगता॥ पुरातन जैनाचार्य कह गये है कि जो निग्रंथ होता है, बडी भयंकर है यह धन लिप्पा । यह तृष्णा ही समम्त भीतर-बाहर दोनों से सर्वथा निष्परिग्रह होता है, वही दुःखों की जड़ है। इस आशा पिशाचिनी के नष्ट होने सच्चा चक्रवर्ती होता है-लौकिक चक्रवर्ती सम्राट का पर ही सत्य, श्रुतज्ञान, चारित्र, विवेक, तत्वनिश्वय और अपार वैभव भी उस महात्मा की दिव्य विभूति के समक्ष
(शेष पृ० ३ पर)
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आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार का समन्वय
0 डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी
दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वो- आपकी मान्य रचनायें हैं-१. पचास्तिकाय संग्रह, परि है। आपन भगवान महावीर की वाणी का मन्यन २. समयमार, ३. प्रवचनसार, ४. नियमसार, ५. अष्टकरके हमे नवनीत प्रदान किया है। भगवान महावीर ने पाहुड, ६. द्वादशानुप्रेक्षा और ७. भक्तिसग्रह । 'रयणसार' जिस वीतरागता का उपदेश दिया था उसे मात्र बाह्यलिङ्ग के सन्दर्भ मे विद्वानो का मतभेद अधिक होने से उसे यहा के रूप मे समझा जाने लगा तो आपने भगवान महावीर नही लिया गया है। क्रमशः उनके उक्त प्रथों का परिचय दर्शन के बाह्य और आभ्यन्तर वीतराग भाव को स्पष्ट दिया जा रहा है। किया । अभ्यन्तर वीतरागभाव को प्रकट करना उनका १. पंचास्तिकाय सग्रह-यह ग्रन्थ दो श्रुतस्कन्धो मे प्रमुख लक्षा था । अत: आपने उन्ही बातो का अधिक व्या- बिभक्त है । दोनों श्रुतस्कन्धों का प्रारम्भ ग्रन्थकार 'जिन' ख्यान किया है। इसका यह तात्पर्य नही है कि उन्हे बाह्य स्तुतिपूर्वक करते है।' यह नमस्कार निश्चय ही भक्तिरूप वीतराग मुद्रा अभीष्ट नही थी। वस्तुतः आपने बाह्य और व्यवहार नय का आश्रय लेकर किया गया है। इसके प्रथम आभ्यन्तर वीतरागभाव के उपदेशो का व्यवहार और श्रुतस्कन्ध में षड्द्रव्यो का और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में नव निश्चय उभय नयो के द्वारा सम्यक आलोडन करके अपने पदार्थों एव मोक्षमार्ग का वर्णन है। जीवन मे तथा स्व-रचित ग्रन्थो में समावेश किया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपसंहार करते हुए लिखाआपके ग्रन्यो के अन्तः साक्ष्य से तथा आपकी स्वय की "प्रवचन के सारभूत पचास्तिकाय सग्रह को जानकार जो जीवन शैली से आपकी निश्चय-व्यवहार की ग्रथायोग्य रागद्वेष को छोड़ता है वह दुखों से मुक्त हो जाता है। समन्वय दृष्टि स्पष्ट परिलक्षित होती है।
इसके अर्थ को जानकर तदनुगमनोद्यत, विगतमोह और सामान्य रूप से कोई भी लेखक अपनी रचनाओ के प्रशमित राग-द्वेष वाला जीव पूर्वापरबन्धरहित हो जाता प्रारम्भिक अशो में अपने अनुभवो को भूमिका रूप में है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तत्वश्रद्धानादिरूप व्यवहार मोक्षस्थापित करता है और अन्त में उसहार के रूप मे उन्हे मार्ग का कथन करके निश्चय मोक्षमार्ग का कथन करते परिपुष्ट करता है। अत: उन्ही अशो को यहा इस लेख में हुए लिखा है -"रत्नत्रय से समाहित (तन्मय) हआ आत्मा प्रमुख रूप से माध्यम बनाकर आपकी समन्वयदृष्टि का ही निश्चय से मोक्षमार्ग है जिसमे वह अन्य कुछ भी नहीं प्रतिपादन किया गया है--
करता है और न कुछ छोड़ता ही है।' यह कयन निश्चय
ही निविकल शुद्ध ध्यानावस्था को लक्ष्य करके कहा गया (पृष्ठ २ का शेषाश) निर्ममत्व या अरिग्रह जैसे गुण आत्मा मे प्रगट होते हैं- है। इसक आग बतलाया है कि अहृदादि की भक्ति से उसके रहते वे व्यर्थ है।
बहुत पुण्यलाभ एव स्वर्गादि की प्राप्ति होती है । यही परिसर में निरासत रहने का अभ्यास करने अहंदादि की भक्ति से कर्मक्षय का निषेध और निर्वाणप्राप्ति उसका परिमाण करने का तथा उक्त परिमाग की सीमा की दूरी को भी बतलाया है, भले ही वह सर्वागमधारी को निरन्तर घटाते जाने का अभ्यास करने से ही व्यक्ति और सयम-तपादि से युक्त क्यों न हो। यह कयन भी शनैः शनैः अपरिग्रही हो जाता है, और सच्चे सुख एवं छठे आदि गुण स्थान वालों को लक्ष्य करके कहा गया शान्ति का उपभोग करता है।
है। यही पर यह भी कहा गया है कि मोक्षाभिलाषी पुरुष चारबाग, लखनऊ निष्परिग्रही और निर्ममत्व होकर सिद्धों मे भक्ति करता
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४, वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
है और उससे वह निर्वाण प्राप्त करता है। यहां टीका- इस तरह व्यवहार और निश्चय का सम्यक् समन्वय ही कारों ने 'सिद्धेषु' का अर्थ शुद्धात्म द्रव्य में विश्रान्तिरूप निर्वाण का हेतु है, न केवल व्यवहार और न केवल निश्चय पारमाधिक सिद्धमक्ति अर्थ किया है।' गाथा १७२ की नय। यही ग्रन्थकार का अभिमत है। नय मात्र वस्तुव्याख्या में अमृतचन्द्राचार्य और सिद्धसेनाचार्य ने केवल परिज्ञान के लिए स्वीकृत है शुद्धात्मा नयातीत है। निश्वयावलम्बी उन जीवों को लक्ष्य करके कहा है जो (२) समयसारवस्तुत: निश्चय नय को नहीं जानते हैं :-कोई शुमभाव यहां "जीव" पदार्थ को "समय" शब्द से कहा गया वाली क्रियाओं को पुण्यवन्ध का कारण मानकर अशुभ है। जब वह अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होता है तब उसे भावों में वर्तते हुए वनस्पतियों की भाति केवल पापबध "स्वसमय" कहते हैं और जब परस्वभाव (राग-द्वेषादि के को करते हुए भी अपने में उच्च शुद्धदशा की कल्पना करके कारण पुद्गल कर्मप्रदेशो) मे स्थित होता है तब उसे स्वच्छन्दो और आलसी हैं
'परसमय" कहते हैं।' इस ग्रन्थ में जीव के इस स्वसमय णिच्छयमालम्बन्ता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणता। और परसमय का ही विवेचन किया गया है। णासति चरणकरण बाहरिचरणालसा केई ॥ ग्रन्थारम्भ में ग्रन्थ कार ध्र व, अचल और अनुपम गति
अन्त मे इस ग्रन्थ का उपसहार करते हुए ग्रन्थकार को प्राप्त सभी सिद्धो को नमस्कार करके श्रुत केवलियो लिखते हैं -प्रवचन (जिन वाणी) की भक्ति से प्रेरित के द्वारा कथित इस समय प्राभूत को कहने का सकल्प होकर मैंने (मोक्ष) मार्ग की प्रभावना के लिए प्रवचन करते हैं। इसके बाद एकत्व विभक्त (सभी पर पदार्थों से का सार भूत यह पंचास्तिकाय सग्रह सूत्र (शास्त्र) कहा है। भिन्न-पुद्गल कर्मबन्ध से रहित) आत्मा की कथा की
इससे स्पष्ट है कि जो व्यवहाररूप अहंदादि की भक्ति दुर्लभता का कथन करते हुए उसके कथन करने की को मात्र स्वर्ग का साधन बतलाकर और मोक्षप्राप्ति मे प्रतिज्ञा करते है --मैं अपनी शक्ति के अनुसार उस एकत्वप्रतिवन्धक बतलाकर तुरन्त उपसहार करते हुए जिन मार्ग विभक्त आत्मा का यदि प्रमागगरूप से दर्शन करा सक तो प्रभावनार्थ "प्रवचनभक्ति प्रेरित" जैसे वाक्यो वा कथन प्रमाण मानना अन्यथा (ठीक से न समझा सकने पर या क्यों करेगा। नमस्कार वाक्यों मे महावीर को 'अपुनर्भव ठीक न समझने पर) छलरूप ग्रहण न करना।' का कारण" कहना व्यवहार नयाश्रित कथन है क्योकि इससे सिद्ध है कि ग्रन्थ कार का मुख्य उद्देश्य इस प्रथ निश्चय से कोई किसी का कारण नहीं है । इ.यादि कथनो मे आत्मा के दुर्बोध शुद्धस्वरूप का ज्ञान कराना है। अतः से सिद्ध होता है कि व्यवहार रूप बाह्य क्रियाये भी निर्वा- वे व्यवहार पक्ष को गौण करके निश्चय का कथन मुख्यता णप्राप्ति के लिए आवश्यक हैं परन्तु वही तक सीमित न से करते है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि व्यवहार मिथ्या रह जाएं। अतः उन तपस्वियो के प्रतिबोधनार्थ निश्चय है। इस सन्दर्भ मे उनका यह निवेदन ध्यान देने योग्य है का कथन करके आचार्य ने दोनो नयों सम्यक समन्वय कि "ठीक न जान सकने पर छल रूप ग्रहण न करना।" करना चाहा है। किसी एक नय को हेय और दूसरे को इस तरह से निश्चय ही व्यवहार और निश्चयनय से समउपादेय कहना स्याद्वाद सिद्धान्त का और आचार्य कुन्दकुंद वित कर आत्मा को दर्शाना चाहते है। अन्यथा वेदान्त का उपहास है । अपेक्षा भेद से अपने-अपने स्थान पर दोनों दर्शन के साथ जैन दर्शन का भेद करना कठिन हो जायेगा। नय सम्यक हैं। परमदशा की प्राप्ति तो नयोपरि अवस्था इसीलिए ग्रन्थकार व्यबहार नय से कहते है कि ज्ञानी जीव
के चारित्र, दर्शन और ज्ञान है परन्तु (निश्चय नय से) न 'दर्शनविशुद्धि' आदि भावनाएं जो तीर्थङ्कर प्रकृति चारित्र है, न दर्शन है और न ज्ञान है, अपितु वह शुद्ध बन्धको कारण मानी जाती हैं वे व्यवहार से बन्ध को ज्ञायकरूप है। यही ग्रन्थकार व्यवहार नय की अनुपयो. कारण भले ही हैं परन्तु तीर्थङ्कर प्रकृति बन्ध करने वाला गिता की अशंका का समाधान करते हुए कहते है कि जैसे जीव नियम से निर्वाण प्राप्ति करने वाला माना गया है। अनार्य (साधारण) जन को अनार्य भाषा के बिना समझाना
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प्राचार्य कुंदकंद के ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार का समन्वय
(वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना) कठिन है उसी प्रकार गाउं (अर्थ तत्त्व को जानकर) और अत्ये ठाही चेया व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। (अर्थ मे स्थित आत्मा) पद चिन्तनीय हैं जो निश्चय व्यव
इस तरह यहां स्पष्टरूप से साधारण जन को परमार्थ हार के समन्वय को ही सिद्ध करते है। शुद्ध निश्चय नय तक पहुंचाने में व्यवहारनय को अनिवार्य साधन के रूप तो स्वस्वरूप स्थिति है वहां कुछ करणी नही होता, जब में स्वीकार किया गया है। इसके आगे व्यवहार को "अभू. कि ससाग को करणीय कर्म भी जानना जरूरी है। तार्थ" तथा शुद्धनय (निश्चयनय) को "भृतार्थ" कहते हए (३) प्रवचनसारभूतार्थनयाश्रयी को सम्यग्दृष्टि कहा है। यहा ग्रन्थकार यह ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीन अधिकारों में भ्रम निवारणार्थ पुनः कहते हैं-जो परम भाव (उत्कृष्ट विभक्त है। इसकी प्रा:म्भिक पांच गाथाओ में तीर्थंकरों. दशा) में स्थित है उसके द्वारा शुद्ध तत्त्व का उप- सिद्धो, गणधरों, उपाध्यायों और साधुओ को नमस्कार देश देने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरम किया गया है तथा उनके विशुद्ध दर्शन-ज्ञान प्रधान आश्रय भाव (अनुत्कृष्ट दशा) मे स्थित है वे व्यवहारनय से उप
को प्राप्त करके निर्वाण सम्प्राप्ति के साधनभूत समतादेश करने के योग्य है। इस तरह व्यवहारनय को त्याज्य
भाव को प्राप्त करने की कामना की गई है। इसके बाद न बतलाते हुए अपेक्षा भेद से ग्रन्थकार योगो नयों की सराग चारित्र वीतराग चारित्र आदि का कथन किया प्रयोजनवत्ता को सिद्ध करते है। अधिकाश जीव अपरम गया है। भाव में ही स्थित है। यहा टीकाकार "अमनचन्द्राचार्य" तृतीय चारित्राधिकार का प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार "उक्त च" कहकर एक गाथा उद्धृत करते है--
सिद्धो और श्रमणो को बारम्बार नमस्कार करके दु:ख"जइ जिणमय पवजह ता मा ववहार णिच्छा मुयह।
निवारक श्रमणदीक्षा लेने का उपदेश देते है। इसके बाद एक्केण विणा छिज्जइ तित्थ अणोरण उणतच्च ॥"
श्रमणधर्म स्वीकार करने की प्रक्रिया प्रादि का वर्णन करते ___ अर्थ-यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हुए निश्चय व्यवहाररूप श्रमणधर्म का विस्तार से कथन हो तो व्यवहार ओर निश्चय दोनो नयों को मन छोडो, करते है । प्रमङ्गवश प्रशस्त राग के सन्दर्भ में कहा हैक्योंकि व्यवहार नय के बिना तो तीर्थ व्यवहार मार्ग) "रागो पमत्थभूदो वत्थु विसे सेण फलदि विवरीदं । का नाश हो जायेगा और निश्चय नय के बिना तत्त्व ___णाणा भूमिगदाणित बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥२२॥" (वस्तु) का नाश हो जायेगा क्योकि जिनवचन को स्याद्वाद अर्थ जैसे एक ही बीज भूमि की विपरीतता से विपरूप माना गया है, एकान्तवादरूप नहीं। अत: निनवचन रीत फल वाला देखा जाना है वैसे ही प्रशस्त रागरूप सुनना, जिनविम्बदर्शन आदि भी प्रयोजनवान है। शुभो योग भी पात्र की विारीतता से विपरीत फल वाला
ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए प्राचार्य ने कहा है "जी होता है। इसे सिद्ध है कि प्रशस्त राग पात्रभेद से बहुत प्रकार के गृहस्थ आदि बाह्य लिङ्गो मे ममत्व करते तीर्थकर प्रकृ त के बन्धादि के द्वारा मुक्ति का और निदाहैं वे समयसार को नहीं जानते । व्यवहार नय दोनो नादि के बन्ध से संसारबन्ध का, दोनों का कारण हो (मनि और गृहस्थ) लिङ्गो को इष्ट मानता है।" पर यहा सकता है। श्री जयमेनाचार्य ने २५४वी गाथा की व्याख्या जो अलिङ्गी को मोक्षमार्ग निश्चय नय से कहा है वह करते हैं। इसी अर्थ को स्पाट करते हुए लिखा हैविशुद्धात्मा की दृष्टि से कहा है। जो विशुद्ध आत्मा है 'वै वित्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है। इससे वे खोटे ध्यानों वह जीव-अजीव द्रव्यों मे से कुछ भी न तो ग्रहण करता से बचते हैं तथा साधु-सगति मे निश्चय-व्यवहार मोक्ष मार्ग है और न छोड़ता है।
____ का ज्ञान होता है, पश्चात् परम्परया निर्वाणप्राप्ति होती इस प्रकार जो इस समयप्राभृत को पढकर अर्थ एव है।' २ तत्त्व को जानकर इसके अर्थ में स्थित होगा वह उत्तम उपसहाररूप २७४वी गाथा मे शुद्धोपयोगी मुनि को सुख प्राप्त करेगा। यहां पडिहूड (पढ़कर), अत्थतच्चदो सिद्ध कहकर नमस्कार किया गया है तथा २३५वी गाथा
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६, वर्ष ४१, कि० ३
मनकाम्त
में ग्रन्थ का फल बतलाते हुए लिखा है
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा । बुज्झदि सासणमेय सागारणगार चरितया जुत्तो।
कम्म जंभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥ जो सो पवयणसारं लहुगा कालेण पप्पोदि ॥२७५।। दन्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पूब्वभणिदपज्जया।
अर्थ-जो गृहस्थ और मुनि की चर्या से युक्त होता पज्जवणयेरण जीवा संजुता होति दुविहेहिं ॥ हुआ (अरहन्तभगवान् के) इस शासन (शास्त्र) को जानता दशम परम भक्त्याधिकार के प्रारम्भ मे ग्रन्यकार है वह शीघ्र ही प्रवचन के सार (मोक्ष) को प्राप्त कर व्यवहार नय की अपेक्षा से उसकी प्रशसा में लिखते है - लेता है। यहा "सागारणगारचरियया" शब्द ध्यान देने "जो श्रावक अथबा मुनि रत्नत्रय मे भक्ति करता है अथवा योग्य है जिसकी व्याख्या करते हुए जयसेनाचार्य ने लिखा गुणभेद जानकर मोक्षगत पुरुषो मे भक्ति करता है उसे है-'अभ्यन्तर रत्नत्रयानुष्ठानमुपादेय कृत्वा बहिरङ्गरल- निवृत्ति-भक्ति (निर्वाण भक्ति) होती है।"५ त्रयानुष्ठान सागारचर्या थावकाचर्या । बहिरङ्गरत्नत्रया
अन्त मे ग्रन्थ कार अनी सरलता को बतलाते हुए धारेण भ्यन्तर रत्नत्रयानुष्ठानमनगारचर्या प्रमत्तसयतादि
हृदय के भाव को प्रकट करते है-'प्रवचन को भक्त से तपोधनच येत्यर्थः ।"
कहे गये नियम और नियमफल में यदि कुछ पूर्वापर विरोध इस तरह इस प्रवचनमार मे विशेष रूप से व्यवहार ।
हो तो समयज्ञ (आगमज्ञ) उस विरोध को दूर करके सम्यक् निश्चयरूप मुनिधर्म का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार पूर्ति करें।" किन्तु ईर्ष्याभाव से इस सु-दर मार्ग की यदि दोनो नयों का सम्यक् समायोजन चाहते है। ज्ञान और कोई निन्दा करे उनके वचन सुनकर जिन मार्ग के प्रति क्षेय अधिकार में भी निचप-व्यवहार अथवा द्रव्याथिक- अभक्ति न करे क्योकि यह जिनोपदेश पूर्वापरदोष से रहित पर्यायाथिक दोनो नयों का समन्वय करते हुए वस्तु तत्त्व।
है।' यहाँ पूर्वापरविरोध परिहार की बात करके ग्रन्थका विवेचन करते है।
कार दोनों नयो का सम्यक समन्वय करना चाहते है । इसे (४) नियमसार
सुनकर ईा भाव उन्न होने की सम्भावना को ध्यान में जो अवश्यक रणीय (नियम से करने योग्य । हो उन्हें
रखत हुए ग्रन्थकार व्यवहार नयाश्रित भाक्त को न छोड़ने "नियम" कहते है। नियम से करने योग्य है सम्यग्ज्ञान,
से करने योग्य है सम्यग्ज्ञान, की बात करते है। दर्शन और चारित्र। विपरीत ज्ञान, दर्शन और चारित्र
__इस तरह ग्रन्थकार सरल हृदय से किसी एक नय का का परिहार करने के लिए निय- शब्द के साथ "सार"
ऐकान्तिक ग्रहण अभीष्ट न मानते हुए पूर्वापरविरोध रहित पद का प्रयोग किया गया है।' इस तरह यह नियमसार
स्थाद्वाद का सिद्धान्त ही प्रतिपादन करना चाहते है। ज्ञान, दर्शन और च रिस स्वरूप नियम निर्वाण का कारण (मोक्षोपाय) है तथा उसका फल परम निर्वाण प्राप्ति है। (५) अष्टपाडइसमे १६ अधिकार है। इस ग्रन्थ के लिबन का प्रयोजन दर्शनादि सभी पाहुडो के प्रारम्भिक पद्यो मे वर्द्धमान ग्रन्थकार न यद्यपि निज भावना बतलाया है परन्तु प्रवचन आदि तीर्थङ्करो को नमस्कार किया गया है।' शील पाहड भक्ति भी इसका प्रयोजन रहा है।'
मे शील और ज्ञान के अविरोध को बतलाते हुए लिखा है ग्रन्थारम्भ करते हुए ग्रन्थकार "जिन" को नमस्कार कि शील के बिना पन्चेन्द्रिय के विषय ज्ञान को नष्ट कर करके केवली और श्रुतकेवलियो के द्वारा कथित नियम- देते है। अत: सही ज्ञान के लिए चारित्र अपेक्षित है। सार को कहने का सकल्प करते है ।' पश्चात् व्यवहार लिङ्गपाहुड मे केवल बाह्यलिङ्ग से धर्मप्राप्ति मानने वालो और निश्चय दोनो नयों की दृष्टि से रत्नत्रय का कथन को प्रतिबोधित किया गया है।' इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ - करते है। प्रथम जीवाधिकार के अन्त मे ग्रन्थकार निश्चय- का पथभ्रष्ट बाह्यलिङ्गी साधुओ को ही प्रतियोधित करना व्यवहार तथा द्रव्याथिक-पर्यायाथिक दोनो प्रकार के नय मुख्य लक्ष्य रहा है। इस तरह इस ग्रन्थ में भी दोनों नयों विभाजना का समन्वय करते है :
का समन्वय देखा जा सकता है।
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प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार का समन्वय
(६) द्वावशानुप्रेक्षा
करते हुए भी प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में, कहीं-कहीं मध्य इसका प्रारम्भ सिद्धों और चौबीस तीर्थङ्करों के और अन्त में भी सिद्धादि के प्रति नमस्कार रूप भक्ति नमस्कार से होता है।' अन्तिम से पूर्ववर्ती दो गाथाओं को प्रदर्शित करते हैं। भक्ति संग्रह पूर्णतः भक्ति का (८६६०) मे अनुप्रेक्षाओं का माहात्म्य बतलाकर उनके पिटारा है । इसी प्रकार मात्र बालिग का निषेध करके चिनन से मोक्ष गये पुरुषों को बारम्बार नमस्कार किया भी उसका न केवल प्रतिपादन ही करते है अपितु स्वयं भी गया है। अन्तिम गाथा कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थो के मर्मज्ञ भावलिङ्ग के साथ बाह्य लिङ्ग को भी धा ण करते है। किसी अन्य विद्वान् के द्वारा जोड़ी गई जान पड़ती है शुद्ध निश्चय नय से ससारी और मुक्त आत्माओं को क्योंकि वहा ज भणियं कुन्दकुन्दमुणिणाहे" वाक्य का प्रयोग नियमसार मे जन्म जरादिरहित, सम्यक्त्वादि आठ गुणो किया गया है जबकि पंचास्तिकाय की अन्तिम गाथा में से अलकृत, अतीन्द्रिय, निर्मन विशुद्ध और सिद्धम्वभावी "मया भणिय" का प्रयोग किया गया है। द्वादशानुप्रेक्षा कहा है। परन्तु क्या अपेक्षाभेद से इतना जानने मात्र से की पूरी अन्तिम गाथा इस प्रकार है
संसारी और मुक्त सर्वथा समान हो जायेगे। ऐसा होने इदि णिच्छयववहारं ज भणियं कुन्दकुन्दमुणिणाहे। पर मुक्ति के लिए प्रयत्न हितोपदेशादि सब व्यर्थ हो जो भावह सद्धमणों सो पावई परमणिव्वाण ||६॥ जायेगे । किञ्च वही परद्रव्य को हेय और स्व को उपादेय
इस गाया मे ग्रन्थकार के निश्चय-व्यवहार के समन्वय कहा है।" क्या निश्चय नय से योपादेय भाव बन सकता को स्पष्ट शब्दो में कहा गया है। "सुद्धमणो" शब्द से है? कभी नही सम्भव है। यह हेयोपादेय भाव व्यवहारयहा एकान्त आग्रह रहित वीतराग हृदय का सकेत किया नय से हो सम्भव है। प्रत ग्रन्थकार के किसी एक कथन गया है।
को उपादय मानना एकान्तवाद का स्वीकार करना है जो (७) भक्ति संग्रह
स्याद्वादसिद्धान्त से मिथ्या है। जब तक समग्र दृष्टि से यह पूर्णतः भक्तिग्रन्थ होने से प्रादि से अन्त तक व्यव
चिन्तन नहीं करेंगे तब तक ग्रन्थकार के काल का सही हारनयाश्रित है । जैसे-"तिन्थयरा मे पमीयन्त,' आरो- मूल्याकन नहीं हो सकेगा। ग्रन्थ कार ने किन परिस्थितियो
में किनके लिए निश्चय नय का उपदेश दिया है, यह ध्यान ग्गगाणलाह दितु समाहिं च मे बोधि', सिद्धामिदि मम दिसतु', दुक्खखय दितु मगल मत्थु मे णिच्च, णिव्याणस्स
देने योग्य है । व्यवहार (अभतार्थ) को सर्वथा हेय उन्होने हु लद्धो तुम्ह पसाएण", एयाण णमुक्कारा भवे भवे मम । कभी नही कहा अपितु उसे ही पकडकर बैठ जाने अथवा सुह दितु इत्यादि।"
उसकी प्रोट मे जीविका चलाने का निषेध किया है। ये कथन अपेक्षाभेद से सिद्धान्तविपरीत नही है । बाह्य आचार्य ने स्वयं समयसार क कर्तृ कर्माधिकार के अन्त मे रूप से देखने पर लगता है कि पूर्ण शुद्ध निश्चयनय का दोनो नयो से आतक्रान्त समयसार है, किसी नयाश्रित नही प्रतिपादन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द ईश्वरकर्तृत्व- कहकर सारभूत अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट वाचक व्यवहारपरक वाक्यों का प्रयोग कैसे कर सकते है परत शब्दो मे कहा है। जैसेनिश्चय और व्यवहार के समन्वय के इच्छुक आचार्य के ये जीवे कम्म बद्ध पुट्ठ चेदि ववहारणयणिद । प्रयोग अनुपपन्न नहीं है। क्योकि तटस्थ निमित्तकारणो
सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ट हबई कम्म ॥१४१॥ को भक्तिवश यहा सक्रियनिमित्त कारणों के रू। में कहा कम्म बद्धमबद्धं जीवे एव तु जाण णयपक्ख । गया है जो 'स्यात्' पद के प्रयोग से असगत नही है। पक्खातिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥१४२
इस प्रकार ग्रन्थकार के सभी ग्रन्थों के आलोकन से सम्मदसणणाण एद लहदित्ति णवरि ववदेस । सिद्ध होता है कि उन्हें उभयनयो का समन्त्रय है। अभीष्ट सवणयपक्ख रहिदा भणिदो जो सो समयसारो॥१४४ है जो जिनमत के अनुकूल है। इसीलिए वे शुद्ध निश्वय- अर्थात् व्यवहार नय से जीव में कर्म बद्ध स्पृष्ट है नब से सिद्धादि के प्रति व्यावहारिक भक्तिभाव का निषेध परन्तु निश्चयनय से अबद्ध स्पृष्ट है। “जीव मे कर्म बधे
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८ वर्ष ४१, कि० ३
अनेकान्त
हैं अथवा नही बंधे हैं" ऐसा कथन नय पक्ष है परन्तु जो है। यह संमयसार ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और (सम्यकइससे बूर (पक्षातिक्रान्त) है वही समयसार है । जो शुद्ध चारित्र) इस नाम को प्राप्न होता है। मात्मा से प्रतिबद्ध है. दोनों नयो के कथन को केवल जानता इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन में निश्चय व्यवहै, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नही करता है, वही पक्षा. हार का समन्वय देखा जाता है जो जैन दर्शन के अनुकूल तिक्रान्त है । जो सभी न पक्षों हित है वही समयमार और युक्तिसगत है। -काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
सन्दर्भ-सूची १. पंचास्तिकाय -
७ ववहाऽभूयत्थो भूयत्थो देमिदो उ सुद्धणओ। १ (क) प्रथम श्रुतस्कन्ध मे -
भूयत्यस्सिदो खलु सम्मा इट्ठी हवई जीवो। समय. ११ इंदसदवंदिययाण ति हुअाहदमधुर विशदवाकाण। ८. सुद्धो सुद्धादेनो णायव्वो परमभावदरिमीहिं । अतातीदगुणाण णमो जिणाण जिद्माण । पचा. १ वहार दसिदा पूण जे दु अपरमेट्टिदा भावे ।। समय. १२ समणमुहुग्गदमट्ठ चदुग्गादानेवारण सणिव्वाण । ६. समगमार गाथा १२ (टीका) एसहणमिय सिरसा समयमिम सु। ह वोच्छामि। पचा. २ १०. पाखडीलिगेषु वा गिहलिगेसु वा बहुप्पयारेसुं। (ख) द्वितीय श्रुतस्कन्ध मे -
कुब्वति जे ममत्त तेहिं ण णाय समयगार ।। समय. ४१३ अभिवदिऊण सिरमा अपुगभवकारण महावीर । १. ववहारिओ पुणणओ दोणिवि लिंगाणि भणई मोक्खपहे
तेसि पयत्थभंग मग्ग मोक्खस्स वाच्छामि ॥ पचा. .०५ णिच्छपणओ ण इच्छइ मोक्खपहो सवलिंगाणि ।। ४१४ २. एवपवयणसार पच त्थयमगह वियाणि ।।।
१२ तम्हा उ जो विसुद्धो चेया मोणे । गिहए किचि । जो मुयदि रागदोसे मोगादि दुक्खप रमोक्ख ॥ प.१०३ विमुचई किचिवि जीवा जीवाण दवाण समय. ४०७ मुणिऊण एतदट्ठ तदणुगमणुज्झदो णिहदमोहो। १३ जो समयबाहुडमिण पठिण अस्थतच्चदो णाउ।
पसमियरागबोसो हवदि हदपरावरो जीवो।। पचा.१०४ अत्येठाही चेया मो होही उत्तम सोक्ख ॥ समय. ४१५ ३. पंचा. १०७, १६० ४. पंचा. १६१-१६३ (३) प्रवचनसार५. पंचा. १६६, १६८, १७०-१७१
१. प्रवचनसार गाथा २०१ ६. पचा. १६६
७. पचा. १६६ (वही) २.प्रवचनगार गाथा २५४ जयसेनाचार्य टीका ५. मग्गप्पभावण→ पवयण भत्तिप्पचोदिदेण मया। (४) नियमसार--
१. णिय मेरा य ज क जंतणियम णाणदसणचरित। भणिय पवयणसारं पंचत्यियसंगह सुत्त ॥ पंचा. १७३
विवारीयपरिहत्थ भणिद खलु सारमिदि वयण ॥ निय.४ २. समयसार
२. नियम० गाथा २,४ १. समयसार गाथा २
३ नियम० गाथा १८४, १८६ (देखे नियम टि. ६,७ बंदित्तु सवसिद्धे धुवमचलमणोवम गइ पत्ते । वोच्छामि समयपादुडमिणमो सुयके वली भणिय ।। सम.१
४. नियम० गाथा ?
५. सम्म तणाणच रणे जो भत्ति कुणइ सावगो समणो। १. समय० ३-४
तस्स दुणिन्वुदिभत्ती होदित्ति जिणेहि पण्णत्त ॥ नि० १३४ ४. तं एयत्तविहत्त दाएह अप्पणो सविहवेण।
मोक्ख गयपुरिसाण गुण भेदं जाणिऊण तेमि पि। जदि दाएज्ज पमाणं चुक्किज्ज छल ण घेतव्व ।। समय. ५
जो कुणदि परमभत्ति ववहारणयेण परिकहिय ॥ नि० १३५ ५. यवहारेणुवदिस्सई ण णिस्स चरितदसण णाणं ।
६. णियम णियमस्स फल णि द्दिट्ठ पवयणरस भतीए। ण वि णाण ण चरित्त ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥समय.७
पुध्वावर विरोधी जदि अवणीय पुरयतु ममयण्हा ॥१८४ ६, जहण वि सक्कमणज्जो अणज्जभास विणा उगाहेउ ।
७. ईसाभावेण पुणो केई जिंदति सुंदरं मग्गं। तह ववहारेण विणा परमत्वएसणमसक्कं ।। समय.८
तेसि वयण सोच्चाऽभत्ति मा कूणह जिमग्गे ॥ नि.१८५ तथा देखिए, वही गाथा ६.१०
(शेष पृ० १० पर)
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एक नया मिथ्यात्व-'अकिंचित्कर'
जिन-शासन में मिथ्यावर्शन को संसार (बंध) का मूल और सम्यग्दर्शन को मुक्ति (निवृत्ति) का मूल कहा है। सम्यग्दर्शन का निश्चयलक्षण स्वात्मानुभूति और मिथ्यादर्शन का लक्षण पर-रूपपने को स्व-रूपपने रूप अनभूति है। कहा भी है-"शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रयोतते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूयत इति । या चानुभूति प्रतीति शुद्धात्मोपलब्धिः सा चैव निश्चयसम्यक्त्वमिति ।"-समयसार १३ (जयसेन टीका)।
उक्त प्रात्मानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन नियमतः कर्मनिर्जरा का कर्ता और परानुभूतिरूप मिथ्यावर्शन नियमतः कर्मबन्ध का कर्ता होता है। इसके अतिरिक्त बाह्यरूप में तत्त्वादि का सच्चा श्रद्धान करना या मिथ्या श्रद्धान करना जैसे सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के बाह्य-व्यवहार लक्षणों के माध्यम तो निर्जरा या बन्ध में निमित्त मात्र हैंकर्ता नहीं। यदि कोई व्यक्ति निश्चयलक्षणों को तिरस्कृत कर, निमित्तरूप व्यवहार लक्षणों मात्र के आधार पर यह कहे कि सम्यग्दर्शन या मिथ्यावर्शन का विषय श्रद्धा मात्र है और उनसे निर्जरा या बंध नहीं होता, तो वह लोगों को भरमाने वाला है और निमित्त को कर्ता मानने का दोषी है। जैसा कि "अकिंचित्कर" पुस्तक में किया गया है। इसमें कर्तारूप अनुभूति जैसे लक्षणों को तिरस्कृत कर-व्यवहार लक्षणों (जो निमित्त मात्र होते है) के आधार पर मिथ्यात्व को बन्ध में अकिंचित्कर सिद्ध करने की कोशिश की गई है जो सर्वथा ही मिथ्या है। क्योंकि बंध के सभी साधनों के मूल में अनुभूति ही है और अविरति कषायादि के होने में भी अनुभूति ही मूल कारण है।
"मिथ्यात्व बंध का कारण नहीं है" यह चर्चा अखबारों में बरसों से चल रही है इस विषय की "अकिचिकर" पुस्तक हमारी वृष्टि में अभी आई है जो जनता को भरमाने वाली और प्रकारान्तर से निवृत्ति के विरोधी कवेव-कदेवियों के श्रद्धालु बनने का मार्ग-प्रशस्त कराने वाली है। यत:-जब मिथ्यात्व से बन्ध नहीं होता तो इस मिथ्यात्व को क्यों छोड़ा जाय; प्रादि । पुस्तक के विरोध में हमें मनीषियों के लेख मिले हैं। कुछ लेख प्रकाशित कर रहे है । पाठक बिचार और इस नए मिथ्यात्व से बचें।
-सम्पादक
मिथ्यात्व ही द्रव्यकर्मबन्ध का मूल कारण है
श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, हस्तिनापुर मिथ्यात्व को द्रव्यकर्मबन्ध का कारण नहीं कहना कषाय से नही हो सकता। इसीलिए आचार्यों ने मूल सूत्रों द्रव्यकर्मबन्ध की प्रक्रिया को नहीं समझने का फल है। की रचना मे मिथ्यात्व प्रमुख रक्खा है। मिथ्यात्व गुणइस कारण जहाँ भी द्रव्यकर्मबघ कारण कहो या आस्रव स्थान में उत्कृष्ट स्थिति (तीन आयओं के बिना) बन्ध कहो इनका विवेचन किया है वहाँ आचार्य कुन्दकुन्द आदि और अशुभप्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यात्व आचार्यों ने द्रव्य कर्मबन्धके होने में मिथ्यात्व को प्रथम गुणस्थान में ही कहा है, अन्य गुणस्थानों में नहीं। स्थान दिया है।
यह सोचना कि मिथ्यात्व अधिकरण तो है, कर्ता नही यह जीव अन्य भोगोपभोग आदि सामग्री में 'मैं' और बिल्कुल वाहियात है। हमने कहीं लिखा है तो विवक्षा से 'मेरापन' कर युक्त होता है तो वह मिथ्यात्व के सद्भाब में ही लिखा है। खुद्दा बन्ध में एकेन्द्रिय जीव बन्धक हैं आदि ही युक्त होता है। मिथ्यात्व का अभाव होने पर संसार सूत्रों में 'जो बन्धा' 'बंधा' आया है उसका अर्थ 'बन्धक' को मर्यादा बन जाती है । इसलिए परवस्तु में एकत्व बुद्धि हीनता किया है, क्योंकि ये दोनों शब्द 'कर्ता' कारक के करने का मूल कारण मिथ्यात्व ही है। वह संसार की जड अर्थ में ही निष्पन्न हुए है । इसलिए बन्ध के कर्ता है ऐसा है। उसके सद्भाव में अविरति और कषाय आदि अपना वहाँ समझना चाहिए । जैसे उपादान में सद्भूत व्यवहारकाम विशेषरूप से करती है, उसके बिना नहीं। देखो नय से छहो कारक घटित हो जाते हैं, वैसे ही अविनाभावी द्रव्य कर्मों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध और अशुभप्रकृतियो का निमित्त कारणो में असद्भुत व्यवहारनय से छहों कारक उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध तीव्र मिथ्यात्व के बिना केवल तीव्र घटित हो जाते हैं, इसमें आगम से कोई बाधा नही आती।
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१०, वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
निमित दो प्रकार के होते हैं एक कर्म निमित्त और दूसरे उदय को परम्परा चलती रहे वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, नोकर्म निमित्त । जैसे कमनिमित्त मिथ्यात्व आदि नियत माया लौर लोभ प्रकृतियाँ हैं । इनसे यह जीव अनन्त भवों हैं वैसे नोकर्म निमित्त नियत नहीं होते। ये कहीं कोई तक परिभ्रमण की सामर्थ्य प्राप्त करता है। अनुबन्ध शब्द निमित्त हो जाता है और कहीं कोई । मिथ्यात्व आदि का अनन्त भवों तक की संसार में परिभ्रमण की सूचना देता कनिमित्तो मे अन्तर्भाव होता है।
है यह उसका तात्पर्य है। यद्यपि त. सू० के छठे अध्याय में ज्ञानावरणादि के अकिचित्कर पुस्तक में अनन्तानुबन्धी की विसयोजना आस्रव के भेदों का विवेचन क्यिा है पर वारीकी से देखने करने वाले का मिथ्यात्व मे आने पर एक आवलि काल पर वे सब मिथ्यात्व आदि अन्तर्भूत हो जाते हैं ।
तक अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं रहता इसे गोलमाल प्रथम गुणस्थान में जो मिथ्यात्व, नपुंसक वेद आदि
कर दिया गया है। जबकि संक्रमावलि हो या बन्धावलि, १४ प्रतियों का बन्ध होता है उसका मूल कारण मिथ्या- naraलि काल
एक आवलि काल तक उनके उदय न होने का नियम है
के ना होने जा त्व ही है। मिथ्यात्व के साथ अविरति, प्रमाद, कषाय यह षटखण्डागम मे तो स्वीकार किया ही है, कषायप्रार्भत में और योग तो होते ही हैं, मिथ्यात्व बिना वे हों तो भी इन भी इस नियम को स्वीकार न कर अन्य प्रकृतियों मे स्वी१६ प्रकृतियों का बन्ध अन्य से नहीं होगा, यह आगम कार किया गया है। केवल अनन्तानुबंधी के लिए इस नियम स्वीकार करता है। पर मिथ्यात्व में बंधने वाली जो को नहीं स्वीकार किया गया है। कषाय प्राभत में बतलाया प्रतियाँ है उसका कारण भी मिथ्यात्व भी है, क्योकि है कि अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाला जीव जब उनका जो कि उत्कृष्ट स्थिति बंध होता है । वह तीव्र सासादन गुणस्थान मे प्राता है तो अन्य कषायों का उससे मिथ्यात्व के सद्भाव में ही होता है तीन आयुओं संक्रम होकर उसी समय सासादन गुण के कारण अनन्तानुको अपवाद इसलिए रख दिया है कि उनका उत्कृष्ट बन्धी का अपकर्षण होकर उदय हो जाता है। यहाँ जो स्थितिबन्ध विशुद्धिवश ही होता है। फिर भी तियंचायु परस्पराश्रय दोष आता है उसकी अवगणना की गई है। का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्व में ही होगा। मनुष्यायु इस प्रकार हम देखते है कि अकिचित्कर पुस्तक से भी उसी प्रकार प्रकृति है। देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्व बन्ध के कारणों में मुख्य होकर, उसे गौण कर सयमी के अवश्य होगा, यहां इतना विशेष जानना। दिया गया है और कषायो को आगे कर दिया गया है।
अकिंचित्कर पुस्तक में जो अनन्तानुबन्धी मे 'अनुबंध' जबकि कषायों की सता मिथ्यात्व को स्वीकार करने पर का अथ किया है वह पुराने आचार्य और विद्वानो ने वैसा ही बनती है, अन्यथा नहीं। विस्तृत पुस्तक सप्रमाण हम अर्थ नहीं किया। केवल हमें अकिंचित्कर पुस्तक मे ही लिख रहे हैं उससे बातें स्पष्ट हो जायेगो, जिनागम क्या पढ़ने को मिला। अनन्त भवों तक जिनके यथासम्भव है वह समझ में आ जायगा ।
(पृ० ८ का शेषांश) णिय भावणाणिमित्तं मए कद णियमसारणामसुदं । (७) भक्तिसंग्रहपच्चा जिनोवदेसं पुवावरदोसणिम्मुक्कानियम. १८६ ३. तीथकर भक्ति ६ ४. तीर्थकर भक्ति ७
५.
८ ६. योगिभक्ति २३ (५) अष्टपाहुड
७. आचार्य भक्ति १ ८. प्राचा० ७६. पंच गुरुभक्ति ७ १. दर्शन पाहुड गाथा १,२ २. शीलपाइड गाथा २
१०.जारिसया सिचेप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होति । ३. धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमेत्तेण धम्मसपत्ती।
जरमरणजम्ममुका अट्ठ गुणालाकया जेण ॥ नियम. ४७ जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायवो । लिंगपा. २ असरीररा अविरणासा अणि दिया णिम्मला विसुद्धप्प । जो पावमोहिदमदी लिंग घेत्तूण जिणवरिंदाण ।
जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा ससिदी णेया॥ निय० ४० उवहसइ लिगि भावं लिंगंणसेदि लिंगीण ।। लिंगपा० ३
एदे सव्वे भावा ववहारणय पडुच्च भागादा है।
सम्वे सिद्धसहावा सुद्धणया सासदी जीवा ॥ नियम. ४१ (६) द्वावशानुप्रेक्षा (बारसणुपेक्खा)
११. नियमसार गाथा ५० १. द्वादशानुप्रेक्षा गाथा १ २. पंचास्ति० गाथा १७३ १२. देखें लिंगपाहुड, अष्टपाहुड टिप्पण न०३
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मिथ्यात्व का बदला रूप-'अकिंचित्कर'
पं० मुन्नालाल प्रभाकर, ननौरा वाले
ऐसे मिथ्यादग ज्ञान चरण, वश भ्रमत भरत दुख जनम मरण, मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बध नहीं होता इसीतात इनको तजिए सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूं बखान ॥ लिए अनन्तानुबंधी को मिथ्यात्व के बंध का कारण मानना प० दौलतरामजी कहते हैं कि मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व)
ठीक नही है क्योकि जिसके साथ अन्वय और व्यतिरेक मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र के आधीन होकर यह जीव
दोनों होते हैं वही कारण न्याय्य तथा आगम अनुकूल है। चारों गनियो मे भ्रमण करता है और जनम -मरण आदि आगम में कर्मों की १२० प्रकृतियों के बंध के कारण इस के दुःख सहता है। इसके अतिरिक्त समन्तभद्राचार्य कहते प्रकार बताये हैं-१६ प्रकृतियों के बंध का कारण मिथ्याहै कि तीनो कालो तथा तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान त्व, २५ प्रकृतियों के बंध कारण अनन्तानुबंधी कषायोदय कल्याणकारी तथा मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी जनित अविरति है जिसका अनुबंध मिथ्यात्व का साथ देने अन्य नहीं है। जिसका समर्थन चारो अनुयोगो के समस्त का है तथा मिथ्यात्व अनन्त है। इसी से इसको अनन्ताशास्त्र करते है। उस मिथ्यात्व को बंध का कारण न नुबंधी कहते है । १० प्रकृतियों के बंध का कारण अप्रत्यामानना जिनागम के प्रतिकूल होगा, जबकि मोक्ष शास्त्र ज्यान-वर्णी कषायोदय जनित अविरति, ४ प्रकृतियो के को बध अधिकार में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय बंध का कारण प्रत्याख्यानवरण कषायोदयजनित अविरति तथा योग ये पाँच प्रत्यय स्पष्ट रूप से बताये है जिनमे ६ प्रकृतियों के बंध का कारण प्रमाद, ५८ प्रकृतियो के मूल बध का कारण मिथ्यात्व है। जब तक मिथ्यात्व का बंध का कारण संज्वलन कषाय तथा एक सातावेदनीय अभाव नही होगा ससार का अन्त नही हो सकता। के बंध का कारण योग। इस प्रकार १२० प्रकृतियों के इसीलिए मिथ्यात्व को आगम मे अनन्त कहा है और कारण अलग-अलग बताए हैं। बाकी २८ प्रकृ तया इनमे इसके जाने के पश्चात समार का अन्त अवश्य होगा। ही गभित हैं। फिर भी मिथ्यात्व जो कि इस सब कारणो अर्थात् अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र काल रह जाता है ऐसा का मूल है उसको अकिचित्कर कहना तथा अनन्तानुबधी नियम है। इस मिथ्यात्व के अभाव के विना बाकी चारों को उसके बध का कारण कहना ऐसा है जैसे कोई कहे वध के प्रत्ययों का अभाव होना असम्भव है जैसे जड़ के कि दो और दो चार नहीं होते। क्योकि मोक्ष शास्त्र के सूखे बिना पत्तों को काटने से (सूखने से) वृक्ष नही सूख आठवें अध्याय के दूसरे सूत्र में बंध के कारण न बता कर सकता तथा मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियां प्रथम मिथ्यात्व बध का लक्षण बताया है, उसके आधार पर मिथ्यात्व के बंध गुणस्थान में ही बंधती है। प्रथम गुणस्थान के अन्त समय का कारण अनतानुबधी कषाय को मानना उचित नही बैठता में इनकी बंध व्युच्छित्ति हो जाती है अर्थात् आगे के गुण- क्योकि अनन्तानुबधी वह कषाय है जिसका अनुबध अनन्त स्थानो मे इनका बध नहीं होता (गोमट्टसार कर्मकाण मिथ्यात्व के साथ देने का है। उस कषाय को अनन्तानुबधादियत्र) तथा मिथ्यात्व को बध करने वाली मिथ्यात्व बधी कषाय कहते है। बध तथा अनुबंध की परिभाषा प्रकृति को न मान कर अनन्तानुबधी कषायो को मिथ्या- स०सि०८-७-११ में इस प्रकार की है-बध शब्द कारण त्व के बंध का कारण मानना आगम सम्मत नही है। साध्य है ऐसी विवक्षा मे मिथ्यात्व आदि पांचों प्रत्यय बध क्योकि सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबंधी का उदय ६ के कारण हैं और अनुबंध: स्यात प्रवृतस्य अनुवर्तनेआवली और कम से कम एक समय रहता है। उस समय प्रवृत्त के पश्चात् अनुसरण करने वाला। इससे यह स्पष्ट
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१२, वर्ष ४१, कि०३
भनेकात
होता है कि प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व के उदय के ..स्थिति और ४. अनुभाग हैं । इन चारों अवस्थाओं को पश्चात् ही अनन्तानुबंधी का उदय आता है और अन्तराल दृष्टि में रखते हुए उमा स्वामी महाराज ने कहा हैमे मिथ्यात्व का बध होता ही है क्योकि मिथ्यात्व का उदय "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते आ गया और उदय माना बध का कारण है और उस सःबन्धः ।" अर्थ-कषाय सहित जीव के द्वारा कर्म होने बध का कारण मिथ्यात्व के अतिरिक्त अन्य हो नही योग्य पुद्गल परमाणुओ का ग्रहण बंध है। वास्तव मे बध सकता। यदि अनन्तानुबंधी मिथ्यात्व के बंध का कारण है योग से ही होता है। और योग आत्मा के प्रदेशों की तो सासादन मे भी बंध होना चाहिए तथा गिरते समय सकंपता को कहते है। बाकी चार प्रत्यय मिथ्यात्व, अविमिथ्यात्व के उदय आने पर पहले गुणस्थान में अनन्तान- रति, प्रमाद और कषाय ये योग के कारण है। इसलिए बंधी के अभाव मे मिथ्यात्व का बंध नहीं होना चाहिए, पाँचों को ही बंध का कारण कहा है। इन पांचों का अभाव किन्तु बध होता है। इससे स्पष्ट है कि मिथ्यात्व के बध भी इसी क्रम से होता है, और उस अभाव के साथ-साथ का कारण मिथ्यात्व ही है। हां, अनन्तानुबधी मिध्यात्व बधने वाली प्रकृतियो का अभाव भी होता जाता है। का साथ देती है। साथ देने मात्र से इसको बध का कारण संसार मे भ्रमण करने का कारण मिथ्यात्व होने पर भी नहीं कहा जा सकता तथा अनन्तानुबधी को मिथ्यात्व के मिथ्यात्व को अकिचित्कर कहना आगम विसगत है। भले बध का कारण आगम मे कही भी नही कहा है ओर ही आचार्य महाराज ने अपने भाषण में कहा हो लेकिन दो सौ बयालीस (२४२) उद्धरण जो अकिचित्कर पुस्तक पुस्तक के छपवाने का आदेश नहीं दिया होगा। क्योकि मे दिए है उनमे भी कोई ऐसी पक्ति स्पष्ट देखने में नहीं पुस्तक के छपने से ये स्थायी विधान हो गया कि मिथ्यात्व आई है कि अनन्तानुबधी मिथ्यात्व के बध का कारण है। कुछ नहीं है-'अकिचित्कर' है। लोग पहले ही मिथ्यात्व बध का लक्षण "कम्माण सम्बन्धो बधो" ऐसा गोम्मटसार के वशीभूत होकर पद्मावती आदि देव-देवियो से वरदान कर्मकाण्ड की ४३८वी गाथा में किया है। जिसका अर्थ मागते है और उनसे अपने कार्यों की सिद्धि होना मानते कों के आत्मा के साथ सम्बन्ध होना बघ है और जैन है। तथा तीर्थ क्षेत्रो मे जाकर भी छत्र चढ़ाकर वरदान सिद्धान्त प्रवेशिका मे अनेक वस्तुओ के सम्बन्ध विशेष को मांगते है कि यदि मेरे पुत्र हो जाये, धन की प्राप्ति हो बध कहा है तथा तत्त्वार्थ सूत्र के आठवें अध्याय के पहले जाये और मुकदमा जीत जाऊँ ऐसी भावनाएं करते है सूत्र मे बध के जो पाँच कारण बतलाए है वो इस प्रकार तथा अन्य देवी-देवताओ की उपासना मे लग हुए है । इस है-१. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय पुस्तक के पढ़ने से लाभ तो कुछ नजर नहीं आता, किन्तु तथा ५. योग। ये पांचो कारण एक दूसरे की अपेक्षा लोगो की प्रवृत्ति मिथ्यात्व मे बढ़ जायेगी ऐमी सम्भावना रखते है। अर्थात् मिथ्यात्व के कारण से अविरति होती नजर आती है । इसीलिए ऐसा दुष्प्रचार नहीं होना चाहिए । है। उस अविरति का कारण अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्याना- 'अकिचित्कर पुस्तक मे पृष्ठ १६ पर लिखा है कि वर्गी, प्रत्याख्यानावर्णी के उदय से होती है । इस अविरति यदि मिथ्यात्व के स्थान पर अनन्तानुबंधी को रख देते है के उदय से ३६ उनतालीस प्रकृतियों का बध होता है। तो प्रथम और द्वितीय गुणस्थान का अन्तर समाप्त हो प्रमाद के योग से छः प्रकृतियो का बंध होता है। संज्वलन जाता। पर, ऐसा नही है क्योकि पागम में कहा है कषाय से ५८ अट्ठावन प्रकृतियो का वध होता है तथा मिथ्यात्व के उदय से अदेव में देव बुद्धि, अतत्त्व मे तत्त्व योग से एक सातावेदनीय मात्र का बंध होता है। ऐसी बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि इत्यादि विपरीताभिनिवेश रूप बध व्यवस्था तो आगम मे देखने मे आती है। हो, मोक्ष- जीव के परिणाम होते हैं। और अनन्तानुबधी आत्मा के शास्त्र के आठवे अध्याय के दूसरे सूत्र मे जो कहा है बह सम्यक्त्व और स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है । चारो प्रकार के बध के लक्षण की अपेक्षा कहा है । क्योकि जिसको सासादन गुणस्थान कहते है। उसके पश्चात् उन कर्मबधों की चार अवस्थाएँ-१. प्रकृति, २. प्रदेश,
(शेष पृ० १६ पर)
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'अकिंचित्कर' पुस्तक आगम-विरुद्ध है
यह सच है कि हम करणानुयोग में मूढ़ हो, और हमें कुछ याता भी नही हो । शायद इसीलिए एक सज्जन बोले -- पांडत जी ! "मिथ्यात्व किचित्कर हैं या अकिचि त्कर" इसे श्राप क्या जाने ? हमने कहा- आपका कहना ठीक है | भला जब करुणानुयोग के ज्ञाता भी इस विषय के प्रतिपादन में अकिंचित्कर और विपरीत श्रद्धा मे है, तो हमारी क्या विसात ? पर, इससे द्रव्यानुयोग को झूठा तो नही माना जा सकता जब द्रव्य ही न होगा तब करण होगा किसमे ? मूल तो द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यानुयोग हो है जो द्रव्यों के गुण-स्थान आदि की पूरीपूरी जानकारी देता है ।
"मिथ्यात्व अकिचित्कर है" इस नई चर्चा को प्रकाश मे आए कई वर्ष हो गए। तब इसके समर्थन और विरोध मे उद्भट विद्वानो तक के कई लेख पढ़ने को मिलते रहे, पर निर्णय परक (दोनो पक्षो को स्वीकार्य ) कोई लेख देखने में नहीं आया। बावजूद इस मतभेद के, फिर भी ७४ पेजो की इकतर्फ पुस्तक छप गई । पुस्तक का नाम है - " किंचित्कर ।"
प्रस्तुत पुस्तक 'ज्ञानोदय - प्रकाशन', जबलपुर की देन है और इसमें आज के ख्यातनामा पूज्य आचार्य विद्या सागर जी महाराज की वर्तमान मान्यता मे उनके हुए स्वयं के प्रवचनों के प्रकाशन की बात है । निःसन्देह पुस्तक एक मान्य दिगबराचार्य सम्मत होने से श्रावक मुनियों के नियमित स्वाध्याय मे शास्त्र की आसन्दी पर पढ़ी जायगीकुछ लोगो की मान्यता भी बदलेगी । कुछ लोग सोचेंगे कि शायद यह एक प्रतिक्रिया है उस मान्यता की— जिसमें मात्र सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए लोगों को प्रेरित किया गया था और चारित्र की उपेक्षा कर दी गई थी। आचार्य महाराज ने कषायादि को दुख की जननी बताकर "मिध्यात्व अकिचित्कर" के बहाने सम्यग्दर्शन की महिम को
पद्मचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
लुप्त कर दिया। यद्यपि लोगों के चारित्र में गिरावट को देखते हुए महाराज का यह कदम ठीक है । वे कहते हैं-"मिध्यात्व हटाओ मिथ्यात्व हटाओ" कहने मात्र से वह हटने वाला नही । हमे हट ने के लिए कषायों को व उसको भी समझना होगा और उनसे बचने का भी प्रयास करना होगा । " - अकिचित्कर पृ० ७८ । पर, आगम की दृष्टि से "मिध्यात्व अकिचित्कर है।" यह विषय हमे रास नही आया | आचार्य श्री स्वय जान और मान रहे हैं कि मिथ्यात्व को बंध में प्रकिचित्कर मानने जैसी उनकी घोषणा से विपरीतता फैली है। उन्होने स्वयं कहा है
"लोग कहते है महाराज, आप आठ-दस वर्षों से निरन्तर यह चर्चा कर रहे है, इससे आपको क्या लाभ हुआ ? आपको जो भी लाभ हुआ हो सो ठीक हैं, लेकिन इतना श्रवश्य है कि लोगो मे मिथ्यात्व के विषय का दुष्प्रचार अवश्य हुआ है, ऐसी मेरी धारणा है ?"
- अकिचित्कर, पृष्ठ ७२.
ऐसी स्थिति मे ओर जब विरोध मे लिखे गए लेखो का निराकरण जनता तक न पहुचा हो, पुस्तक प्रकाशको द्वारा इस विषय को शास्त्र की आसन्दी पर विराजमान हो सकने वाली पुस्तक रूप मे न गूंथकर केवल अखबारो तक ही सीमित रखना न्याय्य था । यतः - अखबार शास्त्र की गद्दी पर नही पढ़े जाते । पुस्तक से लोग भ्रमित होंगे कि प्राचीन आचार्यों के वाक्य ठीक है या वर्तमान आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ?
दूसरी बात, मिथ्यात्व को बंध मे अकिचित्कर मानने से पद्मावती आदि रागी देवी-देवताओं की महिमा पूजा को बढ़ावा मिलेगा । लोग कहेगे -जब मिथ्यात्व बंध का कारण नही है तो हम क्यों इस मिथ्यात्व से रुकें ? हम तो इन्हें मात्र सांसारिक इष्टसिद्धि के लिए पूजते है, भादि ।
"कम्माण संबधो बंधो" -कर्मका० ४३८; जीवकर्म
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१४, वर्ष ४५, कि०३
अनेकान्त
प्रदेशाऽन्योन्यसंश्लेषो बंधः"-रा. वा० ११३॥१४, से को भावबन्ध:...." न चैवमेकैक हेतुक एब बन्धः, पूर्वस्मिन्स्पष्ट है कि सबंध-संश्लेष होने का नाम बंध है; वह पूर्वस्मिन्नुत्तरस्योत्तरस्यबन्धहेतोः सद्भाभावात्..." मिथ्यासंश्लेष आत्मप्रदेशो से कार्माण वर्गणाओ अथवा कर्मों के दर्शन हेतुकश्च ।.....'न चायं भावबंधो द्रव्यबंधमन्तरेण 'अण्णोष्णपवेसण' रूप है। और ऐसा सश्लेष जीव के प्रति भवति, मुक्तस्यापितत्प्रसंगात् इति द्रव्य बंध: सिद्धः । सोऽपि प्रदेशबंध का ही है। शेष प्रकृति स्थिति और अनुभाग ये मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाय योगहेतुक एव बन्धत्वात्।' सभी तो कार्माण वर्गणाओ से सश्लिष्ट होते हैं-यानी -आप्तप. कारिका २१६, यानी द्रव्य और भाव इन स्थिति और अनुभाग वार्माण कर्मों मे पड़ते हैं, आत्मा या दोनों बंधो मे यथायोग्य रीति मे मिथ्यात्व भी कारण है। आसप्रदेशो मे नही। प्रत. कषायो की तीव्रता-मन्दता से आचार्य अकलंक देव ने प्रश्न उठाया कि जब उमाकर्मरूप वर्गणाओ मे पड़े स्थिति और अनुभाग को-मात्र स्वामी ने 'मिथ्यादर्शनादि' प्रथम सत्र मे पांचों को बंध में कर्म-प्रदेशा से बंधने के कारण (जीव के प्रति Direct बध हेत कह दिया तो दूसरे सूत्र मे कषाय को पृथक् से पुनः नही होने पर भी) बन्ध कह दिया गया है। पर, इन्हे क्यो बंध का कारण कहा ? इसके समाधान में आचार्य कर्म प्रदेशो के अभाव मे 'अण्णोण्ण पवेसण' को परिभाषा
कि म स्थिति और अनभाग बधों के मे सीधा नहीं घटाया जा सकता। फलत:-प्रदशवन्ध, कारणो को स्पष्ट करने मे है । तथाहिजो कि मुख्य है उसे गोण कर, कार्माण वर्गणाओ मे घटित
"पुनः कषाग्रहणमनुवाद इति चेत् न; कर्मविशेषाशयहोने वाली स्थिति और अनुभाग मे हेतुभूत कषाय मात्र
वाचित्वात् जठराग्निवत् ।।५।।..... "कषायेषु सत्सुतीव्रको जीव और कर्म सम्बन्धी जैसे (प्रदेश) बध में मुख्य
मन्दमध्यम कषाया शयानुरूपे त्थित्यनुभवने भवत इत्येतस्य कारण नही माना जा सकता। जब भी बध होगा योगो
विशेषस्य प्रतिपत्त्यथं बन्धहेतुविधाने कषाय ग्रहण निर्दिष्टं की ही मुख्यता हागी-'जोगापयडिपदेसाः' और योग
पुनर नद्यते ।' त० रा० वा० ८।२।?. में यथास्थिति मिथ्यात्व भी कारण है। अतः हमे पूरे बंध
जयधवलाकार ने योग की जो परिभाषा की है उससे प्रसंग मे आचार्यों के वाक्य 'मिथ्यादर्शनाविरति प्रमाद
सभी बधो मे प्रदेशवन्ध को ही मुख्यता मिलती है और कषाययोगा: बन्धहेतवः', रूप में सभी को यथायोग्य रीति वह बध योगो द्वारा होता है-'जोगापर्याडपदेसाः' । तथा से बंध में कारण मान लेना चाहिए। 'तत्र मिथ्यादृष्टः योग की उत्पत्ति मे अन्य कारणो की भांति-यथावसरपंचापि समूदिता: बन्ध हेतव'....."तत्र च मिथ्यादर्शना- मिथ्यात्वरूपी कारण को भी ग्रहण करना अनिवार्य हैदिविकल्पा । प्रत्येक वन्धहेतुत्वभवगन्तठम् । त०रा० वा. योग के कारणो मे मिथ्यात्व को सर्वत्र ही छोड़ा नही जा ८१३१, इमी राजवानिक के ८।२।८ में बध के विषय मे सकता।-'जोगो णाम जीवपदेसारणं कम्मादाणणिबन्धणो कहा गया है--'अतोमिथ्यावर्शनाद्यावेशात आीकृतस्या- परिप्फदपज्जाओ।' जयध० १२ पृ० २०२. यहाँ आदान त्मनः सर्वतो योगविशेषात तेषा सूक्ष्मक्षेत्रावगहिनाम् अनता- और बन्ध मे शब्द मात्र का भेद है; क्योकि आस्रव और नंत पुदगलानां कर्भभागयोग्यानामविभागोपश्लेषो बन्ध बन्ध दोनो के कारणों में भेद नही है। योग की सत्ता भी इत्याख्यायते ।' फलत:-पाँचो हेतुओं मे (यथा प्रसग) प्रथम से लेकर तेरहवे गुणस्थान तक रहती है । कषाय की मिथ्यात्व को अकिचित्कर नहीं माना जा सकता। सत्ता तो मात्र दशवे गुणस्थान तक ही है। यदि कषाय
पूर्वाचार्य श्री विद्यानन्द के मतानुसार तो (जिस को ही बंध का मूल कारण माना जाय तो कषाय के कषाय को मिथ्यात्व के बंध मे कारण मान वर्तमान आचार्य अभाव मे वध क्यों होता है ? और कषाय की सत्ता मे विद्यासागर जी मिथ्यात्व को बध के प्रति अकिचित्कर दूसरे गुणस्थान में भी मिथ्यात्व आदि १६ का बन्ध क्यों कह रहे हैं ।) उस कषाय में मूल कारण भी मिथ्यात्व हो नही होता ? विचारणीय है। है। विद्यानन्दि स्वामी कहते हैं-'तत्रभाववन्धः क्रोधा बध के कारण प्रसंग को उठाते हुए महाबन्ध के धारमकः, तस्य हेतुमिच्यापर्शनम् ।....."मिग्यावर्शन हेतु प्रारम्भिक कर्मबन्ध मीमांसा प्रसग मे जो बात उठाई गई
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'अकिचिरकर' पुस्तकमागम-विरुद्ध है
है उससे यह स्पष्ट होता है कि बंध के कारणों से मिथ्यात्व इस विषय का समाधान करते हुए विद्यानन्दि स्वामी को सर्वथा सर्वथा अलग नही किया जा सकता । और यह कहते हैं (अष्टमह० पृ० २६७) कि मोहविशिष्ट अज्ञान में तो हम पहिले ही कह चुके है कि कषाय (अनन्त नबधी) सक्षेप से मिण्यावर्शन मादि का संग्रह किया गया है। इष्ट की उत्पत्ति का जनक मिथ्यात्व ही हैन कि मिथ्यात्वं अनिष्ट फल प्रदान करने में समर्थ कर्म बन्ध का हेतु का जनक कषाय-'तत्र भावबन्धः क्रोधाद्यात्मकः तस्य कष'यकार्थसमवायी अज्ञान के प्रविमामावी मिथ्यावर्शम, हेतुमिथ्यादर्शनम् ......' सोऽपि (द्रव्यबन्धोऽपि) मिथ्या दर्श- अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को कहा गया है। नाविरतिप्रमाद कषाय योग हेतुक एव बन्धत्वात् । मोह और अज्ञान मे मिथ्यात्व आदि का समावेश हो जाता
-आप्तर० २१६. है। दोनो आचार्यों के कथन में तात्त्विक भेद नही है, कर्मबंध मीमासा प्रसग में जो बात कही गई है वह केवल प्रतिपादन शैली की भिन्नता है।" इस भांति है
उक्त प्रसग को अष्ट सहस्री विवरणम् दशम परिच्छेद "राग-द्वेषादि विकारों सहित अज्ञान बंध का कारण पृ० ३३५ पर इस प्रकार कहा गया हैहै। थोडा भी ज्ञान यदि वीतरागता सम्पन्न हो तो कर्म
"नचेवं अज्ञानहेतुत्वे बन्धस्य मिथ्यादर्शनादि हेतुत्वं राशि को विनष्ट करने में समर्थ हो जाता है। परमात्म
कथं सूत्रकारोदितं न विरुद्धयन इति चेत्, मिथ्यावर्शनाप्रकाश टीका मे लिखा है-'वीरा वेरग्गपराथोवपि हु
विरतिप्रमाद कषाययोगानाम् कषाय कार्यसम्वाय्यज्ञानाविनासिक्खऊण सिझंति ।...... ... ॥पृ० २२७॥ भाविनामेवेष्टानिष्टफलदानममर्थकर्मबन्धहेतुत्वसमर्थनात्
वैराग्य संपन्नवीर पुरुष अल्पज्ञान के द्वारा भी सिद्ध मिथ्यावर्शनादीनामपि संग्रहात् सक्षेपत इति बुद्धयामहे । हो जाते हैं। सम्पूर्ण शास्त्रो के पढ़ने पर भी वैराग्य के ततो मोहिन एवाज्ञाद्विशिष्ट: कर्मबन्धो न वीतमोडादिति विना सिद्ध पद की प्राप्ति नहीं होती। समन्तभद्र अपने सूक्तम् ।" युक्तिवाद द्वारा इस समस्या को सुलझाते हुए कहते हैं
पाठक देखें-जहाँ अज्ञान को बन्ध का कारण कहा, 'अज्ञानान्मोहिनो बन्धो न ज्ञानाद्वीतमोहतः।
वहाँ उस अज्ञान मे मोह को ही कारण माना; और मोह ज्ञानस्तोकाच्चमोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥' वह है जो मोहित करे, भुलाए, अज्ञानी बनाए । ऐसा मोह
-आ० मी० ६८. मुख्यत. दर्शनमोह-(मिथ्यात्व) ही है। चारित्रमोह तो मोह विशिष्ट व्यक्ति के अज्ञान से बध होता है। श्रद्धान मे वाधक न होकर मात्र चारित्र घातक है और मोहरहित व्यक्ति के ज्ञान से बंध नही होता है। मोह- श्रद्धान व चारित्र में महद् अन्तर है। यह पाठक सोचें कि रहित आत्मज्ञान से मोक्ष होता है। मोही के ज्ञान से वध दर्शन और चारित्र मे कौन किसका साधक है? कौन होता है।'
पहिले और कौन पीछे है ? क्या यह ठी.. है कि दर्शन के यहाँ बन्ध का अन्वय व्यतिरेक ज्ञान की न्यूनाधिकता
बाद के क्रम में आने वाला चारित्र, दर्शन का कारण हो के साथ नही है। इससे ज्ञान को बन्ध या मुक्ति का कारण
यानी जो चारित्र मोहनीय की प्रकृति अनन्तानुबन्धी है, नहीं माना जा सकता। मोह सहित ज्ञान बन्ध का कारण वह प्रथम प्रकृति-दर्शनमोहनीय (मिथ्यात्व) के बन्ध में है और मोहरहित ज्ञान मुक्ति का कारण है। अत: यह कारण हो ? आश्चर्य ! बात प्रमाणित होती है कि बन्ध का कारण मोहयुक्त क्या कभी यह भी सोचा कि यदि मिथ्यादर्शन बन्ध अज्ञान है................."। यहां यह आशका सहज उत्पन्न में कारण न होगा तो उसका विरोधीभाव-सम्यग्दर्शन भी होती है कि इस कथन की सूत्रकार उमास्वामी के इस मोक्ष में कारण न होगा। और ऐसे में 'झानचारित्रेमोक्षसूत्र के साथ विरुद्धता है-'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाय- मार्ग.' सूत्र रचना पड़ेगा। सम्यक शब्द तो दर्शन का विशेयोगः बन्ध हेतवः।'
षण है, वह भी न हो सकेया और तब सारा का सारा
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१६, वर्षे ४१, कि०३
अनकन्त
दि. सिद्धान्त ही लुप्त हो जायगा। भला यह भी कैसे जगम्मोहन लाल शास्त्री अंक दिनांक २६-७-८२ में प्रकाश सम्भव है कि हम सम्यकचारित्र मे तो सम्यग्दर्शन को डाल चुके है--उन पर विचार किया जाना चाहिए। हम अनिवार्य कारण माने और मिथ्याचारित्र मे मिथ्यादर्शन नही चाहते कि -पूर्वाचार्य की 'तत्र भावबन्धः क्रोधाद्याको कारण न माने। अनन्तानबन्धी (जो स्वयं चारित्र- त्मकः, नस्यहेतुमिथ्यादर्शनम्' घोषणा को अपने तर्कों की मोहनीय की प्रकृति ही है) को प्रकारान्तर से (मिथ्यात्वो- कसोटी पर झुठलाया जाय और उस सबके प्रति जनता त्पादक मान लेने के कारण) मिथ्याचारित्र के उत्पादन का मे भ्रम पैदा होने जैसा कोई कदम उठाया जाय । मूल कहें ?
___ कोई कितने भी तर्क क्यो न दे, हम आगमको मूल घोषणा उक्त विषय मे स्व०प० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री को गलत मानने को तैयार नही-'तस्यहेतुमिथ्यादर्शनम्।' जैन सन्देश के अंक दिनांक २३-१२-८२ में और मान्य पं०
वीर सेवा मन्दिर, दरियागज, नई दिल्ली-२
(पृष्ठ १२ का शेषांश) मिथ्यात्व के उदय आने पर मिथ्यात्व गुण स्थान होता है। की पुस्तक के द्वारा पुन: इसका यह प्रचार किया जा रहा इससे स्पष्ट होता है, दोनों का पृथक्-पृथक् कार्य है । ऐसी है कि मिथ्यात्व अकिंचित्कर है। अब प० कैलाशचन्द्र जी अवस्था मे अनन्तानबधी को मिथ्यात्व का उत्पादक कहना तो है नही, मुझे बड़ा आश्चर्य है कि अन्य विद्वान क्यो ठीक नहीं बैठता और गोम्मटसार जीवकाण्ड की २८२ मौन साधे बैठे हैं ? उनको इसका खुलकर आगमानुकूल गाथा में भी कहा है-सम्यक्त्व, देश चारित्र; सकलचारित्र, विरोध करना चाहिए। यथाख्यात चारित्र को घातती हैं।
कैसी विडम्बना है कि एक ओर तो 'अकिचित्कर' पुस्तक सम्यक्व के घात होने के पश्चात् मिथ्यात्व के उदय
पृ०११ पर यह स्वीकार किया गया है कि 'प्रथमगुणस्थान आने पर ही मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। कहाँ तक कहें
में मिथ्यात्व के उदय मे बँधने वाली मात्र १६ प्रकृतियां ही समयसार मे भी कहा है कि जैसा वस्तु का स्वभाव कहा
ह' है' और दूसरी ओर यह कहा जा रहा है कि मिथ्यात्व से हआ है वैसे स्वभाव को नहीं जानता हुआ अज्ञानी (मिया- बन्ध नही होता--'कषाय से ही मिथ्यात्व का बन्ध'-पृ०८. दष्टि) अपने शुद्ध स्वभाव से अनादि ससार से लेकर च्युत a ntierra की जाती'. हआ ही है। इस कारण कम के इस उदय में जो राग, अकिचित्करता'-१० ६२. पाठक सोचें कि क्या यह स्व. वेष, मोह (मिथ्यात्व आदिक) भाव हैं उनसे परिणमता वचन वाधित नही? अज्ञानी राग, द्वेष, माह अादिक भावो को करता हआ
जब आगम में २५ प्रकृतियों (अनतानुबन्धी ४, स्त्यानकर्मों से बधता ही है ऐसा नियम है।
गद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, मुझे वर्तमान उग्रस्थो के तर्क वितर्क से पदार्थ निर्णय
अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यगमें उतना विश्वास नही जपता, जितना प्राचीन आचार्यों
गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, सस्थान ४, सहनन ४) के के वाक्यों में विश्वास है। अत: यदि किसी ग्रन्थ म ये
वध का विधान अनतानुवधी कषाय की मुख्यता में है और पंक्ति स्पष्ट लिखी हो कि मिथ्यात्व के बध में अनन्तान
इनमे मिथ्यात्व को गणना नही है। तब क्या अकिचि कर का बंधी कषाय कारण है, तो विचार किया जा सकता है।
प्रचार मिथ्यात्व को बढावा देने के लिए किया जा रहा है? अभी तो हमारे समक्ष पूर्व आचार्य जी श्री विद्यानन्दि की
क्या इससे कुदेव-देवियो के पुजापे को बढ़ावा न मिलेगा? यह पंक्ति विद्यमान है"तत्र भाव बध. क्रोधाद्यात्मकस्नस्य हेतुमिथ्यादर्शनम्।" जब मिथ्यात्व गुणस्थान मे चारों प्रत्ययों से वध का -आप्न परीक्षा २१
विधान है-'चदुपच्चइयो वंधो पढमे'-गो. कर्म. ७६७. तब इस प्रकरण के स्पष्टीकरण में स्व. ५० कैलाशचन्द्र मिथ्यात्व को उन प्रत्ययो से कैसे छोडा जा सकता है ? जी ने सन् १९८२ में एक लेख लिखा था, उसके पश्चात्
पाठक विचारें और धोखे मे न आयें। यह चर्चा बन्द-सी हो गयी थी। अब अकिचित्कर नाम
२/३८, अंसारी रोड, दिल्ली
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क्या मिथ्यात्व बंध के प्रति 'अकिंचित्कर' है ?
0 श्री बाबूलाल जैन कलकत्ते वाले
बहुत समय से यह विषय चल रहा है और सभी बडे- इसी बात को करणानुयोग भी सावित करता है कि बडे विद्वानों ने इस बारे में अपनी जानकारी से लोगो दूसरे गुणस्थान मे अनन्तानुबधी कषाय है परन्तु वह को अवगत कराया है और ग्रन्थो के प्रमाण भी रखे है। मिथ्यात्व का बध करने में अकिचित्कार है, जबकि चौथे अध्यात्म का दष्टिकोण तो बहुत साफ है । समूचे पापों का से जो गिरा जिसके अनन्तानबन्धी की विसंयोजना हई है जनक-समस्त कषायो का जनक -ससार का कारण और मिथ्यात्व का उदय आने पर नयी अनन्तानुबन्धी एक मिथ्यात्व को ही बताया है ।जब श्रद्धा विपरीत होतो कषाय का बन्ध करता है जबकि संयोजना होकर अनन्ताहै तब जो कषाय बनती है वह अनन्तानुबंधी होती है। नबन्धी अभी उदय को प्राप्त नही हुई हैं। इसका अर्थ जब अपने स्वभाव को नहीं जानता और शरीरादिक मे हुआ कि अनन्तानुबन्धी तो मिथ्यात्व को बाँधने मे अकिअपनापना मानता है तब एक प्राप्त शरीर में ही अपना. चित्कर रही और मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी को बांधने मे पना नही है परन्तु अनन्त शरीर भी प्राप्त कर सकता अनिवार्य रहा। ऐसा ही सर्वार्थमिद्धि टीका में आठवे तो सब मे अपना पना आ जाता। जब यह मानता है अध्याय में लिखा हैकि पर वस्तु से दु.ख होता है और पर वस्तु से मुख होता "अनन्त संसार कारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तं तदनुहै तब सामने कोई एक वस्तु है उससे ही द्वेष बुद्धि नही है बन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः।" परन्तु अनन्त वस्तु भी होती तो उन सबसे द्वेष बुद्धि हो अर्थ-अनन्त ससार का हेतू होने से मिथ्यात्व है, जाती अथवा राग बुद्धि हो जाती। इसलिए शुक्ल लेश्या सोही अनन्त है। अर्थात् अनन्त नाम मिथ्यात्व का है, का धारी द्रव्यलिंगी मुनि के कोई कषाय देखने मे नही आ क्योंकि वह मिथ्यात्व अनन्त संसार का कारण है। जिसका रही है परन्तु अनन्तानुबंधी बराबर चल रही है अनन्तानु- (मिथ्यात्व) का सहचर-अनचर-अनुसारणो-अनुकरण करने बंधी का अर्थ तीव्र और मन्द से नहीं है पग्नु मिथ्या श्रद्धा वाला अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया लोम है। के कारण वह अपने अभिप्राय में अनन्तों पदार्थों का स्वा.
यहां पर ऐसा भी नहीं है कि जैसे "सम्यकत्वं च मित्व, अनन्त पदार्थों के प्रति राग-द्वेष बुद्धि लिए हुए चल सत्र के द्वारा उन्होंने कहा कि सम्यक दर्शन देवगति के रहा है। वह कषाय अथवा वह अभिप्राय तभी मिट सकता
बन्ध का कारण है, वहां पर बताया है कि सम्यकदर्शन है जब श्रद्धा ठीक हो। इसके अलावा कषाय करने का बन्ध का कारण नही। परन्तु सम्यकत्व के साथ रहने वाली और अनन्त पदार्थों के प्रति राग-द्वेष करने का अभिप्राय कषाय बन्ध का कारण है उसी प्रकार ऐसा अभिप्राय किसी भी तरह नही मिट सकता, चाहे श्रद्धा का ठीक आचार्यों का नही है कि मिथ्यात्व को उपचार करके वध होना और अनन्तानुबंधी का मिटना एक ही साथ हो परन्तु का कारण कहा है, और बन्ध तो साथ मे रहने वाली श्रद्धा सही हुए बिना अनन्तानुबंधी नही जा सकती। इसी- अनन्तानुबन्थि से ही होता है। अगर यह उपचार भी लिए आचार्यों ने मिथ्यात्व को ससार का कारण और माना जाये तो मात्र मिथ्यात्व के उदय रहते अनन्तानुबन्धि सम्यग्दर्शन को संसार के अभाव का कारण कहा है, इसी- के उदय के विना कोई प्रकार का बन्ध नहीं होना चाहिए लिए मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप कहा है जिसके गये था जो होना है। केवन मिथ्यात्व के उदय में मिथ्यात्व बिना कोई कषाय जा ही नही सकती।
(शेष पृ० २० पर)
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मिथ्यात्व ही अनन्त संसार का बंधक है
: स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
जैन सन्देश के १५ नवम्बर सन् १९८२ के अक के हो सकेगी। हमे इस लेख ने ही इस सम्पादकीय को मुख पृष्ठ पर पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री का "क्या लिखने के लिए प्रेरित किया है। हमने उन्हें लिख दिया मिथ्यात्व अबन्धक है ?" शीर्षक से एक स्पष्टी करण है कि हम आपका लेख प्रकाशित नही करेंगे। हमे मिथ्याप्रकाशित हआ है। इसी विषय के सम्बन्ध में हमें भोपाल त्व की अकिंचित्करता इष्ट नहीं है क्योकि समस्त जिनाके डा० रतनचन्द्र जी का फुलस्केप आकार के २६ पेज गम इससे सहमत नही है। ससार मे मिथ्यात्व का और का एक लेख 'मिथ्यात्व स्थिति अनुभाग वन्ध का हेतु नहीं मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व का महत्व सर्वागम सम्मत है यदि है' शीर्षक से प्राप्त हआ है। उन्होने भी अपने लेख में प० मिथ्यात्व बन्ध मे अकिंचिकर है तो मोक्षमार्ग मे सम्यक्त्व जगमोहन लाल जी की नैनागिर में उपस्थिति की चर्चा भी अकिंचित्कर ठहरता है तब आचार्य समन्तभद्र का यह करते हए उनके द्वारा आचार्य विद्यासागर जी के प्रवचनो कथन कि तीनों नालो और तीनों लोको मे सम्यक्त्व के के उद्धत अंशों को अपने लेख में उद्धृत किया है और लिखा। समान कल्याणकारी और मिथ्यात्व के समान अकल्याणहै कि मैंने उनसे पूछा कि जब आप उसी कधन से इस कारी नही है। जिसका समर्थन चारों अनुयोगों के शास्त्र समय सहमत हैं तब पहले उसका खण्डन क्यों किया? एक मत से करते है, मिथ्या ठहरता है। एक अोर बन्ध उन्होंने उत्तर दिया-"मैंने प्रवचन पारिजात देखा नही के चार भेदों ना ध कषाय और योग से बतलाना और केवल जैन सन्देश (१० जून ८२) मे प्रकाशित लेख मे दूसरी पोर बन्ध के पांच या चार कारण बतला कर मिली जानकारी के आधार पर उसका समर्थन कर दिया। मिथ्यात्व को प्रमुख स्थान देना तथा यह लिखना कि यह उन्होंने बतलाया कि अपने लेख में उन्होने कषाय से ही समस्त भी बन्ध के कारण है और पृथक्-पृथक भी बन्ध के स्थिति अनुभाग बन्ध का होना स्वीकार किया है। पंडित कारण है क्यो ऐमा लिखने वाले समस्त प्राची। जैनाचार्यों जी के इन शब्दों को उनकी सहमति से ही मैं इस लेख में के विचार में वह तर्क नही आया जो आज प्रथम बार उद्धृत कर रहा हूं। इस प्रकार माननीय प. जगमोहन- मात्र आचार्य विद्यासागर जी के विचार मे आया है ? लाल जी के वचनों को समर्थन रूप मे उद्धत कर जिन्होंने क्या वे सब आगम रचयिता प्राचार्य आगम की गहराई आचार्य श्री के कथन को आगम विरुद्ध सिद्ध किया है मे नही उतरे ? इसका एक मात्र सम्यक् समाधान यही उनके इस प्रयत्न का खोखलापन स्पष्ट हो जाता है।" सम्भव है कि प्रकृति प्रदेश बन्ध तेरहवे गुणस्थान तक तथा डा० रतनचन्द जी ने अपने इस विस्तृत लेख मे
स्थिति वन्ध अनुभागवन्ध दशवे गुणस्थान तक होते हैं आचार्य विद्यासागर जी के प्रवचन पारिजात मे प्रकाशित
तथा वन्ध के कारणों में से कषाय उदय दसवें गुणस्थान प्रवचनों का पूर्ण समर्थन करते हुए उसका विरोध करने
तक और योग तेरहवें गुणस्थान तक रहते है। अत: इन वाले विद्वानों को आकण्ठ विषय कषायो मे डूबे हए और
दोनो को ही चार वन्धो का कारण कहा । इन्हीं मे अपनेजिनका मुरुप काम आगम की गहराई में जाना नहीं है
अपने स्थान तक शेष कारण अन्तर्भून है वे अकिचित्कर अपितु सतही ज्ञान द्वारा पंडित के नाम से प्रसिद्ध होकर '
नहीं है। प्रवचनादि द्वारा पैसा कमाना है' आदि लिखा है। इस आज अनन्तान बन्धी कषाय को महत्व दिया जा रहा तरह के लेख जब तक लिखे जाते रहेगे यह चर्चा बन्द नहीं है, मिथ्यात्व को नही । आगम के अभ्यासियों से यह बात
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मिथ्यात्व हो अनन्त संसार का बन्धक है
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अज्ञात नहीं है कि आठ कर्मों में मोहनीय की प्रधानता है सासादन मे मिथ्यात्व निमित्तक वन्ध नहीं होता। इसके और मोहनीय के दो भेदों में दर्शन मोहनीय की प्रधानता पश्चात् भजनीय है अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त है। दर्शन मोहनीय का एक ही भेद है मिथ्यात्व । अतः हुए जीवों के मिथ्यात्व निमिनक बन्ध होता है, अन्य गुणप्रकारान्तर से मोहनीय का समस्त महत्व मिथ्यात्व को ही स्थानों को प्राप्त हुए जीवो के नहीं होता। प्राप्त हुआ है जब तक उसका सतत उदय विद्यमान है तब यह सब जानते हैं कि दर्शन मोहनीय और चारित्रतक ससार अनन्त है। इसी से मिथ्या दर्शन या मिथ्यात्व मोहनीय के आस्रव के कारण भिन्न-भिन्न कहे है। कषाय को अनन्त कहा है, उस अनन्त मिथ्यात्व के साथ बंधने के उदय से हुआ तीव्र परिणाम चारित्रमोह के आस्रव का वाली कषाय इसी से अनन्तानुबन्धी कहलाती है। उसके कारण है जब कि केवली, श्रुत, सघ आदि का अवर्णवाद कारण मिथ्यात्व अनन्त नही है किन्तु अनन्त मिथ्यात्व के दर्शन मोह के आस्रव का कारण है। अर्थात कषाय के उदय कारण वह कषाय अनन्तानुबन्धी है। अनन्तानुव.धी की से हुए तीव्र परिणाम से भी मिथ्यात्व के उदय से आ व्याख्या मे शास्त्रकारो ने अनन्त का अर्थ मिथ्यात्व कहा परिणाम भयानक है। तभी तो प्रथम से स्थिति वन्ध है पोर तदनुवन्धी कषाय को अनन्तानवन्धी कहा है। इस चालीस और दूसरे से सत्तर कोड़ा कोडी सागर होता है। कषाय का विसयोजन करके जो मिथ्यात्व गुणस्थान में तत्त्वार्थ सूत्र के छठे अध्याय मे कर्मों के आस्रव के कारणो आता है उसके अनन्नानुवन्धी का पुन: वन्ध होता है और का वर्णन करते हुए अन्तिम सूत्र की व्याख्या म कहा है कि मिथ्यात्व स्वोदयवन्धी है।
यह कथन अनुभाग विशेष की दृष्टि से है अर्थात् इन कारणो ___ आगम मे तीन आयुओ को छोड़कर शेष सब कर्मों की
से उस विशेष कर्मों का विशेष अनुभाग वन्ध होता है और उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध उत्कृष्ट संक्लेष से कहा है। तथा स्थिति बन्ध की तरह अनुभाग वन्ध भी कषाय से कहा है आहारक द्विक, तीर्थंकर और देवायु को छोड़कर सब
फिर भी इन इन कार्यों के करने से जैसे उन उन कर्मों में उत्कृष्ट स्थितियों का वन्धक मिथ्या दृष्टि को कहा है। विशष अनुभाग वन्य हाता है वस हा विशेष स्थिति बन्ध इमगे ससष्ट है कि मिथ्यात्व भाव ही तीव्र संक्लेश का भी होता है। अत: मिथ्यात्व को स्थितिवन्ध और अनुभाग कारण होता है। इसी से मिथ्यादृष्टि को होबन्धक कहा
वन्ध का हेतु न मानना उचित नहीं है। यदि ऐसा होता है। मिथ्यात्व के उदय के अभाव में अनन्नवन्धी के उदय तो मिथ्या दृष्टि को ही उत्कृष्ट स्थिति का वन्धक न कहा से उत्कृष्ट स्थिति बन्ध नही होना इससे मिथ्यात्व स्थिति गया होता । अतः मिथ्यात्व को वन्ध के प्रति किचित्कार बन्ध मे अकिचित्कर नही है यह सिद्ध होता है। यदि कहना उचित नहीं है इससे मिथ्यात्व भाव को प्रोत्साहन उत्कृष्ट स्थिति वन्ध मे एक मात्र कषाय ही कारण होती मिलता है और सम्यक्त्व की विराधना होती है। तो अपने में चालीस कोड़ा नोड़ी सागर की स्थिति बांधने
हम देखत है कि आज चारित्र धारण पर तो जोर वाली कषाय मिथ्यात्व मे सत्तर कोड़ा कोडी सागर का
दिया जाता है किन्तु सम्यग्दृष्टि बनने की चर्चा भी नहीं स्थिति वन्ध नहीं करा सकती। यह तो मिथ्यात्व की ही की जाती है मानों जैन कुल मे जन्म लेने से ही सम्यक्त्व देन है उसी के बल से अनन्तानुवन्धी कषाय बलवती होती प्राप्त हो जाता है जब कि आगम चरित्र धारण करने से है। मिथ्यात्व का उपशम होने के साथ ही उसका उपशम पहले सम्यक्त्व प्राप्त करने पर ही जोर देता है। क्योकि हो जाता है। इसी मिथ्यात्व की उपशमना के प्रकरण मे सम्यक्त्व विहीन 'चारित्र, चारित्र नहीं है और न चारित्र एक गाथा धवला और जयधवला मे आती है-
धारण कर लेने से ही सम्यक्त्व हो जाता है, दोनो की मिच्छत्तपच्चयो खल बन्यो उवसामयस्स बोधव्वो। प्रक्रिया ही भिन्न है। आगम तो चारित्र भ्रष्ट को भ्रष्ट उवसंते आसाणे तेण परं होवि भयणिज्जो ॥ नही कहता, श्रद्धान भ्रष्ट को ही भ्रष्ट कहता है। आज
अर्थात्-उपशामक के मिथ्यात्व के निमित्त से वन्ध जो चारित्र धारियो की विसंगतियां सुनने में आती हैं जानना चाहिए । दर्शन मोह की उपशान्त अवस्था में और उनका मूल कारण सम्यक्त्व का अभाव ही है। सम्यग्दृष्टी
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२० वर्ष ४१, कि० ३
चारित्र धारण कर किसी प्रकार की लोकंपरा के चक्कर में नहीं पड़ सकता; क्योंकि उसकी दृष्टि मे संसार शरीर और भोगों का यथार्थ स्वरूप खचित होता है। अतः कषायभाव से मिध्यात्वभाव भयानक है।
प० टोडरमल जी ने अपने मोक्ष मार्ग प्रकाशक मे लिखा है
"मोह के उदय से मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव होते हैं उन सबका नाम सामान्यतः कषाय है। उससे उन कर्म प्रकृतियो की स्थिति बंधती है ।" पंडित जी के इस कथन
श्रनेकान्त
से भी इस कषाय भाव मे मिथ्यात्व सम्मिलित है । अतः मिथ्यात्व से भी स्थितिवन्ध अनुभाग वन्ध होते हैं, ऐसा मानने में किसी को आपत्ति नही होना चाहिए। इससे कोई हानि नहीं होना चाहिए। इससे कोई हानि नही है। न आगम में ही वाधा आती है और न मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का महत्व समाप्त होता है। ये दोनो ही संसार और मोक्ष के द्वार हैं । आचार्य समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भू स्तोत्र में मोह राजा को ही शत्रु और कषायो को उसकी सेना कहा है । - ( जैन सदेश से साभार )
एक चिन्तन
एक महाशय श्री मन्दिर जी में मिले, उन्होंने कहाकि आपने एक पुस्तक आचार्य श्री विद्यासागर जी की 'अकिर' पढ़ी। मैंने कहा- नहीं उन महाशय ने एक प्रति मेरे पास भिजा दी। वैसे समय कम था परन्तु उस व्यक्ति की इस पुस्तक के प्रति विशेष उत्कण्ठा एवम् आचार्य श्री के प्रति मेरी निष्ठा ने विशेष जागृति उत्पन्न
दी, मैंने पुस्तक पढ़ना शुरू किया और आद्योपान्त ढ़ा। उसमें एक बात सामने आई कि पुस्तक आचार्य श्री कैशिटो से सम्पादित की गई है। सो आचार्य श्री अपने ज्ञान-ध्यान रत त्यागीवृन्द के वास्ते कहे तब तो यथार्थ हो सकता है क्योकि व्रती सम्यक्त्व युक्त होता है --मिथ्यात्व
।
रहित होता है। उनके लिए मिध्यात्व अकिचित्कर हो सकता है । परन्तु हम जैसे साधारण अल्पज्ञ अव्रतियों के लिए यह अर्कचित्र का उपदेश तथ्य नहीं हो सकता । अब पुस्तकाकार का उद्देश्य इस कथनी को जन जन तक पहुचाने का है जय कि उपदेश पात्र के अनुसार देना चाहिए | पर, यह पुस्तक हमारे जैसे अपात्र के हाथ मे आ गई हैं और हम मिथ्यात्व को अकिंचित्कर मानकर कही कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र की सेवा में पड़कर अपना बचा हुआ पाक्षिक धर्म भी नष्ट न कर दे - इसलिए इसका स्पष्टीकरण दिया है। विचार करें।
( पृ० १७ का
का ही बन्ध नहीं होता, परन्तु अनन्तानुबन्धी का भी बन्ध होता है । इसलिए यह उपचार भी सम्भव नही है ।
सम्यदर्शन को धर्म का मूल कहा है इसी प्रकार मिथ्यादर्शन संसार का मूल है। मिध्यादर्शन गये बिना अनन्तानुबन्धी नही जा सकती और अनन्तानुबन्धी गये बिना बाकी की कथाय नही जा सकती इसलिए मिया । दर्शन संसार का मूल है। उसके गये विना ज्ञान सम्यक्ज्ञान नहीं हो सकता, चारित्र सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता। इसलिए मोक्षमार्गी को मिथ्यात्व के नाश का पुरुषार्थ सबसे पहले करना चाहिए। मिथ्यात्व के नाश का पुरुषार्थ किया जाता है उसके नाश होने पर अनन्तान
- 'चिन्तक'
-
शेषांश)
बन्धी अपने आप चली जाती है। इसीलिए समन्तभद्रस्वामी ने लिखा है कि मोही ( मिथ्यात्व सहित ) मुनि से निर्मोही ( मिथ्यात्व रहित ) ग्रहस्थ श्रेय है । मोही मुनि ने मिध्यात्व का अभाव नहीं किया, इसलिए कथाम के नाश का उसका समस्त पुरुषार्थ निरर्थक चला गया। अनन्ताको नहीं मेट सका जबकि निर्मोही ग्रहस्थ ने नुबन्धि सम्यक प्राप्ति का पुरुषार्थ किया। जिससे अनन्तानुवन्धि अपने आप चली गयी। सम्यक्दर्शन होने के बाद स्थाय मेटने का पुरुषार्थ चालू होता है इसीलिए सम्पदर्शन को धर्म का मूल कहा है और मिध्यात्व ससार का मूल कहा है क्योकि इसके रहते कषाय का अभाव नहीं हो सकता ।
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मिथ्यात्व अकिंचित्कर नहीं
0 डा० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी
अकिंचित्कर पुस्तक का सामान्य रूप से अवलोकन है। यह ठीक है कि मिथ्यात्व के रहने पर कषाये रहती हैं किया । चिन्तन भले ही गम्भीर और प्रमाणयुक्त हो परन्तु और मिथ्यात्व के न रहने पर कषाये भजनीय है। जिन तकों के आधार पर मिथ्यात्व को अकिचित्कर सिद्ध विचार करे कि एकेन्द्रियादि जीवो के क्या हमारे किया गया है, वस्तुस्थिति वैसी नही है। अकिंचित्कर जैसी प्रकट कषाये पाई जाती है, परन्तु उसके मिथ्यात्व के शब्द का अर्थ होता है “अन्यथासिद्ध", प्रयोजन होन, कारण वन्ध होता है। मेरे कहने का तात्पर्य यह नही है वेकार। जब हम विचार करते है तो मिथ्यात्व अकिं- कि मिथ्यात्व ही सब कुछ है, कषाये कुछ नही। कषायों चित्कर सिद्ध नही होता है।
से स्थिति और अनुभाग बध मे विशेषता आती है परन्तु मिथ्यात्व को यदि हम अकिंचित्कर कहेगे तो फिर जब तक मिथ्यात्व छुटेगा नही तब तक "हिंसादि स बधन हमे मुक्ति के साधनभूत (मिथ्यात्वाभावरूप) सम्यक्त्व और अहिंसादि से मुक्ति होती है" यह ज्ञान कैसे होगा? (सम्यग्दर्शन) को भी अकिंचित्कर कहना होगा। क्योकि जब तक यह सष्टि नही आयेगा कोई कषायो को कैस जैसे मिथ्यात्व केवल तत्वश्रद्धान को रोकने मात्र से अकि- जीतेगा? इसीलिए साम्परायिक आस्रव के भेदो में चित्कर है वैसे ही सम्यक्त्व मात्र तत्त्वश्रद्धात कराने मिथ्यात्व को भी बिनाया गया है। मिथ्यात्व के गृहीत वाला होगा। अत: जैसे मिथ्यात्व हटाओ, मिथ्य:त्व और अगृहीत भेद करके गृहोत के ४ भेद किए है --- एकांत हटाओ' से कुछ नही बनने वाला है वैसे ही सम्यक्त्व लाओ विपरीत संशय, बनयिक और अज्ञान । सम्यक्त्व लाओ' से भी कुछ बनने वाला नहीं है । यदि अत. मरा विनम्र निवेदन है कि केवल शब्दजाल के सम्यग्दर्शन मुक्ति का कारण माना जाएगा तो मिथ्यात्व को द्वारा जन सिद्धात की अन्यथा व्याख्यान की जाए। आगमो संसार का कारण माना जायेगा ।
मे जो दो तरह को बाते मिलती है उन्हें ऐकान्तिक न यह ठीक है कि कषाये बध मे प्रमुख भूमिका निभाती बनाया जाये अपितु दृष्टिभेद को ध्यान में रखते हुए कथन हैं, परन्तु इस बात का यह तात्पर्य नहीं है कि मिथ्यात्व शैली का भेद माना जाए। किसी तत्त्व को केवल युक्ति केवल अधिकरण है और अकिंचित्कर है। वस्तुनः अधि के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता है, उसमे विवेक करण तो जीव है और मिथ्यात्व प्रतिबन्धक ।
जरूरी है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हमारा योग जब आस्रव और वन्ध का कारण हो सकता वचन हितकारी हो। वह वर्गभेद आदि को उत्पन्न करने है, तो मिथ्यात्व को भी कारण म.नना होगा। वाला न हो। हमारी हमेगा अनकान्त दृष्टि होनी चाहिए, मिथ्यात्व वस्तुतः अज्ञानरूप है जिसे अन्य दर्शनो मे आगमो के विपरात कथनो का अपेक्षाभेद से युक्तिसगत माया, अविद्या आदि शब्दो से कहा गया है । जव तक यह समाधान करना चाहिए। तथ्य को प्रकट करने के लिए विद्यमान रहता है तब तक सदृष्टि प्राप्त नही होती है हमे पूर्वाग्रही भी नही बनना चाहिए। और सदष्टि प्राप्ति के बिना सद्ज्ञान सचरित्र नहीं मिथ्यात्व को सर्वथा - किचित्कर करने का सम्पूर्ण वनते । अतः मिथ्यात्व को यदि थोड़ी देर के लिए अबधक दर्शन पर कितना व्यापक प्रभाव पड़ेगा यह चिन्तनीय है। मान भी लिया जाये तो वह अकिचित्कर सिद्ध नहीं होता, यदि मिथ्यात्व को अकिचित्कर न कहकर मात्र कषायो को क्योंकि वह ऐसा प्रतिबन्धक तत्त्व है जो साष्ट नहीं होने बन्ध के प्रति प्रमुखता दी जाती तो अच्छा या । मिथ्यात्व देता। सद्दष्टि मे रुकावट पैदा करने वाले को मात्र कषाय नहीं है इसलिए उसे चारित्र मोहनीय मे नहीं अधिकरण कैसे कहा जा सकता है ? यह तो वह जबरदस्त । गिनाया गया परन्तु वह चारित्र में प्रवृत्ति को रोकने वाली तत्व है जो अनन्त संसार का कारण है। इसके न रहने दर्शनमोहनीय का परिणाम है। पर ही कषायें प्रमुख रूप से ससार के प्रति कारण होती
(शेष पृ० ३२ पर)
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गतांक से आगे
दसवीं शताब्दी के अपभ्रश काव्यों में दार्शनिक समीक्षा
॥ श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, शोध-छात्र अपभ्रश कवियो ने बोध-दर्शन के शन्यवाद की भी प्रकृति सक्रिय और पुरुष निष्क्रिय है तो वह (पुरुष) भोक्ता समीक्षा की है । जो न सत् हो, न असत् हो, और न सदा- कैसे हो सकता है । आत्मा वद्ध व निर्गुण होने के कारण सत् से भिन्न हो, वह शून्यवाद कहलाता है। अतः शुन्य शरीर के साथ मभोग (सम्बन्ध) रखने वाला कैसे हो एक अनिर्वचनीय तत्व है, जिसका केवल ज्ञान ही है।' सकता है। सर्शशून्यता की कल्पना के अनुसार जगत में कुछ भी
सांख्य दर्शन जीव को नित्य मानता है। पुरुष (आत्मा) वास्तविक नहीं है, अतः यदि मभी जगह बौद्ध शून्य का ही द्रव्य है। गुणा व पयायो के समूह को द्रव्य कहा जाया विधान करते है तो उनके द्वारा इन्द्रियो का वमन, वस्त्रो ह। चूकि पयाय आनत्य है, बदलता रहता है, 3
यी है। चूंकि पर्याये अनित्य है, बदलती रहती है, अतः द्रव्य का धारण करना, व्रत-पालन, रात्रि-पूर्व भोजन करना एव
अनित्य भी है। ऐसी दशा में पुरुष को मात्र नित्य नही सिर;मुण्डन आदि से क्या प्रयोजन । अतः बौद्धो का शून्य.
कहा जा सकता। साख्य दर्शन मे सष्टि-विकास में २५ तत्व वाद भी सार्थक प्रतीत होता।
मानता है । जिसे स्पष्ट करते हुए पुष्पदन्त कहते है :
भूयई पच पचिगुणइं पचिदियइ पंच तमत्तउ। सांख्य दर्शन की समीक्षा:
मणुहंकार बुद्धि पसरू कहिं पाईए पुरिसु स जुन्तउ। साख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि माने जाते है।
"पाँच भूत, पाच गुण, पाँच इन्द्रिया, पाच तमन्नाए, ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में ईश्वर कृष्ण के द्वारा :साख्य
मन, अहकार और बुद्धि के प्रसार में पुरुष प्रकृति से कारिका' नामक ग्रन्थ लिखा गा था। जो आधुनिक काल
परस्पर विरोधी गुणो के होने पर भी कैसे सयोग कर मे साख्य दर्शन का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। बाद
बैठा।" ११वी शताब्दी के पूर्वाधं मे वीरकवि कृत 'जम्बूके आचायो ने भी भारतीन दर्शनों पर टीका-टिप्पणिया
सामिचरिउ' नामक ग्रन्थ मे साख्य दर्शन के सत्कार्यवाद की है।
(कारण-कार्यवाद)की समीक्षा करते हुए कहा गया है किसाख्य दर्शन की मान्यतानुसार इस सष्टि का निर्माण
कज्जही कारण नवर सलक्खणु मिपिंडी त्व घडहो पुरुष (आत्मा--जीव) और प्रकृति (जड़ पदार्थ) के परस्पर
अविलक्खणु। सहयोग से हुआ है। साख्य दर्शन प्रकृति को जड़, सक्रिय. किसी भी कार्य का कारण केवल स्वजातीय लक्षण एक तथा त्रिगुणात्मक (सत्व, रज व तम गुणों से युक्त) वाला हाता है। जिस प्रकार घट रूप कार्य का कारण एव पुरुष को चेतन, निष्क्रिय, अनेक एव त्रिगुणातीत उससे (द्रव्यत.) अविलक्षण मृत्पिड ही होता है।" अत: मानता है। निष्क्रिय पुरुष तथा जड़ प्रकृति अकेले सृष्टि आपके सिद्धान्तानुसार अचेतन पृथ्वी आदि भतो से अचेतन का निर्माण नहीं कर "कते । इन दोनो के परस्पर सह- शरीरादि के समान ज्ञान भी अचेतन ही होना चाहिए। योग व सयोग से ही सृष्टि का निर्माण सभव है। सांख्य- परन्तु एसी वास्तविकता नहीं है, क्योकि ज्ञान एक चेतन वर्शन के उक्त मत पर आपत्ति करते हुए महाकवि पूष्पदन्त तत्व है ओर ज्ञप्ति-जानना यह चेतन की ही क्रिया है । कहते है कि-"क्रिया रहित निर्मल ५ शुद्ध पुरुष, प्रकृति अन्य मतों व दर्शनों की समीक्षा:के वन्धन मे कंस पड़ जाता है ? क्रिया के बिना मन, उपयुक्त दार्शनिक मतो के अतिरिक्त अपभ्रश कवियो वचन व काय क्या स्वरूप होगा । बिना क्रिया के जीव ने न्याय, वैशेषिक, शैव दर्शन की भी समीक्षा की है। (पुरुष) पाप से कैसे बधेगा? और कैसे मुक्त होगा?' तथा समाज में व्याप्त कुछ मिथ्या धारणाओं एवं अन्धसोमदेव सूरि ने भी उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा विश्वासो पर भी चर्चा की है। न्याय एव वैशेषिक दर्शन है कि-जो (प्रकृति) जड़रूप है वह सक्रिय एव जो की चर्चा कवि ने अवतारवाद की आलोचना करते हुए इस (आत्मा) चेतन है वह निष्क्रिय कैसे हो सकता है। यदि प्रकार की है--"जिस प्रकार उबले हुए जौ के दाने पुनः
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दसवीं शताब्दी के अपभ्रंश काव्यों में दार्शनिक समीक्षा
किया।
कच्चे जो में परिवर्तित नही हो सकते, धी से पुनः दूध नहीं विपरीत ही है।"१२ बन सकता, उसी प्रकार सिद्धत्व को प्राप्त जीव पुन: देह गाय और बैलों को मारा जाता है, ताड़ा जाता है: कैसे धारण कर सकता है ? अक्षपाद (न्याय दर्शन के प्रणेता फिर भी गौवश मात्र को देव कहा जाता है। पुरोहितों कणाद) मुनियो ने शिवरूपी गगनारविंद (आकाश कुसुम- द्वारा याज्ञिको हिंसा (यज्ञ मे पशु-बलिकरण) की जाती असम्भव वस्तु) को कैसे मान लिया? और उसका वर्णन है। एव मृगो को मारकर मृगचर्म धारण करना पवित्र
समझा जाता है।" इसी प्रकार पुष्पदन्त ने जसहरचरिउ" ___ अन्य देवताओं को मिथ्या मानने वाले शैव मतवादी मे "चण्डमारी देवी के सामने समस्त प्राणी-युगलों की आकाश को शिव मानते हैं। ये शैब्य अनुयायी कौसाचार बलि देने से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध होती है।" इसका का अनुशरण करते हुए अपनी साधना के लिए मद्य, मांस, जो वर्णन किया है वह भी अन्धविश्वास एवं रूढिवादी मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन आदि का प्रयोग करते है।" इन परम्परा पर आधारित है। चूकि इस प्रकार की रूढ़िवादी क्रियाओं को धर्म के प्रतिकूल कहा जाता है।
एक पारम्परिक मान्यताओ से जीव हिंसा तो होती ही है शिवपूजन मे बेलपत्री का प्रयोग किया जाता है। अत: किन्तु लोग इसके पक्ष को ही ध्यान में रखते है। बेलपत्री तोडकर शिव को समर्पित (चढाना) करना, इस तरह उपर्युक्त विवेचन मे १०वी शताब्दी के धार्मिक कार्य माना जाता है। किन्तु अपभ्रंश कवि कहता अपभ्रंश कवियों एव आचार्यों ने अपने समय की समस्त
धार्मिक, दार्शनिक मान्यताओं का पूर्व पक्ष रोपकर फिर पत्तिय तोडहि तडतडह णाइ पइट्ठा उठ्ठ । उसकी समीक्षा प्रस्तुत की है। इस युग के न केवल अपएवण जागहि मोहिया को तोइइको तुठु ।" भ्र श जैन कवियों ने बल्कि सस्कृत एवं प्राकृत भाषा के
"मनुष्य पत्तों को तोड़ता है किन्तु यह नहीं सोचना कवियों एवं आचार्यों ने भी इस प्रकार की सामग्री को कि जिसे मैं तोड़ रहा हूं उसमें भी वही आत्मा है जो अपने काव्य-ग्रन्थों में स्थान दिया है। अत: उस सामग्री मनुष्यों में होती है। इसलिए ऐसे कार्य अनुनित व धर्म- की समीक्षा अलग शोध-प्रबन्ध में की जा सकेगी।
सन्दर्भ-सूची १. णायकुमारचरि उ-६८९
७. तत्वार्थ सूत्र-५।३७ ५. चन्द्रप्रभचरितं-२१७५५० २. सर्व दर्शन संग्रह-(माध्बाचार्य कृत) पृ० ६३-६४ ८. णायक मार चरिउ-६।१०।१२-१३ ३. सुण्णु असेसु वि जइ कहिउ तोकि तहो पचिदिय ६. जम्बूसामिचरि उ.-१०।४।४ वंडणु ।
१०. सित्थु जाइ कि जनणालत्तहो घड किं पुणु वि जाइ चीवरणिवसणु वयधरणु सतहडी भोयणु सिर मुण्डणु। दुत्त हो।
--णायकुमारचरिउ-६।५।१२।१३ सिद्ध भमइ किं भवसंसाए गहियविभुक्क कलेवर ४. किरियावज्जिउ णिम्मलुद्धउ संखपुरिसु किं पयइए भारए । बद्धउ ।
अक्खवायकणयर भुणिभण्णिड सिवगयणारविद् कि बिणु किरियए कहिं तणुमणव यणइ विणु किरियए वण्णिउ। -णायक मार रिउ-६७१-३ कहिं बहुभवगहण इं।
११. (क) णायक मार चरिउ-६।६।३ बिणु किरियए कहिं बज्झइ पावें, मुच्चकि हो एण (ख) महापुराण-७६७ पलावें॥
१२. पाड दोहा (मुनिराम सिंह कृत)-सम्पादक डा. -णायक मारचरिउ-६।५।६।११ हीरालाल जैन, गोपाल अम्बारास चवेर १९३३, ५. यसस्तिलकचम्पू (दीपिका)-६।१२।४०७
गाथा १५८ ६. वही-णा८६-८७४१५८
३. णायक मार चरिउ-६१-३,५
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धवला पु० ६ का शुद्धिपत्रक शुद्धिपत्रकार सि० शि० स्व. रतनचन्द मुख्तार (सहारनपुर) एवं
जवाहर लाल जैन-(भीण्डर) उदयपुर
पृष्ठ
पक्ति
अशुद्ध
ma""
पड़ता जिनेन्द्र का xxx [पुनरुक्तित्वात् शोधितम्] व कर्म से रहित
पढता जिनका सविस्लसोवचए कर्म मे रहित व अपने विसयोपचय से सहित। पण्णुवीस वग्गणसुत्तादो। Xxx तदियदववियप्पतदियभावम्हि तृतीय द्रव्य विकल्प को तृतीय भाव विकल्प को
०००
महानता को दो सौ पचास बि णियमेणं उत्पन्न होता है। मनलब्धि
पण्णवीसं वग्गणसुत्तादो।' धवला पु० १३पृष्ठ २८६ पुवदव्ववियप्पपुवभावम्हि पूर्व के द्रव्य विकल्प को पूर्व के भाव विकल्प को [तृतीयद्रव्यभावविकल्पास्तु २६ इत्यस्मिन् पृष्ठाके वणिताः] महत्ता को दो सौ पचावन वि णियमेणं उत्पन्न होती है। मनोलब्धि [इसी तरह सर्वत्र मनलब्धि की जगह मनोल ब्धि करना] शरीर पांच वर्ष ध० अ० प० ११६८; धवल पु० १३ पृ. २३५ घ. अ. प. ११६८; धवल पु. १३ पृ. २३५-३६ ध. अ. प. ११६६ धवन पु. १३ पृ. २३६ परस्पर भिन्न-भिन्न रूप होने से छठी अतीत मूल व प्रत्येक शरीर; ये पर्याप्त अकसाय..-मणपज्जवणाणिकेवलणाणि-संजदसुद्धिसजद-केवलदसणीसु
१३२
or our orm on our
१५०
१५२
२१३ २५३
सरीर पांच दिन ध० अ० १० ११६८ ध० अ० १० ११६८ ध० अ० १० ११६६ परस्पर एक दूसरे रूप होने से छह अतीत वर्गमूल व प्रत्येक शरीर पर्याप्त अकसाय-सजद. सुद्धिसंजदेसु
२७५
२८४ २८४
११-१२
२८४
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षवला पु.
का शुद्धि पत्रक
पृष्ठ
२८४
२०४ २८६
अशुद्ध अकषायी, संयत शुद्धिसयतों मे केवलणाणि-जहाक्खादकेवलज्ञानी, यथाख्यात वाउकाइय-बादरपुढविकाइय
२८६
२८६
२८६
कायिक, बादर पृथिविकायिक,
२८७ २८७ २६८
संखेज्जदिभागे, संख्यातवें भाग में कदि-गोकदि-अवत्तव्वसंचिदा कृति, नोकृति व अवक्तब्य संचित
अकषायो, मनः पर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, संयत शुद्धिसंयत तथा केवलज्ञानियों मे केवलणाणि-सजद-जहाक्खादकेवलज्ञानी, संयत, यथाख्यात वाउकाइया, तेसि चैव सुहमा पज्जत्तापज्जत्ता, बादरपुढविकाइयकायिक और उन्ही के सूक्ष्म तथा पर्याप्त व अपर्याप्त, बादर पृथिविकायिक, असंखेज्जदिभागे, असंख्यातवें भाग में कदिसंचिदा कृति-संचित [पृ० २८१पर "शेष मार्गणामों में कृतिसंचित हैं"; कह कर औदारिक मित्र काययोगी को भी कृतिसंचित ही बताया है ।] XXXS
कारणमुपरि प्रोक्तमेव XXX शका-मनुष्य व तियंचों द्वारा भुज्यमान एइंदिएसु एकेन्द्रियों में कृति आदि संचित
२६८
२६६
२९६
१०६
३११ ३११
णोकदि-अवत्तव्य नोकृति व अवक्तव्य शंका-भुज्यमान एइदिय-बि-ति-चदु-पंचिदिएसु एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियो मे कृति संचित [सागरोवमसदपुधत्तं] स्त्री व पुरुषवेदियों का तथा नपुंसकवेदियो का सागरोपम पृथक्त्व काल देवनारको के मूल शरीर की जघ दुगुणी विशेष अधिक है। सखेज्जा । परिहा रसुद्धिस जद.
xxx xxx
३१३ ३१३
३२७
२७
२८
३४२ ३५४
१७-१८
३६३
xxx देखो पृ. ३०५ का शंका-समाधाम मनुष्य व तियं च के उत्तर शरीर की जघन्य विशेष अधिक [यानी कुछ अधिक दुगुणी है। संखेज्जा । एव सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसजदाणं; णवरि तेजाकम्मइय-परिसादणकदी पत्थि परिहारसुद्धिसंजदसंख्यात हैं। इसी प्रकार सामायिक ब छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतों के कहना चाहिए। किन्तु उनके तंजस-कामंण शरीरो की परिशातनकृति नहीं होती। परिहार
३६३
संख्यात है । परिहार
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२६, वर्ष ४१, कि० ३
अनेकान्त
पृष्ठ ३७१
३७४
३७४
३७५
३७५
३७६
EN MY
v v
३७७
३८६ ३६०
अशुद्ध योनिमत् तिर्यञ्चों
तिर्यञ्चयोनियों [इसी तरह सर्वत्र संशोधन
करना चाहिए असंखेज्जदि
संखेज्जदि. असंख्यातवां
संख्याता एवं वेउम्विय
एवंओरालिय-] वे उब्वियइसी प्रकार क्रियिक
इसी प्रकार औदारिक व वैक्रियिक वे उध्वियपरिसादणकदीए
वेउब्वियसंघादण-परिसादणकढीणं वैक्रियिकशरीर की परिशातन कृति वैक्रिमिकशरीर की संघातन व परिशातन कृति का उत्कर्ष से
का एक जीव की अपेक्षा उत्कर्ष से असंखपात
असख्यात सघादन
संघातन व अन्तर्मुहूर्त
व तीन समय कम अन्तमुहूर्त तेजा-कम्य इय
तेजा-कम्मइय सघादणपरिसादरणकदीए णाणाजीव पहुच्च सम्बद्धा। एगजीवं पडच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेग कम्मदिी । एवं तेसिं पज्जात्ताण; णवरि ओरालिय सघादणपरिसादणकदीए एगजीव पड़च्च जहणण
अंतोमुहत्तं तिसमऊण । वेउब्विय परिसादण
ओरालियपरिसादणकदी वेउब्वियपरिसादणकाल है। वैक्रियिकशरीर की काल है। औदारिक शरीर की परिशातन कृति
तथा वक्रियिकशरीर की मनयोगियो
मनोयोगियों जहण्णेण अंगोमुत्तं, उक्कस्सेण जहण्णेण तिणि समया। पुवकोडी देसूणा। अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से कुछ कम तीन समय है। [केबलिस मुद्धातापेक्षया वि. पूर्वकोटि काल प्रमाण होता है। समयप्रमित: कालो भवति] परिशातन कृति का नाना
परिशातन कृति का तथा तैजसकामणमारीर
की संघातनपरिशातन कृति नाना वे उब्बियपरिसादणकदीए वेउम्बियपरिसादणकदीए तेजाकम्मइय-संघावणणाणेगजीवं
परिसादणकदीए णाणेगजीवं -परिसादणकदि वेउवियतिण्णिपदा -बेउवियतिनिणपदा औदारिक शरीर की परिशातनकृति औदारिकशरीर और संघादणपरिसादरणकदीए
परिसादणकदीए संघातन-परिशातन कृति
परिशातन कृति तेजाकम्म इयसघादणपरिसादण- तेजाकम्मइयसंघादणपरिसादणपरिसादणकदीकदी ओघं।
णं ओघ भंगो।
३६७
३६३
४००
४२१
४२१
१३-१४
माता
४२१
४२१
११.१२
४०२
४०२
२६
१४-१५
४११
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पवला पु० ६ का शुद्धि पत्रक
पृष्ठ
४२४
४२४
४२४ ४२४
४२४ ४३२
अशुद्ध संघातनपरिशातन कृति के संघातनपरिशातन व परिशातन कृति के एगसमओ, उक्कस्सेण
एगसमओ, उक्कस्सेण ओघं। वेउव्वियसघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं एगजीवं पडुच्च
जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण और उत्कर्ष से
और उत्कृष्ट से ओघ के समान है। वैक्रियिकशरीर की संघातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर ओघ के समान है तथा एक जीव
को अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से जहणणे
जहण्णण तेजाकम्मइयसंघादणपरिसादणकदी तेजाकम्मइयसंघादणपरिसादणपरिसादणकदी
ण ओघं। संघातनपरिशातन कृति के सघातन-परिशातन व परिशातनकृति के अपर्याप्त; सब
अपर्याप्त, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सब काइयअपज्जत्त
काइय-वाउकाइय-अपज्जत्त-परिसादणमेतेण ।
–मेत्तेण ।' सघातन और परिशातन कृति युक्त । संघातन कृतियुक्त सखेज्जगुणा । तेजा
सखेज्ज गुणा। संघादण-परिसादणकदी सखे
ज्जगुणा । तेजा संख्यातगुणे हैं। उनसे
संख्यातगुणे है। उनसे उसी की सघातनपरि
सघातनपरिशातन कृतियुक्त जीव संख्यातगुणे है। बादरवाउकाइय पज्जत्ताण
बादरवाउकाइयाण तेसि पज्जत्ताणं च वायुकायिक पर्याप्त
वायुकायिक और उन सबके पर्याप्त असखेज्जगुणा । ओरालिय
असखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । वेउव्वियसघादणपरिसादण कदी
असंखेज्जगुणा । पोरालियअसंख्यातगुणे हैं। उनसे
असख्यातगुणे हैं। उनसे प्रौदारिकशरीर की परिशातन कृतियुक्त जीव विशेषाधिक हैं। उनसे वैक्रियिक शरीर की संघातन परिशातन
ऋतियुक्त जीव असंख्यातगुणे है। उनसे विसमऊणं
तिसमऊणं दो समय कम
तीन समय कम
४३६
४४१
४४२
४४२
४१०
४१.
चदुसमयाहिया उत्कर्ष से चार समय अधिक
समयाहिया उत्कर्ष से समयाधिक एक पूर्व कोटी
४२७
एक पूर्व कोटी
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२८. वर्ष ४१, कि०३
पंक्ति
२४२ २४८ २६५
२७ २६-३०
२६६
२६६
२६-२७
अनेकान्त जयधवला पु० ७ का अंश शुद्धिपत्र अशुद्ध अयोग्य
योग्य कर्मपरकाणुओं
कर्मपरमाणुओं उससे आगे अर्थात् पहले जो एक उससे आगे, अर्थात् जिनकी एक समय अधिक समय अधिक आबाधा से हीन आबाधा से हीन कर्म-स्थिति व्यतीत हुई है कर्मस्थिति और इस स्थिति के जो ऐसे इस निरुद्ध स्थिति के जो कर्मपरमाण कर्म परमाणु कहे है उनसे आगे कहे हैं उनसे आगे आवाहा । एदिस्से
आबाहा, एदिस्से [देखो :-ऐसा ही सूत्र पृ.
२७० पर द्वितीय चूर्णि सूत्र] विवक्षित स्थिति में एक समय कम एक समय कम आवली से न्यून आबाधा आवली से न्यून आबाधाप्रमाण प्रमाण इस विवक्षित स्थिति के विकल्प अवस्तुविकल्प होते हैं। इस प्रकार समाप्त हुए। इस स्थिति के विकल्प समाप्त हुए । विशेषार्थ-विवक्षित स्थिति दो विशेषार्थ-यह उपसहार सूत्र है। विवक्षित समय कम
स्थिति एक समय कम आवली से न्यून आबाधा की अंतिम स्थिति है, अत: इसमे, जिन कर्मपरमाणुओ की स्थिति उदय से लेकर एक
आवली से न्यून आबाधा काल तक शेष रही आवाधा प्रमाण अवस्तुविकल्प है वे कर्म परमाणु नही पाए जाते। इसी से बताए हैं।
इस विवक्षित स्थिति में एक आवली से न्यून आवाधा-प्रमाण अवस्तु विकल्प बतलाये है। जिनकी स्थिति एक समय कम आवली से न्यून आबाधा प्रमाण या इससे अधिक स्थिति शेष रही है वे सब परमाणु इस निरुद्ध स्थिति में पाए जाते है । इस प्रकार अवस्तु विकल्पो व वस्तुविकल्पो का कथन हो जाने पर इस निरुद्ध स्थिति सम्बन्धी समस्त विकरूपो का कथन समाप्त हो जाता है।
२६६
२६-३२
२६८
२६६
२७२
१२
३०५ ३०५
तीन समय अधिक
दो समय कम आबाधा से आगे की
आबाधा से लेकर आगे की धवल पु० १ का अंश शुद्धि पत्र असख्यातवे भाग प्रमाण
असंख्यातवें भाग आयाम वाले संख्यात आवली प्रमाण
संख्यात आवली आयाम वाले न चैते सर्वेषु सम्भवन्ति,
न चैते सर्वेषु सम्भवन्ति, दशनवपूर्वधराणामपि
क्षपक[नोट-प्रथम संस्करणस्थपाठं द्रष्ट्वा, सर्वसंस्करणेष्वनु
बाव च दृष्ट्वा इवं चरमं संशोधनं कृतम् ।]
१२-१३ १०
२०४
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मूल-अगम की रक्षा करें
जैन आगमों की मूल गाथाओं में शुद्धिकरण के नाम पर जो मनमाने बदलाव किए जा रहे हैं। इस विषय को लेकर वीर सेवा मन्दिर को कार्यकारिणी ने निश्चय किया है कि जैन आगमों को मूल गाथाओं के बदलाव को रोकने के लिए समाज में जागृति लाई जाए।
कुन्द कुन्द भारती, नई दिल्ली से प्रकाशित समयसार, नियमसार और रयणसार ग्रन्थों के सम्पादक/प्रकाशक ने शुद्धिकरण के नाम पर-व्याकरण के बंडन से मुक्त प्राचीन और व्यापक हमारे आचायों को आर्ष भाषा को परवर्ती व्याकरण में बांधकर भाषा को संकुचित तो किया ही है, शद्ध शब्द रूपों को भी शुद्ध करने का उपक्रम किया गया है। जैसे- पुग्गल का पोंग्गल, लोए का लोगे, होई का होदि, हवइ का हवदि आदि-यदि होइ और लोए जैसे शब्द रूपों को गलत मान लिया गया तो भविष्य में मंत्र महात्म्य और मलमन्त्र णमोकार भी बदल जाएगे.-"हवदि मंगलं और लोगे सव्यसरणं हो जाएंगे। वीर सेवा मन्दिर चाहता है कि संपादनों में किसी एक प्रति को आदर्श मानकर तदनरूप पूरा ग्रन्थ छपाया जाय और अन्य उपलब्ध या स्वेच्छित विकल्पों को टिप्पणों में आवश्यक रूप में दिया जाए जैसी कि संपादन की प्राचीन परिपाटी है और विद्वन्मंडल- सम्मत है।
उक्त प्रसंग को लेकर वोर सेवा मंदिर की ओर से त्यागियों एवं विद्वानों के अभिमत आमत्रित किए गए थे।
प्राप्त अभिमत समाज की जानकारी हेतु नीचे दिए जा रहे है। --..."मूल जन प्राकृत ग्रन्थों को बदलना कथम प उचित नहीं है।'
-१०८ पूज्य आचार्य शिरोमणि श्री अजित सागर जी महाराज .. मूल मे सुधार भूलकर नही करना चाहिए अन्यथा सुधरते-२ पूरा हो नष्ट हो जाएगा।'...
-१०५ आर्यिका विशुद्ध मति जी -."यदि कदाचित् कोई पाठ बिल्कुल ही अशुद्ध प्रतीत होता है तो भी उसे जहां की तहाँ न सुधार कर कोस्टक में शुद्ध प्रतीत होने वाला पाठ रख देना चाहिए।...
""आजकल जो मूलग्रंथों में संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन की बुरी परपरा चल पड़ी है उसको मुझे भी चिन्ता है।"
-१०५ आयिका श्री ज्ञानमती माता जी -ग्रन्थों के सम्पादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है। नियम यह है कि जिस प्रथ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सम्भव हो उतनी प्राचीन प्रतियां प्राप्त की जाती है। उनमें से अध्ययन करके एक प्रति को आदर्श प्रति बनाया जाता है। दूसरी प्रतियों मे यदि कोई पाठ भेद मिलते है तो उन्हें पाद टिप्पण में दिया जाता है।"
-पं० फूलचन्द जो सिद्धान्त शास्त्री -पूर्वाचार्यों के वचनों में, शब्दो में सुधार करने पर परम्परा के बिगड़ने का अन्देशा है। कोई भी सधार यदि व्याकरण से भिन्न प्रतियों के आधार पर करना उचित मानें तो उसे टिप्पण मे सकारण उल्लेख ही करना चाहिए न कि मूल के स्थान पर ।...
-पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री -संशोधन करने का निर्णय प्रतियों के पाठ मिलान पर नियमित होना चाहिए न कि सम्पादक की स्वेच्छा पर।..
-पं० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री
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१२, वर्ष ४१, कि. ३
अनेकान्त
हमारा कहना तो यही है कि श्रावकों द्वारा जयकारे, 'अस्सलामानेक प्ररहंता' या 'गुडमोनिग टू प्ररहताज भी चित्र प्रकाशन, वितरण और स्वार्थ-पूरक आशीर्वाद प्राप्ति बोल सकेगा-वह भी मूलमंत्र हो जायेगा। क्या कोई की प्रथाएं समाप्त की जाएं-तभी धर्म स्थिर रह सकता ऐसा स्वीकार करेगा-जपेगा या लिखकर मदिरों में है। अखबारों, कैसिटों आदि के माध्यम से उनके प्रवचनो टांगेगा या इन्हें मलबीज मंत्र मानकर ताम्र यन्त्रादि में के प्रचार को भी रोका जाय । क्या ? जिनवाणी वाक्य, अंकित करायेगा ? कि ये पद णमोकार मूलमंत्र का है। धर्म-प्रचार के लिए कम है जो काक्ति को बढ़ावा दे पूर्वा- क्योंकि इनके अर्थ मे कहीं भेद नही है। चार्यों और जिनवाणी को पीछे धकेला जाय । जरा सोचिए । हमारी दृष्टि से धर्मान्ध नो सही मार्ग पर ना ही
पर, हमने जो दिशा-निर्देश दिया है वह अर्थभेद को आ सकेगे। यदि आप उन्हे मना के तो धर्म का सौभाग्य
लेकर नही दिया-भाषा की व्यापकता कायम रखने और
अन्य की रचना मे हस्तक्षेप न करने देने के भाव में दिया ही होगा और आपको भी धर्मलाभ !
है। ताकि भविष्य में कोई किसी रचना को बदलने जैसी
अनधिकार चेष्टा न कर सके । क्योकि यह तो सरासर पर२ क्या मूलमंत्र बदल सकेगा ?
वस्तु को स्व के कब्जे मे करके उसके रूप को बदल देने हमने मल आगम-भाषा के शब्दों मे उलट-फर न जमा है ताकि दावेदार उसकी शिनाख्न ही न कर सके करने की बात उठाई तो प्रबुद्ध वर्ग ने स्वागत कर और वह सबूत देने से भी महरूम हो जाय । समर्थन दिया-मम्मनियाँ भी आयी । बापजूद इसके हमारे कानो तक यह शब्द भी आप कि-शब्दरूप बदनने हाँ, यदि कद वित् कोई व्यक्ति किसी की रचना में से अर्थ में तो कोई अन्ना नही पड़ा । उदाहरण के लिए अगुद्ध या अशुद्ध कामिलाप मानता हो तो सर्वोत्तम 'लोए' या 'होई' के जो अर्थ है वे ही अर्थ 'लोगे' या 'होदि' औचित्य यी है कि वह लोक-प्रचलित रीतिवत्-किसी के हैं और आप स्वयं ही मानते है कि अर्थ-भेद नही है- एक प्रात को आदर्श मानकर पूरा-पूरा छपाए और अन्य
र प्रतियों के पाठ टिषण मे दे। जैसा कि विद्वानों का मत नमक, लवण, सेन्धव भी तो एकार्थवानी है-कुछ भी कहो । सभी से कार्य सिद्धि है।
है। दूमग तरीका है-वह पूर्व प्रकाशनो को मलिन न
कर स्वय उम भाषा मे अपनी कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ-रचना बात सुनकर हमें ऐसी बचकानी दलील पर हंपी जैसी .
करे । का ठीक है ? जरा सोचिए ? आ गई। हमने सोवा-यदि अर्थ न बदलने से ही सब ठीक रहता है तब तो कोई णमो अरईनाणं' मत्र को
-सम्पादक
(पृ० २१ का शेषांश) यदि मिध्यात्य को अफिचिकर कहेगे तो उसके पहले करेंगे वैसे ही हमारे विवार वनेगे । अत: मिथ्यात्व ससार योग को अकिंचित्कर कहना पडेगा, कोकि केवन योग ही का निमित्त कारण बन जाता है, क्योकि इसके बाद कषायें ३ संसार नहीं होता; यदि कषाये न हो।
जन्म लेती है। हमार। पूज्य वही है जो मोक्षमार्ग का नेता ३ कुगुरु, कुदेव आदि की पूजा को जो मिथ्यात्व कहा सर्वज्ञ और कर्मपर्वतो का भेत्ता है, वह जो भी हो। विचार । जाता है उसके पीछे यही कारण है कि कुगुरु, कुदेव आदि करने पर जिनेन्द्र ही ऐसे देव हैं, अतः उनकी आराधना १ ने हिंसादि मे धर्म माना है। जो अहिंसादि में धर्म मानता से सम्यक्त्व को प्राप्ति होती है और कषायादि पर बिजय,
है वह कगुरु कदेव नही है जिसको हम पूजा एव सत्सगति अत: मिथ्यात्व को अफिचित्कर कहना हमारी भूल होगी।
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मिथ्यात्व अकिंचित्कर नहीं है
0 श्री पं० रतन लाल कटारिया, केकड़ी मिथ्यात्व को अकिचित्कर मानने वाले कषाय को ही बन्धकर्ता और मनुष्य का अहितकारी मानते हैं किन्तु यह मूलतः गलत है :
१. जनेद्र सिद्धान्त कोश द्वितीय भाग पृ० ३३ पर लिखा है-"कषाय=मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है इससे आत्मा के स्वरूप का घात होता है । मिथ्यात्व से बढ़ कर कोई पाप नही।"
२. मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २७ (सोनगढ़ प्रकाशन)-' तथा मोह के उदय से मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव होते हैं उन सब का नाम सामान्यतः कषाय है।"
३. जयधव ना भाग ४ पृ० २४-शका-असद्रूप अनन्तानुबन्धी चतुष्क की मिथ्यात्व में उत्पत्ति कैसे हो जाती है? समाधान-योंकि मिथ्यात्व के उदय से कार्माण वर्गणा स्कधों के अनन्तानुबन्धी चतष्क रूप से परि. णमन करने में कोई विरोध नहीं आता है।
४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाग १ (ज्ञानपीठ प्रकाशन) प्रस्तावना पृ० १५-किन्तु पहले गुणस्थान में १६ प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति होती है ये १६ प्रकृतियां केवल पहले गुणस्थान में ही बंधती हैं। आगे मिथ्यात्व का उदय न होने से नही बंधती है । अतः उनके बग्ध का मुख्य कारण मिथ्यात्व ही है अत: मिथ्यात्व को बन्ध का कारण कहा है। फिर भी दुसरे गुणस्थान मे मिथ्यात्व का उदय न होने मे अनन्नानुबधी का उदय होते हुए भी उक्त १६ प्रकृतियों का बन्ध नही होता। अतः उनके बन्ध का प्रमुख कारण मिथ्यात्व ही है। अतः कषाय और योग के साथ मिथ्यात्व को भी बध का कारण माना गया है।
५. पहले गुणस्थान का नाम "मिथ्यात्व" रखा गया है "अनन्तानुबन्धी" नही। इससे भी मिथ्यात्व की प्रमुखता सिद्ध होती है। मोहनीय के २ भेद भी इसी दृष्टि मे किये हैं और प्रथम स्थान मिथ्यात्व (दर्शनमोहनीय) को ही दिया है।
६. मिथ्यात्व, ससार (भवबधन) का प्राण है, अन्य सब कषाय कर्म तो उसके शरीर मात्र है। जैसे बिना प्राणो के शरीर मुर्दा है उसी तरह बिना मिथ्यात्व के समार की स्थिति नही । अतः इसी का नाम अनत-संसार है। कषायें तो इसके पीछे है इसी से उनका नाम अनन्न (समार) अनु (पश्चात् ) बंधी (बंधनेवाली)= अन्तानबंधी है। मिथ्यात्व, ससार रूपी वृक्ष की जड है। जिस तरह बिना जड के वृक्ष स्थिर नही रह सकता उसी तरह बिना मिथ्यात्व के ससार (कषायवृक्ष) स्थिर नही रह सकता । समार रूपी वृक्ष की शाखा पत्र काटने से वक्ष नष्ट न ही हो सकता फिर उग आता है जब तक कि मिथ्यात्व =जड नहीं काट दी जाती। अन: मिथ्यात्व अकिचित्कर नही है। अनयाँ का बीज तो वही है उससे आंखें मूंदने की बात करना मसारचक मे गहरे निमग्न होना है।
७. मिथ्यात्व को अकिंचित्कर कहना सम्यक्त्व को भी अकिंचित्कर ही कहना है। सम्यक्त्व का लोप करना है। यह जैनधर्म को खास विशेषता को खत्म करना है। समार के जितने भी धर्म है सब रागद्वेष कामक्रोधादि कषायो को जीतने की तो अवश्य बाते करते हैं किन्तु मिथ्यात्व को किसी ने छुपा ही नही इसी से वे मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं कर सके, संसार में ही भटकते रहे । यह कला यह अद्भुन विधि-जन से जिन बनने, आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग एकमात्र जैनधर्म ने ही आविष्कृत किया है और वह एकमात्र सम्यक्त्व (मिथ्यात्वनाश) के बल पर ही उद्भूत हुआ है । आज उसी का लोप करना जैनधर्म का ही लोप करना है इसे कोई जैनी ही न समझे तो इससे बढ़कर और क्या परिताप का विषय हो सकता है । विचारें !
८. अनन्तानुबंधी का विसंयोजक जब वापिस प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है तो एक आवली काल तक तो अनन्तानुबधी चतुष्क का अनुदय रहता है। "अकिंचित्कर" पुस्तक में इस अनुदय का अर्थ ईषद् उदय किया है जो सभी जैन सिद्धात शास्त्रो से विरुद्ध है किमी में भी ऐसा कहीं नहीं लिखा है सर्वथा सब जगह उदय का अभाव ही बताया है। इस एक बात से ही अकिचित्करता का कागज का महल ढह जाता है ।
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Rogd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नग्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
नहित अएवं संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं.परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक माहित्य.
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द ... नप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित प्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन
पायकारो के ऐतिहामिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५.०० समाधितन्त्र प्रोर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द ।
७-०० कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना भाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी पारशिष्टो ओर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी पधिक
पृष्ठों मे। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक प. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री भावक धर्म संहिता : श्री दरवावसिंह सोबिया न लक्षणावली (तीन भागो में): म०प० कानपद सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग . श्री पवन्द्र शास्त्री, मात विषपो पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन
२-०० मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह : श्री पद्म पन्द्र शास्त्री
२... Jaina Bibliography . Shri Chhotclal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainMeferenc's.) In two Vol. (P. 1942)
Per set 600-00 सम्पादन समदर्शाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पप्रचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबलाल जैन वना, वीर सेवा मन्दिर के लिए मदिर, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५
BOOK-POST
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वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
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अनेकान्त
(पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४१ : कि०४
1 अक्टूबर-दिसम्बर १९८८
इस अंक में
क्रम
विषय १. परमात्मा-स्तवन २. संघे शक्ति कलीयुगे
-स्व० डा. ज्योतिप्रसाद जैन ३. हिन्दी के विकास में जैन कवियों का योगदान
-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल ४. आवली काल तक अनन्तानुबन्धी
-श्री जवाहरलाल जैन शास्त्री ५. भाषा बदलाव का क्या मूल्य चुकाना पड़गा?
--श्री पचन्द्र शास्त्री, दिल्ली ६. आचार्य अमित गति : वक्तित्व और कृतित्व
-कु० सुषमा जैन सागर ७. प्राप्त कुछ प्रश्नो के उत्तर
-श्री जवाहरलाल मोतीलाल भीण्डर ८. ब्रत : स्वरूप और माहात्म्य
--लेखक क्षल्लकमणि श्री शीतल सागर महाराज २१ ६. जैन ग्रन्थों में विज्ञान
-श्री प्रकाशचन्द्र जैन प्रिंसिपल १०. जरा सोचिए :
-सम्पादक ११. आप सादर आमत्रित हैं !
आवरण पृ० २
प्रकाशक:
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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आप सादर आमन्त्रित हैं!
हमारे सम्पादक होने के नाते लोग अक्सर हममे पूछ बैठते है--'अनेकान्न' के ग्राहक किननी सख्या मे है, इमका वितरण कितना है और कैसे चल रहा है ? कभी-कभी सन्देश भी मिल जाते है कि अनेकान्त वास्तव में सत्य तथा जैन धर्म के रूप का प्रतिबिम्ब है; आदि ।
हम लिख दें कि हम ग्राहक संख्या का माप मनोयोग पूर्वक पढ़ने वालो से करते है; पैसा बटोरने के लिए ग्राहक संख्या बढ़ाने से नही। हम बता दे कि हम प्रशमा से डरते है। हाँ, आशीर्वाद और सदभावनाये ग्रहण करना हमाग धर्म अवश्य है। हमारी धारणा है कि प्राय: ऐसे प्रश्न आर्थिक दृष्टि को ही लेकर किये जाते है । जिनकी भाथिक दष्टि हो वे ही करते है-वे हानि लाभ का हिसाब भी पैसे से आँकते है। पर, हमे विश्वास है कि ऐसे कोई व्यक्ति, पत्रिका गा सस्था घाटे मे नही होते जिनके उद्देश्यो की पूर्ति में कार्य कर्ताओ का सक्रिय बल मिलता हो। मो-धर्म के प्रभाव से प्रबुद्ध-हमसफर कार्यकर्ताओ, लेखको और पाठकों के सहयोग से 'अनेकान्त' आगग रक्षा व सही आचार-विचार निर्देश देने मे सफल चल रहा है। लोग दिशा-निर्देश पा रहे है-वे इसे मिल बैठकर और एक दूसरे से मांगकर भी चाव से पढते है। ऐसे मे लाभ ही लाभ है।
हां, जहाँ स्थिति ऐसी हो कि धर्म-संस्था और उसके कार्यकलापों को आर्थिक व्यापार बना लिया जाता हो, आचार्यों की रचनाओ की छपाई पर गहरे कमीशनो की मांग हो, पराई धार्मिक कृतियो को फ्री वितरण या लागत मूल्य में बेचने के बजाय महगे मूल्यो मे बेचा जाता हो, जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा आदि मे बोलिया बोलकर प्रभूत द्रव्य-सच का उपक्रम हो वहाँ 'घाटा न हो मुनाफा हो' जैसे प्रश्न उभरते है । यहाँ तो सस्था की कमेटी ने इस महर्घता में भी अनेका-त का वार्षिक शुल्क अाज भी वही छह रुपया रखा है जो इकतालिस वर्ष पर्व था--- जबकि सभी पत्र-पत्रिकायें मूल्य बढ़ा चुकी है।
शास्त्रो मे पैसे को परिग्रह कहा है । यदि मान आ जाय तो पैसा मनमानी कराता है । वद विद्वानो और त्यागियो तक को अपने गीत गवाने को मजबूर करता है-जैसा हो रहा है। धर्म को तो अपनी मर्यादा है. यह मर्यादा में रहेगा। जब कि मर्यादा में रहना पैसे के वश की बात नहीं। मर्यादा मे तो निद्वन्द-विद्वान, नियमबद्ध श्रावक, छोटे-बड़े त्यागी और सच्चे महाव्रती ही रहन में समर्थ है और उन्हें आवश्यकतापूति में उपकरणों की कमी नही रहती।
हाँ, ये तो अज्ञानी लोगो की तृष्णा ही है-प्रभूत द्रव्य समेटने और उसे गाजे-बाजे, वहत पण्डाल व मच. निर्माण और दिग्वावटी सम्मेलन व अटपटे-सेमीनारो आदि मे बहाकर वाहवाही लटने की । जब कि धर्म आगम२क्षा और आचार-विचार सुधार पर बल देता है और 'अनेकान्त' कई मौको पर ऐसे पोषणो मे सफल रहता रहा है . और लेखको से भी तथ्यपूर्ण लेख मिलते रहे है । हम सब के अतीव आभारी हैं।
जब कभी हम सद्भावना में अधिक खरा लिख जाते है और खरी बात बुरी लग जाती होगी। सो पाठक हमारी सदभावना का ख्याल कर हमे क्षमा करे। यह अक वर्षान्त का है। आगामी वर्ष के लिए आप मादर आमत्रित हैं.-पठन-पाठन मे सहयोग के लिए। धन्यवाद !
-सम्पादक
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प्रोम् अहम्
TITIONAL
பெறா
VITA
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-
निर्वाण सवत् २५१५, वि० स० २०४५
वर्ष ४१ किरण ४
अक्टूबर-दिसम्बर । १९८८
परमात्मा-स्तवन चिदानंदैक सद्भावं परमात्मानमव्ययम् । प्रणमामि सदा शान्तं शान्तये सर्वकर्मणाम् ॥१॥ खादिपंचकनिमुक्तं कर्माष्टक बिजितम् । चिदात्मकं परं ज्योतिर्वन्दे देवेन्द्र पूजितम् ॥२॥ यदव्यक्तमबोधानां व्यक्तं सद्बोधचक्षुषाम् । सारं यत्सर्ववस्तूनां नमस्तस्मै चिदात्मने ॥३॥
-मुनि श्री पद्मनंद्याचार्य अर्थ-जिस परमात्मा के चेतनस्वरूप अनुपम आनन्द का सद्भाव है तथा जो अविनश्वर एवं शांत है उसके लिए मै (पद्मनन्दी मुनि) अपने समस्त कर्मो को शांत करने के लिए सदा नमस्कार करता हूं॥१॥ जो आकाश आदि पाच (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) द्रव्यो से अर्थात् शरीर से तथा ज्ञानावरणादि आठ कर्मो से भी रहित हो चुकी है और देवों के इन्द्रों से पूजित है ऐसी उस चैतन्यरूप उत्कृष्ट ज्योति को मैं नमस्कार करता है। जो चेतन आत्मा अज्ञानी प्राणियों के लिए अस्पष्ट तथा सम्यग्ज्ञानियों के लिए स्पष्ट है और समस्त वस्तुओं में श्रेष्ठ है उस चेतन आत्मा के लिए नमस्कार हो।
भावार्थ- उक्त पद्यों में आचार्य ने शुद्ध चैतन्य परमात्मा को नमस्कार किया है, जो ज्ञान शरीरी है, द्रव्य कर्म, नोकर्म और भावकर्म आदि से रहित है। अविनश्वर अनिर्वचनीय आनंद से युक्त है कर्मो से रहित, इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य है । वह उत्कृष्ट ज्योतिरूप परमात्मा सदा वन्दनीय है।
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संघे शक्ति कलौयुगे
स्व० डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ
मसार के समस्त स्त्री-पुरुष “मनुष्य जाति" नामक और मनुष्य का सामाजिक प्राणी होना चरितार्थ करते हुए नामकर्म के उदय के कारण एकजातीय या गजातीय होते प्रगति पथ पर अग्रसर होते है। हुए भी श्रीमद् कुन्दकुन्दा नाय की प्रसिद्ध उक्ति "नाना- परन्तु, यदि वे वैयक्तिक या निहित स्वाथों, सत्ता जीवा, नाना कम्मा, नानाविह हवेई लद्धि" के अनुसार वे लोलुपता, विषय लोलुपता, धन-परिग्रह या मान-प्रतिष्ठा अनेक है, और उनमे परम्पर अन्नर होने है-उनके अपने- को लिप्सा, पूर्वबद्ध धारणाओ, हठधर्मों, अधविश्वासो, अपने कर्म, कर्मोदय और कर्मफल भिन्न-भिन्न होते है। अज्ञान आदि के वशीभूत होकर भेद मे अभेदता या अनेक उनकी लम्पिया या उपलब्धियाँ भी मार विविध और मे एकना के मौलिक तत्त्व को विस्मत कर देते है, अपनीविभिन्न हाली है। ये कर्म ननिन, प्रकृतिजन्य, स्वभावजन्य, अपनी ढपली अपना-अपना राग अलापने लगते है, अपने जन्मजात संस्कारजन्य, शिक्षा-दीक्षा-जन्य, परिवेश-वाता- से भिन्न विचार रखने वालो की भावनाओ की ओर से वरण-देशकालादि जन्य अन्तर एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति आँख मृद लेते है, उनकी उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार, से भिन्न बना देते हैं। कोई रूपवान है, कोई कुरूप, कोई भर्त्सना, निन्दा आदि में ही लगे रहते हैं या उनका शोषण बलवान है कोई निर्बल, कोई पूर्णाङ्ग है कोई विकलाङ्ग, उत्पीडन आदि करने लगते है, तो प्रगति अवरुद्ध हो जाती कोई निरोगी है कोई रोगी, कोई बुद्धिमान, मेधावी-प्रतिभा है, और सामाजिक, राष्ट्रोय तथा मानवीय अवनति एव सम्पन्न है तो कोई अल्पमा । -जड मूर्ख है, किसी को पतन के द्वार खुल जाते है। उनकी दलबन्दियो एव गुटक्षमता-योग्यता अधिक मा किमी की अल्प है, कोई बन्दियो के प्रताप से उनकी विकृति राजनीति एव अर्थभद्रप्रकृति मज्जन है तो कोई अभद्र-दुर्जन-दृष्ट स्वभाव का नीति धर्म एव मानवीयता जैसे निर्मल तथा मर्व-हितोपहै। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच वैयक्तिक चिया, जीविको- कारी क्षेत्रो पर भी हावी हो जाते है-कभी-कभी तो पार्जन के लिए अपनाये गये व्यत्रमाय, आर्थिक स्थिति एव द्वेषपूर्ण दोषारोपण, कुत्सित लाछनो, अपशब्दो, जाति या पद प्रतिष्ठा, देश-काल भाषा आदि के भी भेद होते है। धर्म से बहिष्कार की धमकिया आदि हिंसक वैर-विरोध धार्मिक विश्वानो, धर्माचरण की प्रवृत्ति, क्षमता एव एव आतकवादी उपायो का आश्रय लेकर उक्त पवित्र प्रकारों तथा जीवन के "लौकिक एव पारमाथिक" लक्ष्यो क्षेत्रो को भी विकृत एव निरर्थक बना डालती है। के भी अन्नर हो सकते है। मनुष्य जाति के नाना पाणियो
भारतीय इतिहास के मध्यकाल (लगभग १०००मे प्राय: सर्वत्र एव गभी कालो मे सहज ही पाए जाने वाले
१८०० ई.) मे अनेक बाह्य एवं आन्तरिक कारणों से भेद या असर उसकी जीवतता, प्राणवत्ता एव मक्रिय भारतीय समाज मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्णप्रगतिशीलता के ही द्योतक है। उनके सबके रहते भी व्यवस्था तो जन्मतः रूढ हई ही, प्रत्येक वर्ण में अनगिनत मनुष्यमात्र समान है, एक है, मानवतारूपी एक सूत्र मे जातियाँ-उपजातियाँ-अवान्तरजातियाँ तथा प्रायः प्रत्येक परस्पर बधे है। इस अनेकता में एकता, भेद में अभेद, धर्म परम्परा मे अनेक सम्प्रदाय-उपसम्प्रदाय, पथ-उपपंथ विविधता में समानता के बल पर ही वे सद्भाव, सहयोग आदि भेद-प्रभेद भी उदित होते, विकसित होते और रूढ़ एव सहअस्तित्वपुर्वक समष्टि के लिए हितकर सामूहिक होते चले गये। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी छोटी-सी उद्देश्यों की प्राप्ति में स्वशक्त्यानुसार प्रयत्नवान होते है जाति-उपजाति विशेष, अपना छोटा-सा पंथ-उपपथ विशेष,
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संघे शक्ति कलीयुगे
अपना ही दल, गुट या वर्ग विशेष सर्वोपरि होता चला मौर्यकाल के प्रायः अन्त से (लगभग २००ई० पू०) पर्यन्त गया। इस विघटनकारी अभिशाप ने धार्मिक, सामाजिक चलती रही। स्वय वैदिक परम्परा मे औपनिषादिक एव राष्ट्रीय संगठन की कमर तोड दी है और उसके टुकड़े- आत्म-विद्या के प्रनारक तथा नवोदित शिवोपासक भी टुकड़े करके धर्म-सस्कृति, समाज एव राष्ट्र के शरीर को याज्ञिक हिंसा, वैदिक कर्मकाण्ड और वर्णादिक के आधार जर्जर कर दिया है। क्या साधु-सत एवं धर्माचार्य, क्या । पर सामाजिक भेद-भाव के विरोधी धी, अत: उनमे भी चितक, विचारक एव साहित्यकार, का सामाजिक नेता वर्णनास्था श्रमणों जैसे पीमित रूप में ही अगीकृत रही। एवं राजनेता, सब ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस विध- किन्तु मौर्योत्तर काल मे, एक और तो उत्तर भारत की टनकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते दीख पड़ते है। नैतिकता केन्द्रीग। (मगध-मालवा) राज्यसत्ता ब्राह्मणकलोत्पन्न प्रधान मानवीय मूल्यों में अनास्था का ही यह दुष्परिणाम शुग व कण्व नरेशो के हाथ में आ गई, जिन्होंने जोरहै-अब तो आस्था में ही किसी की आस्था नही है शोर में ब्राह्मणधर्म पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया और श्रमणो गई है।
पर भरमक अत्याचार किये। परिणामस्वरूप बौद्ध समुतीर्थकर-युग, चौथे काल या पुराण काल की बात दाय की ता अपार क्षति हुई ही, जैन सघ भी उत्तर भारत छोड भी दे, तो गत माधिक अढाई सहस्र वर्षों के शुद्ध मे पर्याप्त निर्बल हा गया--भद्रबाबु श्रुतके वली की पर।रा इतिहास काल में भी भारतवर्ष मे ऐसे अनेक अत्यधिक के मुनि तो ४थी शती ई० पू० के मध्य लगभग ही बहत काल-क्षेत्र व्यापी स्वणिम युग आए है, जब लोकमानस ने बडी मख्या में दक्षिण के कर्णाटक आदि देशो की ओर मानवीय मूल्यो में सुदृढ आस्थापूर्वक स्वय को ऐगी विघ- बिहार कर गये थे, लिभद्र की परम्परा के अवशिष्ट टनकारी प्रवृत्तियो से बचाय रखा, और भेद में अभेद या साधु भी मालवा तथा वहां में भी गुजरात-सौराष्ट्र की अनेकता में एकता की मुष्ठ साधना करके सर्वतोमुखी ओर चले गए। दूसरी ओर, ईरानी, यूनानी पल्प, शक, उत्कर्ष सादित किया है तथा सम्यक पुरुषार्ष द्वारा ऐहिक मुरुण्ड, पाण आदि विदेशी जातियां उत्तरी सीमान्तों की एव पारमार्थिक स्वपर कल्याण का साधन किया है। परत ओर से प्रविष्ट होकर इस देश मे यत्र-तत्र बसने और भेद में अभेद या अनेकता में एकता की इस भावना के अपना राज्य मत्ताय स्थापित करने लगा था। हूण, अरब, पनपने मे आज सबसे बडा बाधक कारण वर्तमान में प्रच- तुक, मगोरी आदि के रूप में यह सिलसिन! यो शती लित जातिवाद एव जाति-उपजाति प्रथा है। तारीफ यह तक चलना र । बीच में गुप्त युग लगभग (३२०-५५० कि इस जाति प्रथा के वर्तमान रूप को अनादि-निधन
ई०) मे भारतीय राज्यसत्ता प्रबल भी हो उठी, तो वह घोषित किया जाता है। और सज्जातित्व के आवरण में भागवत धर्मानुयायी रही ! पुराणग्रन्थ, स्मृति शास्त्र आदि सजातीत्व का नारा बुलन्द किया जाता है।
रचे गय और जनता ब्राह्मणवाद, वर्णाथम, जातिपांति के
बधनो में जकड़ती चली गयी । गुत्तर का1, विशेषकर श्रमण परम्परा के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर राजपूत युग में, यह प्रक्रिया आर अधिक बलवना होती (छठी शती ई० पू०) के उदय के बहुत पूर्व भारत मे नवो- गयी और मध्य-युगीन मूस्लिम शासन काल मतो य बधन दित वैदिक-ब्राह्मण परम्परा ने कार्य विभाजन की सुविधा अपनी चरमावस्था को पहुच गए। की दृष्टि से समाज मे चतुर्वर्ण व्यवस्था प्रचलित कर दी थी, किन्तु वह कर्मत: एव परिवर्तनीय रही जन्मत: और परन्तु, दक्षिण भारत के अधिकाश भाग में क्योकि अपरिवर्तनीय नही । श्रमण परम्परा ने भी उसे उसी दृष्टि मूलसंधी निर्ग्रन्थ जैन धर्म का ही मुख्यतया वर्चस्व एवं से और उसी रूप में स्वीकार कर लिया, यद्यपि वह श्रमण प्राधान्य रहा, वहाँ का सामाजिक मगठन लगभग १५०० निर्ग्रन्थ सस्कृति की अभेदपरक आत्मा के पूर्णतया अनुकूल वर्ष पर्यन्त प्रायः वैसा ही रहता रहा जैमा कि मौर्यकाल नही थी। यह व्यवस्था उसी रूप में भारतीय समाज मे तक उत्तर भारत मे रहा था, अर्थात् चतुर्वर्ण तो शनैः शनैः
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४, वर्ष ४१, कि० ४
अनेकान्त
स्वीकृत हो गए, किन्तु कर्मतः तथा परिवर्तनीय बने रहे। ब्राह्मण परम्परा के बड़े-बड़े दिग्गज आचार्य भले ही हुप, समाज की एकसूत्रता एवं स्वस्थता भग नही हुई। १२वी देश का राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एव नैतिक पतन शती मे रामानुजाचार्य के वैष्णव सम्प्रदाय के, तदनन्तर और सैकड़ो वर्षों की विदेशी-विधर्मी मुसलमानो, फिरंगियों वीरशैव (लिंगायत) मत के द्रुतवेग से बढ़ते प्रचार-प्रमार, आदि की गुलामी का कारण मुख्यतया वह संकीर्ण असजैन राज्य सत्ताओ तथा बहुभाग जिनधर्मी ब्राह्मण-क्षत्रिय, हिष्णु ब्राह्मणवाद ही रहा जिसकी जड मे जाति-उपजाति वैश्यों के शन: शनैः मत परिवर्तन, मुसलमानों के प्रवेश वाद का भेद या कूटपरक भूत ही सर्वाधिक सक्रिय रहा । आदि अनेक कारणों से वह सामाजिक संगठन परमरा आज भी स्वतन्त्र सर्वतन्त्र भारतीय राष्ट्र की भावनात्मक गया और ब्राह्मणवाद जनमानस पर बेतरह छाता चला एकसूत्रता मे वही जातिवाद सबसे बड़ी बाधा है। राजगया । अतएव दक्षिण मे भी उत्तर भारत जैगी जातियाँ- नैतिक सम्प्रदायवाद या सियामी फिरकापरस्ती का रूप उपजातियाँ उत्पन्न होने लगी। साथ ही अवशिष्ट उच्च- लेकर तधा साथ मे आतंकवाद का हथियार अपनाकर तो वर्गीय जैनों को वर्णवाह्य घोषित करके उन्हे 'पचम" विघटनकारी तत्त्व भयकर एव विध्वंसक हो उठे है, अपने सज्ञा दे दी गई- अर्थात् वे चतुर्थी (शूद्रों) मे भी हीन छोटे से स्तर पर जैन समाज भी उसी रोग से ग्रस्त होता समझे जाने लगे। "चतुर्थ" जो पहले से ही अपेक्षाकृत जा रहा है। देश की जनसंख्या का मात्र एक प्रतिशत पिछड़ा हुआ एवं निम्न वर्ग था और जिसमे कृषक, श्रमिक, होते हुए भी वह इतने सम्प्रदायो-उपसम्प्रदायो, पन्थोविभिन्न कर्मकर समूह थे, उसके शेत पाल, कासार, बोगार उपपन्थो, गुरुडमो मे तथा इतनी जातियो-उपजातियो, आदि का वहुभाग पीछे तक जैन बना रहा । ये तथाकथित अवान्तर-जातियो, अल्लो-थोको आदि मे बंटता हुआ छोटे लोग सदैव से अधिक धर्मप्राण रहते पाए है, एका- टुकड़े-टुकड़े होकर रह गया है । अत. ऐसा तत्त्वहीन होता एकी किसी जोर-जबरदस्ती या प्रलोभन के कारण वे जाता है कि उसके स्वय के तथा उसके धर्म एव सस्कृति स्वधर्म परिवर्तन प्रायः नही करते । अतएव इधर गत दो- के अस्तित्व को ही भयानक खतरा उत्पन्न हो गया है। तीन सौ वर्षों मे दक्षिण भारत मे जो जैन बच रहे वे आवश्यकता है कि प्रबुद्ध समाज नेता समय की गति को चतुर्थ और पचम ही कहलाने लगे। देखादेखी उनमे भी पहिचाने और विघटनकारी प्रकृतियो से समाज की जीवन कई जातियाँ-उपजातियाँ विकसित हो गयी। किन्तु यद्यपि रक्षा करें। स्मरण रहे कि "सघे शक्ति कलीयुगे" इस हीन भावना, निर्धनता, अशिक्षा आदि के कारण वे
विषम कलिकाल में शक्ति का मूल सगठन ही है। शायद धार्मिक एव सास्कृतिक पुनर्जागरण क ने योग्य नही रहे, इसीलिए भविष्य दृष्टा भगवान महावीर ने श्रीसंघ अर्थात तथापि उस भभाग मे जैनधर्म एव सस्कृति के सरक्षक मुनि आयिका, श्रावक-श्राविका, रूपी चतुर्विध संघ की तथा प्रतिनिधि वे ही बने रहे और आज भी बने है। स्थापना, सगठन, व्यवस्था एव सरक्षण को प्राथमिकता वर्तमान शती के दिगम्बर जैन मुनियो, आयिकाओं आदि दी थी। उन सर्वहितकर जगद्गुरू भगवान की जन्ममे से भी अधिकाश उन्ही जातियो मे उत्पन्न हुए है। मध्य जयन्ती, तप या ज्ञाकल्याणक, शासन जयन्ती या निर्वाणोएव मध्यान्तर कालो मे दक्षिण भारत मे जो अनेक सुधा- त्सव, किसी भी उपलक्ष्य से हम उनका गुणगान करें। रक एव निर्गुणी या भक्त संत हुए वे पी अधिकतर इन्ही हमे उनकी इस अमूल्य देन को विस्मत नही करना चाहिए वर्गों में उत्पन्न हए थे। दूसरे, इन चतुर्थ एवं पचमों मे, और उनके श्रीसंघ को विकृतियो से बचाये रख कर जो जैन बने रहे और जिनमे कितने ही मूलतः ब्राह्मण, सरक्षित एवं सतेज बनाये रखने का सकल्प सदैव दोहराते क्षत्रिय या वैश्य कुलोत्पन्न भी हैं, परस्पर रोटी-बेटी रहना चाहिए-इसमे हम सबका कल्याण निहित है। व्यवहार भी चलता रहा । दक्षिण भारत मे उस काल में
(श्री रमाकान्त जैन के सौजन्य से)
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हिन्दी के विकास में जैन कवियों का योगदान
डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल, जयपूर
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। सारे देश में इसे यह अपभ्रश एव हिन्दी के विकास काल का काव्य है जव सम्माननीय स्थान प्राप्त है । लेकिन राष्ट्र भाषा का स्थान अपभ्र श शनैः शनै. हिन्दी का रूप ले रही थी।' प्राप्त करने के लिए इसे विगत ८०० वर्षों में अनवरत जैन कवि काव्य को किमी एक विधा से बधे नही संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष मे जैन सन्तो, भट्टारकों रहे किन्तु उन्होने सभी काव्य रूपो को अपनी कृतियो से एव कवियो का सबसे अधिक योगदान रहा। सस्कृत के पल्लवित किया। राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों मे सग्रहीत पर्याप्त प्रचार युग मे भी जैन कवियों ने पहिले अपभ्रंश ग्रन्थो को देखते हए हमारे सामने अनेक नाम सामने आये के रूप में और फिर पुरानी हिन्दी के रूप में छोटी बडी है जैसे स्तोत्र, पाठ, सग्रह, कथा, रसो, रास, पूजा, मंगल, पचासो रचनाये निबद्ध करके अपनी हिन्दी सेवा का जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मत्र, अष्ट, सार, ममुच्चय, वर्णन, ज्वलत उदाहरण प्रस्तुत किया। महापडित राहुल सुभाषित, चौपाई, शुभ मालिका, निसाणी, जकडी, साकृत्यायन न जब महाकवि स्वयम्भू को हिन्दी का आदि ब्याहलो, बधावा, विनती, पत्री, आरती, बोल, चरचा, कवि घोषित किया और उनके द्वारा निबद्ध "पउमचरिउ" विचार, वान, गीत, लीला, चरित्र, छद, छप्पय, भावना, को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य बतलाया तो हिन्दी का विनोद, कल्प, नाटक, प्रशस्ति, धमाल, चोढालिया, चौमाइतिहास और भी अतीत में चला गया। स्वयम्भू के मिया, बारामासा, बटोई, बेलि, हिंडोलणा, चूनड़ी, पश्चात् पुष्पदन्त, वीर, धनपाल, नयनन्दि, श्रुतकीनि एब सज्झाय, बाराखडी, भक्ति, वदना, पच्चीसी, वत्तीसी, रइधू जैसे पचासों अपभ्र श कवियो ने हिन्दी विकाम का पचासा, लावनी, सतसई, सामायिक, सहस्रनाम, नामामार्ग प्रशस्त किया जिसके महारे हिन्दी भाषा का विकास वली, गुरूबावलो, स्तबन , साधन, मोडलो, फागु, आदि । तेजी से सम्पन्न हो सका।।
इन विविध साहित्य रूपो को जैन कपियो ने खुब पल्लहिन्दी के प्रारम्भिक यूग के यदि २-४ रासा ग्रन्थो वित किया है जिनकी बहुमूल्य सामग्री जैन ग्रन्थागारो मे को निकाल दिया जावे तो शेष सभी रास संज्ञक रचनाये सुरक्षित है। जैन कवियो द्वारा निबद्ध मिलेगी। इन कवियो ने सामान्य
१४वी शताब्दी के प्रारम्भ म कविवर सघारू हुए na ara tan Aथा हिन्दी के जिन्होन प्रद्युम्न चरित' जैस सुन्दर काव्य को सन १३५४ पठन-पाठन को लोकप्रिय बनाने के लिए कितने ही रास में निबद्ध किया। विद्वाना ने सधारू के प्रद्युम्न चरित को संज्ञक रचनाये निवद्ध की जिनमे भरतेश्वर बाहवलि रास ब्रजभाषा का प्रथम महाकाव्य माना है और उसे मौलिक (११८४ ए. डी.) वन्दन बाला राम (१२५७ ए.डी.) स्थल- कृति वनलाई है। सधारू कवि उत्तर प्रदेश के एरच्छ भद्र रास (१२०६ एडी) नेमिनाथ रास (१२१३ एडी) नगर के निवासी थे। कवि ने अपना निम्न प्रकार परिचय गोत्तम स्वामी रास (१३५५ एडी) के नाम उल्लेखनीय दिया है :हैं। रासा कृतियो के साथ-साथ जैन कवि काव्य कृतियो अगरवाल को मेरी जान, पुर नगरोए मुहि उतपात । लिखने की ओर प्रवृत्त हुए। इस दृष्टि से जिणदत्त चरित नामक काव्य ग्रन्थ उल्लेखनीय है। कविवर राजसिंह ने
साधरू महाराज धरह अवरिउ । इसे १२६७ एडी में निबद्ध किया। ७५३ पद्यों में निबद्ध एरछ नगर बसते जानि, सूण उ चरित महारचिउपराण।
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वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
१५वी शताब्दी मे भट्टारको का स्वर्ण युग प्रारम्भ इतना सवेग एव अनुभूतिपरक है कि कोई भी सहृदय हआ। गुजरात एव उत्तर भारत के इन भट्टारकों ने विरह की इस दशकारी वेदना से व्याकुल हए बिना नहीं हिन्दी की सबसे अधिक प्रश्रय दिय।। स्वय उन्होंने एवं रहता। अपने शिष्यो द्वारा हिन्दी मे सैकडो रचनाय लिखवाकर
कविवर ठक्कुरसी राजस्थान के ढूढाहड क्षेत्र के कवि हिन्दी भाषा के भण्डार को खूब पल्लवित किया। भट्टारक
थे। उन्हें काव्य रचना में अभिरुचि स्वयं अपने पिता सकलकीर्ति के प्रमुख शिष्य ब्रह्म जिनदाम ने ७० से भी
धेल्ह से प्राप्त हुई थी। उन्होने १५ कृतियो को छन्दबद्ध अधिक काव्य कृतियो को निबद्ध करके हिन्दी जगत में एक
करने का यशस्वी कार्य किया । पचमगति वेलि इनकी नया कीर्तिमान प्रस्तुत किया। उन्होने अकेले ने विविध
सबसे लोकप्रिय रचना मानी जाती है जिसकी मैकड़ो विषयक लगभग ५० गम सज्ञक काव्यो का सृजन किया।
पाण्डुलिपिया राजस्थान के जैन ग्रन्थागारो मे संग्रहीत लोक भाषा मे तुलसी में पूर्व राम राम सन् १४५१ मे
है। इसी तरह कवि की "कृपण छन्द" में तत्कालीन की, रचना कर ब्रह्म जिनदाम ने हिन्दी मे राम काव्य
समाज का बहुत मामिक वर्णन हुआ है। इन्ही के छोटे परम्परा का सूत्रपात किया। यही नही रूपक काव्य
भाई धनपाल थे जिन्होंने ऐतिहासिक गीतो की रचना की परम्पग मे परमहम रास जैमी विशिष्ट रचन निबद्ध
थी। जामेर के सावला बाबा (नेमिनाथ स्वामी) पर करके अध्यात्म रम की धारा बहायी। १६वी शताब्दी में बीमो जैन कवि हए जिन्होने पचासो
उन्होने बहुत सुन्दर गीत लिखा है। रचनाओं द्वारा हिन्दी माहित्य के भण्डार हो खूब समृद्ध
इसी शताब्दि मे होने वाले आचार्य मोगकीति ने किना। इन शताब्दि में होने वाले कवियो मे बूचराज,
यशोधर राम एव प्रन्य ६ रचनाये निबद्ध करने का गोरख छह न, ठक्कुरमी चतुरूमल, आचार्य सोमकीति, ब्रह्म
प्राप्त किया। मोमकीति, ज्ञान भूषण एव शुभचन्द्र पने यशोधर, भट्टारक शुभनन्द्र, भट्टारक ज्ञानभूषण के नाम
समय के प्रभावक सन्त थे। इनकी हिन्दी कृतियो की उल्लेखनीय है । कविवर बूच राज का अब तक ८ रचनाये
रचना मे अभिरुचि निस्सन्देह इम भाषा के प्रति जन रुचि एव ११ गात उपलब्ध हो चुकी: । बूचराज' घुमक्कड
की प्रतीक मानी जानी चाहिए। काव थ तथा राजस्थान, हरियाणा, पजाब एव इतर १७वी एव १८वी शताब्दि हिन्दी का स्वर्ण काल रहा प्रदेश म बराबर घूमते रहत थे । इन्होंने रूपक काव्यों को जिसमे पचासो कवि हुए जिन्होने हिन्दी साहित्य के भडार छन्दोबद्ध करने भ सबसे अधिक रुचि ली और सुयण जुझ, को अत्यधिक समृद्ध बना दिया। इन शताब्यिो में भक्ति एव संतोष जयतिलकु, चेतन पुद्गल धमाल जैसी महत्त्वपूर्ण अध्यात्म की दोनो धारायें खूब बढ़ी। चारो ओर हिन्दी कृतियों को छन्दोबद्ध करने में सफल ।। प्राप्त की। छोहल मे काव्य रचनायें होने लगी। इस शताब्दि के प्रतिनिधि कवि की पञ्चसहली गीत एव बावनी बहुत ही लोकप्रिय कवियो मे ब्रह्म रायमल्ल, रूपचन्द, भ० रत्नकीति, कुमुदरचनाए रही है। भाषा एवं शैली दोनो। दृष्टिगा से चन्द, आनन्दधन, ब्रह्म गृलाल बाई अजीतमति, परिमल्ल, दोनो ही रचनाए उत्कृष्ट कृतिया मानी जाती है। प्रोफसर धनपाल, देवेन्द्र, सभाचन्द, भधरदास आदि के नाम उल्लेकृष्ण नारायण प्रसाद "मागध" के शब्दा में बावनी में खनीय है। ब्रह्म रायमल्ल घुमक्कड कवि थे इसलिए जहां वर्वाणत नीति एव उपदेश के विषय है तो प्रानि पर, भी ये जाते, अपनी काव्य रचना से उस ग्राम/नगर के प्रस्तुतीकरण की मौलिकता प्रतिपादन की विशदता एव निवासियो को उपकृत करते रहते थे। ब्रह्म रायमल्ल की दृष्टान्त चयन की सूक्ष्मता सर्वत्र विद्यमान है। इसी तरह रचनायें अत्यधिक सीधी सादी भाषा में निबद्ध है जिन्हें पंच महेली गीत में शृगार रस का बहुत ही सूक्ष्म तथा गाकर पढ़ा जा सकता है। इनकी अब तक पन्द्रह रचमामिक वर्णन हुआ है। वियोग शृगार में विरहिणी नाये उपलब्ध हो चुकी है जो सवत १६१५ से लेकर सवत नायिकाओ के अनुभवों का चित्रण उन्ही के शब्दो मे १६३६ तक की रची हुई है। कवि को भविष्यदत्त चौपई
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हिन्दी के विकास में जैन कवियों का योगदान
सबसे लोकप्रिय रचना मानी जाती है जिसकी सैकड़ों की वह सागवाड़ा (राजस्थान) की रहने वाली थी। उसके संख्या में पाण्डुलिपिया उपलब्ध होती हैं बनारसीदास द्वारा निबद्ध आध्यात्मिक छन्द, षट् पद, भक्ति परक पद, १७वीं शताब्दी के सबसे अधिक लोकप्रिय एव सशक्त कवि हिन्दी की अच्छी रचनाये है। इसी समय आगरा में परिमाने जाते है। उनका समयसार नाटक, बनारसी विलास मल्ल कवि हुए जिन्होने श्रीपाल चरित के रूप मे हिन्दी एवं अर्धकथानक हिन्दी की बेजोड़ रचनायें है। समयसार की एक सशक्त रचना भेंट की। नाटक मे जीव. अजीव, आस्रव, बंध, सबर, निर्जरा और १८वी शताब्दि मे होने वाले अनेक कवियो मे मुनि मोक्ष सात तत्त्व अभिनय करते है। इनमे जीव नायक है सभाचंद हेमराज, बुनाकोदास, बनारसीचन्द, भुधरदास, तथा अजीव प्रतिनायक है। आत्मा ने स्वभाव और विभाव द्यानतराय हिन्दी जगत के जगमगात नक्षत्र है। भाचन्द को नाटक के ढग पर बतलाने के कारण इसको नाटक के हिन्दी पद्मपुराण की लेखक को अभी ३ वर्ष पूर्व ही समयमार कहा गया है। वनारसीविलास में कवि की ५० खाज करने में सफलता मिली है। प्रस्तुत पुराण हिन्दी भाषा रचनाओ का संग्रह किया गया है। आगरा के दीवान का प्रथम पद्मपुराण है जो साढ़े छः हजार से अधिः पद्यो जगजीवन ने कवि की बिम्बरी रचनाओ का उनकी मृत्यु में निर्मित जैन राम काव्य है । भाषा सरल किन्तु लालित्य के पश्चात् सवत १७०१ चैत्र सूदी २ को एक ही स्थल पूर्ण है। हमराज नाम के चार कवि एक ही समय में हा पर सकलन कर दिया था और उसी सकलन का नाम जिनमे पाडे हमराज, हेमराज गोदिका ये दोनों सबसे बनारसी विलास रखा गया था। अधं कथानक हिन्दी प्रसिद्ध थे। कविवर बुलाकोदास, बुकीचन्द दांनी आमरा जगत का प्रथम आत्म चरित है जिसमे कवि ने अपने निवासी थे। बुलाकीदास का पाण्डवपुराण हिन्दी की एक जीवन के ५५ वर्षों की जीवन घटनाओ का बड़े ही सुन्दर सशक्त कृति है, जिसका रचना काल सबन १७५४ है। ढग से छन्दोबद्ध किया है। इसमे काव की सत्यप्रियता, इसी तरह बुलाखीचन्द का व पनकोष अपने ढग की एक स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभिकता का जबर- अनूठी कृति है। दस्त पुट विद्यमान है। कथानक की भाषा अत्यधिक १९वी शताब्दि में पद्य के स्थान पर गद्य लेखक सरल है।
अधिक सख्या में हुए । तथा आगरा का स्थान जयपुर ने कविवर रूपचन्द बना रसीदास के ममकालीन थे। ले लिया। मांगानेर, बामेर एव जयपुर जैन नखको के दोनो ही आध्यात्मी थे तथा परस्पर में आध्यात्म चर्चा केन्द्र बन गये। हिन्दी गद्य लेखको मे १० दीपचन्द किया करते थे। उनका दोहा शतक, गीत परमार्थी कामलीवाल, प० दोलनराम कासलीवाल, पटारमन, अध्यात.. से ओतप्रोत है । दृष्टान्तो के द्वारा उन्होंने अध्या- १० जयचन्द छाबडा, ऋषभदास निगोत्या, कशरा मिह त्म तत्त्व को बहुत अच्छी तरह समझाया है । भट्टारक आदि के नाम विशेषत: उल्लेखनीय है। य सना ढढारी रत्नकीति एव कुमुदचन्द्र दोनो ही गुरू शिष्य थे दोनो ही भाषा के विद्वान थे और इनकी रचनाओ न उस समय भट्टारक थे तथा अपने समय के प्रभावक भट्टारक थे। जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त की थी। रत्नकोति की अब तक ४४ कृतिया उपलब्ध हो चुकी है वर्तमान शताब्दि म शताधिक जन विद्वान एवं सन्त जिनमें अधिकाश रचनाये नेमि राजल से सम्बन्धित है। हिन्दी लेखन मे लगे हुए है तथा उपन्यास, कथा, कहानी उन्होने अपने गीतों में राजुल के मनोगत भावो का एव काव्य रचना के साथ साथ ग्रन्यो का समालोचनात्मक व उसके विरही जीवन का सजीव चित्र उपस्थित किया है। अध्ययन प्रस्तुत कर रहे है। हिन्दी पत्र-पत्रिकायोक इसी तरह कुमुदचन्द्र की अब तक २८ रचनाये उपलब्ध हुो माध्यम से हिन्दी प्रचार प्रभार मे महायक बन हुए है। चुकी है जिनमे गीत सज्ञक रचनाये अधिक है।
जैन सन्तो में आचार्य तुलसी, प्राचार्य विद्यानन्द, आचार्य १७वी शताब्दि को महिला कवयित्री बाई अजीत- विद्यासागर, नथमलजी, मुनि नगराज आदि के म मति" की खोज अभी कुछ ही समय पूर्व हो सकी है।
(शेष पृ० १२ पर)
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आवली काल तक अनन्तानुबन्धी
। श्री जवाहरलाल जैन शास्त्री, भीण्डर
(i) आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती लिखते हैं . बारह कषायो मे से ३ कषाय प्रत्यय ३। तीन वेदों में से अणसजोदिदसम्मे मिच्छ पत्ते ण आवलि त्ति अण। एक १ । हास्य-रति व अरति-शोक; इन दो युगलों में से
[गो० क० गा० ४७८] एक युगल २। दस योगो में से एक योग १। कुल १+ अर्थ-अनन्तनबन्धी का विसंयोजन करने वाले क्षयो- २+३+१+२++१=१० प्रत्यय । इस प्रकार ये पशम सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व-कर्मोदय से मिथ्यात्व गुण- सब मिल कर मिथ्यात्व गुणस्थान में एक समय मे दस स्थान को प्राप्त होने पर आवली मात्र काल तक अनन्ता- बन्ध के प्रत्यय अर्थात् कारण होते हैं। नुबन्धी कषाय का उदय नही होता।
(iv) ज्ञानपीठ से प्रकाशित पचसंग्रह के सप्ततिका [स्व० १० मनोहरलाल सि• शा०] प्रकरण मे गा० ३६ में पृ० ३२५ पर लिखा है(ii) इमी प्रकृत गाथार्ध के अर्थ को सिद्धान्त शिरो- द्वाविंशतिबन्धके मिथ्यदृष्टि जीवे उत्कृष्टतो दशमोहमणि स्व० अ० रत्नचन्द मुख्तार लिखते है --अनन्तानुबधी प्रकृत्युदया १० . .. द्वाविंशतिबन्धकेऽनन्तनुबन्ध्युदयरहिते कषाय का जिसके विसयोजन हो गया है ऐसे वेदक या मिथ्यादष्टी २२, नयप्रकृत्युदयाः । उपशम सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यात्व
अर्थ-बाईस प्रकृति का बम्ध करने वाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। उसके बन्धावली या अचलावल। काल
के सभी सम्भव प्रकृतियो का उदय हो तो १० प्रकृतिक पर्यन्त अनन्तानुबन्धी का उदय नही होता।
उदयस्थान होगा। यदि पिसयोजन के हो जाने से अनता[गो० क० पृ० ४८८ पूज्य आ० आदिमती जी] नबन्धी का उदय नही है तो प्रकृतिक उदय स्थान भी (iii) भगवद् वीरसेनस्वामी धवल पु०८ पृ० २५
सम्भव है। मे लिखते है - मिच्छाइट्ठिसु जहण्णेण दस पच्चया । पचमु
(v) प्राचीन पचसग्रह [ज्ञानपीठ], सप्ततिका, गा० मिच्छत्तेसु एक्को। एक्केण इदिएण एक्काय विराहेदि ___३०५, पृ० ४३८-३६ पर लिखा हैत्ति दोण्णि असजमपच्चया। अणताणुबधिच उक्क विसजोइय आवलियमित्तकाल मिच्छत दसणाहिसपत्तो । मिच्छत्त गयस्स आवलियमेत्तकालमणंताणबधिच उकस्स- मोहम्मि य अणहीणो, पढमे पुरण णवोदओ होज्ज । दयाभावादो। बारसमु कषायेसु तिणि कसायपच्चया। टीका--अनन्तानुबन्धि विसयोजित वेदक सम्यग्दृष्टो तिसु वेदेसू एक्को। हस्स दि-अरदि-सोग दोसु जुगलेसु मिथ्यात्वकर्मोदयात मिथ्यात्वगुणस्थान प्राप्ते आवलिमात्र एकादर जुगल । दसमु जोगेसु एक्को जोगा। एवमेद सव्वे कालं अनन्तानुबन्ध्युदयो नास्ति । अतो अनन्तानुनन्धिरहितो वि जहण्णेण दस पच्चया।
नवप्रकृतीनामुदयो ६ मिथ्यादृष्टो प्रयमे गुणस्थाने भवेत् । अर्थ-पाच मिथ्यात्वो में से एक १ । एक इन्द्रिय से अर्थ -अनन्तानबन्धी की बिसयोजना युक्त सम्यगजघन्य से एक काय की विधिना करता है। २ । इस दष्टि जीव यदि मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यात्व गुणतरह दो असयम प्रत्यय । अनन्तानुबधिचतुष्टय का विस- स्थान को प्राप्त हो जावे, तो एक आवली काल तक उसके योजन करके मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीव के आवली मात्र अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय सम्भव नही है। अतएव काल तक अनन्तानुबन्धी कषाय ४ का उदय नही रहने से मिथ्यात्व गुणस्थान में नौ प्रकृतिक उदयस्थान भी होता
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मावली काल तक मनम्तानुबन्धी
है। [अनुवाद पं० हीरालाल सि० शास्त्री सा०] मान प्रथम निषेक से लेकर एक आवली (उदयावली)
(vi) उसी ग्रन्थ मे सप्ततिका गा० ३२६ में कहा है- पर्यन्त के निषकों की लड़ी में अनन्तानुबन्धी का एक पर. मिच्छाइटिस्सोदयभंगा अठेव होति जिण भणिया ॥ माण भी नही है। आवलोकाल के बीत जाने पर उदय. अर्थ-मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबन्धी के उदय सहित
उदीरणा सम्भव है। क्योकि उस समय, प्रथम समयवर्ती १० आदि ४ स्थान [१०, ६, ८,७] और अनन्तानुबन्धी
मिथ्यात्वी के जो उदयावली से ऊपर द्वितीयावली का प्रथम के उदय रहित वाले ४ स्थान [६, ८, ७, ६]; इस प्रकार
अनन्तनुबन्धी-निषेक था वह आवली काल बाद उदय८ उदयस्थान जिनेन्द्र भगवान ने कहे है ।
समय [उदय-क्षण] को प्राप्त होता है। उसी समय
अनन्तानुबन्धी के उदय का प्रथम समय होने से उसी (vii) जयधवल पु० १० पृ० ११६-१७ पर जिनसेन
समय उदयावनी-बाह्य स्थित इस अनन्तानुवन्धी की स्वामी लिखते हैं कि
उदीरणा भी प्रारम्भ होती है। ___अणंताणुबधिणो विसजोइय इगिवीसपवेसय भावेणावदिदस्स उवसमसम्माइट्ठिस्स मिच्छत्त-वेदयसम्मत्त-सम्मा
(i) इन सब प्रमाणो से निम्न बातें फलित होती हैंमिच्छनसासणसम्मत्ताणमण्णदरगुणपडिवत्तिपढमसमए पय
(A) यह सर्वाचायं सम्मत बात है कि विसयोजक दट्ठाण-सभवणियमदसणादो।
के मिथ्यात्व मे जाने पर उसके बन्धावली काल तक ___अर्थ-अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर इक्कीस ।
अनन्तानुबन्धी का उदय नही रहता। न तो तत्काल वद्ध प्रकृतियो के प्रवेशक भाव से अवस्थित उपशम सम्यग्दृष्टि
अनन्तानुबन्धी का ही प्रथमादि समयों में उदय सम्भव है, जीव के मिथ्यात्व वेदकसम्यक्त्व, सम्यग्थ्यिात्व और और न उतने काल तक अनन्तानुबन्धी रूप परिणत द्रव्य सासादन सम्यक्त्व; इनमें से किसी एक गुणस्थान को प्राप्त का भी उदय सम्भव है। अर्थात् उस एक प्रावली काल होने के प्रथम समय में प्रकृत स्थान के सम्भव होने का अनन्तानबन्धी ४ के एक परमाण का भी उदय पूर्णत: नियम देखा जाता है।
असम्भव है। विशेषार्थ-जिस उपशम सम्यग्दृष्टि ने अनन्तानुबन्धी (B) यदि यह कहा जाय कि एक आवलो काल तक कषाय की विसयोजना की है वह जब मिथ्यात्व प्रकृति के उदीरणा ही असम्भव है, उदय असम्भव नहीं। तो इसके अपकर्षण द्वारा उदीरणा करके मिथ्यात्व भाव का अनुभव उत्तर मे विनीत निवेदन है विसयोजक के मिथ्यात्व मे करता है तब उसके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी ४ का आने पर प्रथम आवली काल में अनन्तानुबन्धी का उदय बन्ध भी होता है और अप्रत्याख्यानावरणादि रूप द्रब्य नही होता [धवल पु०१५ पृ० २८६ पं० ४-५, धबल १५ को अनन्तानुबन्धी रूप से संक्रान्त कर उसका उदयावली प.५१ से १७ आदि] तथा उदीरणा भी नही होती। से बाहर निक्षेप भी करता है। किन्तु उस समय अनन्तानु- [जयधवल पु० १० पृ० ५४, धवल पु० १५ पृ० ७५ बन्धी ४ का उदयावली में प्रवेश नही होता, इसलिए ऐसा आदि। मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम समय मे २२ प्रकृतियो का ही
में प्रवेशक (प्रवेश कराने वाला होता और फिर एक बात और: अर्थात् विसपोजक के मिथ्यात्वी होने पर उस जीव के इकनालीस प्रकृतियो [दो वेदनीय, मनुष्यगति, पंचेप्रथम समय में तो अनन्तानुबन्धी की उदीरणा तो अति दूर न्द्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश:रहो, उसका उदय भी दूर रहो; अरे ! उस समय मे तो कीति, तीर्थकर, उच्चगोत्र, ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, उस अनन्तानुबन्धी-चतुष्क के द्रव्य का एक परिमाणु भी ५ अन्तराय, ४ आयु, ५ निद्रा, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, तीनों उदयावली में प्रवेश ही नहीं करता। फिर उस समय उसका वेद, सज्ववन लोम] के ही उदय व उदीरणा के स्वामित्व उदय कैसे बनेगा? यह स्थिति प्रथम समय की है उदीय- में भेद है। इन ४१ के शिवाय शेष बची १०७ प्रकृतियो
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१०, वर्ष ४१, कि०४
अनेकान्त
के उदय के स्वामियो से उदीरणा के स्वामियो में अश प्रदेश का पूर्णत. अनुदय ही कहा है। इसलिए उक्त तर्क भर भी भेद नहीं है।
ठीक नहीं है। प्रमाण-पंचसंग्रह ज्ञानपीठ | पृ०५१६-५२२ (ii) दूसरा यह भी निवेदन है कि जयधवल पु० ५ प्रकरण ५। ७३ -७५, गोम्मटसार क० २७८-८१, पृ० १८२ पर जो अनन्तानुबन्धी के जघन्य अनुभाग के कर्मस्तव ३६-४३, संस्कृत पचसंग्रह ३। ५६ से ६०; स्वामित्द का कथन किया है वह मात्र अनुभाग सत्त्व के सर्वार्थसिद्धि [ज्ञानपीठ] पृ० ३४६-४७, राजवार्तिक स्वामियो का कथन है, अनुभाग उदय के स्वामियो का भाग २ पृ० ७६३-६४ तथा धवला जी पु० १५ पृ० ५४ कथन नही है । इसके लिए हम मूल आगम ही लिखते है। से ६१ आदि ।
यथा : -- अणताणुबधीण जहण्णयमणुभागसतकम्म कस्स ? अत: इस सर्वागम सम्मत बात से यह काच के माफिक सुगम । पढमसमयसजुतस्स । सुहमे इंदिएसे जहण्णसामित्त स्पष्ट है कि अनन्तानुबन्धी का जब-जब उदय होता है तब- किण्ण दिण्ण ? ण, पढमसमयसंजुतस्स पचग्गाणुबध पेक्वितब नियम से उदीरणा भी उसकी होती है। यह निष्कर्ष दूण सुहमणिगोदजहणाणुभागसत-कम्मस्स अणतगुणध्र व सत्य है। क्योकि अनन्तानुवन्धी, ४१ अपवाद प्रकृ- तादो। (ज० ध० ५।१६६---६७)। तियों में परिगणित नही है।
अर्थ-"अनन्तानुबन्धी" ४ का जघन्य अनुभाग पारिशेष न्याय से प्रथम आवली काल तक उदय व सत्कर्म किसके होता है ? यह सूत्र सुगम है। प्रथमसमयउदीरणा दोनो नहीं बनते है ।
वर्ती संयुक्त के होता है। (C) आवली काल तक ऐसे मिथ्यात्वी के अनन्तानु
शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रियो मे जघन्य अनुभाग सत्त्व का बन्धी का बन्ध मिथ्यात्व-निमित्तक [मिथ्यात्व-हेतुक] ही र
__ स्वामिपना क्यों नही दिया ? होता है। प्रपञ्चतः ऐसा समझना चाहिए कि मिथ्यात्व, समाधान नही, क्योकि प्रथम समय मे अनन्तानुबधी कपाय व योग [कषाय मे अविरति व प्रमाद गभित है। से सयुक्त हुए जीव के जो नवीन अनुभाग बन्ध होता है हेतुक बन्ध उस आवली काल मे होता है। जबकि सासा- उसे देखते हुए सूक्ष्म निगोद जीव का जघन्य अनुभागसत्त्व दन गुणस्थान मे ६ आवली काल तक अनन्तानुबन्धी अनन्तपुणा है।" उदित रह कर भी वहाँ एक समय के लिए भी वह नोट-अत्यन्त स्पष्ट है कि यहा उदय का प्रकरण मिथ्यात्व को नही बांध सकती।
नही है, मात्र सत्त्व का प्रकरण है। फिर उसे उदय मे सारतः जहा मिथ्यात्व रूप आधार है वहा अनन्तानु
घटाना कहां का न्याय है ? बन्धी का बंध निश्चित होता है। पर जहां (सासादन) में .
["यहा सत्व का प्रकरण है।" देखे जयधवल पु० ५ अनन्तानबन्धी है वहा पर मिथ्यात्व के बन्धका निम के पृ. १६३ व १६७-६८ के विशेषार्थ] । नही बनाया जा सकता।
(iii) तीसरी मुख्य व ध्यातव्य बात यह है कि यदि __ यदि इतनी सब कथनी भी ध्यान मे नही रख कर अनुभाग की जघन्य उदयरूप अवस्था को यदि अनुदय पुनरपि तर्क किया जाय कि अनन्तानुबन्धी विसंयोजित माना एवं कहा जाता तो :-"ससार मे मिथ्यात्व का करने वाले के मिथ्यात्व में आने पर अनन्तानवन्धी का जघन्य अनुभाग सत्त्व (सत्कर्म) सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त के उदय, यानी उसका अनुभाग-उदय सबसे जघन्य होता है। ही होता है।"
-ऐसा कहा गया है।' अतएव उसे अनुदय तुल्य होने से 'अनुदय' कहा जाता है। दर्शनमोह की क्षपणा के लिए उद्यत वेदकसम्यक्त्वी तो इसका उत्तर यह है कि :
के योग्य काल मे जो तत्प्रायोग्य अल्पतम अनुभाग होता (i) प्रथम तो आगम मे उक्त प्रथम आवलिकालवर्ती है, उसे भी आगम में जघन्यता नही बताई । अपितु सूक्ष्ममिध्यात्वी के अनन्तानुबन्धी के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व निगोद अपर्याप्त के ही मिथ्यात्व का सर्वजघन्य अनुभाग
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आपली काल तक अनन्तानुबन्धी
सत्त्व का स्वामित्व बताया। तो क्या जघन्य अनूभाग कारण उसका अनुदय कहते या मानते तो चरम समय को सत्व होने मात्र से किसी भी कम सिद्धान्त के ग्रन्थ मे उक्त अपेक्षा वहा एक मात्र योग प्रत्यय ही रहता। इस तरह सुक्ष्म-निगोद-अपर्याप्त को अमिथ्यात्वी कहा है क्या? दसवे गुणस्थान में उत्कृष्टतः दो प्रत्यय [सज्वलन लोभ व नहीं । तो फिर आगमकार जघन्य अनुभाग युक्त अनन्ता- योग । दसम गुणस्थान के प्रथमादि द्विचरम समय तक को नबन्धी के सत्त्व के स्वामी जीव के यदि जघन्य भी उदय अपेक्षा] तथा जघन्यः [सूक्ष्ममाम्पराय के चरम समय की होता तो अवश्य ही उसे जघन्य उदय वाला कहते; "अनु- अपेक्षा] एक प्रत्यय [मात्र योग रूप]; ऐसे दो स्थान दय" वाला नही। हम अन्य उदाहरण से और भी स्पष्ट [१२ प्रत्यय रूप] बन जाते । परन्तु कर्म शास्त्रो मे दसम
[१:२ प्रत्यय रूप] बन जाते । परन्त: करते है :
गुणस्थान में सर्वत्र जघन्यादि भेद बिना दो प्रत्ययों का एक जयधवला पू. ५ पृ. १५, ३० तथा पृ. २५६ तथा ही स्थान बताया है [देखे गो. क.प्र. ७२१ आयिका गो. क. गाथा १७० के अनुसार लोभ का जघन्य अनुभाग आदिमती जी स० रतनचन्द मुख्तार; धवल पु. ८ पृ. २७ सत्त्व दसवे गुणस्थान के चरम समय में होता है तथा इसी अभिनव सस्करण, प्राकृत पंचसग्रह । शतक । गाथा २०३ समय लोभ का जघन्य अनुभाग उदय है। इस समय व टी का पृ. १६७ । सस्कृत पचसग्रह ४।६८-६९ आदि । स्थिति मत्ता एक समय प्रमाण ही है तब यहां एक स्थिति
इसी से अत्यन्त स्पष्ट सिद्ध है कि सूक्ष्मसाम्पराय के मे स्थित जो अनुभाग है वह 'जघन्य उदय' व्यपदेश को
चरम समय में सर्व जघन्य स० लोभ का अनुभाग उदय प्राप्त है। अर्थात् चरमसमयी सूक्ष्म माम्प रायिक क्षपक के
भी "उवय" कहा व माना गया है, सर्वत्र । फिर सज्वलन लोभ का जघन्य अनुभागोदय है [धवला पु. १०२६६,
लोभ के जघन्य अनुभाग सत्त्व से जिसका जघन्य अनुभाग १८४ आदि] | फिर ऐसी जघन्य कषायानभाग के उदय को भी अनुदय नही कहा। सब कर्म शास्त्रों मे उदय ही
सत्त्व अनन्तगुणा है ऐमी अनन्तानुबन्धी कषाय के अनुभाग
उदय को अनुदय कैसे कहा जा सकता है ? कहा है तथा प्रत्यय मे भी गिनाना है [देखे धवल ८।२७] इसे दसम गुणस्थान में अप्रत्यय नही कहा । दसवे गुण
वास्तव मे तो उस मिथ्यात्वी के प्रथम आवली में स्थान के जनन्त समय में सज्वलन लोभ का उदय समस्त अनन्तानुबन्धी का पूर्णतः अनुदय है इसलिए अनुदय कहा सिद्धान्त शास्त्रों में कहा है। कही भी ऐसा नही कहा कि है । यदि ईषद् अनुभाग उदय की अपेक्षा "अनदय" कहा दसवे गुणस्थान के अन्तिम समय मे लोभ का अनुदय है। है, ऐसा तर्क दिया जाय तो वह निष्टीक [गतिरहित तथा यदि उस समय लोभ का अनुदय माना जाय तो चरम- निराधार अनागम-विहित] होगा, क्योंकि अनन्तानबन्वी समयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय के परिणाम तथा उपशान्त कषाय के जघन्य अनुभाग सत्त्व से भी अनन्तगुणोहीन अनुभागवीतरागछपस्थ अथवा केवली के परिणाम समान मानने सत्व वाले संज्वलन लोभ के उदय को भी चरमसमयी पड़ेगे । अथवा यो कहे कि चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय में "उदय" ही कहा । फिर इस अनन्तानुसूक्ष्मसाम्पराय ही नही कहला कर क्षीणकषाय अथवा बन्धी का यदि वास्तव मे प्रथम आवलिवर्ती मिथ्यात्वी के उपशान्त कषाय कहलायगा, जो कि किसी को भी इष्ट नही उदय होता तो निश्चित ही उदय कहते । क्योकि इस ईषद् है। अत: यद्यपि दसवें गुणस्थान के चरम समय मे संज्व अनुभाग मत्व से अनन्तगुणे हीन अनुभाग के सत्त्व व उदय लन लोभ का जघन्य अनुभाग उदय है तथापि दिगम्बर को भी प्राचार्यों ने स्पष्टत: उदय कहा; अनुदय नही कहा। कर्म ग्रन्थों में उस चरम समय मे उदय ही कहा है, अनुदय कहा भी है-सब्वमदाणुभागं लोभसजलणस्स अणुभागनही कहा है तथा चरम समय तक सज्वलन लोभ रूप सतकम्मं ............."अर्णताणुबंधिमाणजहणणाणभागो कषायप्रत्यय सब शास्त्रो में गिना है। कहीं भी दसवें गुण- अणंतगुणो ....."[जयधवल पु. ५ पृ. २५९.२६४] । स्थान में कषाय प्रत्यय को कम नही किया। दसवें गुण- अर्थ-सज्वलन लोभ का जघन्य अनुभागमत्व [जो स्थान मे यदि चरम समय मे जघन्य अनुभाग उदय के कि सूक्ष्मसाम्पराय चरमसमयवर्ती के होता है सबसे मन्द
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१२, बर्ष ४१, कि०४
अनुभाग वाला है। .........."उससे अनन्तानुबन्धी ४ प्रकृति के जघन्य अनुभाग उदय को उदय ही कहा गया कषायों का जघन्य अनुभाग सत्त्व [जो कि प्रथम समय है; अनुमाग की जघन्यता के कारण अनुदय नही। करसयुक्त मिथ्यात्वी के सत्त्व मे प्राप्त होता है] अनन्त- णानुयोग मे स्पष्टतः सूक्ष्म विवेचन होना अत्यन्त स्वागुणा है।
भाविक है। प्रथमानुयोग या चरणानुयोग अथवा द्रव्या[यतिवृषभाचार्य कृत चूणिसूत्र] नुयोग से भी सूक्ष्म विषयों को यह स्पष्ट खोलता है ।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक आठवां अधिकार पृ. ४१६-२०)
सस्ती ग्रन्थमाला कनेटी धर्मपूरा, दिल्ली। इस प्रकार चरमसमयी सूक्ष्मसाम्पराय के उदय को स्पष्टतः उदय कहने वाले आचार्य, इससे अनन्तगुणे अनु- सारत:--"विसयोजक के सीधे मिथ्यात्व मे आने पर भाग-अविभाग प्रतिच्छेदो युक्त अनुभाग [यानी अनन्तानु- आवली काल तक अनन्तानुबन्धी का कथमपि, त्रिकाल बन्धी के जघन्य अनुभाग] । रूप उदय को आचार्य कसे भी, क्वचित् भी, कचित् भी, किंचित् भी उदय सम्भव उदय नही कहेगे ? अपितु अवश्य कहेगे। परन्तु प्रथम
नही । तथा दूसरी बात यह कि अनन्तानुबन्धी के उदय आवली-कालवर्ती संयुक्त मिथ्यात्वी के अनन्तानुबन्धी
व उदीरणा सदा साथ-साथ ही होते है।" उदित है ही नहीं, इसीलिए आचार्यश्री ने अनुदप कहा धवल, जयधवल आदि सकल प्रन्थ इस निर्णय के है। और तो क्या कहे, कर्म शास्त्र में किसी भी मोह साक्षी है। (प्रेषक-रतनलाल कटारिया, केकड़ी)
(पृष्ठ ७ का शेषांश) उल्लेखनीय है । उपन्यास लेखक वीरेन्द्र कुमार जैन का जैन दर्शन परिशीलन एव पं० कैलाशचन्द शास्त्री का जैन तीर्थकर महावीर २०वी शताब्दि का उत्कृष्ट गद्य काव्य न्याय ख्याति प्राप्त रचनाये हैं। है। दार्शनिक कृतियो मे डा० दरबारीलाल कोठिया का
LO सन्दर्भ-सूची १. जिणदत चरित-राजसिंह विरचित, सम्पादन-डा०६. मरू भारती पिलानी वर्ष १५ अंक-पृष्ठ---६ । भाताप्रसाद गुप्त एवं डा० कस्तुरचन्द कासलीवाल
७. सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य -पृ. ३०७ । साहित्य शोध विभाग जयपुर की से प्रकाशित ।
८. आचार्य सोमकीति एवं ब्रह्म यषोधर-सपादक डा. २. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारो की ग्रथ सूची चतुर्थ
कस्तूर चद कासलीवाल प्रकाशक-श्री महावीर प्रथ भाग प्रस्तावना-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ।
अकादमी जयपुर। साहित्य शोध विभाग जयपुर द्वारा प्रकाशित ।
६. महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवन कीर्ति३. प्रद्युम्न चरित-संपादक विरचित-सवादक ५०
सपादक डा. कस्तुरचद कासलीवाल, प्रकाशक श्री चैनसुखदास एब डा. कस्तूरचन्द कासलीव ल ।
महावीर ग्रन्थ अकादमी जयपुर । प्रकाशक-साहित्य शोध विभाग, जयपुर । ४. महाकवि ब्रह्म जिनदास-व्यक्ति एवं कृतित्व-ले० १०. भट्टारक रत्नकीति एव कुमुवचन्द, संपादक-डा. डा. प्रेमचन्द राव प्रकाशन-श्री महावीर अकादमी
कस्तूरचन्द कासलीवाल, प्रकाशक-श्री महावीर जयपुर।
ग्रन्थ अकादमी जयपुर। ५. कविबर बुचराज एव उनके समकालीन कषि-सपादन ११. बाई अजीतमति एवं उनके समकालीन कवि, सपादक
डा. कस्तूरचंद कासलीवाल प्रकाशक-श्री महावीर डा. कस्तूरचद कासलीवाल, प्रकाशक-श्री महावीर प्रन्थ अकादमी जयपुर।
ग्रन्थ अकादमी जयपुर।
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भाषा बदलाव का क्या मूल्य चुकाना पड़ेगा ?
T] पचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
ऐतिहासिक दृष्टि से भाषा-शास्त्रियों ने प्राकृत उन्हें झुठला रहे हैं-उनके कथन की अवहेलना कर रहे भाषाओं के विकास काल को ईसापूर्व प्रथम शताब्दी (जो हैं। उपाध्ये का स्पष्ट कथन है-"Jn his observation कुन्दकुन्द का काल है) को स्थिर किया है। उक्त काल में on the Digamber texts Dr. Deneke discusses त् और थ् मे परिवर्तन होते होते प्रथम तो वे (क्रमशः) various paint above some Digamber Prakrit द् और ध् हुए, फिर क्रमशः द् का लोप हो गया और works. He remarks that the Language of ध के स्थान में है. का प्रयोग होने लगा-ऐमी स्वीकृति there works is influened by Ardhamagdhi, समयसार (कदकद भारती) सम्पादक द्वारा लिखित Jain Maharashtri which approaches it and प्राक्कथन (मुन्नडि) में है और उन्होने समयसार मे थ् के Shaurseni ध् ओर है, मे परिवर्तित दोनों रूपो के मिलने की पुष्टि
---Dr. A. N. Upadhye. भी गाथा ६८ और २३६ के द्वारा की है। पर, वे द् के
(Introduction Pravachansar P. 116) लोप की स्वीकृति के बाद उसके लोप की पुष्टि मे उदा
उक्त कथन के अनुसार दि० आगमो मे होइ, होदि,
हवदि, हवइ जैसे सभी शब्द रूप मिलते है और लोए हरण देने से चूक गए। जब कि समयसार तथा प्राकृत के
लोगे आदि भी मिलते है तब उनमे एक शुद्ध शब्द को दि० आगमों मे द् लोप और अलोप दोनो मांति के शब्दो
बदलकर दूसरा शब्द रखने की क्या आवश्यकता थी? क्या (रूपो) को बहुलता है) फलत:-उन्होने होदि से होइ
इससे भाषा की व्यापकता नष्ट नही होती ? रूप में परिवर्तित (द के लोप जैसे) रूपो का कोई उदा
हाल ही मे आ० श्री विद्यानन्द जी के सम्प्रेरकत्व में हरण प्रस्तुत नहीं किया। शायद इसमे कारण यही हो
उदयपुर से प्रकाशित 'शौरसेनी प्राकृत व्याकरण' जो कंदकि उन्हें भाषा-विकास काल मे द् का लोप स्वीकार
कुद भारती दिल्ली से भी प्राप्य है, मे लिखा हैकरने पर भी “दस्तस्य शौरसेन्यामखावचोऽस्तोः" जैसे शौरसेनी के नियम में बंधे-द के अस्तित्व रूप मोह
__ "प्राकृत शब्द का अर्थ है-लोगो का व्याकरण प्रादि को छोड़ना श्रेयस्कर म ऊंचा हो क्योंकि वे शौरसेनी और
के संस्कारों से रहित स्वाभाविक वधन व्यापार। उस जैन शौरसेनी को एक मान बैठे है। फलतः उन्हें इस बात
वचन व्यापार से उत्पन्न अथवा वही वचन-प्रयोग ही का भी ध्यान न आया कि वे (डा. ए. एन. उपाध्ये और
प्राकृत भाषा है। इस लाक प्रचलित प्राकृत भाषा को डा. हीरालाल जैन की भांति) यह भी स्वीकार कर बैठे
भगवान महावीर और बुद्ध जैसे क्रान्तिकारी महापुरुषों ने हैं कि "जैन शौरसेनी मे महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अपने विचारों के सम्प्रषण की भाषा स्वीकार की थी।" अनेक शब्द मिलते हैं"-(मुन्नुडि पृ. ६) उक्त सपादक
......"आज कोई भी ऐमी प्राकृत नही है, जिसमें अपनी अपने को प्राकृत भाषा के प्रारम्भिक और क्रमबद्ध विकास समकालीन अन्य प्राकृतों का मिश्रण न हुआ हो...." के ज्ञाता भी मानते हैं । (जैन प्रचारक नवम्बर ८८) इसमे यह भी लिखा है-... . . 'और न ही शौरसेनी
जो सम्पादक महोदय कुन्दकुन्द के समय की सिद्धि में के सिद्धान्त प्रन्थों अथवा नाटकों की शौरसेनी की भाषा डा. ए. एन. उपाध्ये के कथन को प्रमाण मान रहे हैं वे के सम्पादन कार्य मे मनमाने पाठ देने चाहिए । सम्पादनही जैन-शौरसेनी के रूप के सम्बन्ध मे (अपनी प्रवृत्ति से) कार्य की जो पद्धति है एवं प्राचीन पाण्डुलिपियों में जो
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१४, वर्ष १, कि०४
अनेकान्त
घेत्तुं
पाठ स्वीकृत हैं, उपलब्ध हैं। उनके अनुसार ही इन ग्रंथों
३७५-३८१ विणिग्गहिउँ विजिग्गहिदूं का सम्पादन होना चाहिए; सिद्धान्त मोह या सम्पादन
सक्कइ
सक्कदि मोह के कारण नही।"-हमारी दृष्टि से तो समयसारादि ६४ ४०६ पित्तं के शुद्धिकर्ता (?) उक्त व्याकरण ग्रन्थ को अवश्य ही ६२ ४१५ ठाही
ठाहिदि प्राकृत भाषा के प्रारम्भिक और क्रमबद्ध ज्ञाताओं द्वारा २ ४१५ होही होहिदि लिखा गया मानते होंगे ? ग्रन्थ को मुनिश्री का शुभाशी- इसके सिवाय इम व्याकरण मे एक-एक शब्द के वर्वाद भी प्राप्त है।
अनेक रूप भी मिलते है, जिन्हें झुठलाया नही जा सकता। उक्त स्थिति में भी यदि जैन आगमों की भाषा शोर. तथाहिसेनी है और उसे व्याकरण-सम्मत बनाने का प्रयास किया पृष्ठ १४ लोओ, लोगो। पृ. ३६ लोअ । जा रहा है, तब संशोधित-समयसार की गाथाओं और उक्त पृष्ठ ८८, ९० लोए व्याकरण पुस्तक मे उदधत पाठो में शब्दरूप-भेद क्यों? पृष्ठ २५, ६१,८८ पुग्गल । पृ. ३६ पोग्गल । अब तो वदलाव की उपस्थिति मे यह नया मन्देह भी हो पृष्ठ ७७ हवदि, हवेदि, हवइ, होदि । पृ. ८३, ६०
होइ। रहा है कि उक्त व्याकरण-पुस्तक मे दिये गए समयसार के
पृष्ठ ७७ ठादि, ठाइ, ठवदि, ठवेदि । पाठ ठीक है या कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित (सशो
पृष्ठ ६०,७६ भणदु, भणउ । धित) ममयमार के पाठ ? यदि दोनो ही ठीक है तो बद
पृष्ठ ५५ भणदि, भगइ, भणेदि, भणेइ । लाव क्यो ? क्या व्याकरण पुस्तक गलत है ?
पृष्ठ ६३ गदो, गओ, गयो। पाठकों की जानकारी के लिए दोनों ग्रन्थो के कुछ ।
पृष्ठ ६३ जादो, जाओ, जायो। रूप नीचे दिए जा रहे है :--
पृष्ठ ६४ भणिऊण, भणिदूण । व्याकरण समयसार का उक्त व्याकरण मे समयसार पृष्ठ ६३ जाण । का पृष्ठ गाथा क्रम उद्धृत समयसार (कुंदकुद भारती) खेद तो तब होता है जब मीरा, तुलसी, सूर, कबीर
जैसों की जन-भाषा में निबद्ध रचनाओ को सभी लोग मान
देने-उनके मूल रूपो को संरक्षण देने में लगे हो, तब कुछ इक्को
एक्को चुक्किज्ज चुक्केज्ज
लोग हमारे महान् आचार्यों-कून्दकुन्दादि द्वारा प्रयुक्त
आगमो की व्याकरणातीत जन-भाषा को परवर्ती व्याकरण
मुणेदव्वं ८२ एण्ण
में बाँध आगम को विकृत, मलिन और सकुचित करने मे करितो
लगे हो। गोया प्रकारान्तर से वे भाषा को एकरूपता देने करतो करिज्ज करेंज
के बहाने-यह सिद्ध करना चाहते हों कि दीर्घकाल से हेउ
चले आए भगवान महावीर व गणधर द्वारा उपदिष्ट और १८७ रुधिऊण रुधिदूण
पूर्वाचार्यों द्वारा व्याकरणातीत जनभाषा मे निबद्ध धवला २०७ भणिज्ज भणेज्ज
आदि जैसे आगम भी भाषा की दृष्टि से अशुद्ध रहे हैं २६६ लोय-अलोय लोग-अलोग और उन्हे शुद्ध करने के लिए शायद किन्ही नए गुणधर, २६६ चित्तव्वो घेत्तव्यो कुंदकुंद, यतिवृषभ और वीरसेन जैसों ने अवतार ले लिया ३०२ कुण
हो । जबकि जैनधर्म मे 'यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति ३०४ होइ
होदि
भारत' रूप अवतार सर्वथा निषिद्ध है। और जब जैन विमुंचए विमुचदे शौरसेनी का रूप जन-भाषा के रूप में पूर्व निर्णीत हैसुणिऊण सुणिदूण "The Prakrit of the Sutras, The Gathas
मुणेयव
एदेण
EE
हेद
कुणदि
२७३
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भाषा बदलाव का क्या मूल्य चुकाना पड़ेगा ?
as well as of the commentary, is Shaurseni in- मूल्य तो भाषा-दृष्टि से बागम के अप्रमाणिक सिद्ध होने fluenced by the order Ardhamagdhi on the पर ही चुकता हो सकेगा। one hand and the Maharashtri on the other, -पडित प्रवर टोडरमल जी सा० प्रतिष्ठित ज्ञाता and this is exatiy the nature of the language थे-उनके 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' को पूर्ण ख्याति हैं। called 'Jain Shaurseni."
सम्पादक महोदय ने भी आचार्य कुन्दकुन्द की विदेह-Dr. Heeralal
गमन चर्चा के प्रसंग में उन्हे प्रामाणिक मानकर ही उनके (Introduction to षट्खंडागम P IV) मत का उल्लेख किया होगा। इन्ही प० टोडरमल जी ने हमारा अनरग कह रहा है कि स्वर्गो मे बैठे हमारे 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' मे दिगम्बर प्राकृत आगमों के दिवंगत दिगम्बराचार्य उनकी याकरणातीन जनाको गाथाओ के उद्धरण दिए है और उनमें लेइ, जाइ, अक्खेइ, किए गए परिवर्तनो को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे है और थुणिऊण, हवइ, भणिऊण, भणइ और देइ जैसे दकारलोपी उन्हे सन्तोष है कि कोई उनकी ध्वनि-प्रतिकृतियो के मही
हर और लोओ जैसे ककार (गकार) लोपी शब्द मिलते हैं। रूप को बडी निष्ठा और लगन से निहार, उनकी सुरक्षा ।
क्या ये शब्दरूप, आगम मे अप्रमाण है ? जो इनको बदला मे प्राण-पण से सलग्न हैं। भला, यह भी कहाँ तक उचित
जाय? इसी मोक्षमार्ग प्रकाशक मे 'इक्क' शब्द का भी है कि शब्द-रूपों को बदल मे दिगम्बर-ग्रागम-वचन तो
उद्धरण मिलता है। ऐसे मे भी यदि लोग दिगम्बर मूल गणधर और आचार्यों द्वारा परम्परित वाणी कहलाए
आगमो की भाषा को बदल गई हुई मानते हैं। तो वे स्त्रय जाते रहें और बदलाव-रहित दिगम्बरेतर आगमो के
ही सिद्ध करते है कि उपलब्ध आगम परम्परित-आगम
वाणी नही है, अपितु बदली वाणी है, और बदली होने तद्रूप-वचन बाद के उद्भूत कहलाएँ ? हमे भाषा की दृष्टि
से उसकी प्रामाणिकता मे सन्देह है। क्या दिगम्बरो को से इस विन्दु को भी आगे लाकर विचारना होगा। भविष्य मे ऐसा न हो कि कभी दिगम्बर समाज को इस
ऐसा स्वीकार है ? हमारा कहना तो यही है कि हमारे
आगमो में व्याकरण की अपेक्षा किए बिना, जहाँ जो बदलाव का खमियाजा किसी बडी हानि के रूप मे भगतना पड जाय ? ऐसा खमियाजा क्या हो सकता है, यह
शब्दरूप मिलते है-भाषा की व्यापकता होने और अर्थश्रद्धालुओं को विचारना है—वैज्ञानिक पद्धति के हामी
भेद न होने से सभी प्रतियो में वे ठोक है। क्योंकि बाद कुछ प्राकृतज्ञ तो सही बात कहकर भी किन्ही मजबूरियों
मे निर्मित हुए व्याकरण की उनमे गति नहीं। जबकि मे विवश जैसे दिखते है । और वे आर्ष-भाषा से उत्पन्न उस
हमारे आगमो की भाषा (व्याकरणादि के सस्कारो से
रहित) भगवान महावीर आदि की वाणी का स्वाभाविक व्याकरण के आधार पर विद्वान बने है, जो बहुत बाद का है। और शौरसेनी आदि जैसे नामकरण आदि भी
वचन व्यापार है। बहुत बाद (व्याकरण निर्माण के समय) की उपज है।
उक्त स्थिति के परिप्रेक्ष्य मे हमे सावधान रहने की क्योंकि जन-भाषा तो सदा ही सर्वांगीण रही है। जो जरूरत है। कही ऐसा न हो कि जिनवाणी भीड़ में खो प्राकत में डिगरीधारी नही है और प्राकृत-भाषा के आगमो जाए? और उसका क्रन्दन भी जयकारो की ध्वनि मे का चिरकाल से मन्थन करते रहे है--उन्हें भी इसे सोचना सुनाई ही न पड़े। क्योकि हमें भीड़ और जायकारे ही चाहिए-हमें अपनी कोई जिद नहीं। जैसा समझे लिख सबसे खतरनाक लगे जो धमै को लुटवा रहे है-आत्मदिया-विचार देने का हमे अधिकार है। और आगम- चिन्तन मे बाधक हो रहे है । आशा है सोचेंगे तथा विद्वान् रक्षा धर्म भी। हमारी समझ से बदलाव के लिए जो इस बदलाव को रुकवाएगे। व्यय अभी रहा होगा; वह अत्यल्प होगा-उसका पूरा
दरियागज, नई दिल्ली
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आचार्य अमितगति : व्यक्तित्व और कृतित्व
Dकु० सुषमा जैन, सागर
सरस्वती देवी के साधक, आराधक, और उपासक पलालमत्यस्य न सारकांक्षिभिः, आचार्य अमितगति ने अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा से मालव प्रदेश
किमत्र शालिः परिग्रह्मते जनः॥ के परमार वशी राजा मुंज की सभा को सुशोभिन किया
(अमितगति श्रावकाचार, प्रशस्ति ५) है। श्री अमितगति मात्र आचरण पक्ष के धनी नही थे,
अर्थात-यदि इस ग्रन्थ मे कुछ सिद्धान्त-विरुद्ध कहा वरन वे दार्शनिक महाकवि, अप्रतिम-चितक, धर्मतीर्थ
__ गया है, वह विद्वज्जनो को विशुद्ध करके ग्रहण करना प्रणेता, महान उपदेशक, आगम-ज्ञाता, वैयाकरणिक और
चाहिए। जिस प्रकार धान्य को ग्रहण कहने के इच्छुक समाज सुधारक भी है, इन्होंने दशमी शताब्दी में व्याप्त
पुरुष लोक में क्या भूसा छोड़कर धान को ग्रहण नही करता सामाजिक धार्मिक परिस्थितियो पर विजय प्राप्त करके
हैं ? अतः छिलका छोड़कर शालि ग्रहण करते है। युगानुरूप अपनी देशना से मानवमात्र को धर्मोन्मुख किया
पूर्णत: आगमानुकूल ग्रन्थ-रचना के उपरान्त उपर्युक्त
__ कथन आचार्य के व्यक्तित्व की महानता का परिचायक आचार्य अमितगति गम्भीर प्रकृति के निरभिमानी, है। विवेकी, नि.स्पृही, आत्मानुभवी। स्व-पर कल्याण मे निरत कथनी, करनी और लेखनी से सुप्रभावक आचार्य रहे हैं। आचार्य जी की गम्भीर प्रकृति अग्रलिखित पद्य में अमितगति का जीवन साहित्य साधना के लिए समर्पित अवलोकनीय हैं
था, इन्होने अपनी परिष्कृत बौद्धिक प्रतिभा द्वारा विविध बिबुध्य ग्रहीय बुधा मनोदितं,
विषयो मे ग्रंथ प्रणयन किये हैं। जिसमे अज्ञानी जीवो को शुभाशुभ ज्ञास्यथ निश्चितं स्वयम् अज्ञान अन्धकार नाशक ज्ञान का स्वरूप और महत्ता का निवेद्यमान शतशोऽपि जानते,
उपदेश, मात्र ज्ञान को सब कुछ मानने वालों को रत्नत्रय स्फुट रस नानुभवन्ति न जनः ॥
का निरूपण, विषय-भोगो में आसक्त मानवो को विषय(धर्मपरीक्षा, प्रशस्ति १५) भोगो की अनासक्ति हेतु उसकी हेयता का प्रतिपादन, अर्थात हे विद्वज्जन ! मैंने जो यह कहा है उसे जातिगत अहकारी जीवों को उसकी नि:सारता का उपदेश जानकर आप ग्रहण कर ले, ग्रहण कर लेने के पश्चात् तथा मात्र बाह्य आडम्वर में आसक्त मानवो को आध्याउसकी श्रेष्ठता अथवा अश्रेष्ठता आप स्वय जान लेगे। त्मिक अथवा आत्म आराधना की प्रेरणा पद-पद पर द्रष्टव्य जिस प्रकार मिश्री आदि वस्तु का रस बोध कराने पर है। मनुध्य सैकड़ों प्रकार से जान तो लेते है, परन्तु प्रत्यक्ष में माथुर संघ के दिगम्बर जैनाचार्य अमितगति नैतिक उन्हें उसका अनुभव नही होता है-वह अनुभव ग्रहण करने नियमो, लोकबुद्धि से पूर्ण हितकर उपदेशों एव सारगभित पर ही होता है।
बिवेचनों के निरूपण में विशेषतः सिद्धहस्त हैं। भोगइसी प्रकार आचार्य की निरभिमानिता एव नि.स्पृहता विलास और सांसारिक प्रलोभनों की निन्दा करने में वे निम्नलिखित पद्य मे मिदर्शनीय है
अधिक वाक्पटु हैं। गृहस्थ और मुनियों के लिए आचारयत्र सिद्धान्तविरोध भाषित,
शास्त्र के नियमानुसार जीवन के प्रधान लक्ष्य को प्रति. विशोध्य सङ्ग्रामिम मनीषिभिः। पादन करने का कोई भी अवसर वे हाथ से नहीं जाने
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प्राचार्य प्रमितगति :भ्यक्तित्व और कृतित्व
देते । अतः विषय को पृथक-पृथक रूप से निबद्ध करने के शैली । पद्य के पूर्वार्ध में प्रश्न और उत्तर दोनों को सन्निलिए उन्होने निम्नलिखित मौलिक ग्रथों की रचना की विष्ट करके प्रश्नोत्तर शैली के सुन्दर निरूपण से आचार्य
का कला-कौशल निदर्शित है(१) सुभाषितरत्नसदोह,
किमिह परमसौख्यं नि:स्पृहत्वं यदेतत्, (२) अमितगति श्रावकाचार,
किमथ परम दुःखं सस्पृहत्वं यदेतत् । (३) धर्मपरीक्षा,
इति मनसि विधाय त्यक्तसंगा: सदा ये, (४) तत्त्वभावना,
विदधति जिनधर्म ते नराः पुण्यवन्तः ।। (५) भावना द्वाविंशतिका (सामयिक पाठ),
(सुभाषितरत्नसदोह, १४) इसके साथ ही आचार्य श्री ने अलिखित ग्रथों को अर्थात्-ससार में उत्कृष्ट सुख क्या है ? नि:स्पृहता प्राकृत भाषा से सस्कृत भाषा मे रूपान्तरित किया है - -विषयभोगों की अनिच्छा ही उत्कृष्ट सुख है । उत्कृष्ट (१) पञ्चसंग्रह,
दु.ख क्या क्या है ? सस्पृहता-विषयभोगाकांक्षा ही (२) मूलाराधना,
उत्कृष्ट दुःख है । इस प्रकार विचार करके जो भब्य जीव उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त वर्धमान-नीति, जम्बू- परिग्रह का त्याग करते हुए निरन्तर जिनधर्म की आराधना द्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, ब्याख्या प्रज्ञप्ति एवं सार्द्धद्वय करते है, वे पुण्यशाली है। द्वीप प्रज्ञप्ति की रचना का श्रेय भी श्री अमित गति को महाकवि अमितगति के साहित्य में माधुर्य और प्रसाद दिया जाता है, परन्तु ये रचनायें अद्यावधि अनुपलब्ध है। गुण का बाहुल्य है, परन्तु यथास्थान ओजगुण को भी
श्रतपरम्परा के सारस्वत आचार्य अमितगति अपनी सुदृढ़ स्थिति है। जिसके अनुरूप वैदर्भी, गोडी, लाटी एवं निरूपण कला मे पूर्ण कुशल है। विषय की सरल-सरस पाञ्चाली रीतियों का सन्निवेश है। विनोक्ति अलंकार से स्वाभाबिक अभिव्यक्ति के लिए इनके साहित्य मे विविधता अलकृत प्रसाद गुण युक्त प्रस्तुत पद्य की मनोहरता निदर्शन का दिग्दर्शन होता है। जिसमें भाषा, शैली, गुण, रीति, रस नीय है--- छन्द और अलकारों का वैविध्य मुख्य है।
सस्यानि बीजं सलिलानि मेघ, विलक्षण प्रतिभा के धनी अमितगति का सस्कृत एवं
घृतानि दुग्धं कुसुमानि वृक्षं । प्राकृत भाषा पर असाधारण अधिकार है, जिसे इन्होने
काङ्क्षत्यहान्येष बिना दिनेश, स्वय स्वीकार किया है। धर्म-परोक्षा नामक मौलिक ग्रथ
धर्म विना काङ्क्षति यः सुखानि ॥ रचना मात्र दो माम और मूलाराधना नाम : प्राकृत ग्रथ
(अमितगति श्रावकाचार ६,२६) का सस्कृत रूपान्तरण चार मास की अल्पावधि में ही अर्थात्-धर्म सेवन के बिना सुख की इच्छा करना; पूर्ण किया है। अचार्य की ममग्र मौलिक कृतियो की बीज के धान, मेघ के बिना जल, दूध के बिना घी, वृक्ष भाषा प्राञ्जल, ललित. सरस, विशुद्ध सस्कृत है। संस्कृत के बिना पुष्प, सूर्य के बिना दिन चाहने के समान मुर्खता के साथ ही प्राकृत व्याकरण एव कोश पर भी इनका है। अत: धर्म धारण करने पर ही सुखो की प्राप्ति संभव प्रकाम अधिकार है।
विषयानुरूप आचार्य ने अपनी कृतियो मे विविध छन्दोवैविध्य अमितगति की काव्यगत प्रधान विशेषता शैलियों को प्रश्रय दिया है । जिसमे मुख्पत; शैलियां इस है। जिसमें मुख्यत: आर्या, अनुष्टुप्, विद्युन्माला, इन्द्रवज्रा, प्रकार है-- माधुर्य और प्रसादगुण युक्त प्राञ्जल शैली, उपेन्द्रवजा, उपजाति, द्रुतविलम्बिन, वशस्यविल, भुजंगउपदेशात्मक शैली, ताकिक शैली, द्रष्टान्त शैली. व्यगात्मक प्रयात, वसन्ततिलक मालिनी, शिखरिणी, मन्दाक्रान्ता, शैली, प्रश्नोत्तर शैनी, यमाहार शैनी, सर्जक शैली, शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा जैसे प्रचलित छन्दो के साथ आध्यात्मिक शैली, विवेचनात्मक शैती एव सामासिक ही स्वागता, शालिनी, अनुकूला, दोधक, रथोद्धता तोटक
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१८ वर्ष ४१, कि० ४
भनेकान्त
रुचिरा, प्रहरणकलिका, हरिणी, पृथ्वी एवं सरसी जैसे के क्षणिक आनन्द की भांति नही । अप्रचलित छन्दों का भी विपुल प्रयोग है।
युगद्रष्टा श्री अमितगति का मात्र काव्यशास्त्रीय पक्ष श्री अमितगति साहित्य के अध्ययन-अनुशीलन से ही प्रबल नही है। उन्होंने सैद्धान्तिक गूढ़ विषयों को भी प्रतीत होता है कि कवि ने जान-बूझकर अलंकारों का अपने चितन द्वारा अल्प पयों में ग्रथित करके धारावाहिक प्रयोग नहीं किया है, वरन् अलकारिक सौन्दर्य विषय की शैली मे सुसज्जित किया है। जैन वाङमय के गूढ़तम सहज अभिव्यक्ति मे स्वाभाविक रूप से अभिभूत है। सिद्धांत-कर्मसिद्धांत को भी प्रस्तुत मात्र दो पद्यो द्वारा उनकी रचनाओं में शब्दालंकार और अर्थालकार दोनो के प्रतिपादित किया हैलक्षण पर्याप्त मात्रा में घटित होते हैं, जिनमे अनुप्रास, स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, यमक, श्लेष जैसे मुख्य शब्दालंकार और उपमा, मालोपमा
फल तदीय लभते शुभाशुभम् । उत्प्रेक्षा, समन्देह, रूपक, अतिशयोक्ति, दृष्टान्त, दीपक,
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट, अर्थान्तरन्यास, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, ब्याजस्तुति,
स्वय कृत कम निरर्थकं तदा ।। सहोक्ति, विनोक्ति, परिसंख्या, व्यतिरेक, उत्तर, कारण- निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, माला, काब्यलिंग एव भ्रान्तिमा7 आदि अर्थालकारों की
___ न कोऽपि कस्यापि ददाति किचन । पुनरावृत्ति दर्शनीय है।
विचारयन्नेवमनन्यमानसः, विद्याधर नरेश जितशत्रु के गुणो के वर्णन में परि
परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम् ॥ संख्या अलंकार का सौन्दर्य प्ररूपित है
अर्थात्-अपने पूर्वोपार्जित कर्म ही प्राणियों को शुभ अन्धोऽन्यनारीरवलोकितुं यो,
और अशुभ फल देते हैं, अन्य कोई नहीं । यदि अन्य कोई न हृद्यरूपा जिननाथमूर्तिः ।
भी सुख-दुःख देने लगे तो अपने किए कर्म निष्फल ही निः शक्तिकः कर्तुमवद्य कृत्यं,
ठहरेंगे; परन्तु ऐसा नहीं होता, जो :म कर्ता है वही फल __ न धर्मकृत्यं शिवशर्मकारी ।
भोगता है, यही सत्य है । ससारी प्राणियो को स्वय उपा
(धर्मपरीक्षा, ६,३४) जित कर्मों के सिवाय अन्य कोई व्यक्ति किसी को कुछ भी अर्थात-विद्याधर नरेश जितशत्र यदि अन्धे थे तो
नही देता। इस प्रकार विचार करके 'पर देता है' ऐसी परस्त्रियों को देखने में, न कि मनोहर आकृति को धारण
बुद्धि का त्याग कर निज शुद्ध स्वरूप मे रमण करना करने वाली जनेन्द्र प्रतिमा के दर्शन करने में । इसी
चाहिए। प्रकार असमर्थ थे तो पापकार्यों को करने मे, न कि मोक्ष
आचार्य अमितगति का साहित्य प्राय: उद्बोधन प्रधान सुख प्राप्त कराने वाले धर्मकार्यों में।।
है। जिसमे आचार्य श्री ने अपने उपदेशो को सुभाषितों के प्रकति के सर्वथा अनुकूल तपस्वी आचार्य की लेखनी माध्यम से व्यजित किया है। लौकिक और अलौकिक का चमत्कार शान्तरम की अतिशयता है, परन्तु काब्य में अभ्युदय के लिए धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक सभायत्र-तत्र विषयानुरूप द्विबिध शृंगार, हास्य, करुण, रोद्र, षित पद्यों को कही-कही तो निर्भर के जवप्रवाह के समान वीर वीभत्स एव अदभुन रस की अनुभूति भी होती है। झडी-सी लगाई है। जिनका अनुपम सौन्दर्य पद-पद पर कवि द्वारा शृगार, हास्य, करुण प्रादि रसो का वर्णन ना प्रधान रूप से न होकर मात्र उपदेशात्मक शैली के माध्यम
संपन्नं धर्मत: सौख्यं निषेव्य धर्मरक्षया। से इनकी हेयता के प्रतिपादन मे हुआ है। इस प्रकार
वृक्षतो हि फलं जातं भक्ष्यते वृक्षरक्षया । भयानक रस के अतिरिक्त अष्ट रसों का अनुपमेय चित्रण
अर्थात्-प्राणियों को धर्म के निमित्त मे ही सुख पाठको अथवा श्रोताओं को स्थायी रसानुभूति को आर प्राप्त हआ है। अतएव उन्हें धर्म को रक्षा करते हुए ही प्रेरित करते है, षटरसों से परिपूर्ण व्यंजनो के रसास्वादन
(शेष पृष्ठ १६ पर)
पिरामकारा
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प्राप्त कुछ प्रश्नों के उत्तर
0 जवाहरलाल मोतीलाल भीण्डर
१. प्रश्न---"समयसार" कुन्दकुन्द की कृति है, इसका अधिकार की शुद्धिपूर्वक पीठिका सहित व्याख्यान किया मूल उल्लेख कहाँ है?
जा रहा है। उत्तर-A कुन्दकुन्द ग्रन्थोंके टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि
Bउन्ही जयसेन प्राचार्य ने अन्तिम मगलाचरण में तथा जयसेन ये दो आचार्य प्रधनतः हुए हैं। अमृतचन्द्र ने
कहा है-- अपने मूल ग्रन्थकर्ता के विषय में कुछ भी निर्देश नहीं
जयउ सिरि पउमणंदी जेण महातच्चपाहुडसेलो। किया है। पर जयसेन आचार्य ने समयसार की टीका के
बुद्धिसिरेणद्धरिओ समपिओ भव्वजीवस्स ।।१।। प्रारम्भ मे लिखा है
अर्थ-ऋषि पद्मनदि (कुन्दकुन्द) जयवन्त वो, जिनके अथ शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादन मुख्यत्वेन विस्ताररुचि
द्वारा महातत्त्वप्राभूत यानी समयप्राभ नरूपी पर्वत बुद्धिशिष्यप्रतिबोधनार्थ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव निर्मिते समयसार
रूपी शिर पर धारण कर (उठाकर) भव्य जीवो के लिए प्राभूतग्रन्थे अधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन पातनिकासहित व्याख्यान क्रियते।
समर्पित किया। अथ-यहाँ शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादन को मुख्यता से कुन्दकुन्द का नाम पद्मनन्दि है यह निर्विवाद है। विस्तार में रुचि रखने वाले शिष्यो को प्रतिबोधन करने
[तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग श्री कुन्दकन्द द्वारा बनाए हए समयसारप्राभूत ग्रन्थ मे रा१०२-३]
C गोगामृत, ३ मे लिखा है(पृ० १८ का शेषांश)
आचार्योवत्तमराप्तरि तिलिद तत्वज्ञानिगन कोंडकप्राप्त सुख का सेवन करना चाहिए। जैसे-सज्जन पुरुष वृक्ष की रक्षा करते हुए ही उससे उत्पन्न फलों को खाया
डाचार्य मकलानुयोग दोलग तत्सारमकोडु पूर्वाचार्यावलिकरते हैं।
योजेयिं समयसार ग्रंथममाडि विद्याचातुर्य मनी जगक्के दार्शनिक कोटि के साहित्यकार अमितगति ने जीवन मेरेदर चारित्र चक्रेश्वरर ।। के मानव मूल्यो को सुसंस्कन करने के लिए सत्येष मैत्री अर्थ-आप्तस्वरूप, आचार्यों में उत्तम, महान तत्त्वकी उद्घोषणा, सदाचरण की प्रतिष्ठा, धर्मनिष्ठा. देव- ज्ञानी, चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने सम्पूर्ण महत्ता, आध्यात्मिकता, कर्मफल, जातिवाद की निःसारता, अनुयोगों के मार का मन्थन कर पूर्वाचार्य परम्परा से योगिक प्रवृत्तियाँ, और साहित्य सिद्धातों की विवेचना प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान को "समयसार" की रचना के आदि विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया है। इस प्रकार द्वारा, अपनी स्वानुभव विद्या चातुरी के रूप में, इस अमितगति के साहित्य रूपी उद्यान में बिविध वाणिक जगत् में सुकीति को प्राप्त हुए । [रयणसार । पुरोवचन । चमत्कारजन्य कल्पना शक्ति का वैशिष्ट्य, भावों की मोह- १०८।डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच] कता, भाषा की सुगमता, लालित्य और आलंकारिक छटा उक्त प्रमाण भी समयसार को कुन्दकुन्द रचित बताता रूपी विभिन्न पुष्पों की सुरभि प्रत्येक पद्य में पाठक, श्रोता
D श्री नेमिचन्द्र ने सूर्यप्रकाश में कहा हैऔर अनुयायियों को अपने वैशिष्ठ्य अद्यावधि सुवासित कर रही है, तथा युग-युगों पर्यन्त सुवासित करती रहेगी।
अन्ते समयसार च नाटक च शिवार्थद । - ०:
पंचास्तिकायनामाढ्य वीरवाचोपसंहितम् ॥
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२०, वर्ष ४१, कि० ४
भनेकान्त
प्राद्यं, प्रवचनं चैव मध्यस्थं सारसंज्ञकम् । प्रवचनसार प्रस्ता०पू० १२ (सोनगढ) आदि ग्रंथों में एवं सम्बोधनाथं भव्यानां चक्र सत्यार्थदम् ॥ अन्यत्र यह श्लोक सैकड़ो जगह मिलता है। शास्त्र
स्तवनं चित्तरोधार्थ रचयामास स मुनिः । [सूर्यप्रकाश स्वाध्याय के प्रारम्भ मे मगलाचरण में भी इसे बोला ३४५-३५०]
जाता है। पर यह किसका है और कबका है, यह कही भावार्थ-यहाँ कुन्दकुन्द की रचनाओ का विवरण नही मिला। अत: मूल पाठ बताना सम्भव नही है । वैसे दिया जा रहा है। जिसमे ने मचन्द्र ने कहा है कि दोनों में से कोई भी सिद्धांतधातक तो है नही। अनुष्टप कुंदकुन्द मुनि ने पहले पचास्ति भय और अन्त मे समयमार श्लोक भी किसी भी पाठ से भग नहीं होता। रचा। मध्य मे प्रवचनसार रचा। अत: मुनि कुदकुद ने ३. प्रश्न-मयुर पिच्छी का चलन कबसे हुआ ? किस सभी रचनाओं के अन्त मे समयसार रचा। (ग्यणसारा शास्त्र में विधान है? प्रस्ता०पृ० १६, डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री)
उत्तर-आगम मे लिखा है कि-- जो धूलि और ___E समयसार तो निर्विवाद रूप से कुदकुद की ही पसीने को न पकड़ती हो, कोमल स्पर्श वाली हो, सुकुमार रचना है इसमे समस्त विद्वान् तथा सभी पक्ष (तेरह पथ, हो और हल्की हो उस पिच्छो की गणधर-देव प्रशसा बीस पंथ, तरणपथ, गुमानपंथ, मूमुक्षुमण्डल) एकमत है। करते है । मूल गाथा इस प्रकार हैA. N. उपाध्ये, जुगलकिशोर मुख्तार एव नाथुराम जी रयसेयाणमगहणं महव सुकुमालदा लघुत्तं च । प्रेमी जैसे इतिहासज्ञो ने भी समयसार को तो निर्विवाद जत्थेदे पच गुणा तं पडिलिहण पससति ।। रूप से कौन्दकुन्दीय कृति ही माना है। 'विमतानामपि यह गाथा मूलाचार समयसाधिकार ६१२ तथा ऐक्य यत्र कि प्रमाणेन तत्र।" भिन्न-भिन्न मत वाले भी जिस भगवती आराधना ६७ के रूप में बिना पाठान्तर के, विषय में ऐकमत्य रखते हो उसमें प्रमाण की आवश्यकता दोनों ग्रयो मे उपलब्ध है । लगभग ६०० वर्ष पूर्व सिद्धांतही क्या है?
चक्रवर्ती बसुनन्दि ने इसी मूलाचार की आचारवृत्ति मे ____F आध्यत्मिक सत्पुरुष धीमद् राजचन्द्र ने एक पत्र लिखा थामें लिखा था
A मयूर पिच्छग्रहरणं प्रशसति अभ्युपगच्छन्ति आचार्या "पत्र और समयसार की प्रति मिली। कंदकंदाचार्य गणधर देवादय - कृत समयसार ग्रन्थ भिन्न है। ग्रन्थक अलग है, और
(अर्थ----मयुगपिच्छी का ग्रहण करना गणधरादिक ग्रन्थ का विषय भी अलग है। (ग्र उत्तम है) यह पत्र द्वारा भी प्रशसनीय है) । (गा० ६१२ मूनाचार) श्रीमद् जी ने. सं. १६५६ ज्येष्ठ शु० १३ सोमवार को
B आगे भी देखिए ---- श्री मुमुक्ष सुखलाल छगनलाल को वीरमगाम लिखा था। प्राणसयमपालनार्थ प्रतिलेखनं धारयेत् मयुरपिच्छिका उक्त तिथि को श्रीनद जी ववाणिया विराजमान थे। ग्रहीयात् मिक्षुः साधुरिति । (गा०६३ की आचारवत्ति) (श्रीमद् २०७४४ व १८०) इससे अत्यन्त स्पष्ट है कि
अर्थ-- 'प्राणिरक्षा हेतु मुनिराज मयुरपंखों की
पिच्छिका ग्रहण करे। (पृ० १२१, भाग २ मूलाचार समयसार ग्रन्थ दो हैं। इतना अत्यन्त स्पष्ट है। पर
ज्ञानपीठ) कुंदकुदाचार्य कृत ४१५ गथाओं या ४३७ गाथाओं वाला
C आगे लिखा है(गाथा ६१५, पृ० १ २ ज्ञानपीठ): समयसार तो निविवादतः कौन्दकन्दीय ही है।
न च भवति नयनपीडा चक्षुषो व्यथा अक्षिण नयनेऽपि २. प्रश्न----मंगल भगवान् वीरो' 'आदि श्लोक किसकी
भ्रामिते प्रवेशिते प्रतिलेखे मयुरपिच्छे रचना है ? इस श्लोक में मगलं कुंदकुंवार्यों ठीक है या
अर्थ-मयुरपिच्छी को तो नेत्रों में फिराने पर भी मंगलं कुंदकुंदाद्यो ठीक है ? यह श्लोक किसने रचा?
पीड़ा नहीं होती, इतनी नरम होती है। उत्तर-कुदकुंदप्राभृतसग्रह प्रस्ता० पृ० १, तीथंकर
वही आगे लिखा है--न च प्राणिघातयोगात्तेषामहावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग २, पृ. ६६,
(शेष पृ० २८ पर.)
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व्रत : स्वरूप और माहात्म्य (लेखक-क्षुल्लकमणि श्री शीतल सागर महाराज)
व्रत के सम्बन्ध में, हमारे ऋषि-महर्षियों के भाव को, “ओला घोर बड़ा निशिभोजन, बाहबीजा बेंगन संधान । कविवर दौलतराम ने छहढाला की चौथी ढाल में कितना बड़ पीपल गूलर कठूम्बर, पाकर जो फल होय अजान ।। सुन्दर लिखा है
कदमूल माटी विष आमिष, मधु मक्खन अरु मदिरा-पान । "बारह वन के अतिचार, पन-पन न लगावे।
फल अति तुच्छ तुषार चलित रस, जिनमत ये बाईस बखान ।। मरण समय संन्यास धार, तसु दोष नशावे ॥
इन अभक्ष्य-भक्षणरूप बाईस बुराइयो का समावेश भी यों श्रावक व्रत-पाल, स्वर्ग मोलम उपजावे ।
अपेक्षा से उपरोक्त पंच-पापों मे ही होता है। हाँ हमारे __ तहत चय नर-जन्म पाय, मुनि हो शिव जावे ।।"
ऋषि-महर्षियों ने इन्हे जो अलग-अलग बताया है, तो यहाँ इस छन्द मे अतिचार-सहित बारह वतो का
अपेक्षा से इनका अलग-अलग त्याग करना-कराना होता है। पालन करने वाले तथा निर्दोष सल्लेखना व्रत को धारण
पाप या बुराई का त्याग कर अपने को शुभ-कार्यों में करने वाले श्रावक की महिमा का गुणगान किया है, कि
सलग्न करने की प्रतिज्ञा लेने को भी व्रत कहते है क्योकि ऐसा श्रावक पहले तो सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है
पापों का त्याग किये बिना कोई भी जीवात्मा, शांतिपथ एवं फिर मनुष्य-जन्म धारण कर व मुनिव्रतो को अंगी.
का पथिक नही हो सकता। शांतिथ का पथिक होने के कार करके मोक्ष को प्राप्त करता है।
लिए, सांसारिक विषय-वासनाओ से भी मुख मोड़ना व्रतो के धारण-पालन का इतना महान जब महत्त्व
पड़ता है। इतना ही नही अपितु एकाग्रचित्त होकर सच्चेहै, तब क्यों नही हम इस विषय को विशेष रूप में समझे।
देवशास्त्र गरु और सात तस्वो को भी ठीक-ठीक समझना अर्थात् अवश्य ही इस विषय को समझने की कोशिस करना चाहिए।
तत्त्वार्थसूत्र के ही अध्याय मान, सूत्र अठारह मे हाँ तो वन कहिए या सयम अथवा सदाचार-सच्चरित्र निकाल्यो वनी' लिखकर आचार्यश्री दे यह चेतावनी दी या सम्यक्चारित्र; एक ही बात है। श्री उमास्वामी सूरि है कि मात्र व्रतो को धारण कर लेने से अपने को व्रती ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय मात सूत्र संख्या एक में व्रत की ।
मत समझ बैठना; क्योकि वनी-संज्ञा वास्तव मे शल्य परिभाषा इस प्रकार की है
रहित होने पर ही होती है। वे शल्य, माया, मिध्यात्व "हिंसाऽनतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिवंतम् ।" और निदान के रूप में तीन है। एक कवि ने लिखा है
अर्थात् हिंगा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह; इन "सयम की सीमा मत तोड़ो, अधे होकर तुम मत दौड़ो। पाच पापों का त्याग करना, व्रत कहलाता है।
शाश्वत सुखकी है यह औषधि, तुम मब इससे नाता जोड़ो॥" यहाँ आचार्य श्री ने मुख्य रूप से पाच पापों के त्याग चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से जो सयम-प्रत धारण को व्रत कहा है। परन्तु यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि नही कर सकते ऐसे मम्यग्द्रष्टियों के विषय मे कवि दौलतइन पांचों-पापों के अन्तर्गत, संसार के अन्य जितने भी राम जी ने एक भजन में लिखा हैपाप-बुराइयाँ हैं, वे सब इनमे गभित हो जाते है । जैसे- "चिन्मूरति द्रगधारी की, मोहि रीति लगत है अटापटी। "जुआ खेलना मास मद, वेश्यागमन शिकार। सयम धर न सके पै संयम, धारणकी उर चटापटी ॥"
चोरो पररमणी-रमण, सातों सन विचार ।।" संसार के सभी धर्मों सम्प्रदायों ने व्रत-सयम को अपेक्षा से इन जुआ खेलना आदि सात-व्यसनों का किसी न किमी रूप में स्वीकार किया ही है, क्योंकि व्रत समावेश उक्त पापों में ही होता है । इसी प्रकार- ही प्रत्येक धर्म की मूल-जड़ कहो या नीव-आधारशिला
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२२. वर्ष ४१, कि.४
अनेकान्त
है । आत्मकल्याण की भावना से स्वेच्छा पूर्वक जीवन भर चारित्तं बहुभेयं, णायव्वा भावसंवर विसेसा ॥" के लिए अथवा परिमित, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, दो वर्ष इस गाथा मे व्रत, समिति और गुप्ति के साथ-साथ; आदि के लिए शुभ-पुण्य कार्य करने का संकल्प करना या उत्तमक्षमादि दस धर्म, अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षा तथा हिंसादि पाप कार्य का त्यागना भी व्रत कहलाता है। क्षुधा-तृषादि बाईस परीषहजय को भी चारित्र मे ही पुरुषार्थ सिद्धि उपाय श्लोक चालीस के अनुसार चारित्र सूचित किया है तथा इन सबको भावसवर का कारण
लिखा है। (व्रत) की परिभाषा इस प्रकार है
संयम जो कि व्रत का ही एक रूप है, इसके विषय में "हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः ।
सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार जीवकाड कासन्यैकदेशविरते:, चारित्रं जायते द्विविध ॥"
गाथा ४६५ में इस प्रकार विवेचन किया है-. यहाँ यह समझाया गया है कि हिंसादि पांचों पापो
"वदसमिदिकसायाण, दंडाण सहिदियाण पचण्ह । का त्याग करना तो चारित्र-व्रत है ही; पर इन पापो का
धारण पालण णिग्गह, चागजओ सजमानावओ।" सर्वथा त्याग किया जाता है तो वह महावत कहलाता है
अर्थात् अहिंसादि व्रतो को धारण करना, ईयर्यादि और एक देश पापों का त्याग करने पर वह देशव्रत-अणुव्रत
समितियों का पालन, क्रोधादिक कषायो का निग्रह, मनसज्ञा को प्राप्त होता है।
वचन-काय की कुत्सित क्रियारूप दण्डो का त्याग तथा लगभग इमी उक्त भाव की पूष्टि समन्तभद्राचार्य
स्पर्शादि पाचो इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करना, यही सयम द्वारा रत्नकरण्ड में हुई है । श्लोक ४६ इस प्रकार है
(वन) कहा गया है। "हिंसाऽनूतचोर्येभ्यो, मैथुनसेवा-परिग्रहाभ्या च ।
व्रत के सम्बन्ध मे, स्वामी समन्तभद्र ने, श्रीरत्नकरण्ड पापप्रणालिकाभ्यो, विरतिः सज्ञस्य चारित्र ॥"
महाशास्त्र श्लोक ८६ मे एक महत्वपूर्ण बात इस प्रकार यहाँ इतना विशेष उल्लेख है कि ये हिंसादिक पांचो
लिखी हैदोष, पाप के आस्रव द्वार है और इनका त्याग जब ज्ञानी
"यदनिष्टं तव्रतयेद्, यच्चानुपसेव्यमेतदपि जहयात् । व्यक्ति के होता है तभी ये चारित्र या व्रत कहलाते है।
अभिसधिकृताविरति, विषयाद्योग्याद् व्रत भवति ॥" श्रीअमतचन्द्र सूरि ने तत्त्वार्थसार मे भी लगभग उक्त
अर्थात जो वस्तु अनिष्ट है उसका त्याग किया जावे अभिप्राय को हो निम्न तरह से व्यक्त किया है--
और जो अनुपसेव्य है उसका भी त्याग किया जाये । इस "हिंसाया अमृताच्चैव, स्तेयादब्रह्मतस्तथा।।
प्रकार योग्य विषयोंसे भी भावपूर्वक छुटकारा पाना व्रत है। परिग्रहाच्च विरति., कथयन्ति व्रत जिनाः।।"
श्रीपूज्यपाद स्वामी ने, इष्टोपदेश में, व्रत के सम्बन्ध अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से मे, जो महत्वपूर्ण बात लिखी है, वह ध्यान देने याग्य है। विरति छुटकारा पाना ब्रत है और यह या ऐसा श्रीजिनदेव वे लिखते है
"वर व्रतं. पद देव, नाव्रतव्रतनारकम् । इस प्रसग में द्रव्यसग्रह महाशास्त्र की गाथा ४५ इस छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान् ॥३॥" प्रकार है जो कि ध्यान देने योग्य है
अर्थात् अव्रतों से नारकी होने की अपेक्षा, व्रतो से "असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ती य जाण चारित्त ।
देव-पर्याय प्राप्त करना श्रेष्ठ है। जिस प्रकार लोक मे एक वदसमितिगुत्ति रूव, ववहारणया दु जिण-भणिय ॥"
व्यक्ति धूप मे खड़ा है उसकी अपेक्षा दूसरा छाया मे खड़ा अर्थात् अशुभ से छुटकारा होना तथा शुभ मे प्रवृत्ति रहने वाला श्रेष्ठ है। होना चारित्र-व्रत है। तथा यह व्रत, समिति और गुप्ति- इस व्रत के सम्बन्ध मे ही समाधितंत्र के श्लोक ८३, स्वरूप है एवं यह व्यवहाररूप से श्रीजिनदेव ने कहा है। ८४ और ८६ मे जो उल्लेख है वह भी ध्यान देने योग्य
द्रव्यसग्रह की ही गाथा पतीस मे इस प्रकार विवे- हैचन है
"अपुण्यमवतः पुण्य, ब्रतैमोक्षस्तयोर्व्ययः । "वदसमिदिगुत्तिओ, धम्माणुपिहापरीसहजओ य ।
अब्रतानीव मोक्षार्थी, व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥
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वत स्वरूप और माहात्म्य
अव्रतानि परित्यज्य; व्रतेष परिनिष्ठितः ।
व्रत के बिना शांति सुख होवे, यह आशा निर्मूल है।" त्यजेत् तान्यपि सम्पाप्य, परम पदमात्मनः ।।
एक अच्छे लेखक ने भी लिखा हैअवनी व्रतमादाय, व्रती ज्ञानपरायणः ।
___ "अणुब्रतों अथवा महाव्रतोंके धारण-पालन से आत्मिक परात्मज्ञानसम्पन्न:, स्वयमेव परोभवेत् ।।" श्रद्धा मजबूत होती है, विवेककी वृद्धि होती है, साथ ही
अर्थात अव्रतों से अपुण्य (पाप) होता है तथा व्रतों से स्वानुभूति रूप आनन्द की अभिवृद्धि होकर निराकुलता पूण्य होता है और इन दोनो के (पाप-पुण्य के) विनाश से, रूपी मुक्तिरमा के साथ अनंतकाल तक रमण होता है।" मोक्ष होता है। अत: मोक्षार्थी का कर्तव्य है कि वह एक अन्य विद्वान ने भी लिखा है-- अवतों की तरह व्रतो का भी त्याग करे। अवतोंका त्याग
"व्रतों का मूल उद्देश्य तृष्णा को तिलांजलि देकर करके व्रतों में संलग्न हा आत्मा; परमपद (मोक्ष) को आत्मिक आनद की ओर एग्रसर होना है। परन्तु जो कुछ प्राप्त करके व्रतो का भी त्याग कर देता है। व्रत-विहीन व्यक्ति देखा-देखी या जोश में आकर अथवा होश खोकर व्यक्ति व्रतों को ग्रहण करके व्रती होकर ज्ञान मे तत्पर भी वन धारण करते है, तथा उन्हें सहर्ष सोत्साह पालन होवे। फिर परमात्म ज्ञान मे सम्पन्न होकर स्वयं ही नहा करत, आतचार-दाष लगाते रहते है, इससे स्वपर का परमात्मा हो जाना है।
पतन ही होता रहता है।" सिद्वान्त चक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्य ने द्रव्यसंग्रह गाथा वैगग्य भावनाके अन्त में कितना मार्मिक उल्लेख है ५७ मे जो 'तप ओर श्रुत के साथ व्रतों का धारक आत्मा "परिग्रह-पोट उतारि सब, लीनो चारित-पंथ । ही ध्यानरूपी रथ की धुरा को साधने मे समर्थ होता है।' निज-स्वभावमें थिर भये, वज्रनाभि निर्ग्रन्थ ॥" ऐसा लिखा है वह वास्तव मे ध्यान देने योग्य है । गाथा समस्त संसार को अपने चरणों में झकाने की शक्ति इस प्रकार है -
यदि किसी में है तो वह है व्रत-सथम । व्रत की शक्ति "तवसुस्वदव चेदा, झाणरह धुरधरो हवे जम्हा । व्यक्ति की निजी शक्ति-आत्मशक्ति है। इसमें व्यक्ति की तम्हा तत्तिय णिरदा, तल्लद्धीए सदा होइ।।" आत्मा का निवास होता है, या यो भी कह सकते है कि
इसका सरल व सुन्दर हिन्दी पद्यानुवाद इस प्रकार है- व्रत-संयम, व्यक्ति की वास्तविक सम्पदा है, जिसके बल "तप श्रुत और व्रतोका धारक, ध्यानसु रथ मे होय निपुण। पर ससार की अधिक से अधिक मूल्यवान वस्तुयें प्राप्त अतः तपादि तीन में रत हो, परम ध्यान के लिए निपुण ।।" को जा सकती हैं। राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार, पडित
व्रत-संयम के विषय में जो स्व० डा० कामता प्रसाद विद्वान, सभी वनी-सयमी के चरणों के चेरे हो जाते है। जैन ने लिखा है वह भी विचारणीय है
व्रत; व्यक्ति में वह सामर्थ्य सम्पन्न करता है, जो "व्रत चाहे छोटे रूप में किया जावे, परन्तु विधि से अन्य किसी भी शक्ति से दब नहीं सकता। धन-बल, तनकिया जावे तो बड़ा फल देता है। वट का वक्ष देखा है, बल, कुटुम्ब-बल, यह बहुतो को दबा सकता है, लेकिन कितना बड़ा होता है, परन्तु इतने बड़े पेड़ का बीज व्रतो-सयमी को नहीं। अन्य भी कितने ही बल अन्यो को पोस्ता के दाने से भी नन्हा होता है। नन्हा-सा ठोस बीज पराजित कर सकते है परन्तु व्रती-संयमी के समक्ष तो उन जैसे महान फल देता है, वैस ही नन्हा-सा व्रत भी सार्थक
- सभी को स्वयमेव नतमस्तक होना पड़ता है। होकर जीवन में बड़ी से बड़ी सफलता देता है।"
व्रत-विहीन का जीवन भी क्या कोई जीवन है ? कौन भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री नीलम सजीव बुद्धिमान उसे जीवन कहता है? वह जी रहा है इतने पात्र रेडी का स्वाधीनता दिवस पर सादगी का सन्देश है- से उसमे जीवन की कल्पना करना निरर्थक है। हां उसे
“शान शौकत का जीवन बिताने पर अकुश जरूरी तो मृत कहिर अथवा जीवित लाश या मुर्दा। व्रत-विहीन अदूरदर्शी-समाज पतन के गर्त मे बह गये ..." के निस्तेज-मुख, ज्योतिहीन नेत्र और विकारयुक्त आंगोपांग
एक कवि ने कितना हृदयस्पर्शी उल्लेख किया है - पहली ही नजर में, देखने वालो के अन्तरंग मे, एक ग्लानि"जीवन को महकाने वाला, व्रत ही फल अरु फूल है। सी पैदा कर देते है। उसके प्रति श्रद्धा नही हो पाती;
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२४, वर्ष ४१, कि० ४
अनेकान्त
जबकि व्रती-संयमी का देदीप्यमान मुखमण्डल प्रसन्न-मन मरण को प्राप्त होने से नियम से देवगति की प्राप्ति होती एवं समता भाव, प्राणिमात्र को अपनी ओर आकर्षित कर है फिर परम्परा से मुक्ति प्राप्त होती है। लेता है।
व्रत के विषय मे सागारधर्मामृत अध्याय ७ का श्लोक व्रत के सम्बन्ध मे श्रीउत्तरपूराण (७६-३७४) मे ५२ इस प्रकार हैआया है
"प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं, गुरुसाक्षिश्रितं व्रतं । "अभीष्ट फनप्राप्नोति, व्रतवान् परजन्मनि ।
प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःख, व्रतभगो भवे भवे ॥" न व्रतादपगे बंधु,वितादगे रिपु. ॥"
अर्थात् गुरु की साक्षी-पूर्वक लिए गये व्रत को प्राणांत अर्थात् व्रती-व्यक्ति, आगामी भव मे, मनोवांछित होने पर भी भंग नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्राणान्त फल को प्राप्त करता है। अहिंमादि व्रतों के समान जीव मरण से तो उसी क्षग दुख होता है लेकिन ब्रत को भंग का कोई भी अन्य बन्धु नही है और हिमादि के समान । करने से भव-भव में कष्ट प्राप्त होता है और इसीलिए अन्य शत्रु नहीं है।
एक आचार्यश्री ने उल्लेख किया है किलोक मे तीन प्रकार के व्यक्ति है। एक तो वे है जो "वरं प्रवेष्टुं ज्वलित हुताशनं, विधन के भय से व्रतो को धारण ही नहीं करते। ऐसे
न चाऽपि भग्नं चिरसचितं प्रत।" व्यक्ति निकृष्ट या जघन्य कहलाते है। दूसरे वे हैं जो अर्थात् भीषण अग्नि में प्रवेश करना तो श्रेष्ठ है, व्रतों को तो धारण करते है, लेकिन विघ्न-बाधा आने पर लेकिन चिर सचित व्रत को भग करना अच्छा नहीं। उन्हें छोड देते हैं। ऐसे व्यक्ति मध्यम श्रेणी के है और हमे एक आचार्यश्री के निम्न लोक के भाव को भी तीसरे पक्ति वे है जो व्रतो को धारण करन के पश्चात् सदैव रमरण रखना चाहिएकितने ही विघ्न आने पर भी उन्हें छोड़ते नहीं। जीवन- "वृत्त यत्नेन मरक्षेत्, वित्तमेति व याति च । पर्यात व्रतों का निर्वाह करते है और ऐसे व्यक्ति उत्तम अक्षीणो वित्ततः क्षीणो, वृत्ततस्तुहतो हतः।" श्रेणी के कहे जाते है। सो ही सम्यक्त्व-कौमुदी मे उल्लेख अर्थात् ब्रत तो धारण करना ही चाहिए, साथ ही
उमका यत्नपूर्वक पालन भी करना चाहिए । क्योकि लोक "प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचे.,
मे धन तो आता-जाता रहता है, परन्तु जो व्रतों से च्युत प्रारभ्य विघ्नवहिता विरमति मध्याः ।। हो जाता है उसका तो सर्वस्व ही विनष्ट हआ समझना विनै पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
चाहिए। प्रारम्य चोत्तम जना न परित्यजन्ति ॥"
मामान्य से देखा जाय तो व्रत के कोई भेद नहीं हैं, हमें 'देहस्य सार व्रतधारणं च' इस संस्कृत मुक्ति को क्योकि व्रत कहने से ही सभी प्रकार के ब्रत आ जाते है। ध्यान में रखते हुए कि 'मानव जीवन की शोभा व्रतों के सक्षेप में भेद किये जाये तो व्रत दो प्रकार के है। सो ही धारण करने से है'; कभी भी व्रतों मे पराङ्मुख नही होना श्रीउमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय सात सूत्र संख्या दो चाहिए। हमारे गुरू महाराज जी कहा करते थे मे इस प्रकार बताया है
'देश-सर्वतोऽणुमहती' अर्थात् व्रत दो प्रकार के है, एक "घोड़ा चढ़े पड़े, पड़े क्या पीसनहारी।
तो अणुव्रत और दूसरे महाव्रत। हिंसादि पापो का एकद्रव्यवंत ही लुटे, लुटे क्या जन्म-भिखारी" देश त्याग 'अणुव्रत' और इन्ही पापो का सर्वदेश-पूर्णतया
पर यहा उनके कहने का यह अभिवाय नही था कि नवकोटि से त्याग करना 'महाव्रत' है। व्रत लेकर पालन नही करना। वे स्पष्ट रूप में कहने थे दुनियाँ मे वस्तु का विभाजन एक तो भोगवस्तु के कि- "सोच समझकर व्रत अवश्य धारण करो। कर्मयोग रूप में है और दूसरा उपभोग वस्तु के रूप में और इस से व्रत छूट भी जाय तो पुनः धारण करो। व्रत सहित अपेक्षा भी बन के दो भेद हो सकते हैं । भोगवस्तु का त्याग
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प्रत स्वरूप पोर माहात्म्य
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करने रूप 'भोगवत' तथा उपभोग वस्तु का त्याग करने प्राणी; पशु-अज्ञानी ही है क्योंकि अब्रती योग्य-अयोग्य के रूप 'उपभोग व्रत'। भोग-उपभोग का स्वरूप श्रीरत्न- विवेक से विहीन होता है । उसमें विवेक होता ही नही। करण्ड मे इस प्रकार बताया है
"राग-द्वेष-निवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।" "भुक्त्वा परिहातव्यो, भोगो-मुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । अर्थात् साधु-आत्महितैषी भव्यात्मा, राग-द्वेषादि
उपभोगोऽशनवसन, प्रतिपंचेन्द्रिय-विषयः ।।८३॥" विकारों को दूर करने के लिए, चारित्र (बत) धारण __ अर्थात जिसका एक बार भोगकर त्याग हो जाता है करता है। तथा पुनः भोगने में नही पावे वह भोगवस्तु है। जैसे
"ये मित्यं ब्रतमंत्रहोमनिरताः" भोजन, लड्डू, पेड़ा, रोटी आदि । जो एक बार भोगने के अर्थात् साधु पुरुष नित्य ही बन, मंत्र और होम-कषायो बाद पुन: भी भोगने मे आ सके वह उपभोग वस्तु है। को दूर करने में संलग्न रहते हैं। जैसे-वस्त्र, आभूषण, नल, बिजली, मकान, पलंग आदि। "ब्रतसमुदयमूलः" अर्थात् ब्रतों का समुदाय ही धर्म
कोई भी संकल्प, प्रतिज्ञा, त्याग अथवा व्रत, या तो वृक्ष की जड़ है। जीवन भर के लिए किया जाता है अथवा सीमित काल के
“सद्वत्तानां गुणगणकथा" अर्थात् जब तक मोक्ष सुख नोमनी की प्राप्ति न हो तब तक हे परमात्मन् ! मैं शास्त्रानुकूल एक तो जीवन भर के लिए धारण किया जाने बाला व्रत ब्रतों की महिमा का गुणगान किया करूं। (यम) और एक सीमित काल के लिए लिया जाने वाला
पाक्षिक-प्रतिक्रमण में उल्लिखित निम्न गाथायें भी व्रत (नियम)। सो ही स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड ब्रत के सम्बन्ध में आदरणीय हैश्लोक ८७ मे इस प्रकार प्रकट किया है
"धिदिमतो खमाजुत्तो, झाणजोगपरिट्रिदो। "नियमो यमश्च विहितो, द्वेधा भोगोपभोगस हारे ।।
परीसहाण उरं देतो, उत्तमं बदमस्सिदो।" नियमः परिमितकालो, यावज्जीव यमोध्रियते ॥"
अर्थात जो धैर्यवान है, उत्तम क्षमा को धारण करने
वाला है, सब ओर से ध्यानयोग मे स्थित है, साथ ही क्षुधा ८६ में स्पष्ट किया है
तृषादि परीषहों को सहन करने वाला है, वही उत्तमबत"भोजनवाहनशयन, स्नानपवित्रांगरागकुसुमेषु ।
महाब्रतों को धारण-पालन करने वाला होता है। इसी ___ ताम्बूलवसनभूषण, गन्मथसंगीततीतेषु ॥
प्रकारअद्य दिवा रजनी वा, पक्षो मासस्तथत रयन व।।
"पाणादिवादं च हि मोसगं च, अदत्तमेहुण्णपरिग्गह च । इति काल परिच्छित्या, प्रत्याख्यानं भवेन्नियमः॥"
__ वदाणि सम्म अणुपाल इत्ता, णिव्वाणमग्ग विरदा उवेति ॥" इसका रस-सुन्दर और सरल हिन्दी पद्यानुवाद इस अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इनके प्रकार पठनीय है
त्यागरूप अहिंसादि ब्रतो को पालन करने वाले दि० मुनि, "भोजन वाहन शयन स्नान रुचि, इत्रपान कुंकुम लेपन । निर्वाण-मोक्षमार्ग को प्राप्त करते है।। गीत वाद्य सगीत कामरति, माला भूषण और वसन ।। इस प्रकार इस लेख में आचार्यों आदि के उद्धरण देकर हुन्हे रातदिन पक्षमास या वर्ष आदि तक देना त्याग । ब्रत का स्वरूप, व्रत की आवश्यकता, अत का माहात्म्य कहलाता है नियम'और 'यम', आजीवन इनका परित्याग और सक्षिप्त भेदों के विषय मे प्रतिपादन किया है।
हमे इस प्रसग में महर्षिया के निम्न वाक्यो व सूक्तियो वास्तव मे ब्रत, नियम, चारित्र के बिना, मनुष्य जीवन पंग को भी ध्यान में लेने की आवश्यकता है।
या नेत्रविहीन व्यक्ति के समान निरर्थक है। अन्त मे"व्रतेन यो विना प्राणी, पशुरेव न सशयः ।
"द्रढ़ता से ब्रत धारकर, पाले द्रढ़ता पूर्व । योग्यायोग्य न जानाति, भेदस्तत्र कुतो भवेत् ॥" स्वपर का कल्याण हो, फिर निर्वाण अपूर्व ॥" अर्थात् इसमें कोई भी सन्देह नहीं है कि ब्रतविहीन
-इत्यलम्
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जैन ग्रन्थों में विज्ञान
।। श्री प्रकाशचन्द्र जैन प्रिंसिपल स. भ. सं. वि. दिल्ली
जैन ग्रन्थों मे वैज्ञानिक तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध वर्तमान विज्ञान द्रव्य को स्थायी मानने के साथ परिहै। आज विज्ञान के जो आधुनिकतम आविष्कार है बर्तनशील भी मानता है। प्रत्ये। द्रब्य की अवस्थायें उनके मूल सिद्धान्त जैन शास्त्रो में यत्र-तत्र विखरे हुए है। बदलती रहती हैं। जैसे लकड़ी है, वह स्कध पर्याय है।
उसको जला दिया जाये तो कोयला बन जायेगा, उसका जैनाचार्य उमा स्वामी अथवा उनके पूर्व और उत्तर- नाश नही होगा पर्याय बदल जायेगी और कोयले को भी वर्ती आचार्यों ने जो मिद्धान्त थ्योरी लिखे है उन्ही का जरिया जाये तो ख बन जायेगी। मगर मल तत्त्व आधार लेकर वज्ञानिका ने प्रक्टाकल किया है। प्रक्टाकल का नाश नहीं होगा। यह वैज्ञानिक मान्यता वही है जो करने वालों की सबसे बड़ी भूल यह हुई कि उन्होंने आज से कई हजार वर्ष पहले लिखे गये जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थ थ्योरी सिद्धान्त देने वाले आचार्यों की मानव कल्याण एवं
सूत्र में प्राप्त है । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त सत् । सद् द्रव्य आत्मोन्नति की मंगल भावनाओं को उपेक्षित करके अपने
लक्षणम्-अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य जहा पाये जाएँ प्रेक्टीकल द्वारा ऐसे-ऐसे उपकरणों, यंत्रों और मशीनों का
उसका नाम सत् है। तथा सत् ही द्रव्य का लक्षण है। निर्माण आरम्भ कर दिया है जिनको पाकर आज का मानव समाज सांसारिक विषयभोगों में लिप्त हो रहा है। जैनाचार्यों ने प्रकृति को पुद्गल के नाम से पुकारा आपस में लड रहा है, पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष बढ़ रहे है है। और पुद्गल शब्द की व्याख्या उन्होने-'पूरयन्ति तथा विविध प्रकार की वैज्ञानिक सुविधाये पाकर मानव गनयन्ति इति पुद्गलाः' अर्थात् पुद्गल उसे कहते है जिसमे पुरुषार्थहीन हो गया है।
पूरण और गलन क्रियाओ के द्वारा नई पर्यायों का प्रादुर्भाव
होता है। वित्रान की भाषा मे इसे फ्यूजन व फिशन या ससार के निर्माण के सम्बन्ध में आज की वैज्ञानिक इन्टिगेशन व डिस इन्टिगेशन कहते है। वैज्ञानिको ने पुदमान्यता यह है कि यह ब्रह्माण्ड कोई क्रियेटीड वस्तु न गल का नाम मेबर दिया है। वे कहते है कि पुद्गल स्कध होकर एक घास के खेत के समान है। जहां पुराने घास में हरमाण मिलते भी है और बिछडते भी है। घास तिनके भरते रहते है और उनके स्थान पर नये तिनके जन्म लेते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि घास के खेत वर्तमान वैज्ञानिकों ने सिद्धान्त दिया है कि दो हाईकी आकृति सदा एक-सी बनी रहती है। यह वैज्ञानिक ड्रोजन और एक आक्सीजन का अनुपात मिलाया जाए तो सिद्धान्त जैन धर्म के साहित्य में वणित विश्व रचना के जल तैयार हो जायेगा। जैन दर्शन में कहा गया है कि सिद्धान्त से अधिक मेल खाता है। इसके अनुसार इस जगत जल कोई स्वतत्र द्रव्य नहीं है वह तो पुद्गल का स्कंध पर्याय का न तो कोई निर्माण करने वाला है और न किसी काल है। विशेष मे इसका जन्म हुआ। यह अनादिकाल से ऐसा ही द्वयधिकादिगुणानां तु । स्निग्ध-रुक्षत्वात् बधः। न चला आ रहा है, और ऐसा ही चलता रहेगा। यह विश्व जघन्यगुणानाम् । गुण साम्ये सदृशानाम् । जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थ छह द्रव्यो के समूह का नाम है। यह छः द्रव्य है जीव, सूत्र के इन चारों सूत्रों का आशय यह है कि स्निग्ध और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । वैज्ञानिक इन रुक्षत्व गुणो के कारण एटम एक सूत्र में बंधा रहता है। द्रव्यो को सबस्टेन्स के नाम से पुकारते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि जैन आचार्य आज के वैज्ञानिक
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जैन ग्रन्थों में विज्ञान
शब्दों पोजीटीव और नेगोटिव से परिचित थे। उन्होंने उसी प्रकार यह धर्म द्रब्य भी जीव और पुदगलो के गमन यह भी कहा है कि अणुओ मे साम्य गुण होने पर बंध नहीं करने में सहायक होता है। होगा। वह बंध तभी होगा जब गुरगों में अन्तर होगा। वैज्ञानिको ने माना है कि वस्तुओं के गिर कर रुकने और वह गुणा में अन्तर दा डिग्रा का हागा । आधुनिक मे ग्रेवेटी पावर गुरुत्वाकर्षण काम करता है, इसी गुरुत्वा
कर्षण को जैन शास्त्रों में अधर्म द्रव्य माना गया है। जो होगा जब दोनों अणुओं से दो डिग्री का फरक होगा। पर
। पर कि जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहायक होता है। माणुओं मे जो कण भरे हुए है उनको जैन शास्त्री की परि. भाषा में यह कहा जायेगा कि पारा और सोना भिन्न
इसी प्रकार विज्ञान ने स्पेस को भी माना है। स्पेश पदार्थ नही है, वे पुद्गल द्रव्य की ही पर्याय है।
होने के कारण ही जीव और पूदगल इस विश्व मे रहते हैं।
यदि स्पेश ना हो तो कोई कहां रहे। जैन ग्रन्थों में इस जैन ग्रन्य गोम्मटसार मे परमाणु को षट्कोणी, स्पेश का नाम आकाश दिया गया है । आकाशस्यावगाहः। खोखला और सदा दौड़ता-भागता हुआ बताया गया है।
यह आकाश द्रव्य के उपकार है कि पूरे विश्व में जीव परमाणु की रचना स्निग्ध और रुक्ष कणो के सहयोग से ही
और पुद्गल समाए हुए है। होती है। विज्ञान ने १८४१ मे यह सिद्ध किया कि १९८
जैन शास्त्रों मे काल को भी एक स्वतत्र द्रव्य स्वीकार अश डिग्री का पारा लेकर उमको योगिक क्रिया करने पर
किया गया है। वैज्ञानिक भी टाइम को स्वीकार करते है। २०० अश डिग्री वाला सोना तैयार किया जा सकता है।
यह टाइम ही समय को बदलने मे महायक हो रहा है। यही बात जैन ग्रन्थो में भी उल्लिखित है। दो अधिक अश
वैज्ञानिक मानते है कि टाइम (काल द्रव्य) को स्वीकार हो तो बध होगा और कम हो तो बध नही होगा। जैन
करे बिना काम नही चल सकता। मिन्को नामक वैज्ञासिद्धान्तानुसार संसार की जितनी भी वस्तुएं दृष्टिगोचर
। वस्तुए दृष्टिगोचर निक ने यह सिद्ध किया था कि काल द्रव्य एक स्वतंत्र होती है वे सब पुद्गल की ही पर्याय है। वैज्ञानिक भी कर उन्हें मेटर को भिन्न-भिन्न अवस्थाएं मानता है।
इस प्रकार जगत निर्माण मे सहायक जिन छः तत्त्वो मेटर को स्वीकार करने के बाद विज्ञान ने मेटर के का जैन साहित्य मे उल्लेख है उन सभी को आज के वैज्ञादो भेद किए। इस विश्व मे कुछ तो लिविंग सबस्टेन्स है निक भी जैसा का तैसा स्वीकार करते है। और कुछ नोन लिविंग सबस्टेन्स है। लिविंग सबस्टेन्स मे जैनाचार्यों ने प्रत्येक द्रव्य का कोई न कोई गुण माना उन्होंने जीव और पुद्गल को माना है । नोन लिविंग सब- है। वैज्ञानिक भी प्रत्येक सबस्टेन्स को क्वालिटी स्वीकार स्टेन्स मे उन्होने शेष द्रव्यो को माना है। जीव जब गमन करते है। सभी द्रव्यों मे एजिस्टेन्स गुण वैज्ञानिक स्वीकार करता है तो उसके गमन में एक मीडियम होता है। उस करते हैं। उसे ही जैनाचार्यों ने द्रव्यों का अस्तित्व गुण मीडियम का नाम वैज्ञानिको ने ईथर रखा है। जैन ग्रंथों कहा है। वैज्ञानिक सबस्टेन्स को कोई न कोई युटिलिटी में इस गमन के माध्यम मे सहायक को धर्म द्रव्य कहा है। मानते हैं। जितने भी द्रव्य है वे सभी गुण वाले है और मीडियम आफ मोशन-ईथर या धर्म द्रव्य के बिना पुद- गुण वाले होने के कारण उनका कोई न कोई उपयोग है। गल और आत्मा गमन नही कर सकते । वैज्ञानिक ईथर प्रत्येक द्रव्य कोई न कोई क्रिया करता रहता है। इसलिए को नोन लिविंग सबस्टेन्स मानते है जैन ग्रन्थो में ईथर के साइन्स प्रत्येक द्रव्य मे फंगसनेलिटी गुण मानता है। जैन पर्यायवाची धर्म द्रव्य को अरूपी-न दिखाई देने वाला साहित्य मे इसे द्रव्यत्व गुण कहा है। कहा है। उन्होने कहा है कि धर्म द्रव्य मात्र अनुभव की जैन शास्त्रों में कहा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के वस्तु है। वैज्ञानिक भी ईथर को इन्द्रिय ग्राह्य नही मानते रूप को नही ग्रहण कर सकता। उसके गुण भी कभी है। जैसे पानी मछली को गमन करने में सहायक होता है नही बिखर सकते। इस गुण को अगुरु लघुत्व गुण कहा
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२८, वर्ष ४१, कि० ४
अनेकान्त
है। आज के वैज्ञानिक भी यह बात स्वीकार करते हैं कि और दोनों के मिश्रण से बनते है। वैज्ञानिकों ने भी यही द्रव्य-सबस्टेन्स का रूप नहीं बदलता। वैज्ञानिकों ने सब- सिद्ध किया है कि एक मार्क्स नाम की गैस होती है। स्टेन्स का एक गुण यह भी कहा है कि उसका कोई आकार मार्स गैस मे क्लोराईड को प्लस करने से हाइड्रो क्लोरीक होना चाहिए । जैन दर्शन मे इसको प्रदेशत्व गुण कहा गया एसिड बन जाता है। मार्क्स गैस अदृश्य होती है परन्तु है। जैन शास्त्रो मे पेड़-पौधों पे-वनस्पति में चेतन स्वी- क्लोराइड के मिलने से वह चाक्षुश्व हो जाती है। इसी कार की गई है। जैनो की यह मान्यता हजारो कालों से प्रकार जैन सिद्धान्त मे अन्य भो ऐसे प्रकरण मिलते है चली आ रही है। आज के वैज्ञानिको ने बहुन बाद मे जिनकी प्रमाणिकता को नही नकारा जा सकता है। जैन यह सिद्ध कर पाया कि वनस्पति मे भी जान है, वे सांस साहिता मे जैनों को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना, पानी लत है और सास छोड़ते है। प्रत्येक वनस्पति मे जैन छान कर पीना, गेहूं के आटे का कुछ ही अवधि तक मान्यतानुसार बल, आयु, श्वाच्छो वास आदि होते है। सेवन करना, दूध-दही के उपयोग मे सतर्कता रखना आदि वैज्ञानिक भी इस स्वीकार करते है।
की जो शिक्षा दी गई हे वे पूर्णतया वैज्ञानिक है। जैन जो वस्तुयें आखो से दिखाई देती है उनको जैन दर्शन साहित्य मे कर्मवाद का सिद्धान्त बहा विस्तार मे वणित मे चाक्षुश्व कहा गया है। यह चाक्षुश्व पदार्थ भेद संघात हुआ है। यह सिद्धान्त भी पूर्णतया वैज्ञानिक है। नोट:-उक्त लेख दिनांक ११ दिसम्बर १९८८ को आकाशवाणी पर प्रसारित हुआ।
(पृष्ठ २० का शेषांश) मुत्पत्तिः कार्तिकमासे स्वत एव पतनात् ।
और उनकी आचार्य परम्परा २१०१) ___ अर्थ-मयुरपंख की जीवघात से उत्पत्ति हो, ऐसी बम्बई से प्रकाशित श्लोक वातिक की प्रस्तावना मे बात भी नहीं है, क्योकि मोर के १५ कार्तिक मास में लिखा है - - अपनी तत्त्व शका का समाधान करने के लिए स्वय झड़ जाते है उनसे यह बनती है। (पृ० १२३, उमारवामी विह क्षेत्र मे गए थे। मार्ग में उनकी मयुरज्ञानपीठ प्रकाशन)
पिच्छी गिर गई। तब उन्होने गद्ध के पिच्छ से काम D श्रीयुत प्रेमी जी ने जैन हितैषी भाग १०, पृ०
चलाया। इसी से; बाद मे ये गद्धपिच्छाचार्य कहलाए। ३६६ पर ज्ञान-प्रबोध ग्रन्थ से एक कथा लिखी उसमे (कुन्दकुन्द प्राभृतिसंग्रह प्रस्ताव पत्र १३) उसमे कहा है
यदि उक्त सब बाते सत्य है तो शुरू से ही मयुर दो चारण मुनि जो पूर्व भव में कुदकुंद के मित्र थे, पिच्छिका के प्रचलन की सिद्धि हो जाती है। मयूर. कुदकुंद को सीमन्धर स्वामी के समवसरण मे ले गए। पिच्छिका मे पांचो गुण विद्यमान होने से साधु के लिए जब वे उन्हे आकाश मार्ग से भेज रहे थे तो मार्ग मे अनुचित भी नहीं है। पूज्य आचार्य अजितसागर जी कुन्दकुन्द की "मयुर पिच्छिका" गिर गई। तब कुन्दकुन्द (पट्टाधीश) की परम्परा मे तो श्रावकों के माध्यम से ही ने गद के पंखों से काम चलाया। कुन्दकुन्द वहाँ एक अहिंमक विधि से; स्वत: गिरे पंखो की मयुरपिच्छियों सप्ताह रहे और उनकी मब शकाए दूर हो गई। का ही उपयोग किया जाता है। उक्त तीनों प्रश्न इतिहास कुन्दकुन्द प्राभुत संग्रह प्रस्ता० १० ३-४, तीर्थंकर महावीर से सम्बद्ध है; अतः इतिहासज्ञ विशेष प्रकाश डाल सकेंगे।
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जरा-सोचिए !
१. कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी की सफलता ? विचार गिरते गए, इसका हमे दुख है। और-आज
जब सन्देश मिलते है-- श्रीमान जी, हम आचार्यश्री स्थिति यह भा गई कि जो मोटी-मोटी बाते जनेतरो को कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी के उपलक्ष्य म अमूक तिथि में गोष्ठी समझाई जानी थी वे जैनियो को सबोधित करके स्वयं ही या सेमीनार कर रहे है। अनेका विद्वानो की स्वीकृति आ कहनी पड़ रही है । जैसे-- चुकी है। आप भी आइए-विचार प्रकट करने । किराया भाई जैनियो ! रात्रिभोज का त्याग करो, सप्त व्यदोनो ओर का दिया जायगा, कुछ भेट भी देगे। भोजन सनो से बचो, पानी छान कर पियो, नित्य देव दर्शन करो, और ठहरने को सभी सुव्यवस्थाये रहेगी, आदि । अहिंसा आदि चार अणवतो का पालन और पांचवें परि
तब हम सोचते है--क्या लिखे? इन घिसे-पिटे ग्रह मे परिमाण को करो। और पूज्य-पद मे विराजित प्रोग्रामो के सम्बन्ध मे, सिवाय यह सोचने के कि-हम मुनिगम भी अन्तरग बहिरंग सभी भाँति से निर्ग्रन्थ रहने पहुच तो सकते है बिना किराया और भेट लिए ही। और के लिए तीर्थंकर महावीर और कुन्दकन्दवत् निज-ज्ञान, विचार भी प्रकट कर देगे बिना कुछ खाए-पिए भी। पर, निज-ध्यान और निजतप मे लीन रहने की कृपा करें। लोकेषणा के इस माहोल मे सचाई को सुनेगा और मानगा समाज और अन्यों के सुधार चक्करो, भक्तों के अनिष्ट कौन ? सभी तो मान-सम्मान और पैसे के नशे में है- निवारण हेतु मंत्र-तत्र जादू-टोना आदि करने से विरत हों। कोई ज्यादा कोई कम। क्या श्रोताओं और संयोजको के संघ के निमित्त वाहन आदि के संग्रह से विरत हों। लिए गोष्ठी की सफलता (जैसा चलन है) किराया आदि अन्यथा, हमें डर है कि-कही वे स्टेजो, फोटओ, जयकारों देकर, हो हल्ला मचाने-मचवाने तक ही तो सीमित न रह और भीड़ के घिराओ मे ही न खो जाँय और आर्ष-परपरा जायेगी? या होंगे कुछ सयोजक और कुछ श्रोता वहाँ ? से च्युत न हो जाय । वे पूर्वाचायाँ कृत आगमी का अपने जो कुन्दकुन्द जैसे आदर्शों को आत्मसात् करेगे-उनके हेतु अध्ययन करे। यदि आचार्यगण नई-नई रचनाओ के जीवन और उपदेशों को आदर्श मान प्राणपण सेजन पर चक्कर में पड़ेगे तो व भले ही छोड़ी हुई जनता मे पुनः चलने को तैयार होगे? आदि। जैन तो आचार-विचार आ जाँय -नाम पा जाएँ, जिनवाणी का अस्तित्व तो मे समुन्नत होता है । आज तो कई त्यागी भी शिथिल है। खतरे में ही पड़ जायगा--उसे कोई नही पढ़ेगा और
हमें याद है-कभी २५००वा निर्वाणोत्सव भी काल्पनिक नवीन ग्रन्थ ही आगम बन बैठेगे । मनाया गया था। तब बड़ी धूम थी और लोगो में आचाररूप धर्म की रक्षा व वृद्धि करने में ही उत्सव जोश-खरोश भी । तब लोगो ने प्रभूत द्रव्य का हस्तातरण मनाने की सफलता और प्रभावना है। वरना, जैसा चल भी किया। तब बड़े-बड़े पोस्टर लगे,किताब छपी, पण्डाल रहा है, वह बहुत दुखदायी है। कभी-कभी तो श्रावकों बने । सम्मेलन, भाषण और भजन कीर्तन भी हुए। कही- और मुनियो से सम्बन्धित कई अटपटे समाचारो और कही महावीर के नाम पर पार्क भी बने, भवन बने और प्रश्नावलियो के पढ़ने और सुनने से रोना तक आ जाता कई सड़कें भी अपने में महावीर मार्ग नाम पा गई। यह है। जहाँ दिन था वहाँ रात जैसी दिखाई देन है। ऐसा जो हुआ शायद भावावेश में कदाचित् अच्छा हआ हो। क्यो? यह सोचने की बात है। कुछ थोथे नेता नाम पा गए हो उसकी भी हम आलोचना एक ओर जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द की द्विसहस्राब्दी नहीं करते । पर, लोग आचार को दृष्टि से जहा के तहां मनाने के नारे लग रहे है वही दूसरी ओर कुछ जैनी ही भी न रह सके वे स्वय नीचे ही खिसके-सबके आचार- कन्दकुन्द के आचार-विचार को तिलाजलि दे, जैनियो की
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३०, वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
जैन-मान्यताओं को झुठलाने के प्रयत्न में लगे हैं। कोई कालसन्दीपनः काष्ठान्यक्षिपत् । ततः सप्तरात्र सुर्य चेऽस्य आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और महादेव (रुद्र) को एक ही मा विघ्नं कृथास्ततः सिद्धाङ्ग प्रवेश याचन्ती भाले दत्तेव्यक्ति मानने-मनवाने के प्रयत्न में हैं तो कही एक कोशिश ऽतिगता, बिले जाते तृतीय नेत्रमकृत । तेन पिता हतो यह भी है कि महावीर तीर्थकर को मौजूदा निर्धारित मन्माता राजसु घर्षितेति ततो रुद्राख्या। तद्भयात्कालसमय से १२०० साल पूर्व ले जाया जाय, आदि । और सन्दीपनो नश्यन् पुरत्रयं कृत्वाऽईदयोस्तस्थौ, रुद्रेण पुरेषु यह सब कुछ हो रहा है-कुछ विद्वानों, कुछ नेताओं और हतेषु सुर्यः आहुर्वय विद्याः सोऽहत्पार्वेऽस्ति ततस्तेन तत्र कुछ समर्थ श्रावकों की छाया मे-धन के आसरे या यश- गत्वा क्षामितः। अन्य आहुलवणे महापाताले हतस्ततः स लिप्सा में। क्या, ऐसे मे जैन की पहिचान और आत्म- विद्याचक्रयभूत् । त्रिसन्ध्यं सर्वविहरदहतो नत्वा नाट्य कल्याणभूत आचार-विचार सुरक्षित रह सकेंगे? क्या इसी कृत्वा ततो रमते । तस्येन्द्रो महेश्व राख्यां ददौ, स द्विष्टो को द्वि-सहस्राब्दी की सफलता कहा जायगा? जरा सोचिए। द्विजकन्याना शतं शतमन्यस्त्रीश्च रमयति, तस्य नन्दीश्वरो
नन्दी च मित्रे पुष्पक विमान, सोऽन्यदोज्जयिन्या प्रद्योनस्य २. ऋषभ प्रार महेश्वर: दो व्यक्तित्व शिवां मुक्त्वाऽन्यराज्ञीष रमते, राड दध्यौ मारणे क
प्रसिद्ध जैनकोश-अभिधान राजेन्द्र के भाग ६ पृष्ठ उपाय: ? उमा वेश्या सुरूपा तस्मिन्नागते धूप दत्तेऽन्यदा ५६७ मे रुद्र शब्द के अर्थों में एक अर्थ महादेव भी दिया ‘स मुकुलितं प्रबुद्धं च पुष्पं करे लात्वाऽस्थात् स प्रबुद्ध ललो है। वहाँ पर श्वेताम्बर-आगम 'आवश्यकवृहदत्ति' से महा- तयोक्त मुकुलाहस्त्व नाऽस्य, यतोऽस्मासु न रमते । ततदेव की उत्पति की कथा को भी उद्धृत किया गया है। स्तस्यां रतस्त्व कदाऽविद्यः स्याः ? इत्यूमापृष्टोऽवग मैथुनयह कथा प्राकृत भाषा में है। श्वेताम्बर आचार्य भद्रबाहु । क्षणे । राज्ञा तज्ज्ञात्वा स तदोमासहितो घातितस्ततो स्वामी प्रणीत "नियुक्ति' की दीपिका टीका मे भी पृ० नन्दीश्वरः खे शिला कृत्वा तत:, राजा सार्द्रपटो नत्वा १०८ पर ऐमी कथा सस्कृत में निबद्ध है। यही महादेव- क्षामितवान्, सोऽबगीदपेण महेश्वरस्याऽर्चने पुरे पूरेऽस्य महेश्वर जैनियो में ग्यारहवे रुद्र है और इनका समय स्थापने च मुञ्चे, ततो लोकैस्तथा प्रासादाः कारिता इति तीर्थकर महावीर का काल है-भगवान ऋषभदेव के रुद्रोत्पत्तिः ।"-आवश्यक नियुक्तिः दीपिका-पृ० १०८ लाखों वर्षों बाद का काल है। जैन मान्य महेश्वर (रुद्र)
श्वे. जैन मान्यतानुसार उक्त कथा महादेव-महेश्वर की कथा इस प्रकार है :
की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे है। कथा के अनुसार इन महा"अत्र महेश्वरोत्पत्ति:-चेटकजा सुज्येष्ठा दीक्षितो- देव का मूल नाम सात्यकि है और सात्यकि को महेश्वर पाश्रयान्तराता-पयति, इत: पेढाल: परिबाड् विद्यासिद्धो संज्ञा इन्द्र द्वारा प्रदान की गई है और इनको रुद्र भी कहा विद्या दातु नरं दिदृक्षुश्चेद् ब्रह्मचारिण्याः सुत: स्यात्तदा गया है। यद्यपि कथा में उमा, नन्दी जैसे नाम भी है। तस्मै दिद्यां दद इति तस्या धुमिकाव्यामोहेन विद्यया शील- इस कथा में महेश्वर द्वारा नाटय करने का भी उल्लेख विपर्यासः कृतस्तत ऋतुकालत्वादगर्भ जाते ज्ञानिभिरुक्तं है पर ये ज्येष्ठा के पत्र है। ज्येष्ठा महावीर कालीन राजा नंतस्याः कोऽपि दोष इति छन्नं स्थापिता सुतो जातः चेटक की पुत्री है और महावीर और ऋषभ के काल मे श्राद्धगृहे वर्धते । ततः समवसृति गतः साध्वीभिः सह काल- लाखो वर्षों का अन्तराल है फलत: इन महादेव को ऋषभ सन्दीपनो विद्य। भृत्प्रभुमपृच्छत्-कुतो मे भी: ? प्रभुराहा- नही माना जा सकता। ऽस्मात्सत्यकेरिति । स पित्रा हुत्वा विद्याः शिक्षितो महा- दिगम्बरों के आराधना कथाकोश की सत्यकिरुद्र की रोहिणी साधयत्ययं सप्तमो भवः । पञ्चसु विद्यया हतः, कथा भी इसी कथा से प्रायः मिलती-जुलती है। और षष्ठे षण्मासशेषायुषा विद्या न स्वीकृता, इह साधयितु- दोनो ही सम्प्रदाय ऋषभ और महावीर में लाखों वर्षों का मारब्धा । अनाथमृतकचितां कृत्वाऽऽसन्ने आर्द्रचर्म विस्तार्य अन्तराल मानते है। ऐसी अवस्था में भी इन महेश्वर और तवं काष्ठज्वलनावधि वामागुष्ठेन चलति, अत्राऽन्तरे ऋषभ को एक ही व्यक्ति मानने-मनवाने की किन्ही जैन
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जरा सोचिए
विद्वानों की सूझ है? जब कि जैनी तो जैन-कथानक इसका तात्कालिक फल यह हुआ कि लोगों की (प्रथमानुयोग) को अप्रमाण मानेगा ही नहीं और रुचि प्रामाणिक प्राचीन शास्त्रों से हटकर नित नवीन-२ मानेगा तो वह श्रद्धानी नही होगा। इसके सिवाय हमारी रचनाओं के पढने में लग बैठी-कोई पुस्तक खरीदने दृष्टि मे तो उक्त जैन-महेश्वर और त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु, कहीं दौड रहा है तो कोई कही। यानी अब शोलापुर महेश-गत महेश्वर भी पृथक २ दो व्यक्तित्व ही होने और अगास जैसे स्थानों से लोगों का लगाव न के बराबर चाहिए । जैसी कि जैनेतरो की मान्यता है । महेश्वर सहा- जैसा रह गया हो। हां, रक शक्ति कप, ब्रह्मा उत्पादक और विष्णु रक्षा करने में यह तो निश्चय है कि शास्त्रों के पढ़ने में श्रम की तत्पर । उनकी दष्टि मे ये शक्तियां ऋषभ से बहुत पूर्व अपेक्षा है। उनकी भाषा पाकत.संस्मत अ
अपेक्षा है। उनकी भाषा प्राकृत-संस्कृत अप्रभ्र श या की है और ऋषभ को उन्होंने जी आदि अवतार न मान पूर्वकालीन देश-भाषा हिन्दी होने से वे सुगम ग्राह्य न हो बाद का-आठवां अवतार ही माना है। ऐसे में इन रागियों की दृष्टि से उनमें वर्तमान भाषा जैसी चटकमहेश्वर और ऋषभ को भी एक व्यक्ति नहीं माना जा मटक और भाव-भगिमा भी नहीं और ना ही अब उन सकता । दोनो के स्वतंत्र अस्तित्व हैं और दोनो सम्प्रदायो भाषाओं के सरल-बोध देने वाले विद्यालय और मान्य दोनो की महिमाये भी पथक है और दोनों ही अपने
पाठशालायें हैं-वे तो हमारे देखते देखते खंडहर हो गए। में महान् है।
भला, जब पडित ही बे मौत मारे गये, तो उनके आसरे एक ओर तो हम कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी मनाने के नारे भी कहाँ ? सब का लोप हो गया । आप पूछेगे ऐसा क्यो लगाए और दूसरी ओर शक्ति, समय और पैसा बरबाद हुआ? सो यह मत पूछिए , इसकी कहानी बड़ी लम्बी कर जैनाचार्यों की सही कथनी और आचार प्रक्रिया पर और दर्दनाक है-फिर कभी सुना देगे-पडितो और पानी फेरे-यह कैसे न्याय्य है ? वर्तमान वातावरण को सस्थाओं के लोप में समष्टि का ही हाथ है। खैर, देखते हुए हम तो यही उचित समझ है कि हमारा सारा अब समय ऐसा आ गया है कि समाज को इस जोर ऐसी निरर्थक शोधो मे हट जैन की चारित्र-शुद्धि पर दिशा मे सावधान होना चाहिए। प्राचीन मूल आगमो के हो, प्राचीन मूल-आगम रक्षा पर हो, इसी मे द्विसहस्राब्दी अधिक संख्या में पठन-पाठन और प्रचार के उपाय होने की सार्थकता है-इसे सोचिए ।
चाहिए । उनमें अनुकूल-मूल भी विभिन्न भाषाओ मे दे
दिए जाय । इस दिशा में प्रगति के लिए जगह जगह ३. क्या कभी शास्त्र भी नहीं मिलगे! पाठशालायें खले, जिनमें मल के अर्थ पढ़ाने का प्रबन्ध
समाज मे काफी अर्से से चिन्ता व्याप्त है और जगह- हो। तभी आगम सुरक्षित रह सकेंगे। जगह चर्चा भी होती है कि अब विद्वान नहीं मिलते। आपने देखा होगा- अन्यमतावलम्बियो मे वेद, पर, हमे तो इसके सिवाय कुछ और ही दीखता है-अब गीता, उपनिषद, गुरु ग्रन्थसहित और करान के लोगो बहत कुछ वातावरण ऐसा भी बनता जा रहा है कि कुछ की श्रद्धा मे आज भी वे ही स्थान है जो पहिले जमाने काल बाद ऐसी भी आवाज आने लगगी कि पढ़ने को मे थे । जब कि हमारे बहत से जैनी अपने शास्त्रो के नाम शास्त्र ही नहीं मिलते-नई किताबो के ढेर है। कारण तक नही जानते-वे आधुनिक रचनाओं को ही शास्त्र यह कि लेखक अपनी भाव-भगिमा में नित नए-नए रोनक मान रहे है। जरूरत इस बात की है कि नई रचनाओं के ग्रन्थो का निर्माण करने मे लग बैठे है-कुछ का यह व्या- प्रकाशन व निर्माण मे व्यय होने वाली शक्ति और धन पार आर्थिक दृष्टि से है और कुछ लोग अपना नाम- को रोका जाय और उसका सदुपयोग प्राचीन आगमो की यश छोड जाने की लालसा में इन्हें लिखते है कि मर जाने रक्षा में किया जाय । अन्यथा, वह समय दूर नहीं जब के बाद लोग कहें-अमुक विद्वान ने अमुक ग्रन्थ लिखे। लोग यह कहने को मजबूर होगे कि ---अब शास्त्र ही नही वे सोचते हैं-'गर तू नहीं तेरा तो सदा नाम रहेगा।' मिलते। जरा सोचिए !
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१२,बर्ष ४१, कि०४
मनेकान्त
४. प्रतिष्ठा में उभरे प्रश्न :
(६) क्या, आमूर्तिक सिद्ध भगवान का चरम प्राकार समाज में पंचकल्याणक उत्सवों का प्रचलन प्राचीन
अरहनों की प्रतिमा के समान सशरीर (मूर्तिक) है और पचकल्याणक अब भी होते हैं। कहा जाता : ऐसी
रूप मे और छत्रयुक्त बनाए जाने का आगम में सब क्रियायें मूनि-शुद्धि के बहाने धर्म प्रगवना के लिए
विधान है ? और तीर्थंकर-चरित्रों को आत्मसात् करने लिए होती
(७) क्या, जीवो की रक्षा निमित्त अग्नि, धूप, दीप
और होम का निषेध करने वाले हमारे तेरापंथ है। बीच के काल मे जब जैन सामान्य मे पन्थ होते हुए भी परस्पर भेद-भाव का जोर नही पनपा था; तब पंच.
सम्प्रदाय की प्रतिष्ठानों में बड़े-बड़े आरम्भिक कल्याण को, प्रतिष्ठाओं आदि की प्रक्रियाओ के सम्बन्ध में
क्रियाकाण्ड करने कराने और हजारों २ बल्बों भेद उजागर नही थे । आज जब तरा, बोस का चक्कर
के जाने आदि मे अहिंसा कायम रह जाती जोरो पर पहुंच गया तब लोगो में नए-नए प्रश्न उभर कर
है ? या ये हमारे थोथे आडम्बर है ? सामने आने लगे-लोग आचार्यों तक के पास निर्णयो को (८) क्या, अभिषेक-इन्द्र-सारथी आदि और पीछीपहुंचने लगे-हाला कि आज के साधु भी पथ-वाट
कमण्डलु की बोली लगाकर पैसा इकट्ठा करने फंसे है।
का आगम मे विधान है ? जरा-सोचिए ! गत दिनो स्थानीय कैलाशनगर-दिल्ली में हुई प्रतिष्ठा के बाद यहां अनेको प्रश्न उभरे है और कई लोगो ने किमी ५. क्या ऐसे नहीं हो सकतों प्रतिष्ठायें ? मूर्ति के आमरे को लेकर हमसे कुछ समाधान भी चाहे है। हो सकता है कभी हमारे पूर्वजो ने धन दिया हो। पर, हम निवेदन कर दें कि हम उस प्रतिष्ठा म न जा पर, हम तो दान नहीं, अपितु वांछित यश की कीमत ही सके और न ही हमें प्रतिष्ठा विषयक कुछ ज्ञान है । प्रति- अग्रिम चुका रहे हैं। हम कहो किसी को जो दे रहे है ष्ठाओ के विषय में तो पागम और प्रतिष्ठाचार्य ही प्रमाण प्रशसा के लिए ही दे रहे हैं। ज्यादा क्या कहें ? आज तो होते है-वे जैसा निर्णय ले। प्रश्नों को हम ज्यो के त्यो प्राग लोग धन के बहाने धर्म को भी पापार बना बैठे लिख रहे है। आशा है निष्ठाचार्य गण कोई निराकरण है-धर्म को विकृत कर रहे है। जैसे---हमने कभी नहीं देंगे। यदि कोई निराकरण हमारे पास आए तो पाठको सुना कि कही शास्त्रो में ऐसा उल्लेख हो कि चन्दा इकट्ठा के लाभार्थ यथा शक्ति हम छाप भी देंगे।
करके चौका लगा हो और किमी मुनि ने-उममें आहार प्रश्नावली:
लिया हो । यह प रपाटी तो सदावों जैसी हुई-3द्दिष्ट (१) पंचकल्याणक तीथंकरो के ही होते है या सामा. आहार से भी बदतर जैसी ही हुई । मुनि उसमें क्यों और ___न्य सभी अरहतो के भी?
किस विधि से आहार ले सकते हैं ? वे तो लौट जाएंगे। (२) क्या आगम में आचार्य उपाध्याय और साधु की यदि अब के ई लेते हों को यह शास्त्रों के विपरीत चर्या ही
प्रतिमायें बनने का विधान है ? यदि हाँ तो- होगी। (३) क्या, इनकी मूर्तियो की प्रतिष्ठा का पंच कल्या- आज ठीक ऐसी ही परम्परा कई पचकल्याणको के ___णको में विधान है ? और इन पर छत्र क्यो? कराने में भी देखी जा रही है। लोग चन्दा इकट्ठा करते (४) सप्तषियो की प्रतिमाओ का चलन कोन से पथ है और पचन ल्याणक कराने का झण्डा गाड़ देते है। का है-आगम प्रमाण दें।
उनका लक्ष्य होता है-चन्दा इकट्ठा कर खर्चे की पूर्ति (५) क्या, सहारा देने के लिए प्लेट मे पेचों से कस करना और कुछ बचा भी लेना । और वे इसमे सफल भी
कर खड़ी की गई मति (छेदित होने के कारण) होते है-'हर्रा लगे न फिटकरी रग चोखा ही आय।' खडित नहीं होती? क्या ऐसी मूर्ति प्रतिष्ठा के इस तरह पचकल्याणक भी हो जाते है और कही-कहो तो योग्य होती है ?
अच्छी खासी बचत भी हो जाती है। और वह अन्य धार्मिक
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या सामाजिक कार्यों के लिए रिजर्व रख ली जाती है । इस की सुविधायें भी तो मिल जाती हैं। पर सोचना यह है प्रकार धूम फिर कर समाज का द्रव्य समाज के पास ही कि क्या इस सबके लिए ऐसी बडी द्राविड़ी-प्राणायामो के सुरक्षित रह जाता है जो पहिले व्यष्टि रूप में था वह सिवाय कुछ और मी सरल मार्ग हो सकते हैं ? सभी अव समष्टि रूप में हो जाता है और व्याज में मिल जाती जानते हैं कि हमारे यहां णमोकार मत्र महामत्र माना गया है मतियों की प्रतिष्ठा। ऐसे मे दान और धर्म कहाँ हुआ? है। इसके प्रभाव मे कठिन मे कठिन सकट तक टल भावो मे तो उस दान-द्रव्य के प्रति स्वत्व है। बैठा रहा। जाते है और यह आत्मा तक को शुद्ध कराने में समर्थ है दान नो वहां होता है जहा स्वत्व का त्याग हो और धर्म और मुनिगण भी हर बाह्य-अन्तरग शुद्धि के लिए प्रतिवहाँ होता है जहाँ आत्मा में निखार हो। यहाँ तो ममत्व मण मे इसका उपयोग करते हैं। तो क्या मूर्ति को शुद्धि, और राग के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं हआ। उलटा प्रतिष्ठा के लिए इस मंत्र के लाखो लाखो जपों का प्रयोग ममत्व-और वह भी दान के--पर के सामहिक द्रव्य के करके मूर्ति की प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न नही किया जा मंरक्षण आदि मे बना रहा । जब कि जैन धर्म अपने द्रव्य सकता? शुद्धि और संकट निवारण के लिए मरते दम मे भी ममत्व के त्याग का उपदेश देता है।
तक इस मत्र का जप किया जाता है। कहा भं हैपहिले नही सुना गया कि मूर्ति निर्माण, पचकल्पा- 'एसो पच णमोयारो, सव्वपावपणासणी। णक या गजरय आदि कभी चन्दे से होते रहे हों-चन्दे की
मगलाणं च सम्वेसि पढम होइ मगल ॥' परिपाटी तो इसी काल मे पडी दिखती है। पहिले तो ऐसे हम बिना किमी पूर्वाग्रह के जानना चाहते है कि, पुण्यकार्य किसी एक के द्रव्य से ही होते रहे सुने है और ऐसे प्रतिष्ठाओ में जो बोली, चन्दे चिटठे और दिखावे म ही ममत्व-त्याग सभव है-चन्दे का प्रश्न ही नहीं। इन्हे आदि जैसे अनेकों आडम्बर घुम बैठे है वे कहा तक धर्म कगने वाला व्यक्ति उदारभाव से निःशल्य होकर द्रब्य । सम्मत है। हमारी दृष्टि से या तो प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाका सदायोग करता था। संपादन कराने वाले को स्व- शास्त्रों के अनुसार बिना किन्ही आडम्बरो के हो यदि नही स्यातिमर्ग में रुचि होती थी ! वह बोलियो जैसी कुप्रथाओ तो, क्या प्रतिष्ठा के निमित्त कोई ऐमी व्यवस्था उपयुक्त के सहारे सग्रह नहीं, अपितु स्वय की शक्ति के अनुसार न होगी कि सामूहिक रूप मे णमोकार मत्र के लाखोस्वय के द्रव्य से प्रतिपादित कराता था। जा, वह भी लाखो की संख्या में जा कर लिए जायं। इसमे मति तो कोई धर्म है जिसमें अभिषेक, पूजा, आदि जैसे अधिकारो प्रतिष्ठित होगी ही, मत्र जप करने से मैकडो-हजारों की खरीद फरोख्न गयो से होती हो; इन्द्र और मारथी भक्तो के तन-मन भी पवित्र होगे। बड़े से पण्डाल में जब आदि के आसन रुपयों में विकते हो; आदि । क्या जैनियो हजारो भक्त धोती दुपट्टा पहिने मन्द स्वर में मत्र बोल मे भी ब्रत-ता आदि से प्राप्त होने वाली पदवियाँ भी रहे होगे तब सा ओर ही होगा और व्यर्थ के झझटो से पैसे से खरीदी जा सकती है ?
मुक्ति भी होगी। तब न तो गाजे बाजे का प्रबन्ध करना निःसन्देह इसमे शक नही कि चाहे कार्य कैसे ही पड़ेगा और न ही प्रभूत द्रव्य की चिन्ता होगी। परिग्रह किन्ही उपायों से भी सपन्न हए हों, चन्दे या बोलियो से और आरम्भ से भी छुटकारा मिलेगा-जो जैन धर्म का ही सही-भविष्य मे तो लोगो को धर्म के आधार होते ही मुख्य लक्ष्य है। जरा सोचिए ! है। प्रतिष्ठाये होती है तो जनता को सदा-सदा दर्शन पूजन
-सम्पादक
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