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________________ समयसार का दार्शनिक पृष्ठ अभिप्रेत है। चूंकि इसमें उन्होंने समय-आत्मा के सार- को अतिशय अभीष्ट है। शुद्ध हा का कथन किया है, इससे उसे "समयसार" भी समयसार में दार्शनि क दृष्टि कहा जा सकता है । कुन्दकुन्द ने गाथा ४१३ में इसका यद्यपि समयपाहुड अथवा समयसार मूलतः भी उल्लेख किया है। किन्तु यहा उन्होंने "समयपाहुड" आध्यात्मिक कृति है। इसके आचार्य कुन्दकुन्द ने आरम्भ के वाच्य शुद्ध आत्मा के अपने "समयसार" पद का प्रयोग से लेकर अन्त तक शुद्ध आत्मा का ही प्रतिपादन किया किया है। उत्तरकाल मे तो "समयपाइड" के प्रथम है और उसी का श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी को प्राप्त व्याख्याकार आचार्य अमतचन्द्र (दशवीं शताब्दी) के वाच्य कर उसी मे स्थिर होने-रमने पर पूरा बल दिया है।" और वाचक दोनो मे अभेद-विवक्षा (एक मान) करके यही कारण है कि उन्होंने मंगलाचरण में अरहन्तों को "समयाहुड" (चक) को ही "ममयसार" (वाच्य) कहा नमस्कार न करके पूर्ण शुद्ध; अबद्ध और प्रबुद्ध समस्त है और इसी आधार पर उन्होने अपनी व्याख्या के आद्य सिद्धो की बन्दना की है।" तथापि उसे (शुद्ध आत्मा को) मगलाचरण में "नमःममयसाराय" आदि कथन द्वारा उन्होने दर्शन के द्वारा ही प्रदर्शित किया है। दर्शन का "समयसार" का उल्लेख करके उसे नमस्कार किया है। प्रयोजन है कि किसी भी वस्तु की सिद्धि प्रमाण के द्वारा और उसे सर्व पदार्थों से भिन्न चित्स्वभावरूप भाव (पदार्थ) करना और कुन्दकुन्द ने उसमें उस एकत्व-विभक्त शुद्धात्मनिरूपित किया है तथा वे यह मानकर भी चले हैं कि तत्व की सिद्धि स्पष्ट तया रविभव (युक्ति, अनुभव और "समयसार" "समयपाहड" है। तभी वह यह कहते है कि । आगम से प्राप्त ज्ञान) द्वारा करने की घोषणा की है। "समयसार" की व्याख्या के द्वारा ही मेरी अनुभूति की। स्वविभव को स्पष्ट करते हुए व्याख्याकारों ने कहा है" परम शुद्धि हो। ऐसा भी नही कि अमतचन्द्र "समय- कि कुन्दकुन्द का वह सब विभव आगम, तर्क, परमगुरूपदेश पाहड" नाम से अरुचि रखते हो, क्योकि पहली गाथा की और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । इसके द्वारा ही उस शुद्ध आत्मा व्याख्या में न केवल उसका उन्होने उल्लेख किया है. अपितु __ को समयसार मे सिद्ध किया गया है। उसे "अर्हत्प्रवचनावयव" कहकर उसका महत्त्व भी प्रकट आत्मा द्वैतवादी उपनिषदो एव वेदान्त दर्शन में भी किया है। वास्तव में उनकी दृष्टि नाम की अपेक्षा उनके आत्मा को सुनने के लिए श्रुतिवाक्यों, मनन (अनुमान) अर्थ की ओर अधिक है, क्योकि नाम तो पोद्गलिक करने के लिए उपपत्तियो (युक्तियों) और स्वयं अनुभव (शब्दात्मक) है और अर्थ चित्स्वभाव शुद्ध आत्मा है। इसी करने के लिए स्वानुभव प्रत्यक्ष (निदिध्यासन:) इन तीन कारण उन्हें इस ग्रन्थ को "समयसार" कहने और उसकी प्रमाणो को स्वीकार किया है। उस प्राचीन समय मे किसी महिमा गाने मे अपरिमित आनन्द आता है। आगे भी भी वस्तु की सिद्धि इन प्रमाणों से ही की जाती थी। उन्होने गाथाओ पर रचे कलशों और उनकी व्याख्या मे साख्यदर्शन में भी अपने तत्वों की सिद्धि के लिए यही तीन "समयसार" नाम का ही निर्देश किया है। आचार्य प्रमाण माने गये है।“ अत: कुन्दकुन्द के द्वारा दर्शन के अमृत चन्द्र के बाद तो आचार्य जयसेन ने भी अपनी अंगभूत इन तीन प्रमाणों से उस शुद्ध आत्मा को सिद्ध तात्पर्यवृत्ति (व्याख्याः) मे "समयसार'' नाम ही दिया करना स्वाभाविक है। है।" और "प्रभृत" का अर्थ "मार' कर के उससे समयपाहुड स्वरुचिविरचित नहीं : आगम और युक्ति उन्होने "शुद्धावस्था" का ग्रहण किया है।" ५० बनारसी का प्रस्तुतिकरण दास, प० जयचन्द्र आदि हिन्दी टीकाकारों ने भी "समय- सब से पहले कुन्दकुन्द यह स्पष्ट करते है कि मैं उस सार" नाम को ही ज्यादा अपनाया है। यह नाम इतना "समयपाहुड" को कहूंगा, जिसका प्रतिपादन आगम, श्रुतलोकप्रिय हुआ कि आज भी जन-जन के कंठ पर यही नाम केवली और केवली के द्वारा किया गया है। इससे वे अपने विद्यमान है, "समयपादुड" नाम कम । किन्तु ग्रन्थ का "समयपाहुड" को स्वरूचिविरचित न होने तथा श्रुतकेवली मूल नाम "समयपाहुड' ही है, जो ग्रन्यकर्ता आ० कुन्दकुन्द कथित होने के प्रमाण सिद्ध करते हैं। इसके अतिरिक्त
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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