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________________ समयसार का दार्शनिक पृष्ठ C डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य प्राथमिक : आ: कुन्दकुन्दकी रचनाएँ, उनकी भाषा और प्रभावित और उस भाषा के प्रकाण्ड पंडित बने होंगे। उनका प्रभाव तभी उन्होने शौरसेनी प्राकृत मे विपुल ग्रन्थ रचे । उनका "समयसार" आचार्य कुन्दकुन्दकी, जिन्हें शिलालेखो तमिल भाषा मे रवा "कुरल" एकमात्र उपलब्ध है, जिसे में "कोण्डकुन्द" के नाम से उल्लेखित किया गया है,। तमिलभाषी "पंचमवेद'' के रूप में मानते है । कुन्दकुन्द के एक उच्च कोटि की आध्यात्मिक रचना है। यो उन्होने उत्तरवर्ती शतश आचार्यों ने भी शौरसेनी प्राकृत मे प्रचुर अनुश्रुति अनुसार ८४ पाहुडो (प्राभृतो-:पहार स्वरूप ग्रन्थो की रचना की है। प्रकरण ग्रन्थो') तथा आचार्य पुष्पदन्त-भूनावली-द्वारा शौरसेनी-प्राकृत साहित्य के निर्माताओं में आचार्य रचित "षड्खण्डागम" मूलागमकी विशाल टीका की भी कुन्दकुन्द का निस्सदेह मूर्धन्य स्थान है। वे यशस्वी प्राकृत रचना की थी। पर आज वह समग्र ग्रन्थ-र।शि उपलब्ध साहित्यकार के अतिरिक्त मूल-सघ के गठन कला के रूप नही है फिर भी उनके जो और जितने ग्रन्थ प्राप्त है वे मे भी इतने प्रभाव गाली रहे है कि ग्रन्थप्रशस्तियो, शिलाइतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उनसे समग्र जैन वाङ्गमय समद्ध लेखो एव मूर्ति-लेखनो के सिवाय शास्त्र-प्रवचन के आरभ एवं देदीप्यमान है। उनके इन ग्रन्थो का, जिनकी संख्या मे और मगल-क्रियाओं के अवसर पर "मंगलं भगवान् २१ है, परिचय अन्यत्र दिया गया है। वीरों" आदि पाठ्य द्वारा तीथंकर महावीर और उनके ____ ध्यातव्य है कि कुन्दकुन्द ने अपने तमाम ग्रन्थ उस प्रथम गणधर गौतम इन्द्रभूति के पश्चात् उनका भी बड़ी समय की प्रचलित प्राकृत, पाली और सस्कृत इन तीन श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है। इसमे आचार्य भारतीय प्रमुख भाषाओ में से प्राकृत मे रचे हैं। प्रश्न हो कुन्दकुन्द का एक महान् एव प्रामाणिक आचार्य के रूप मे सकता है कि कुन्दकुन्द ने अपनी ग्रन्थ-रचना के लिए सर्वाधिक महत्त्व प्रकट होता तथा उनके धवल यश की प्राकृत को क्यो चना, पालो या संस्कृत को क्यो नही प्रचुरता स्थापित होती है। चना ? इसके दो कारण ज्ञात होते है। एक तो यह कि समयसार : समयपाहड : नाम-विमर्श प्राकृत साधारण जनभाषा थी--उसके बोलने वाले । इतना प्राथमिक कहने के बाद हम कुन्दकुन्द की सामान्य-जन अधिक थे और कुन्दकुन्द तीर्थकर महावीर प्रस्तत मे विचारणीय कृति के नाम के सम्बन्ध मे कछ के उपदेश को जन साधारण तक पहुचाना च हते थे। विचार करेंगे । दूसरे षड्खण्डागम, कसायपाहुड जैसे दिगम्बर आगम-ग्रन्थों उनकी इस महत्त्वपूर्ण कृति का मूल नाम समयसार के प्राकृत शौरसेनी, मे निबद्ध होने से उनकी सुदीर्घ है या समय-पाहुड ? मूलग्रन्थ का आलोडन करने पर परम्परा भी उन्हें प्राप्त थी । अतएव उन्होंने अपनी ग्रन्थ- विदित होता है कि इसका मूल नाम "समयपाहुई" है। रचना के लिए प्राकृत को ही उपयुक्त समझा । उनको यह कुंदकुंद ने स्वयं ग्रन्थ के आरम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थप्राकृत शौरसेनी-प्राकृत है। यद्यपि कुन्दकुन्द की गात- प्रतिज्ञा गाथा मे समस्त सिद्धान्तों की वन्दना करके भाषा तमिल थी और बे तमिलभाषी थे। किन्तु वे अन्तिम “समयपाहुड' ग्रन्थ के कथन करने का निर्देश किया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में उत्तर भारत से दक्षिण और ग्रन्थ का समापन करते समय भी उसका इसी नाम भारत में जो विशाल मुनि-श्रावक संघ गया था और जो से समुल्लेख किया है। इससे अवगत होता है कि ग्रन्थशौरसेनी-प्राकृत का पूरा अभ्यासी था उससे कन्दकुन्द बहुत कार को इसका मूल नाम "समयपाहुड" (समयप्राभूत)
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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