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________________ २७ (जैसे-- मृच्छ० शकु० आदि) से चुने। इसका तात्पर्य ऐसा है कि गौरसेनी दि० आगमो की भाषा नहीं है यदि दि० आगम शौरसेनी के होते तो शौरसेनी शब्दरूपों की पुष्टि में उदाहरण दि० आगमों से दिये गये होते । (घ) 'जै०शौर०, शौर० भाग० और प० रूप बहिणी (चार) जैन- शौरसेनी ( भाषाओं का संगम ) : जो बचिणी से निकला है। - पंरा २०४ दि० आगमों मे अर्धमागधी के शब्दों का भी प्रयोग है और अन्य भाषा के शब्दो का भी प्रयोग है अर्थात् इसमे किमी एक भाषा के शब्दरूपो का बन्धन नही है -ये भाषा मुक्त भाषा है। विशल ने स्वयं जैन शौरसेनी का अर्धमागधी से अधिक मेल बताया है और इसीलिए दि० आगमों में 'ता', 'ग' आदि जैसे रूप (जो अर्धमागधी के है पास जाते है। शिल के शब्दों मे (क) का जो अर्धमागधीरूप है। (स) 'जैन शौरसेनीका अर्धमागधी से क्या कुन्दकुन्द भारती बदलेगी ? (ल) जैन शौरसेनी और शोरसेनी मे ओसह शब्द काम में लाया जाता है । पैरा ६१ अ० - (ग) नं० शर० और शौर० में बोसह रूप भी चलता है । पैरा २१५ (च) 'जं० शौर०, शौर०, माग०, ढ० मे तथा अप० मे त का द और थ का ध है। पैरा १६५ (छ) 'जं०शौर०, शौर०, माग० और ढ० में मौलिक द और ध बने रह जाते है ।' पैरा १६५ (नोट -- दोनो भाषाओं के नाम पर्ध-विराम देकर पृथक्-पृथक् बतलाए है | ) (दो) दोनों के शब्द रूपों में भेद : (क) 'जैन शौरसेनी म रयण रूप पाया जाता है । शौरसेनी म रदण का व्यवहार हाता । - पैरा १३१ (ख) जैन शौरसेनी में बगह रूप है किन्तु शौरसेनी मे वृषभ के लिए सदा सह आता है। (ग) जं० शौर० जध, शोर जधा शौर और माग० तथा ।' ४६ जे०शोर तथ - पैरा १६५ मे बोली के रूप रूप बन जाता ( तीन ) दोनों के साहित्य में भिन्नता. डॉ० पिशल ने जैन शौनी के शब्द रूपो में अन्यभाषारूपों से वृत्रता सूचक भी उदाहरणों का चयन दि० आगमग्रन्थो (जैसे पवयणसार, कत्तिगेया० आदि) से किया तथा शौरसेनी के सभी उदाहरण जनेतर ग्रन्यो आद्ये परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत्, मतिपूर्वं श्रुतम् ।" १० सू १-६, १०, १२, २० । २१. दुष्टमविरुद्ध प्ररूपण युक्तयनुशासनते युवत्यनुशासन, कारि० ४८ २२. एओ समज सवस्य सुदरो लोए ।। बंधका एयस्ते तेष विसवादणी होई ॥ ३ ॥ १२१ अधिक मेल -पैरा २१ (ग) क का ग में परिवर्तन अर्धमागधी की विशेषता १६ स्मरण रहे भाषा सम्बन्धी यह आवाज हमारी ही नही अपितु पूर्वाचार्यो की भाषा से फलित और प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड दिव । त-विद्वानो से सम्मत है । पहिले भी आगम के रूप को बदलना घातक हुआ है और आगे भी धानक होगा, भले ही अर्थ मे अन्तर न पड़ता हो । भविष्य में लोग भी अपनी बुद्धि से, सशोधन की परम्परा बना लेंगे और आदम का लोप होगा। इसे विचारिए - कुन्दकुन्दी के समारोह मे । धन्यवाद ! ( पृ० १२ का शेपा) २३. णा वि होदि अपमन्तो ण पमत्तो जाणजो दु जो भावो । एवं भणति शुद्ध णाओ जो सो उ सो चेव ॥ ६ ॥ यवहारेणुर्वादिसह गाणिस्स परित दंसणं णान । ण विणाणं ण चरित ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥ ७ ॥ २४. जहण विसक्कमणज्जो अणज्जभास विणा उगाहेउ । तह ववहारेण विणा परमत्युव देसण मसक्क ॥ ८ ॥ २५. बद्वारोऽभूत्यो भूयस्थो देखिदो दु सुद्धणी । भूयत्यमस्सिदो, खलु सम्मादिट्ठी हव जीवो ॥११॥ है । २६. "प्रमाणनयात्मको न्यायः । " -धर्मभूषण, न्यायदीपिम, पृ० ५ १ २७. बहारो भादि जीवो देहो य हवदि खल एक्को । ण दु गियरस जीवो देदो म कदा दिएको । -सा० पा० गा० २७ । चेदिहारणयभगिद २८. जीवे कम्मं वपु सुगयस्य जीव अवद्धपुछ हम कम्मं ।। १४१ २६. क्रम्म बद्धमबद्ध जीवे एव तु जाण णयपक्खं । पखातिक्कन्तो पुण मण्णदि जो सो समयसारो ॥ वही गा० १४२ । ३०. वही गा० १०१, १०२, १०२, १०४, १०६। ३९. वही, गा० २८८, २६६, २६०, २६१, २६२ । ३२. वही, गा० ३४० " एव सखुवदेस जे उपरूविति एरिस समणा । ३३. वही, गा.३४७, ३४. वही, गा० ३४८ ॥
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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