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________________ २० वर्ष ४१, कि० १ अनेकान्त इसी प्रकार अन्य प्रचुर शब्द हैं जो विभिन्न रूपों में दि० जैन आगमों में प्रयुक्त किए गए हैं और कई ऐसे भी शब्द जो शौरसेनी के नियम में होते हुए भी इन ग्रागमों मे कही कही नही लिए गए है। जैसे शौरसेनी में एक सूत्र है--'इ] [अ] द्रणी] क्त्वः - प्राकृत शब्दानुशासन, ३ / २ / १० इसका अर्थ है- शौरसेनी मे क्त्व प्रत्यय को इ अ और दूग ये आदेश होते हैं। इसके अनुसार 'समय पाहू' के मगलाचरण के 'वंदित्तु' शब्द के स्थान पर 'वन्दिग्र या बंदिण' होना चाहिए जो नहीं हुआ। इससे तो ऐसा हो सिद्ध होता है कि यदि समयसार शौरसेनी का आगम होता तो यह 'प्रथमे ग्रासे - ( मगलाचरण के प्रथम शब्द में) मक्षिकापात:' न होता । आज स्थिति ऐसी है कि बाज लोग जैन-शौरसेनी के नियमों की अवहेलवा कर आगम में आए शब्दों को बदल रहे है । जैसे-- पुग्गल को पोंगल, लोए को लोगे, एइ को एदि, वत्तुं को वोत्तु आदि । प्रवचनसार में पुग्गल और पोमल दोनो रूप मिलते है-गाया २/७६, २/२३, २ / ७८, पिशल मे लिखा है 'जैन-शौरसेनी मे पुग्गल' रूप भी मिलता है' - पेरा १२४; षट्खण्डागम के मंगलाचरण- मूलमंत्र णमोकार मे 'लोए' अक्षुण्ण रूप में पाया जाता है जो आबाल-वृद्ध सभी मे श्रद्धास्पद है। पिशल लिखा है प्राकृत मे निम्न उदाहरण मिलते है'एति' के स्थान में 'एड' बोला जाता है, 'लोके' को 'लोए' कहते हैं। १०६६ यदि सभी जगह 'द' को रखना इष्ट होगा तो 'पढम होइ मगलं" इस आबाल-वृद्ध प्रचलित पद को 'पडम होदि मगन' रूप में पढ़ना पड़ेगा जैसा कि चलन जैन के किसी सम्प्रदाय मे नही । - यद्यपि प्राकृत वैयाकरणियों ने जैन शौरसेनी को प्राकृत को मूल भेदो मे नही गिनाया, तथापि जैन साहित्य में उसका अस्तित्व प्रचुरता से पाया जाता है । दिगम्बरसाहित्य इस भाषा से वैसे ही ओत-प्रोत है जैसे श्वेताम्बर मान्य आगम अर्धमागधी से सम्भवतः उत्तर से दक्षिण में । जाने के कारण दिगम्बराचार्यों ने जैन-शौरसेनी को जन्म दिया - प्रचार की दृष्टि से भी ऐसा किया जा सकता है। जो भी हो, यह दृष्टि बड़ी विचारपूर्ण और पैनी है । इससे जैन सिद्धान्त को समझने मे सभी को पासानी हुई होगी और सिद्धान्त सहज प्रचार में आता रहा होगादेश-देश के शब्द आचायों ने इसीलिए अपनाए होंगे - शूरसेन जनपद में आए तो उन्होने शौरसेनी शब्द लिए और महाराष्ट्र में गए तो कुछ महाराष्ट्री रूप । इस तरह जैन आगमों की भाषा जैन-शौरसेनी' बनी दिखती है। हम स्मरण दिला दें कि हमें देव शास्त्र गुरु के प्रति और निर्धन्य वीतराग जिनधर्म के प्रति जैसी श्रद्धा बनी है, वह दिगम्बर समाज के व्यवहार से ही बनी है। कही निराशा और कही आशा इन दोनो ने ही हमें वस्तु स्वरूप-चिन्तन की दिशा दी है। फलतः धर्म-समाज के हित में जो भाव हमें उठते है, लिख देते हैं-लोग समझते हैं- यह हमारी खिलाफत करता है। हमे याद है-कभी हमने 'अनुत्तर योगी' की भी ऐसी ही विसंगतियो की ओर पाठकों का ध्यान खीचा था और प्रबुद्धों ने हमारा साथ दिया । जिन लोगो को तब पछतावा नही हुआ था, वे तब जागृत हुए जब आचार्य दुलमी की सस्था से 'दिगम्बर-मत' शीर्षक द्वारा दिवम्बरो पर चोट की गई। वे भी विरोध को बोला उठे सैर, 'देर आयदुरुस्त आयद ।' हम चाहते है -देव-शास्त्र-गुरु के मूलरूपों में किसी प्रकार की विसंगति न हो और समाज सावधान हो । यदि आगमों के मूल शब्दरूपों में बदलाव आता है तो निश्चय समझिए - आगम विरूप और लुप्त हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं हम नहीं चाहते कि जैसे हमारी शिथिलता से, हमारे दि० गुरुओ मे विरूपता आने लगी है वैसे आगम भी दूषित हो यतः आगम मार्ग-दर्शक और मूल है, गुरु के रूप को भी नहीं सभारता है और मोक्षमार्ग का सकेत भी वही देता है । आशा है - प्रबुद्ध वर्ग हमारी विनती पर ध्यान देगा | एक बात और स्वार्थसूत्र में देवों के प्रति एक स्वाभाविक नियम है परिग्रहाभिमानतो होनः ।'अर्थात् ऊपर-ऊपर के स्वर्ग-देवों में परिग्रह और अभिमान हीन है। जब कि देव अवती हैं। ऐसी स्थिति मे हमें सोचना है कि कही व्रत धारण करने के शक्तिधारी हम, देवगति से हीन तो नहीं हो रहे जो 'परिग्रहाभिमानतो हीनः' की अवहेलना कर, देव-शास्त्र-गुरु के रूप को विरूप करने मे लगे हों । ! O .
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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