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________________ 8 पागम के मूल रूपों में फेर-बदल घातक है को 'उ' हुआ है-वह अन्य प्राकृतो के नियमो से हुआ दिगम्बर जैन आगमों में उपलब्ध विविध प्रयोगहै । तथाहि . षट् खण्डागम [१-१-:1 बधयध भाम् ।-त्रिविक्रम १/३/२० से भकोह (महाराष्ट्री)। (क) (महाराष्ट्री के नियमानुसार 'द' को हटाया) 'जैवात्रिके परभते संभृते प्राभते तथा ।'-प्राकृत उप्पज इ (दि) पृ० ११०, कुणइ पृ० ११०, वण्णेइ चन्द्रिका, ३/१०८ (साधा०) से 'ऋ' को 'उ' आदेश हुआ। पृ० ६८, परूवेइ पृ० ६६, उच्चई पृ० १७१, गच्छ। क्या शौरसेनी के सूत्रो मे कोई स्वतत्र नियम है जिनसे पृ० १७१, ढुक्कई पृ० १७१, भणइ पृ० २६६, सभ'पाहुड' शब्द बन सका हो? फलतः-भाषा की दृष्टि से वइ पृ०७४, मिच्छाइट्ठि पृ० २०, वारिसकालो कओ आगमों के संशोधन की बात सर्वथा निराधार है। पृ० ८१ इत्यादि। उक्त स्थिति में हम तो यही व हेगे कि या तो सशो (ख) (शौरसेनी के अनुसार 'द' को रहने दिया) धकगण पूर्व महान् विद्वानो से अधिक विद्वान है या उनमें 'अहं' भाव--- अपनी यश कामना का भाव है कि लोग सुदपारगा पृ. ६५, वणदि पृ० ६६, उच्चदि पृ० ७६, परूवेदि पृ० १०५, उपक्कमो गदो पृ० ८२, सद वर्तमान में हमे विद्वान् समझें और बाद मे रिकार्ड रहे कि अमूक भी कोई आगम-पण्डित हुए जिन्होने आगमो का पृ० १२२, णिग्गदो पृ० १२७ । संशोधन किया। वरना, जैन आगमो के विविध प्रयोग (ग) ('द' लोप के स्थान मे 'य'* सभी प्राकृतों के अनुसार) हमारे सामने ही है। हमे तब और आश्चर्य होता है, जब सुयमायरपारया पृ०६६, भणिया पृ० ६५, सुयदेवया आगम भाषा को 'जैन-शौरसेनी' स्वीकार करने वाले भी पृ०६, सुयदेवदा पृ०६८, वरिसाकालोको' पृ०७१, आगम ग्रन्थो को किसी एक भापा के नियमो मे बांधने का णवयसया (ता)पृ. १२२, कायवा पृ० १२५, णिग्प्रयत्न करे और आगम की छबि को बिगाडें । गया पृ० १२७, सुयणाणाइच्च (तिलो०५०) पृ० ३५। २. कुन्दकुन्द 'अष्टपाहुड' के विविष प्रयोग : (ग्रन्थनाम, शब्द और गाथा नम) दर्शनपाहुड होदि होइ २६ ११,२७,३१ २० सुत्तपाहुड ६, २० ११,१४, १७ १६ २०, २४ चरित्तपाहुड १६, ४५ ३४, ३६ बोधपाहुड १५, ३६ ११, २६ भावपाहुड १२७, १४० ५१, २८, ७६ १४३, १५१ मोक्खपाहुड ७०, ८३, ५२,६० हवाई ५० १४, १८, ५१, ४८ ८७, १०० १०१ ३८,४७ लिंगपाहुड २,१३,१४ - शीलपाहुड नियमसार १८, २६,४५ २, ४, ३१ १०,१२७ ११३, ११४ -५, २०, ५५, ५८, ६४ ५६, ५७ १६३, १७६, १६१, १६२ १५० ८२,८३,६४ १६६,१६८ १६६, १०७, १४२ १६६, १७१ १६८ १७४, १७५ * जैन महाराष्ट्री में लुप्त वर्ण के स्थान पर 'य' श्रुति का उपयोग हुआ है जैमा जैन-शौरसेनी मे भी होता है। २. 'द' का लोप है 'य' नहीं किया। -षट्खडागम भूमिका पृ० ८६ नोट-टोडरमल स्मारक जयपुर से प्रकाशित 'कुंदकंद शतक' में भी विभिन्न पाठ हैं दर्शनपाड गाथा २६ में 'होदि' गाथा २७ में 'होई', 'समयसार' गाथा १६ मे 'हवादि' । हवेई
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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