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________________ श्री ब्र० कंवर दिग्विजयसिंह जी के शास्त्रार्थ ने मेरे द्वार खोले । श्री पनचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली लगभग सन् १९२७ के चैत्र मास की बात है, जब चाहते थे कि वे मेरा बोझ समाज पर डालें, फलतःश्री कुंवर दिग्विजयसिंह जी अहिक्षेत्र के मेले के बाद उन्होने खुशी से आश्रम को पाच रुपए मासिक देना बिलसी पहुंचे। उनके साथ मथुरा ब्रह्मचर्याश्रम के प्रचारक स्वीकार किया और राशि बराबर पहुचती रही। उन प० सिद्धसेन गोयलीय और एक पगडी धारी पडित जी दिनों पांच रुपयो की बड़ी कीमत थी। श्री देवीसहाय जैन-(सम्भवतः सलावा वाले थे) भी थे। पढ़ाई के बाद सन् ३६ मे जब अम्बाला शास्त्रार्थ उन दिनो आर्य समाज के प्रचार का युग था। आये दिन संघ में उपदेशक विद्यालय खुलने की बात मेरे पिता के समाजियो से जैनियों के विवाद चलते रहते थे। मेरे पिता यान मे आई तब उन्होने पुराने शास्त्रार्थ की बात याद जी को ऐसे विवादो में रुचि थी-उन्हें ज्यादा रस आता कर मुझे आदेश दिया कि शास्त्रार्थ संघ मे चले जाओ। था-जैन की बात पोषण में । कुंवर सा० के आने से बस, स्वीकृति आने पर मैं पहुच गया। २५-५-३६ के शास्त्रार्थ का वातावरण बन गया। नियम-समय आदि उद्घाटन पर उपदेशक विद्यालय का मैं तत्त्वोपदेशक निर्धारित हो गए। आर्य समाज ने अपनी ओर से बरेली विभाग का सबसे छोटी उम्र का और प्रथम छात्र था। के पं० बंशीधर शास्त्री को नियुक्त किया और जैन की उन दिनो ५० बलभद्र जी सघ के मैनेजर थे-हमारे ओर से कुंवर साहब बोले । कुंवर सा० को वहाँ कई दिन आफीसर । फिर भी सादा, सरल । उन्होने मुझे भाई ठहरना पड़ा। सरीखा स्नेह दिया । आश्रम का छात्र होने के कारण सघ मुझे याद है कटरा बाजार मे मेरे ताऊ श्री दुर्गा- मे मुझे ब्रह्मचारी का सबोधन मिला। मैं खुश था आश्रम प्रसाद जी की दुकान के सामने काफी भीड थी। दोनो के गौरव अनुरूप और प्रारम्भिक प्राशीर्वादाता ब्र० कंवर ओर मेजे लगी थी। दोनो विद्वान बारी-बारी बोलते थे। दिग्विजयसिंह जी के अनुरूप नाम को पाकर । सभापति का आसन विलसी के प्रमुख रईम श्री गंदनलाल होनी की बात है जिनका नाम मैं भुला बैठा, उन्हें ने (जो अजैन थे) ग्रहण किया था। नतीजा क्या रहा मुझे मेरी रमति मे लाने का श्रेय डा० नन्दलाल, डा० कन्छेदी नही मालुम ? हाँ, दोनों ओर की तालियो की गड़गड़ाहट लाल और श्री खुशालचन्द्र गोरावाला ने लिया-मुझसे और जयकारो का मुझे ध्यान है। अगले दिन कुंवर सा० कुंवर साहब का परिचय चाहा । यद्यपि मुझे विशेष मालुम के सुझाव पर, वातावरण से प्रभावित मेरे पिता ने मुझे नहीं था और मना भी लिख चुका था। परन्तु संघ के विद्वान् बनाने का संकल्प ले लिया और मथुरा ब्रह्मचर्या- संपर्क और कुंवर सा० के उपकारों को स्मरण कर कँवर श्रम मे भेजने का निश्चय प्रकट किया। कुंवर सा० ने मेरे सा. की जीवनी की खोज मे लगा रहा। और अन्ततः सिर पर हाथ रखकर मुझे विद्वान् पंडित बनने का आशी- सुखद नतीजे पर पहुंच ही गया-बहुत खोजने पर मेरी र्वाद दिया और गोयलीय जी से कहा-इस बालक की अम्बाला की नोट बुक मे कुंवर सा० का परिचय मिल ही अच्छी व्यवस्था कराना। मुझे भली भांति याद है उस गया जो मैंने उन दिनो कभी किसी पुस्तक से लिया था। समय कुंवर सा० सफेद चादर ओढ़े, सफेद चांदी फेम वाला कुंवर सा० बड़े प्रभावक व्यक्तित्व के उत्साही कार्यचश्मा लगाए थे और उनकी दाढ़ी मन मोह रही थी। कर्ता थे। वे जन्मतः क्षत्रिय थे और प्राचीन अग्निकुल के कुछ महीनों में मैं आश्रम में पहुंच गया। मेरे पिता नही भदौरिया वंश की कुलहिया शाखा के थे। उनका जन्म
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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