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________________ २२ वर्ष ४१ ० १ 1 श्रावण कृष्ण ८ सं०वि० १६४२ दिनांक ५ अगस्त १८०५ ई० मगलवार को हुआ था । उनके पिता ठाकुर भारतसिंह जी बीधूपुरा (इटावा) के रईस व जमीदार थे और चाचा ठाकुर सा० रघुवर सिंह जी उन दिनों महाराज बीकानेर के प्रधान मंत्री थे। कुंवर सा० का कुटुम्ब उन दिनो धन, जन, विद्या और राज सन्मानादि सुखों से परिपूर्ण था। उन्होंने ५ वर्ष की आयु में ग्राम्य पाठशाला में दाखिला लिया। उसके बाद वे छोटी जुही कानपुर मे अपने नाना बाबू ब्रह्मा सिंह पडिहार के पास चले गये वहाँ परेवाले डिस्ट्रिक्ट स्कूल मे अग्रेजी पढ़े। वे इन्ड्रेन्स (दसवी ) तक पढ़े। नागरी और संस्कृत मे भी धीरे-धीरे योग्यता प्राप्त कर ली। आप स्वदेश-प्रेमी, सदाचारी, दृढ़ प्रतिश ये और धर्म श्रद्धालु भी भागवत, रामायण, महाभारत श्रादि संस्कृत ग्रन्थो और वेदान्त का उन्होने अच्छा ज्ञान प्राप्त किया । श्रार्य समाजियों के ससर्ग से उनका श्रद्धान उस समाज की ओर ढुल गया और उसी के अनुरूप सध्या बन्दन आदि किया-काण्डो म सचेष्ट रहने लगे। ठाकुर सा० के जैन होने का सुयोग ही है कि सन् १९०६ के फाल्गुन मास का दिन धन्य है जब आप अपनी जमीन्दारी हक्कियत का बयनामा कराने इटावा आए तब उनका मिलन इटावा के तत्कालीन जैन विद्वान् प० उत्तूलाल जी से हो गया। उनसे अनेको शकासमाधान हुए। बाद को कई बार चर्चाएं होती रही । जब भादो मास आया तब पण्डित जी ने दशलक्षण पर्व में उन्हें शास्त्र सभा में निमंत्रित किया । कुँवर सा० ने दस दिन तक दश धर्मो और तस्वार्थसूत्र का वाचन सुना और इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने को तवज्ञान की जानकारी की ओर मोड़ दिया और लगातार इसके अध्ययन-मनन मे पूरा-पूरा समय देने लगे और निष्णात हो गए । जो पहिले आर्य समाज के भक्त थे अब वे उनसे बाद-विवाद करने लगे। अन्ततः उनके अटूट जैन श्रद्धन का स्पष्ट पता तब लगा जब उन्होने आर्य समाज के सामने अपनी शंकाएँ खुले रूप में रख दी। ये दिन था कार्तिक अनेकान्त कृष्णा चतुर्दशी सन् १९१० का - जब आर्य समाज इटावा का वार्षिकोत्सव या उत्सव में बाहर से आर्य समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पधारे। स्वामी सत्यप्रिय संन्यासी, आगरा के प० रुद्रदत्त शर्मा सम्पादकाचार्य जैसे दिग्गजों से कुंवर सा० की 'परमात्मा के सृष्टिकर्तृत्व' विषय पर चर्चा चली ये चर्चा तीन दिनो तक चली। अन्तिम दिन स्वामी ब्रह्मानन्द जी महाराज आगरा से आये भी वे कुँवर सा० का समाधान न कर सके। निदान कुँवर सा० ने आर्य समाज का परित्याग कर 'जैन' मे श्रद्धान की घोषणा की। १० फागुन सुदी सम्मेलन हुआ । स्मरण रहे कि दिनांक १४ मार्च ३, चन्द्रवार को इटावा में प्रथम जैन यहाँ जैन तत्व प्रकाशनी सभा थी उन दिनों उस सम्मे लन मे कुंवर सा० का जैन स्टेज से प्रथम भाषण हुआ । भाषण इतना प्रभावक था कि उससे गद्गद् होकर न्यायदिवाकर प० पानालाल जी ने मंगल आशीर्वादात्मक श्लोक बोलकर कुँवर सा० के गले में माला पहिनाई । प० गोपालदास जी ने कुंवर सा० की भूमि भूरि प्रशंसा करते हुए धन्यवाद देकर सभा विसर्जित की। बाद में सभा ने कुँवर सा० की जीवनी व भाषण दोनों का प्रकाशन कराया । कुँवर सा० ने शास्त्रार्थ सघ अम्बाला के माध्यम से जैसा प्रचार कार्य किया उसे संघ के तत्कालीन पत्र जैनदर्शन की फाइलों से जाना जा सकता है । वे लोह पुरुष थे, लोग कभी-कभी मुझे कहते हैं कि आप इतना स्पष्ट निर्भीकता पूर्वक कैसे बील और लिख देते हैं ? और मेरा उत्तर होता है-मुझे सत्रिय कुंबर दिग्विजय सिंह जी का आशीर्वाद प्राप्त है, उन्ही ने मेरे जीवन द्वार को सुनहरा बनाया। फिर हमारे सभी तीर्थंकर भी तो क्षत्रिय थे। ऐसे उपकारी वीरो के लिए मेरे सादर - सादर नमन । 1 कुँवर सा० का निधन दिनांक ७ अप्रैल सन् १९३५ की साय अम्बाला छावनी के शास्त्रार्थं सघ भवन में हुआ । उनका जीवन धन्य है ।
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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