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________________ १४, वर्ष ४५, कि०३ अनेकान्त प्रदेशाऽन्योन्यसंश्लेषो बंधः"-रा. वा० ११३॥१४, से को भावबन्ध:...." न चैवमेकैक हेतुक एब बन्धः, पूर्वस्मिन्स्पष्ट है कि सबंध-संश्लेष होने का नाम बंध है; वह पूर्वस्मिन्नुत्तरस्योत्तरस्यबन्धहेतोः सद्भाभावात्..." मिथ्यासंश्लेष आत्मप्रदेशो से कार्माण वर्गणाओ अथवा कर्मों के दर्शन हेतुकश्च ।.....'न चायं भावबंधो द्रव्यबंधमन्तरेण 'अण्णोष्णपवेसण' रूप है। और ऐसा सश्लेष जीव के प्रति भवति, मुक्तस्यापितत्प्रसंगात् इति द्रव्य बंध: सिद्धः । सोऽपि प्रदेशबंध का ही है। शेष प्रकृति स्थिति और अनुभाग ये मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाय योगहेतुक एव बन्धत्वात्।' सभी तो कार्माण वर्गणाओ से सश्लिष्ट होते हैं-यानी -आप्तप. कारिका २१६, यानी द्रव्य और भाव इन स्थिति और अनुभाग वार्माण कर्मों मे पड़ते हैं, आत्मा या दोनों बंधो मे यथायोग्य रीति मे मिथ्यात्व भी कारण है। आसप्रदेशो मे नही। प्रत. कषायो की तीव्रता-मन्दता से आचार्य अकलंक देव ने प्रश्न उठाया कि जब उमाकर्मरूप वर्गणाओ मे पड़े स्थिति और अनुभाग को-मात्र स्वामी ने 'मिथ्यादर्शनादि' प्रथम सत्र मे पांचों को बंध में कर्म-प्रदेशा से बंधने के कारण (जीव के प्रति Direct बध हेत कह दिया तो दूसरे सूत्र मे कषाय को पृथक् से पुनः नही होने पर भी) बन्ध कह दिया गया है। पर, इन्हे क्यो बंध का कारण कहा ? इसके समाधान में आचार्य कर्म प्रदेशो के अभाव मे 'अण्णोण्ण पवेसण' को परिभाषा कि म स्थिति और अनभाग बधों के मे सीधा नहीं घटाया जा सकता। फलत:-प्रदशवन्ध, कारणो को स्पष्ट करने मे है । तथाहिजो कि मुख्य है उसे गोण कर, कार्माण वर्गणाओ मे घटित "पुनः कषाग्रहणमनुवाद इति चेत् न; कर्मविशेषाशयहोने वाली स्थिति और अनुभाग मे हेतुभूत कषाय मात्र वाचित्वात् जठराग्निवत् ।।५।।..... "कषायेषु सत्सुतीव्रको जीव और कर्म सम्बन्धी जैसे (प्रदेश) बध में मुख्य मन्दमध्यम कषाया शयानुरूपे त्थित्यनुभवने भवत इत्येतस्य कारण नही माना जा सकता। जब भी बध होगा योगो विशेषस्य प्रतिपत्त्यथं बन्धहेतुविधाने कषाय ग्रहण निर्दिष्टं की ही मुख्यता हागी-'जोगापयडिपदेसाः' और योग पुनर नद्यते ।' त० रा० वा० ८।२।?. में यथास्थिति मिथ्यात्व भी कारण है। अतः हमे पूरे बंध जयधवलाकार ने योग की जो परिभाषा की है उससे प्रसंग मे आचार्यों के वाक्य 'मिथ्यादर्शनाविरति प्रमाद सभी बधो मे प्रदेशवन्ध को ही मुख्यता मिलती है और कषाययोगा: बन्धहेतवः', रूप में सभी को यथायोग्य रीति वह बध योगो द्वारा होता है-'जोगापर्याडपदेसाः' । तथा से बंध में कारण मान लेना चाहिए। 'तत्र मिथ्यादृष्टः योग की उत्पत्ति मे अन्य कारणो की भांति-यथावसरपंचापि समूदिता: बन्ध हेतव'....."तत्र च मिथ्यादर्शना- मिथ्यात्वरूपी कारण को भी ग्रहण करना अनिवार्य हैदिविकल्पा । प्रत्येक वन्धहेतुत्वभवगन्तठम् । त०रा० वा. योग के कारणो मे मिथ्यात्व को सर्वत्र ही छोड़ा नही जा ८१३१, इमी राजवानिक के ८।२।८ में बध के विषय मे सकता।-'जोगो णाम जीवपदेसारणं कम्मादाणणिबन्धणो कहा गया है--'अतोमिथ्यावर्शनाद्यावेशात आीकृतस्या- परिप्फदपज्जाओ।' जयध० १२ पृ० २०२. यहाँ आदान त्मनः सर्वतो योगविशेषात तेषा सूक्ष्मक्षेत्रावगहिनाम् अनता- और बन्ध मे शब्द मात्र का भेद है; क्योकि आस्रव और नंत पुदगलानां कर्भभागयोग्यानामविभागोपश्लेषो बन्ध बन्ध दोनो के कारणों में भेद नही है। योग की सत्ता भी इत्याख्यायते ।' फलत:-पाँचो हेतुओं मे (यथा प्रसग) प्रथम से लेकर तेरहवे गुणस्थान तक रहती है । कषाय की मिथ्यात्व को अकिचित्कर नहीं माना जा सकता। सत्ता तो मात्र दशवे गुणस्थान तक ही है। यदि कषाय पूर्वाचार्य श्री विद्यानन्द के मतानुसार तो (जिस को ही बंध का मूल कारण माना जाय तो कषाय के कषाय को मिथ्यात्व के बंध मे कारण मान वर्तमान आचार्य अभाव मे वध क्यों होता है ? और कषाय की सत्ता मे विद्यासागर जी मिथ्यात्व को बध के प्रति अकिचित्कर दूसरे गुणस्थान में भी मिथ्यात्व आदि १६ का बन्ध क्यों कह रहे हैं ।) उस कषाय में मूल कारण भी मिथ्यात्व हो नही होता ? विचारणीय है। है। विद्यानन्दि स्वामी कहते हैं-'तत्रभाववन्धः क्रोधा बध के कारण प्रसंग को उठाते हुए महाबन्ध के धारमकः, तस्य हेतुमिच्यापर्शनम् ।....."मिग्यावर्शन हेतु प्रारम्भिक कर्मबन्ध मीमांसा प्रसग मे जो बात उठाई गई
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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