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________________ 'अकिंचित्कर' पुस्तक आगम-विरुद्ध है यह सच है कि हम करणानुयोग में मूढ़ हो, और हमें कुछ याता भी नही हो । शायद इसीलिए एक सज्जन बोले -- पांडत जी ! "मिथ्यात्व किचित्कर हैं या अकिचि त्कर" इसे श्राप क्या जाने ? हमने कहा- आपका कहना ठीक है | भला जब करुणानुयोग के ज्ञाता भी इस विषय के प्रतिपादन में अकिंचित्कर और विपरीत श्रद्धा मे है, तो हमारी क्या विसात ? पर, इससे द्रव्यानुयोग को झूठा तो नही माना जा सकता जब द्रव्य ही न होगा तब करण होगा किसमे ? मूल तो द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यानुयोग हो है जो द्रव्यों के गुण-स्थान आदि की पूरीपूरी जानकारी देता है । "मिथ्यात्व अकिचित्कर है" इस नई चर्चा को प्रकाश मे आए कई वर्ष हो गए। तब इसके समर्थन और विरोध मे उद्भट विद्वानो तक के कई लेख पढ़ने को मिलते रहे, पर निर्णय परक (दोनो पक्षो को स्वीकार्य ) कोई लेख देखने में नहीं आया। बावजूद इस मतभेद के, फिर भी ७४ पेजो की इकतर्फ पुस्तक छप गई । पुस्तक का नाम है - " किंचित्कर ।" प्रस्तुत पुस्तक 'ज्ञानोदय - प्रकाशन', जबलपुर की देन है और इसमें आज के ख्यातनामा पूज्य आचार्य विद्या सागर जी महाराज की वर्तमान मान्यता मे उनके हुए स्वयं के प्रवचनों के प्रकाशन की बात है । निःसन्देह पुस्तक एक मान्य दिगबराचार्य सम्मत होने से श्रावक मुनियों के नियमित स्वाध्याय मे शास्त्र की आसन्दी पर पढ़ी जायगीकुछ लोगो की मान्यता भी बदलेगी । कुछ लोग सोचेंगे कि शायद यह एक प्रतिक्रिया है उस मान्यता की— जिसमें मात्र सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए लोगों को प्रेरित किया गया था और चारित्र की उपेक्षा कर दी गई थी। आचार्य महाराज ने कषायादि को दुख की जननी बताकर "मिध्यात्व अकिचित्कर" के बहाने सम्यग्दर्शन की महिम को पद्मचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त' लुप्त कर दिया। यद्यपि लोगों के चारित्र में गिरावट को देखते हुए महाराज का यह कदम ठीक है । वे कहते हैं-"मिध्यात्व हटाओ मिथ्यात्व हटाओ" कहने मात्र से वह हटने वाला नही । हमे हट ने के लिए कषायों को व उसको भी समझना होगा और उनसे बचने का भी प्रयास करना होगा । " - अकिचित्कर पृ० ७८ । पर, आगम की दृष्टि से "मिध्यात्व अकिचित्कर है।" यह विषय हमे रास नही आया | आचार्य श्री स्वय जान और मान रहे हैं कि मिथ्यात्व को बंध में प्रकिचित्कर मानने जैसी उनकी घोषणा से विपरीतता फैली है। उन्होने स्वयं कहा है "लोग कहते है महाराज, आप आठ-दस वर्षों से निरन्तर यह चर्चा कर रहे है, इससे आपको क्या लाभ हुआ ? आपको जो भी लाभ हुआ हो सो ठीक हैं, लेकिन इतना श्रवश्य है कि लोगो मे मिथ्यात्व के विषय का दुष्प्रचार अवश्य हुआ है, ऐसी मेरी धारणा है ?" - अकिचित्कर, पृष्ठ ७२. ऐसी स्थिति मे ओर जब विरोध मे लिखे गए लेखो का निराकरण जनता तक न पहुचा हो, पुस्तक प्रकाशको द्वारा इस विषय को शास्त्र की आसन्दी पर विराजमान हो सकने वाली पुस्तक रूप मे न गूंथकर केवल अखबारो तक ही सीमित रखना न्याय्य था । यतः - अखबार शास्त्र की गद्दी पर नही पढ़े जाते । पुस्तक से लोग भ्रमित होंगे कि प्राचीन आचार्यों के वाक्य ठीक है या वर्तमान आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ? दूसरी बात, मिथ्यात्व को बंध मे अकिचित्कर मानने से पद्मावती आदि रागी देवी-देवताओं की महिमा पूजा को बढ़ावा मिलेगा । लोग कहेगे -जब मिथ्यात्व बंध का कारण नही है तो हम क्यों इस मिथ्यात्व से रुकें ? हम तो इन्हें मात्र सांसारिक इष्टसिद्धि के लिए पूजते है, भादि । "कम्माण संबधो बंधो" -कर्मका० ४३८; जीवकर्म
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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