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१२, वर्ष ४१, कि०३
भनेकात
होता है कि प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व के उदय के ..स्थिति और ४. अनुभाग हैं । इन चारों अवस्थाओं को पश्चात् ही अनन्तानुबंधी का उदय आता है और अन्तराल दृष्टि में रखते हुए उमा स्वामी महाराज ने कहा हैमे मिथ्यात्व का बध होता ही है क्योकि मिथ्यात्व का उदय "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते आ गया और उदय माना बध का कारण है और उस सःबन्धः ।" अर्थ-कषाय सहित जीव के द्वारा कर्म होने बध का कारण मिथ्यात्व के अतिरिक्त अन्य हो नही योग्य पुद्गल परमाणुओ का ग्रहण बंध है। वास्तव मे बध सकता। यदि अनन्तानुबंधी मिथ्यात्व के बंध का कारण है योग से ही होता है। और योग आत्मा के प्रदेशों की तो सासादन मे भी बंध होना चाहिए तथा गिरते समय सकंपता को कहते है। बाकी चार प्रत्यय मिथ्यात्व, अविमिथ्यात्व के उदय आने पर पहले गुणस्थान में अनन्तान- रति, प्रमाद और कषाय ये योग के कारण है। इसलिए बंधी के अभाव मे मिथ्यात्व का बंध नहीं होना चाहिए, पाँचों को ही बंध का कारण कहा है। इन पांचों का अभाव किन्तु बध होता है। इससे स्पष्ट है कि मिथ्यात्व के बध भी इसी क्रम से होता है, और उस अभाव के साथ-साथ का कारण मिथ्यात्व ही है। हां, अनन्तानुबधी मिध्यात्व बधने वाली प्रकृतियो का अभाव भी होता जाता है। का साथ देती है। साथ देने मात्र से इसको बध का कारण संसार मे भ्रमण करने का कारण मिथ्यात्व होने पर भी नहीं कहा जा सकता तथा अनन्तानुबधी को मिथ्यात्व के मिथ्यात्व को अकिचित्कर कहना आगम विसगत है। भले बध का कारण आगम मे कही भी नही कहा है ओर ही आचार्य महाराज ने अपने भाषण में कहा हो लेकिन दो सौ बयालीस (२४२) उद्धरण जो अकिचित्कर पुस्तक पुस्तक के छपवाने का आदेश नहीं दिया होगा। क्योकि मे दिए है उनमे भी कोई ऐसी पक्ति स्पष्ट देखने में नहीं पुस्तक के छपने से ये स्थायी विधान हो गया कि मिथ्यात्व आई है कि अनन्तानुबधी मिथ्यात्व के बध का कारण है। कुछ नहीं है-'अकिचित्कर' है। लोग पहले ही मिथ्यात्व बध का लक्षण "कम्माण सम्बन्धो बधो" ऐसा गोम्मटसार के वशीभूत होकर पद्मावती आदि देव-देवियो से वरदान कर्मकाण्ड की ४३८वी गाथा में किया है। जिसका अर्थ मागते है और उनसे अपने कार्यों की सिद्धि होना मानते कों के आत्मा के साथ सम्बन्ध होना बघ है और जैन है। तथा तीर्थ क्षेत्रो मे जाकर भी छत्र चढ़ाकर वरदान सिद्धान्त प्रवेशिका मे अनेक वस्तुओ के सम्बन्ध विशेष को मांगते है कि यदि मेरे पुत्र हो जाये, धन की प्राप्ति हो बध कहा है तथा तत्त्वार्थ सूत्र के आठवें अध्याय के पहले जाये और मुकदमा जीत जाऊँ ऐसी भावनाएं करते है सूत्र मे बध के जो पाँच कारण बतलाए है वो इस प्रकार तथा अन्य देवी-देवताओ की उपासना मे लग हुए है । इस है-१. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय पुस्तक के पढ़ने से लाभ तो कुछ नजर नहीं आता, किन्तु तथा ५. योग। ये पांचो कारण एक दूसरे की अपेक्षा लोगो की प्रवृत्ति मिथ्यात्व मे बढ़ जायेगी ऐमी सम्भावना रखते है। अर्थात् मिथ्यात्व के कारण से अविरति होती नजर आती है । इसीलिए ऐसा दुष्प्रचार नहीं होना चाहिए । है। उस अविरति का कारण अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्याना- 'अकिचित्कर पुस्तक मे पृष्ठ १६ पर लिखा है कि वर्गी, प्रत्याख्यानावर्णी के उदय से होती है । इस अविरति यदि मिथ्यात्व के स्थान पर अनन्तानुबंधी को रख देते है के उदय से ३६ उनतालीस प्रकृतियों का बध होता है। तो प्रथम और द्वितीय गुणस्थान का अन्तर समाप्त हो प्रमाद के योग से छः प्रकृतियो का बंध होता है। संज्वलन जाता। पर, ऐसा नही है क्योकि पागम में कहा है कषाय से ५८ अट्ठावन प्रकृतियो का वध होता है तथा मिथ्यात्व के उदय से अदेव में देव बुद्धि, अतत्त्व मे तत्त्व योग से एक सातावेदनीय मात्र का बंध होता है। ऐसी बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि इत्यादि विपरीताभिनिवेश रूप बध व्यवस्था तो आगम मे देखने मे आती है। हो, मोक्ष- जीव के परिणाम होते हैं। और अनन्तानुबधी आत्मा के शास्त्र के आठवे अध्याय के दूसरे सूत्र मे जो कहा है बह सम्यक्त्व और स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है । चारो प्रकार के बध के लक्षण की अपेक्षा कहा है । क्योकि जिसको सासादन गुणस्थान कहते है। उसके पश्चात् उन कर्मबधों की चार अवस्थाएँ-१. प्रकृति, २. प्रदेश,
(शेष पृ० १६ पर)