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________________ मिथ्यात्व का बदला रूप-'अकिंचित्कर' पं० मुन्नालाल प्रभाकर, ननौरा वाले ऐसे मिथ्यादग ज्ञान चरण, वश भ्रमत भरत दुख जनम मरण, मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बध नहीं होता इसीतात इनको तजिए सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूं बखान ॥ लिए अनन्तानुबंधी को मिथ्यात्व के बंध का कारण मानना प० दौलतरामजी कहते हैं कि मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व) ठीक नही है क्योकि जिसके साथ अन्वय और व्यतिरेक मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र के आधीन होकर यह जीव दोनों होते हैं वही कारण न्याय्य तथा आगम अनुकूल है। चारों गनियो मे भ्रमण करता है और जनम -मरण आदि आगम में कर्मों की १२० प्रकृतियों के बंध के कारण इस के दुःख सहता है। इसके अतिरिक्त समन्तभद्राचार्य कहते प्रकार बताये हैं-१६ प्रकृतियों के बंध का कारण मिथ्याहै कि तीनो कालो तथा तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान त्व, २५ प्रकृतियों के बंध कारण अनन्तानुबंधी कषायोदय कल्याणकारी तथा मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी जनित अविरति है जिसका अनुबंध मिथ्यात्व का साथ देने अन्य नहीं है। जिसका समर्थन चारो अनुयोगो के समस्त का है तथा मिथ्यात्व अनन्त है। इसी से इसको अनन्ताशास्त्र करते है। उस मिथ्यात्व को बंध का कारण न नुबंधी कहते है । १० प्रकृतियों के बंध का कारण अप्रत्यामानना जिनागम के प्रतिकूल होगा, जबकि मोक्ष शास्त्र ज्यान-वर्णी कषायोदय जनित अविरति, ४ प्रकृतियो के को बध अधिकार में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय बंध का कारण प्रत्याख्यानवरण कषायोदयजनित अविरति तथा योग ये पाँच प्रत्यय स्पष्ट रूप से बताये है जिनमे ६ प्रकृतियों के बंध का कारण प्रमाद, ५८ प्रकृतियो के मूल बध का कारण मिथ्यात्व है। जब तक मिथ्यात्व का बंध का कारण संज्वलन कषाय तथा एक सातावेदनीय अभाव नही होगा ससार का अन्त नही हो सकता। के बंध का कारण योग। इस प्रकार १२० प्रकृतियों के इसीलिए मिथ्यात्व को आगम मे अनन्त कहा है और कारण अलग-अलग बताए हैं। बाकी २८ प्रकृ तया इनमे इसके जाने के पश्चात समार का अन्त अवश्य होगा। ही गभित हैं। फिर भी मिथ्यात्व जो कि इस सब कारणो अर्थात् अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र काल रह जाता है ऐसा का मूल है उसको अकिचित्कर कहना तथा अनन्तानुबधी नियम है। इस मिथ्यात्व के अभाव के विना बाकी चारों को उसके बध का कारण कहना ऐसा है जैसे कोई कहे वध के प्रत्ययों का अभाव होना असम्भव है जैसे जड़ के कि दो और दो चार नहीं होते। क्योकि मोक्ष शास्त्र के सूखे बिना पत्तों को काटने से (सूखने से) वृक्ष नही सूख आठवें अध्याय के दूसरे सूत्र में बंध के कारण न बता कर सकता तथा मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियां प्रथम मिथ्यात्व बध का लक्षण बताया है, उसके आधार पर मिथ्यात्व के बंध गुणस्थान में ही बंधती है। प्रथम गुणस्थान के अन्त समय का कारण अनतानुबधी कषाय को मानना उचित नही बैठता में इनकी बंध व्युच्छित्ति हो जाती है अर्थात् आगे के गुण- क्योकि अनन्तानुबधी वह कषाय है जिसका अनुबध अनन्त स्थानो मे इनका बध नहीं होता (गोमट्टसार कर्मकाण मिथ्यात्व के साथ देने का है। उस कषाय को अनन्तानुबधादियत्र) तथा मिथ्यात्व को बध करने वाली मिथ्यात्व बधी कषाय कहते है। बध तथा अनुबंध की परिभाषा प्रकृति को न मान कर अनन्तानुबधी कषायो को मिथ्या- स०सि०८-७-११ में इस प्रकार की है-बध शब्द कारण त्व के बंध का कारण मानना आगम सम्मत नही है। साध्य है ऐसी विवक्षा मे मिथ्यात्व आदि पांचों प्रत्यय बध क्योकि सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबंधी का उदय ६ के कारण हैं और अनुबंध: स्यात प्रवृतस्य अनुवर्तनेआवली और कम से कम एक समय रहता है। उस समय प्रवृत्त के पश्चात् अनुसरण करने वाला। इससे यह स्पष्ट
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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