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________________ मिथ्यात्व अकिंचित्कर नहीं है 0 श्री पं० रतन लाल कटारिया, केकड़ी मिथ्यात्व को अकिचित्कर मानने वाले कषाय को ही बन्धकर्ता और मनुष्य का अहितकारी मानते हैं किन्तु यह मूलतः गलत है : १. जनेद्र सिद्धान्त कोश द्वितीय भाग पृ० ३३ पर लिखा है-"कषाय=मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है इससे आत्मा के स्वरूप का घात होता है । मिथ्यात्व से बढ़ कर कोई पाप नही।" २. मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २७ (सोनगढ़ प्रकाशन)-' तथा मोह के उदय से मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव होते हैं उन सब का नाम सामान्यतः कषाय है।" ३. जयधव ना भाग ४ पृ० २४-शका-असद्रूप अनन्तानुबन्धी चतुष्क की मिथ्यात्व में उत्पत्ति कैसे हो जाती है? समाधान-योंकि मिथ्यात्व के उदय से कार्माण वर्गणा स्कधों के अनन्तानुबन्धी चतष्क रूप से परि. णमन करने में कोई विरोध नहीं आता है। ४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाग १ (ज्ञानपीठ प्रकाशन) प्रस्तावना पृ० १५-किन्तु पहले गुणस्थान में १६ प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति होती है ये १६ प्रकृतियां केवल पहले गुणस्थान में ही बंधती हैं। आगे मिथ्यात्व का उदय न होने से नही बंधती है । अतः उनके बग्ध का मुख्य कारण मिथ्यात्व ही है अत: मिथ्यात्व को बन्ध का कारण कहा है। फिर भी दुसरे गुणस्थान मे मिथ्यात्व का उदय न होने मे अनन्नानुबधी का उदय होते हुए भी उक्त १६ प्रकृतियों का बन्ध नही होता। अतः उनके बन्ध का प्रमुख कारण मिथ्यात्व ही है। अतः कषाय और योग के साथ मिथ्यात्व को भी बध का कारण माना गया है। ५. पहले गुणस्थान का नाम "मिथ्यात्व" रखा गया है "अनन्तानुबन्धी" नही। इससे भी मिथ्यात्व की प्रमुखता सिद्ध होती है। मोहनीय के २ भेद भी इसी दृष्टि मे किये हैं और प्रथम स्थान मिथ्यात्व (दर्शनमोहनीय) को ही दिया है। ६. मिथ्यात्व, ससार (भवबधन) का प्राण है, अन्य सब कषाय कर्म तो उसके शरीर मात्र है। जैसे बिना प्राणो के शरीर मुर्दा है उसी तरह बिना मिथ्यात्व के समार की स्थिति नही । अतः इसी का नाम अनत-संसार है। कषायें तो इसके पीछे है इसी से उनका नाम अनन्न (समार) अनु (पश्चात् ) बंधी (बंधनेवाली)= अन्तानबंधी है। मिथ्यात्व, ससार रूपी वृक्ष की जड है। जिस तरह बिना जड के वृक्ष स्थिर नही रह सकता उसी तरह बिना मिथ्यात्व के ससार (कषायवृक्ष) स्थिर नही रह सकता । समार रूपी वृक्ष की शाखा पत्र काटने से वक्ष नष्ट न ही हो सकता फिर उग आता है जब तक कि मिथ्यात्व =जड नहीं काट दी जाती। अन: मिथ्यात्व अकिचित्कर नही है। अनयाँ का बीज तो वही है उससे आंखें मूंदने की बात करना मसारचक मे गहरे निमग्न होना है। ७. मिथ्यात्व को अकिंचित्कर कहना सम्यक्त्व को भी अकिंचित्कर ही कहना है। सम्यक्त्व का लोप करना है। यह जैनधर्म को खास विशेषता को खत्म करना है। समार के जितने भी धर्म है सब रागद्वेष कामक्रोधादि कषायो को जीतने की तो अवश्य बाते करते हैं किन्तु मिथ्यात्व को किसी ने छुपा ही नही इसी से वे मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं कर सके, संसार में ही भटकते रहे । यह कला यह अद्भुन विधि-जन से जिन बनने, आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग एकमात्र जैनधर्म ने ही आविष्कृत किया है और वह एकमात्र सम्यक्त्व (मिथ्यात्वनाश) के बल पर ही उद्भूत हुआ है । आज उसी का लोप करना जैनधर्म का ही लोप करना है इसे कोई जैनी ही न समझे तो इससे बढ़कर और क्या परिताप का विषय हो सकता है । विचारें ! ८. अनन्तानुबंधी का विसंयोजक जब वापिस प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है तो एक आवली काल तक तो अनन्तानुबधी चतुष्क का अनुदय रहता है। "अकिंचित्कर" पुस्तक में इस अनुदय का अर्थ ईषद् उदय किया है जो सभी जैन सिद्धात शास्त्रो से विरुद्ध है किमी में भी ऐसा कहीं नहीं लिखा है सर्वथा सब जगह उदय का अभाव ही बताया है। इस एक बात से ही अकिचित्करता का कागज का महल ढह जाता है ।
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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