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वत स्वरूप और माहात्म्य
अव्रतानि परित्यज्य; व्रतेष परिनिष्ठितः ।
व्रत के बिना शांति सुख होवे, यह आशा निर्मूल है।" त्यजेत् तान्यपि सम्पाप्य, परम पदमात्मनः ।।
एक अच्छे लेखक ने भी लिखा हैअवनी व्रतमादाय, व्रती ज्ञानपरायणः ।
___ "अणुब्रतों अथवा महाव्रतोंके धारण-पालन से आत्मिक परात्मज्ञानसम्पन्न:, स्वयमेव परोभवेत् ।।" श्रद्धा मजबूत होती है, विवेककी वृद्धि होती है, साथ ही
अर्थात अव्रतों से अपुण्य (पाप) होता है तथा व्रतों से स्वानुभूति रूप आनन्द की अभिवृद्धि होकर निराकुलता पूण्य होता है और इन दोनो के (पाप-पुण्य के) विनाश से, रूपी मुक्तिरमा के साथ अनंतकाल तक रमण होता है।" मोक्ष होता है। अत: मोक्षार्थी का कर्तव्य है कि वह एक अन्य विद्वान ने भी लिखा है-- अवतों की तरह व्रतो का भी त्याग करे। अवतोंका त्याग
"व्रतों का मूल उद्देश्य तृष्णा को तिलांजलि देकर करके व्रतों में संलग्न हा आत्मा; परमपद (मोक्ष) को आत्मिक आनद की ओर एग्रसर होना है। परन्तु जो कुछ प्राप्त करके व्रतो का भी त्याग कर देता है। व्रत-विहीन व्यक्ति देखा-देखी या जोश में आकर अथवा होश खोकर व्यक्ति व्रतों को ग्रहण करके व्रती होकर ज्ञान मे तत्पर भी वन धारण करते है, तथा उन्हें सहर्ष सोत्साह पालन होवे। फिर परमात्म ज्ञान मे सम्पन्न होकर स्वयं ही नहा करत, आतचार-दाष लगाते रहते है, इससे स्वपर का परमात्मा हो जाना है।
पतन ही होता रहता है।" सिद्वान्त चक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्य ने द्रव्यसंग्रह गाथा वैगग्य भावनाके अन्त में कितना मार्मिक उल्लेख है ५७ मे जो 'तप ओर श्रुत के साथ व्रतों का धारक आत्मा "परिग्रह-पोट उतारि सब, लीनो चारित-पंथ । ही ध्यानरूपी रथ की धुरा को साधने मे समर्थ होता है।' निज-स्वभावमें थिर भये, वज्रनाभि निर्ग्रन्थ ॥" ऐसा लिखा है वह वास्तव मे ध्यान देने योग्य है । गाथा समस्त संसार को अपने चरणों में झकाने की शक्ति इस प्रकार है -
यदि किसी में है तो वह है व्रत-सथम । व्रत की शक्ति "तवसुस्वदव चेदा, झाणरह धुरधरो हवे जम्हा । व्यक्ति की निजी शक्ति-आत्मशक्ति है। इसमें व्यक्ति की तम्हा तत्तिय णिरदा, तल्लद्धीए सदा होइ।।" आत्मा का निवास होता है, या यो भी कह सकते है कि
इसका सरल व सुन्दर हिन्दी पद्यानुवाद इस प्रकार है- व्रत-संयम, व्यक्ति की वास्तविक सम्पदा है, जिसके बल "तप श्रुत और व्रतोका धारक, ध्यानसु रथ मे होय निपुण। पर ससार की अधिक से अधिक मूल्यवान वस्तुयें प्राप्त अतः तपादि तीन में रत हो, परम ध्यान के लिए निपुण ।।" को जा सकती हैं। राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार, पडित
व्रत-संयम के विषय में जो स्व० डा० कामता प्रसाद विद्वान, सभी वनी-सयमी के चरणों के चेरे हो जाते है। जैन ने लिखा है वह भी विचारणीय है
व्रत; व्यक्ति में वह सामर्थ्य सम्पन्न करता है, जो "व्रत चाहे छोटे रूप में किया जावे, परन्तु विधि से अन्य किसी भी शक्ति से दब नहीं सकता। धन-बल, तनकिया जावे तो बड़ा फल देता है। वट का वक्ष देखा है, बल, कुटुम्ब-बल, यह बहुतो को दबा सकता है, लेकिन कितना बड़ा होता है, परन्तु इतने बड़े पेड़ का बीज व्रतो-सयमी को नहीं। अन्य भी कितने ही बल अन्यो को पोस्ता के दाने से भी नन्हा होता है। नन्हा-सा ठोस बीज पराजित कर सकते है परन्तु व्रती-संयमी के समक्ष तो उन जैसे महान फल देता है, वैस ही नन्हा-सा व्रत भी सार्थक
- सभी को स्वयमेव नतमस्तक होना पड़ता है। होकर जीवन में बड़ी से बड़ी सफलता देता है।"
व्रत-विहीन का जीवन भी क्या कोई जीवन है ? कौन भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री नीलम सजीव बुद्धिमान उसे जीवन कहता है? वह जी रहा है इतने पात्र रेडी का स्वाधीनता दिवस पर सादगी का सन्देश है- से उसमे जीवन की कल्पना करना निरर्थक है। हां उसे
“शान शौकत का जीवन बिताने पर अकुश जरूरी तो मृत कहिर अथवा जीवित लाश या मुर्दा। व्रत-विहीन अदूरदर्शी-समाज पतन के गर्त मे बह गये ..." के निस्तेज-मुख, ज्योतिहीन नेत्र और विकारयुक्त आंगोपांग
एक कवि ने कितना हृदयस्पर्शी उल्लेख किया है - पहली ही नजर में, देखने वालो के अन्तरंग मे, एक ग्लानि"जीवन को महकाने वाला, व्रत ही फल अरु फूल है। सी पैदा कर देते है। उसके प्रति श्रद्धा नही हो पाती;