SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४, वर्ष ४१, कि० ४ अनेकान्त जबकि व्रती-संयमी का देदीप्यमान मुखमण्डल प्रसन्न-मन मरण को प्राप्त होने से नियम से देवगति की प्राप्ति होती एवं समता भाव, प्राणिमात्र को अपनी ओर आकर्षित कर है फिर परम्परा से मुक्ति प्राप्त होती है। लेता है। व्रत के विषय मे सागारधर्मामृत अध्याय ७ का श्लोक व्रत के सम्बन्ध मे श्रीउत्तरपूराण (७६-३७४) मे ५२ इस प्रकार हैआया है "प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं, गुरुसाक्षिश्रितं व्रतं । "अभीष्ट फनप्राप्नोति, व्रतवान् परजन्मनि । प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःख, व्रतभगो भवे भवे ॥" न व्रतादपगे बंधु,वितादगे रिपु. ॥" अर्थात् गुरु की साक्षी-पूर्वक लिए गये व्रत को प्राणांत अर्थात् व्रती-व्यक्ति, आगामी भव मे, मनोवांछित होने पर भी भंग नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्राणान्त फल को प्राप्त करता है। अहिंमादि व्रतों के समान जीव मरण से तो उसी क्षग दुख होता है लेकिन ब्रत को भंग का कोई भी अन्य बन्धु नही है और हिमादि के समान । करने से भव-भव में कष्ट प्राप्त होता है और इसीलिए अन्य शत्रु नहीं है। एक आचार्यश्री ने उल्लेख किया है किलोक मे तीन प्रकार के व्यक्ति है। एक तो वे है जो "वरं प्रवेष्टुं ज्वलित हुताशनं, विधन के भय से व्रतो को धारण ही नहीं करते। ऐसे न चाऽपि भग्नं चिरसचितं प्रत।" व्यक्ति निकृष्ट या जघन्य कहलाते है। दूसरे वे हैं जो अर्थात् भीषण अग्नि में प्रवेश करना तो श्रेष्ठ है, व्रतों को तो धारण करते है, लेकिन विघ्न-बाधा आने पर लेकिन चिर सचित व्रत को भग करना अच्छा नहीं। उन्हें छोड देते हैं। ऐसे व्यक्ति मध्यम श्रेणी के है और हमे एक आचार्यश्री के निम्न लोक के भाव को भी तीसरे पक्ति वे है जो व्रतो को धारण करन के पश्चात् सदैव रमरण रखना चाहिएकितने ही विघ्न आने पर भी उन्हें छोड़ते नहीं। जीवन- "वृत्त यत्नेन मरक्षेत्, वित्तमेति व याति च । पर्यात व्रतों का निर्वाह करते है और ऐसे व्यक्ति उत्तम अक्षीणो वित्ततः क्षीणो, वृत्ततस्तुहतो हतः।" श्रेणी के कहे जाते है। सो ही सम्यक्त्व-कौमुदी मे उल्लेख अर्थात् ब्रत तो धारण करना ही चाहिए, साथ ही उमका यत्नपूर्वक पालन भी करना चाहिए । क्योकि लोक "प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचे., मे धन तो आता-जाता रहता है, परन्तु जो व्रतों से च्युत प्रारभ्य विघ्नवहिता विरमति मध्याः ।। हो जाता है उसका तो सर्वस्व ही विनष्ट हआ समझना विनै पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, चाहिए। प्रारम्य चोत्तम जना न परित्यजन्ति ॥" मामान्य से देखा जाय तो व्रत के कोई भेद नहीं हैं, हमें 'देहस्य सार व्रतधारणं च' इस संस्कृत मुक्ति को क्योकि व्रत कहने से ही सभी प्रकार के ब्रत आ जाते है। ध्यान में रखते हुए कि 'मानव जीवन की शोभा व्रतों के सक्षेप में भेद किये जाये तो व्रत दो प्रकार के है। सो ही धारण करने से है'; कभी भी व्रतों मे पराङ्मुख नही होना श्रीउमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय सात सूत्र संख्या दो चाहिए। हमारे गुरू महाराज जी कहा करते थे मे इस प्रकार बताया है 'देश-सर्वतोऽणुमहती' अर्थात् व्रत दो प्रकार के है, एक "घोड़ा चढ़े पड़े, पड़े क्या पीसनहारी। तो अणुव्रत और दूसरे महाव्रत। हिंसादि पापो का एकद्रव्यवंत ही लुटे, लुटे क्या जन्म-भिखारी" देश त्याग 'अणुव्रत' और इन्ही पापो का सर्वदेश-पूर्णतया पर यहा उनके कहने का यह अभिवाय नही था कि नवकोटि से त्याग करना 'महाव्रत' है। व्रत लेकर पालन नही करना। वे स्पष्ट रूप में कहने थे दुनियाँ मे वस्तु का विभाजन एक तो भोगवस्तु के कि- "सोच समझकर व्रत अवश्य धारण करो। कर्मयोग रूप में है और दूसरा उपभोग वस्तु के रूप में और इस से व्रत छूट भी जाय तो पुनः धारण करो। व्रत सहित अपेक्षा भी बन के दो भेद हो सकते हैं । भोगवस्तु का त्याग
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy