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प्रत स्वरूप पोर माहात्म्य
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करने रूप 'भोगवत' तथा उपभोग वस्तु का त्याग करने प्राणी; पशु-अज्ञानी ही है क्योंकि अब्रती योग्य-अयोग्य के रूप 'उपभोग व्रत'। भोग-उपभोग का स्वरूप श्रीरत्न- विवेक से विहीन होता है । उसमें विवेक होता ही नही। करण्ड मे इस प्रकार बताया है
"राग-द्वेष-निवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।" "भुक्त्वा परिहातव्यो, भोगो-मुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । अर्थात् साधु-आत्महितैषी भव्यात्मा, राग-द्वेषादि
उपभोगोऽशनवसन, प्रतिपंचेन्द्रिय-विषयः ।।८३॥" विकारों को दूर करने के लिए, चारित्र (बत) धारण __ अर्थात जिसका एक बार भोगकर त्याग हो जाता है करता है। तथा पुनः भोगने में नही पावे वह भोगवस्तु है। जैसे
"ये मित्यं ब्रतमंत्रहोमनिरताः" भोजन, लड्डू, पेड़ा, रोटी आदि । जो एक बार भोगने के अर्थात् साधु पुरुष नित्य ही बन, मंत्र और होम-कषायो बाद पुन: भी भोगने मे आ सके वह उपभोग वस्तु है। को दूर करने में संलग्न रहते हैं। जैसे-वस्त्र, आभूषण, नल, बिजली, मकान, पलंग आदि। "ब्रतसमुदयमूलः" अर्थात् ब्रतों का समुदाय ही धर्म
कोई भी संकल्प, प्रतिज्ञा, त्याग अथवा व्रत, या तो वृक्ष की जड़ है। जीवन भर के लिए किया जाता है अथवा सीमित काल के
“सद्वत्तानां गुणगणकथा" अर्थात् जब तक मोक्ष सुख नोमनी की प्राप्ति न हो तब तक हे परमात्मन् ! मैं शास्त्रानुकूल एक तो जीवन भर के लिए धारण किया जाने बाला व्रत ब्रतों की महिमा का गुणगान किया करूं। (यम) और एक सीमित काल के लिए लिया जाने वाला
पाक्षिक-प्रतिक्रमण में उल्लिखित निम्न गाथायें भी व्रत (नियम)। सो ही स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड ब्रत के सम्बन्ध में आदरणीय हैश्लोक ८७ मे इस प्रकार प्रकट किया है
"धिदिमतो खमाजुत्तो, झाणजोगपरिट्रिदो। "नियमो यमश्च विहितो, द्वेधा भोगोपभोगस हारे ।।
परीसहाण उरं देतो, उत्तमं बदमस्सिदो।" नियमः परिमितकालो, यावज्जीव यमोध्रियते ॥"
अर्थात जो धैर्यवान है, उत्तम क्षमा को धारण करने
वाला है, सब ओर से ध्यानयोग मे स्थित है, साथ ही क्षुधा ८६ में स्पष्ट किया है
तृषादि परीषहों को सहन करने वाला है, वही उत्तमबत"भोजनवाहनशयन, स्नानपवित्रांगरागकुसुमेषु ।
महाब्रतों को धारण-पालन करने वाला होता है। इसी ___ ताम्बूलवसनभूषण, गन्मथसंगीततीतेषु ॥
प्रकारअद्य दिवा रजनी वा, पक्षो मासस्तथत रयन व।।
"पाणादिवादं च हि मोसगं च, अदत्तमेहुण्णपरिग्गह च । इति काल परिच्छित्या, प्रत्याख्यानं भवेन्नियमः॥"
__ वदाणि सम्म अणुपाल इत्ता, णिव्वाणमग्ग विरदा उवेति ॥" इसका रस-सुन्दर और सरल हिन्दी पद्यानुवाद इस अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इनके प्रकार पठनीय है
त्यागरूप अहिंसादि ब्रतो को पालन करने वाले दि० मुनि, "भोजन वाहन शयन स्नान रुचि, इत्रपान कुंकुम लेपन । निर्वाण-मोक्षमार्ग को प्राप्त करते है।। गीत वाद्य सगीत कामरति, माला भूषण और वसन ।। इस प्रकार इस लेख में आचार्यों आदि के उद्धरण देकर हुन्हे रातदिन पक्षमास या वर्ष आदि तक देना त्याग । ब्रत का स्वरूप, व्रत की आवश्यकता, अत का माहात्म्य कहलाता है नियम'और 'यम', आजीवन इनका परित्याग और सक्षिप्त भेदों के विषय मे प्रतिपादन किया है।
हमे इस प्रसग में महर्षिया के निम्न वाक्यो व सूक्तियो वास्तव मे ब्रत, नियम, चारित्र के बिना, मनुष्य जीवन पंग को भी ध्यान में लेने की आवश्यकता है।
या नेत्रविहीन व्यक्ति के समान निरर्थक है। अन्त मे"व्रतेन यो विना प्राणी, पशुरेव न सशयः ।
"द्रढ़ता से ब्रत धारकर, पाले द्रढ़ता पूर्व । योग्यायोग्य न जानाति, भेदस्तत्र कुतो भवेत् ॥" स्वपर का कल्याण हो, फिर निर्वाण अपूर्व ॥" अर्थात् इसमें कोई भी सन्देह नहीं है कि ब्रतविहीन
-इत्यलम्