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________________ जैन ग्रन्थों में विज्ञान ।। श्री प्रकाशचन्द्र जैन प्रिंसिपल स. भ. सं. वि. दिल्ली जैन ग्रन्थों मे वैज्ञानिक तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध वर्तमान विज्ञान द्रव्य को स्थायी मानने के साथ परिहै। आज विज्ञान के जो आधुनिकतम आविष्कार है बर्तनशील भी मानता है। प्रत्ये। द्रब्य की अवस्थायें उनके मूल सिद्धान्त जैन शास्त्रो में यत्र-तत्र विखरे हुए है। बदलती रहती हैं। जैसे लकड़ी है, वह स्कध पर्याय है। उसको जला दिया जाये तो कोयला बन जायेगा, उसका जैनाचार्य उमा स्वामी अथवा उनके पूर्व और उत्तर- नाश नही होगा पर्याय बदल जायेगी और कोयले को भी वर्ती आचार्यों ने जो मिद्धान्त थ्योरी लिखे है उन्ही का जरिया जाये तो ख बन जायेगी। मगर मल तत्त्व आधार लेकर वज्ञानिका ने प्रक्टाकल किया है। प्रक्टाकल का नाश नहीं होगा। यह वैज्ञानिक मान्यता वही है जो करने वालों की सबसे बड़ी भूल यह हुई कि उन्होंने आज से कई हजार वर्ष पहले लिखे गये जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थ थ्योरी सिद्धान्त देने वाले आचार्यों की मानव कल्याण एवं सूत्र में प्राप्त है । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त सत् । सद् द्रव्य आत्मोन्नति की मंगल भावनाओं को उपेक्षित करके अपने लक्षणम्-अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य जहा पाये जाएँ प्रेक्टीकल द्वारा ऐसे-ऐसे उपकरणों, यंत्रों और मशीनों का उसका नाम सत् है। तथा सत् ही द्रव्य का लक्षण है। निर्माण आरम्भ कर दिया है जिनको पाकर आज का मानव समाज सांसारिक विषयभोगों में लिप्त हो रहा है। जैनाचार्यों ने प्रकृति को पुद्गल के नाम से पुकारा आपस में लड रहा है, पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष बढ़ रहे है है। और पुद्गल शब्द की व्याख्या उन्होने-'पूरयन्ति तथा विविध प्रकार की वैज्ञानिक सुविधाये पाकर मानव गनयन्ति इति पुद्गलाः' अर्थात् पुद्गल उसे कहते है जिसमे पुरुषार्थहीन हो गया है। पूरण और गलन क्रियाओ के द्वारा नई पर्यायों का प्रादुर्भाव होता है। वित्रान की भाषा मे इसे फ्यूजन व फिशन या ससार के निर्माण के सम्बन्ध में आज की वैज्ञानिक इन्टिगेशन व डिस इन्टिगेशन कहते है। वैज्ञानिको ने पुदमान्यता यह है कि यह ब्रह्माण्ड कोई क्रियेटीड वस्तु न गल का नाम मेबर दिया है। वे कहते है कि पुद्गल स्कध होकर एक घास के खेत के समान है। जहां पुराने घास में हरमाण मिलते भी है और बिछडते भी है। घास तिनके भरते रहते है और उनके स्थान पर नये तिनके जन्म लेते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि घास के खेत वर्तमान वैज्ञानिकों ने सिद्धान्त दिया है कि दो हाईकी आकृति सदा एक-सी बनी रहती है। यह वैज्ञानिक ड्रोजन और एक आक्सीजन का अनुपात मिलाया जाए तो सिद्धान्त जैन धर्म के साहित्य में वणित विश्व रचना के जल तैयार हो जायेगा। जैन दर्शन में कहा गया है कि सिद्धान्त से अधिक मेल खाता है। इसके अनुसार इस जगत जल कोई स्वतत्र द्रव्य नहीं है वह तो पुद्गल का स्कंध पर्याय का न तो कोई निर्माण करने वाला है और न किसी काल है। विशेष मे इसका जन्म हुआ। यह अनादिकाल से ऐसा ही द्वयधिकादिगुणानां तु । स्निग्ध-रुक्षत्वात् बधः। न चला आ रहा है, और ऐसा ही चलता रहेगा। यह विश्व जघन्यगुणानाम् । गुण साम्ये सदृशानाम् । जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थ छह द्रव्यो के समूह का नाम है। यह छः द्रव्य है जीव, सूत्र के इन चारों सूत्रों का आशय यह है कि स्निग्ध और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । वैज्ञानिक इन रुक्षत्व गुणो के कारण एटम एक सूत्र में बंधा रहता है। द्रव्यो को सबस्टेन्स के नाम से पुकारते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जैन आचार्य आज के वैज्ञानिक
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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