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________________ २२. वर्ष ४१, कि.४ अनेकान्त है । आत्मकल्याण की भावना से स्वेच्छा पूर्वक जीवन भर चारित्तं बहुभेयं, णायव्वा भावसंवर विसेसा ॥" के लिए अथवा परिमित, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, दो वर्ष इस गाथा मे व्रत, समिति और गुप्ति के साथ-साथ; आदि के लिए शुभ-पुण्य कार्य करने का संकल्प करना या उत्तमक्षमादि दस धर्म, अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षा तथा हिंसादि पाप कार्य का त्यागना भी व्रत कहलाता है। क्षुधा-तृषादि बाईस परीषहजय को भी चारित्र मे ही पुरुषार्थ सिद्धि उपाय श्लोक चालीस के अनुसार चारित्र सूचित किया है तथा इन सबको भावसवर का कारण लिखा है। (व्रत) की परिभाषा इस प्रकार है संयम जो कि व्रत का ही एक रूप है, इसके विषय में "हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार जीवकाड कासन्यैकदेशविरते:, चारित्रं जायते द्विविध ॥" गाथा ४६५ में इस प्रकार विवेचन किया है-. यहाँ यह समझाया गया है कि हिंसादि पांचों पापो "वदसमिदिकसायाण, दंडाण सहिदियाण पचण्ह । का त्याग करना तो चारित्र-व्रत है ही; पर इन पापो का धारण पालण णिग्गह, चागजओ सजमानावओ।" सर्वथा त्याग किया जाता है तो वह महावत कहलाता है अर्थात् अहिंसादि व्रतो को धारण करना, ईयर्यादि और एक देश पापों का त्याग करने पर वह देशव्रत-अणुव्रत समितियों का पालन, क्रोधादिक कषायो का निग्रह, मनसज्ञा को प्राप्त होता है। वचन-काय की कुत्सित क्रियारूप दण्डो का त्याग तथा लगभग इमी उक्त भाव की पूष्टि समन्तभद्राचार्य स्पर्शादि पाचो इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करना, यही सयम द्वारा रत्नकरण्ड में हुई है । श्लोक ४६ इस प्रकार है (वन) कहा गया है। "हिंसाऽनूतचोर्येभ्यो, मैथुनसेवा-परिग्रहाभ्या च । व्रत के सम्बन्ध मे, स्वामी समन्तभद्र ने, श्रीरत्नकरण्ड पापप्रणालिकाभ्यो, विरतिः सज्ञस्य चारित्र ॥" महाशास्त्र श्लोक ८६ मे एक महत्वपूर्ण बात इस प्रकार यहाँ इतना विशेष उल्लेख है कि ये हिंसादिक पांचो लिखी हैदोष, पाप के आस्रव द्वार है और इनका त्याग जब ज्ञानी "यदनिष्टं तव्रतयेद्, यच्चानुपसेव्यमेतदपि जहयात् । व्यक्ति के होता है तभी ये चारित्र या व्रत कहलाते है। अभिसधिकृताविरति, विषयाद्योग्याद् व्रत भवति ॥" श्रीअमतचन्द्र सूरि ने तत्त्वार्थसार मे भी लगभग उक्त अर्थात जो वस्तु अनिष्ट है उसका त्याग किया जावे अभिप्राय को हो निम्न तरह से व्यक्त किया है-- और जो अनुपसेव्य है उसका भी त्याग किया जाये । इस "हिंसाया अमृताच्चैव, स्तेयादब्रह्मतस्तथा।। प्रकार योग्य विषयोंसे भी भावपूर्वक छुटकारा पाना व्रत है। परिग्रहाच्च विरति., कथयन्ति व्रत जिनाः।।" श्रीपूज्यपाद स्वामी ने, इष्टोपदेश में, व्रत के सम्बन्ध अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से मे, जो महत्वपूर्ण बात लिखी है, वह ध्यान देने याग्य है। विरति छुटकारा पाना ब्रत है और यह या ऐसा श्रीजिनदेव वे लिखते है "वर व्रतं. पद देव, नाव्रतव्रतनारकम् । इस प्रसग में द्रव्यसग्रह महाशास्त्र की गाथा ४५ इस छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान् ॥३॥" प्रकार है जो कि ध्यान देने योग्य है अर्थात् अव्रतों से नारकी होने की अपेक्षा, व्रतो से "असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ती य जाण चारित्त । देव-पर्याय प्राप्त करना श्रेष्ठ है। जिस प्रकार लोक मे एक वदसमितिगुत्ति रूव, ववहारणया दु जिण-भणिय ॥" व्यक्ति धूप मे खड़ा है उसकी अपेक्षा दूसरा छाया मे खड़ा अर्थात् अशुभ से छुटकारा होना तथा शुभ मे प्रवृत्ति रहने वाला श्रेष्ठ है। होना चारित्र-व्रत है। तथा यह व्रत, समिति और गुप्ति- इस व्रत के सम्बन्ध मे ही समाधितंत्र के श्लोक ८३, स्वरूप है एवं यह व्यवहाररूप से श्रीजिनदेव ने कहा है। ८४ और ८६ मे जो उल्लेख है वह भी ध्यान देने योग्य द्रव्यसग्रह की ही गाथा पतीस मे इस प्रकार विवे- हैचन है "अपुण्यमवतः पुण्य, ब्रतैमोक्षस्तयोर्व्ययः । "वदसमिदिगुत्तिओ, धम्माणुपिहापरीसहजओ य । अब्रतानीव मोक्षार्थी, व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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