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________________ व्रत : स्वरूप और माहात्म्य (लेखक-क्षुल्लकमणि श्री शीतल सागर महाराज) व्रत के सम्बन्ध में, हमारे ऋषि-महर्षियों के भाव को, “ओला घोर बड़ा निशिभोजन, बाहबीजा बेंगन संधान । कविवर दौलतराम ने छहढाला की चौथी ढाल में कितना बड़ पीपल गूलर कठूम्बर, पाकर जो फल होय अजान ।। सुन्दर लिखा है कदमूल माटी विष आमिष, मधु मक्खन अरु मदिरा-पान । "बारह वन के अतिचार, पन-पन न लगावे। फल अति तुच्छ तुषार चलित रस, जिनमत ये बाईस बखान ।। मरण समय संन्यास धार, तसु दोष नशावे ॥ इन अभक्ष्य-भक्षणरूप बाईस बुराइयो का समावेश भी यों श्रावक व्रत-पाल, स्वर्ग मोलम उपजावे । अपेक्षा से उपरोक्त पंच-पापों मे ही होता है। हाँ हमारे __ तहत चय नर-जन्म पाय, मुनि हो शिव जावे ।।" ऋषि-महर्षियों ने इन्हे जो अलग-अलग बताया है, तो यहाँ इस छन्द मे अतिचार-सहित बारह वतो का अपेक्षा से इनका अलग-अलग त्याग करना-कराना होता है। पालन करने वाले तथा निर्दोष सल्लेखना व्रत को धारण पाप या बुराई का त्याग कर अपने को शुभ-कार्यों में करने वाले श्रावक की महिमा का गुणगान किया है, कि सलग्न करने की प्रतिज्ञा लेने को भी व्रत कहते है क्योकि ऐसा श्रावक पहले तो सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है पापों का त्याग किये बिना कोई भी जीवात्मा, शांतिपथ एवं फिर मनुष्य-जन्म धारण कर व मुनिव्रतो को अंगी. का पथिक नही हो सकता। शांतिथ का पथिक होने के कार करके मोक्ष को प्राप्त करता है। लिए, सांसारिक विषय-वासनाओ से भी मुख मोड़ना व्रतो के धारण-पालन का इतना महान जब महत्त्व पड़ता है। इतना ही नही अपितु एकाग्रचित्त होकर सच्चेहै, तब क्यों नही हम इस विषय को विशेष रूप में समझे। देवशास्त्र गरु और सात तस्वो को भी ठीक-ठीक समझना अर्थात् अवश्य ही इस विषय को समझने की कोशिस करना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र के ही अध्याय मान, सूत्र अठारह मे हाँ तो वन कहिए या सयम अथवा सदाचार-सच्चरित्र निकाल्यो वनी' लिखकर आचार्यश्री दे यह चेतावनी दी या सम्यक्चारित्र; एक ही बात है। श्री उमास्वामी सूरि है कि मात्र व्रतो को धारण कर लेने से अपने को व्रती ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय मात सूत्र संख्या एक में व्रत की । मत समझ बैठना; क्योकि वनी-संज्ञा वास्तव मे शल्य परिभाषा इस प्रकार की है रहित होने पर ही होती है। वे शल्य, माया, मिध्यात्व "हिंसाऽनतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिवंतम् ।" और निदान के रूप में तीन है। एक कवि ने लिखा है अर्थात् हिंगा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह; इन "सयम की सीमा मत तोड़ो, अधे होकर तुम मत दौड़ो। पाच पापों का त्याग करना, व्रत कहलाता है। शाश्वत सुखकी है यह औषधि, तुम मब इससे नाता जोड़ो॥" यहाँ आचार्य श्री ने मुख्य रूप से पाच पापों के त्याग चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से जो सयम-प्रत धारण को व्रत कहा है। परन्तु यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि नही कर सकते ऐसे मम्यग्द्रष्टियों के विषय मे कवि दौलतइन पांचों-पापों के अन्तर्गत, संसार के अन्य जितने भी राम जी ने एक भजन में लिखा हैपाप-बुराइयाँ हैं, वे सब इनमे गभित हो जाते है । जैसे- "चिन्मूरति द्रगधारी की, मोहि रीति लगत है अटापटी। "जुआ खेलना मास मद, वेश्यागमन शिकार। सयम धर न सके पै संयम, धारणकी उर चटापटी ॥" चोरो पररमणी-रमण, सातों सन विचार ।।" संसार के सभी धर्मों सम्प्रदायों ने व्रत-सयम को अपेक्षा से इन जुआ खेलना आदि सात-व्यसनों का किसी न किमी रूप में स्वीकार किया ही है, क्योंकि व्रत समावेश उक्त पापों में ही होता है । इसी प्रकार- ही प्रत्येक धर्म की मूल-जड़ कहो या नीव-आधारशिला
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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