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________________ जरा-सोचिए ! १. क्या जैन जिन्दा रह सकेगा? वहां झलकता है। आप देखें-ये जो कई श्रावक हैं, पण्डित है, त्यागी और नेता है, इनमें कितने, किस अंश जैसे चन्द लोग इकट्ठे होते है और आकाश गुंजाने में मलीनता, बनावट और दिखावे से कितनी दूर है ? जो को जोर से नारा लगाते हैं-'जैन धर्म की जय ।' नारे इनमे जैन हो । क्या कहें ? आज तो त्याग की परिभाषा से आकाश तो गंजता है, पर, क्षण भर मे वह गूज कहा भी बदली जैसी दिखती है । त्याग तो जैन बनने का सही विलीन हो जाती है ? इसे सोचिए : कही वह अस्तित्व मार्ग है और वह मार्ग अन्तरग व बहिरंग दोनो प्रकार के रखते हुए भी अरूपी भाकाश में तो नही समा जाती। परिग्रहो को कृश करने और परिग्रहो के अभाव मे मिलता इसी प्रकार आज जैन को ढूढना भी मुश्किल है, वह भी है । अर्थात् परिग्रह की जिस स्थिति को छोडकर व्यक्ति चूर-चूर होकर बिखर चुका है ? शायद कही वह भी तो घर से चला हो उस स्थिति की अपेक्षा पारग्रह मे हीनता अरूपी आकाश में नहीं समा गया ? देखिए, जरा गौर होते जाना त्याग की सच्ची पहचान है । पर, आज तो से-यदि ज्ञान-दीपक लेकर ढढ़ें तो शायद मिल जाय ! परिस्थिति अधिकाश ऐसी है कि-जो पुरुष दीक्षा--- आप किसी मन्दिर में जाइए वहां आप समवमरण नियम से पूर्व किमी झोपड़ी, साधारण से सुविधारहित के कीमती से कीमती वैभव को देख सकेगे, पाषाण-निर्मित कच्चे-पक्के घर मे रहता था वह त्यागी नामकरण होने के प्रतिबिम्बों को देख सकेंगे-वे विम्ब चादी, सोने, हीरे वाद सुन्दर, स्वच्छ सुविधायुक्त मकानों, कोठियो, बगलो और पन्नों के भी हो सकते है, आप आसानी से देख और यहां तक कि वह बकिंघम पैलेस जैसे महलों में रहने सकेंगे। पर, जन आपको अपनी आंखो या भावों में कदाचित् के स्वप्न देखता और वैसे प्रयत्न करता है। जिसे दीक्षा ही दिखे। से पूर्व ख्याति, पूजा-प्रतिष्ठा की चाह न थी, वह उत्सवो, ऐसे ही किसी त्यागी समाज मे जाकर देखिए, यहा कार्यक्रमों आदि के बहाने बडे-बड़े पोस्टगे मे बड़ी-बड़ी आपको लाल, गेरुआ, पीत, श्वेत या दिगम्बर चोला तो पदवियों सहित अपने नाम-फोटो और वैसी किताब छपाना दिखेगा, पर, जिसे आप खोज रहे है बह 'जन' न चाहता-छपाता है। जिसे दीक्षा पूर्व लोग जानते भी न मिलेगा । ऐसे ही किसी पण्डित के पास जाइए-~-उमे थे-कोने मे बैठा रहता हो वह दीक्षा के बाद सिंहासनासुनिए : आपको सिद्धान्त और आगम की लम्बी-चौडी रूह होकर सभाग्रो मे अपने जयकारे चाहता है। जो घर व्याख्याएं मिलेंगी, बिया-काण्ड मिलेगा पर, जैन' के से सीमिन परिवार का मोह त्याग, वैराग्य की ओर बढ़ा दर्शन वहाँ भी मुश्किल से हो सकेंगे। धन-वैभव मे तो था वह उपकार के बहाने सीमित की बजाय श्रावकजैन के मिलने का प्रश्न ही नही-जहा लोग आज श्राविका और मठ-साहूकारो जैसे बड़े परिवारों के फेर मे खोजते हैं। फंस जाता है, उपके वैभव से घिर जाता है । ये सब तो आप पूछेगे भला, वह जैन क्या है, जिसे देखने की पाप ग्रहण करने के चिन्ह हैं और ग्रहण करने मे जैन कहां? बात कर रहे हैं ? आखिर, उस जैन को कहाँ देखा जाय? जैन तो उत्तरोत्तर त्याग मे है, आकिवन्य मे है । हो, तो सुनिए सच्चे त्यागी होंगे अवश्य-उनको खोजिए, जहाँ वे हों, ___ 'जन' आत्मा का निर्मल, स्वाभाविक रूप है, वह जाइए और नमन कीजिए, इसमे आपका भी भला है। सरल-आत्माओं के भावों और आचार-विचारों में मुखरित श्रावकों की मत पूछिए, वे भी कहाँ, कितने है ? होता है। जहां मनीनता, बनावट और दिखावा न हो. होंगे बहुत थोड़े कही--किन्ही आकाश प्रदेशों मे, श्रद्धा
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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