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________________ मोर विवेकपूर्वक श्रावक की दैनिक क्रियाओं में लीन। की अह-पण्डा (बुद्धि) के कारण, उनके सहयोग से मूलवरना, अधिकांश जन समुदाय तो इस पद से अछूता ही आगम-रूप भी बदलाव पर हों तो भी सन्देह नही । हम है-रात्रि-भोजी और मकार-सेवी तक । जिन्हें हम आगम के पक्षपाती हैं। हम नहीं चाहते कि कोई अपनी श्रावक माने बैठे है, तथोचित सर्वोच्च जैसे सम्मान आदि बुद्धि से आगमों में परिवर्तन लाए । हम तो पूर्वाचार्यों की तक दे रहे है, शायद कदाचित् उनमे कुछ श्रावक हो तो चरण-रज-तुल्य भी नही, जो उनकी भाषा मे किन्ही दैनिक क्रियाओं की कसौटी पर कस कर उन्हे देखिए। बहानों से परिवर्तन लाएँ-आचार्यों ने किस शब्द को वरना, वर्तमान वातावरण से तो हम यह ही समझ पाए किस भाव मे कहो, किस रूप में रखा है इसे वे ही हैं कि- इस युग में पैसा ही श्रावक और पैसा ही प्रमुख जानें-इस विषय को आचायों की स्व-हस्तलिखित प्रतियो है-सब उघर ही दौड रहे है। की उपलब्धि पर--सोचा जा सकता है, पहिले नही । पण्डित, 'पण्डा' वाला होता है और 'पण्डा' बुद्धि जैसा हो, विचारें। को कहते हैं-'पण्डा-बुद्धिर्यस्यमः पण्डितः' अर्थात् जिसमें अब रह गए नेता । सो नेताओं को क्या कहें ? वे बुद्धि हो वह पण्डित है। आज कितने नामधारियों में हमारे भी नेता हैं । गुस्ताखी माफ हो, इसमे हमारा वश कैसी बुद्धि है, इसे जिनमार्ग की दृष्टि से सोचिए। जब नहीं। नेता शब्द ही ऐसा बहुमुखी है जो चाहे जिधर जिनमार्ग विरागरूप है तब वर्तमान पीढ़ी मे कितते नाम- मोड़ा जा सकता है-नेता अच्छों के भी हो सकते हैं और धारी, प० प्रवर टोडरमल जी, प० बनारसीदास जी और गिरों के भी-धर्मात्मानो के भी हो सकते है । पर, हम और गुरुवर्य पं० गोपालदास जी बरैया, प० गणेशप्रसाद यहां 'मोक्ष मार्गस्य नेतारं' की नहीं, तो कम से कम जैनवर्णी जैसे सन्मार्ग-राही और अल्प-सन्तोषी है ? जो उक्त समाज और जैन धर्म के नेताओ की बात तो कर ही रहे परिभाषा मे खरे उतरते हो या जो लोकिक लाभों और हैं कि वे (यदि ऐमा करते हों तो) केवल नाम धराने के भयो की सीमा लांघ-बिना किसी झिझक के सही रूप उद्देश्य से दिखावा न कर जनता को धर्म के मार्ग में सही मे जिन वाणी के अनुसा या उपदेष्टा हों ? कडुवा तो रूप में ले चले और स्वप भी तदनुरूप सही आचरण नगेगा, पर, अाज के त्यागी वर्ग की शिथिलता मे कुछ करें। जिससे जैन धर्म टिका रह सके । यदि ऐसा होता पण्डितो, कुछ सेठो या श्रावको का कुछ हाथ न हो-ऐसा है तो हम कह सकेगे-'हा, जैन जिन्दा रह सकेगा। सर्वथा नहीं है। कई लोग हा, मे हाँ करके (भी) मार्ग असलियत क्या है ? जरा-सोचिए - बिगाड़ने मे सहयोगी हो तब भी सन्देह नही। कुछ पंडितो -सम्पादक 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित श्री बाबूलाल जैन, २ अन्सारी रोड, दरियागज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता--भारतीय मुद्रक-गीता प्रिंटिंग एजेंसी न्यू सीलमपुर, दिल्ली-११००५३ स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त विवरण सत्य है। बाबूलाल जैन प्रकाशक
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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